Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
View full book text
________________ समकित-प्रवेश, भाग-5 147 क्षेत्र में नहीं रहते और आत्मा के द्रव्य-गुण-पर्याय में इनका सद्भाव' नहीं है। 2. अनुपचरित असद्भूत व्यवहार नय से शारीर आदि आत्मा के हैं यानि कि इस नय से आत्मा शरीर, द्रव्य-कर्म आदि का कर्ता, भोत्ता, ज्ञाता, दृष्टा कहने में आता है। अनुपचरित का अर्थ होता है- पास के (एक क्षेत्र में रहने वाले) और असद्भूत का अर्थ है- आत्मा में इनका सद्भाव नहीं है। यानि कि शरीर आदि आत्मा के पास के, यानि कि आत्मा के साथ एक क्षेत्र में रहने वाले हैं लेकिन इनका भी आत्मा के द्रव्य-गुण-पर्याय में सद्भाव नहीं है। 3. उपचरित सद्भूत व्यवहार नय से मोह, राग-द्वेष (मिथ्यादर्शनज्ञान-चारित्र) आत्मा के हैं यानि कि इस नय से आत्मा मोह, राग-द्वेष आदि का कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता, दृष्टा है। यहाँ उपचरित का अर्थ है- दुर के व सदभूत का अर्थ है- आत्मा में इनका सदभाव है। यानि कि मोह, राग-द्वेष आदि विकार आत्मा के मूल-स्वभाव से दूर के हैं लेकिन आत्मा की एक समय की पर्याय में इनका सद्भाव होता है। 4. अनुपचरित सद्भूत व्यवहार नय से सम्यकदर्शन-ज्ञानि-चारित्र आदि शुद्ध पर्यायें व ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि गुण-भेद आत्मा के हैं यानि कि इस नय से आत्मा इनका कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता, दृष्टा है। यहाँ अनुपचरित का अर्थ है-पास के और सद्भूत का अर्थ है आत्मा में इनका सद्भाव है। सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र आत्मा के पास के यानि कि स्वभाव-भाव हैं और आत्मा की एक समय की पर्याय में इनका सद्भाव होता है। उसी तरह ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि गुण-भेद स्वयं ही आत्मा के स्वभाव हैं और आत्मा में इनका सद्भाव है। 1.existence 2.actual-nature 3.state 4.attributive-distinctions