Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ 148 समकित-प्रवेश, भाग-5 प्रवेश : स्त्री, पुत्र, मकान, दुकान, शरीर आदि आत्मा से भिन्न होने से और मोह, राग-द्वेष आदि आत्मा की अशुद्ध-पर्याय' होने से उनको व्यवहार नय से आत्मा का कहकर उनको ज्ञेय, श्रद्धेय और ध्येय शुद्धात्मा की सीमा से बाहर रखना तो समझ में आता है लेकिन सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र आदि शुद्ध-पर्यायों को भी व्यवहार नय से आत्मा का कहकर उन्हें ज्ञेय, श्रद्धेय और ध्येय शुद्धात्मा की सीमा से बाहर रखना कहाँ तक उचित (ठीक) है ? समकित : सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र भले ही आत्मा के गुणों की शुद्ध-पर्याय हैं लेकिन हैं तो आखिर पर्याय ही और पर्याय एक समय की यानि कि क्षणिक होने से ज्ञेय, श्रद्धेय, और ध्येय शुद्धात्मा की सीमा से बाहर के समकित : क्योंकि क्षणिक/अस्थिर वस्तु को ज्ञान का ज्ञेय, श्रद्धा का श्रद्धेय और ध्यान का ध्येय बनाने से आकुलता (दुःख) होती है। प्रवेश : जैसे? समकित : जैसे एक व्यक्ति बस के अंदर स्थिर पोल पकड़कर और दूसरा अस्थिर हेंगर (हेडल) को पकड़कर खड़ा होता है। ड्रायवर द्वारा अचानक ब्रेक लगाये जाने पर जिस व्यक्ति ने स्थिर पोल का सहारा लिया है वह गिरने के दुःख से बच जाता है लेकिन जिस व्यक्ति ने अस्थिर हेंगर पकड़ा हुआ है वह गिरकर दुःख पाता है। कहने का मतलब यह है कि जो स्वयं अस्थिर है वह दूसरों को क्या सहारा देंगे? प्रवेश : भले ही सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र क्षणिक (अस्थिर) पर्याय होने से ज्ञेय, श्रद्धेय और ध्येय शुद्धात्मा की सीमा से बाहर हैं। लेकिन ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि अनंत गुण तो शास्वत और शुद्ध हैं, आत्मा के साथ त्रिकाल (हमेंशा/स्थिर) रहने वाले हैं। इन अनंत गुणों का समूह ही तो आत्मा है फिर इन गुणों के भेद को ज्ञेय, श्रद्धेय और ध्येय शुद्धात्मा की सीमा से बाहर क्यों रखा गया है ? 1.impure-states 2.pure-states3.momentary 4.momentary/unstable 5.stable 6.unstable