Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ 11 ज्ञेय-श्रद्धेय-ध्येय (दृष्टिका विषय) ज्ञान, श्रद्धा और चारित्र जीव के गुण होने के कारण अनादिकाल से ही जीव के इन गुणों का कार्य (परिणमन) प्रतिसमय' ही हो रहा है। यानि कि जीव निरंतर (लगातार) ही किसी न किसी पदार्थ को अपने ज्ञान का ज्ञेय, श्रद्धा का श्रद्धेय और ध्यान का ध्येय बना रहा है। लेकिन उसके ज्ञान के ज्ञेय, श्रद्धा के श्रद्धेय और ध्यान के ध्येय स्वयं से भिन्न (जुदा) दूसरे पदार्थ ही होने से यह जीव निरंतर आकुलित/ दुःखी हो रहा है। जिस कारण सच्चे सुख की झलक भी इस जीव को आज तक प्राप्त नहीं हो सकी है। यदि इस जीव को आकुलता/दुःख का अभाव और सच्चे सुख की प्राप्ति करनी है तो उसे अपने ज्ञान का ज्ञेय, श्रद्धा का श्रद्धेय और ध्यान का ध्येय दूसरों से भिन्न स्वयं को ही बनाना होगा। यह हम समझ ही चुके हैं। लेकिन यहाँ स्वयं शब्द किसके लिये प्रयोग किया जा रहा है यह प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है। प्रवेश : वही तो। समकित : इस प्रश्न का उत्तर है कि स्वयं शब्द का अर्थ है- जीव तत्व यानि कि आत्मा। मतलब आत्मा को ज्ञान का ज्ञेय, श्रद्धा का श्रद्धेय और ध्यान का ध्येय बनाने से ही आकुलता/दुःख का नाश और निराकुलता/ सच्चे सुख की प्राप्ति होती है। प्रवेश : आत्मा शब्द में आत्मा की कौन-कौन सी चीजें शामिल हैं ? स्त्री, पत्र, मकान या शरीर या मोह, राग-द्वेष अथवा ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि गुण (भेद)। क्योंकि ये सब आत्मा के ही तो हैं ? समकित : इनमें से कुछ भी नहीं। क्योंकि यह सब किसी न किसी अपेक्षा से 1.continuously 2.glance 3.achieve 4.unanswered 5.soul 6.perspective