Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ समकित-प्रवेश, भाग-5 105 द्रव्य | गुण अशुद्ध पर्याय ज्ञान मिथ्याज्ञान अनात्मज्ञान अज्ञान कुज्ञान श्रद्धा मिथ्याश्रद्धा/ मोह मिथ्यात्व उल्टी मान्यता मिथ्यादर्शन चारित्र मिथ्याचारित्र राग-द्वेष कषाय अशुद्ध भाव जीव क्रोध अनंतानुबंधी मान अप्रत्याख्यान. माया प्रत्याख्यान. लोभ संज्वलन. सुख दुःख विशेष-यह चार्ट प्राथमिक स्तर के विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर बनाया गया है अतः कुछ बातें गौण की गयी हैं। 1. अगृहीत मिथ्याज्ञान को अनात्मज्ञान, अज्ञान, कुज्ञान भी कहा जाता है। 2. अगृहीत मिथ्यादर्शन (मिथ्याश्रद्धा) को मोह, मिथ्यात्व, उल्टी-मान्यता भी कहा जाता है। 3. अगृहीत मिथ्याचारित्र को राग-द्वेष, कषाय, अशुद्ध-भाव भी कहा जाता है। ध्यान रहे यहाँ मिथ्यादृष्टि के राग-द्वेष, कषाय, और अशुद्ध भावों की चर्चा चल रही है, सम्यकदृष्टि के राग-द्वेष/कषाय/अशुद्ध भाव मिथ्याचारित्र नहीं अचारित्र कहलाते हैं। प्रवेश : अगृहीत मिथ्याज्ञान व मिथ्यादर्शन के पर्यायवाची तो समझ में आ गये लेकिन राग-द्वेष, कषाय आदि अगृहीत मिथ्याचारित्र के पर्यायवाची किस प्रकार हैं ? समकित : जैसा कि हमने देखा अगहीत मिथ्याचारित्र का अर्थ होता है स्वयं में लीन नहीं होना। स्वयं में लीन नहीं होना यानि दूसरों में लीन होना। दूसरों में लीन होना यानि दूसरों को अपने अनुसार चलाने (परिणमाने) का भाव।