Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ समकित-प्रवेश, भाग-5 111 प्रवेश : और मोही, रागी-द्वेषी कुगुरुओं की श्रद्धा गृहीत मिथ्याचारित्र है ? समकित : नहीं, जैसे कि हमने पहले देखा कि वह तो गृहीत मिथ्यादर्शन है, गुरू मूढ़ता है। उनके द्वारा बताये गये आचरण (चारित्र, तप') आदि को धारण करना वह गृहीत मिथ्याचारित्र है। प्रवेश : गृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र का स्वरूप तो समझ में आ गया लेकिन इनके बुद्धिपूर्वक त्याग पर इतना जोर क्यों ? समकित : गृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र में फँसकर जीव की दृष्टि बहिर्मुख हो जाती है। जिस कारण से वह अंतर्मुख दृष्टि नहीं कर पाता। अंतर्मुख दृष्टि किये बिना अगृहीत मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र से नहीं छूट पाता बल्कि वह और भी पुष्ट (पक्के) होते जाते हैं। अगृहीत (निश्चय) मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र छूटे बिना निश्चय सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रकट नहीं हो पाते और इनके बिना मोक्ष का मार्ग प्रगट नहीं होता। मोक्ष का मार्ग प्रगटे बिना मोक्ष नहीं होता। मोक्ष के बिना सच्चा सुख नहीं होता और सच्चे सुख को पाना ही तो हम सब का एक मात्र प्रयोजन है। यदि यह प्रयोजन सिद्ध न हो तो धर्म के नाम पर जो कुछ भी हम करेंगे वह निष्फल होगा, इसलिए हमें पहले में पहले गृहीत (व्यवहार) मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्र का त्याग करना चाहिए। प्रवेश : निश्चय सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र को भी समझाईये न। समकित : आज नहीं कला दर्शन शुद्धि से ही आत्मसिद्धि। -गुरुदेवश्री के वचनामृत मैं समझता हूँ कि ऐसा होना दुष्कर है, तो भी अभ्यास सबका उपाय है। -श्रीमद् राजचन्द्र वचनामृत 1.ascetism 2.achieve 3.purpose 4.fulfil 5.fruitless