Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ समकित-प्रवेश, भाग-3 अपने दर्शन गण का घात करता है तब जिस द्रव्य कर्म का उदय मौजूद (निमित्त) होता है उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं। प्रवेश : अरे वाह ! यह तो बहुत ही सरल हो गया। समकित : मोहनीय कर्म- जब जीव अपने खुद के खोटे भावों (मोह, राग-द्वेष) से अपने सुख गुण का घात करता है तब जिस द्रव्य कर्म का उदय मौजूद (निमित्त) होता है उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। अंतराय कर्म- जब जीव अपने खुद के खोटे भावों से अपने वीर्य (बल) गण का घात करता है तब जिस द्रव्य कर्म का उदय मौजूद (निमित्त) होता है उसे अंतराय कर्म कहते हैं। प्रवेश : ज्ञान, दर्शन, सुख व वीर्य (बल) ये तो जीव के गुण हैं। समकित : हाँ, इन चारों कर्मों का संबंध तो जीव के ज्ञान, दर्शन, सुख व वीर्य (बल) गुण के घात से ही तो है इसीलिये इनको घातिया कर्म कहते हैं। प्रवेश : गुणों का घात मतलब? समकित : गुणों की पूर्ण व शुद्ध पर्याय प्रगट नहीं हो पाना ही गुणों का घात है। प्रवेश : ये चार तो हुए घातिया कर्म, बाकी के चार ? समकित : बाकी के चार अघातिया कर्म कहलाते हैं क्योंकि उनका संबंध जीव के गुणों (अनुजीवी गुणों) के घात होने से नहीं है। प्रवेश : तो फिर अघातिया कर्मों का संबंध किससे है ? समकित : सुनो! वेदनीय कर्म- जब जीव अपने भावों के अनुसार अनुकूल या प्रतिकूल संयोगों (स्त्री, पुत्र, मकान, रुपया-पैसा आदि) को पाता है तब जिस कर्म का उदय मौजूद (निमित्त) रहता है उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। 1. according 2.favourable 3.unfavourable