Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ समकित-प्रवेश, भाग-3 समकित : मतलब यह कि यदि जीव यानि कि हम अपने भावकर्म यानि कि मोह, राग-द्वेष को खत्म कर ले तो कोई द्रव्य कर्म का उदय हमें दुःखी नहीं कर सकता। जैसे आत्मज्ञानी मुनिराज को तीव्र' असाता वेदनीय (द्रव्य-कर्म) का उदय होने पर भी मोह, राग-द्वेष आदि भाव-कर्म न के बराबर होने से दुःख नहीं होता बल्कि वे तो उल्टा अतींद्रिय आनंद का वेदन करते प्रवेश : ओह ! सही तो है। यदि कर्म ही जीव को दुःख दें तो द्रव्य कर्म का उदय तो संसारी जीव को हमेंशा ही रहता है, तब तो जीव द्रव्य कर्म का गुलाम बन जाये और कभी सच्चे सुख को पाने का उपाय कर ही न सके। समकित : वाह ! आज तो तुमने मुझे खुश कर दिया। गलती द्रव्य कर्मों की नहीं बल्कि हमारी ही है। प्रवेश : भाईश्री ! जीव के यानि कि हमारे मोह, राग-द्वेष के परिणाम (भाव) तो भाव कर्म हुए, उनके निमित्त से बँधने वाले द्रव्य कर्म कौनसे हैं ? समकित : द्रव्य कर्म मुख्यरूप-से आठ प्रकार के होते हैं: 1.ज्ञानावरणीय कर्म 2.दर्शनावरणीय कर्म 3.मोहनीय कर्म 4.अंतराय कर्म 5.वेदनीय कर्म 6.आयु कर्म 7.नाम कर्म 8.गोत्र कर्म प्रवेश : यह नाम तो बहुत कठिन हैं ? समकित : मैं सरल कर देता हूँ। ज्ञानावरणीय कर्म- जब जीव यानि कि हम अपने खोटे भावों (मोह, राग-द्वेष) से अपने ज्ञान गुण का घात करते हैं तब जिस द्रव्य कर्म का उदय मौजूद (निमित्त) होता है उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। दर्शनावरणीय कर्म- उसीप्रकार जब जीव अपने खुद के खोटे भावों से 1.intense 2.neglible 3.experience 4.mainly 5.faulty6.harm