Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ 96 समकित-प्रवेश, भाग-4 अपने को जानो और अपनी इस दुर्लभ' मनुष्य पर्याय को सार्थक करो। प्रवेश : भाईश्री ! सामान्य गुण तो हो गये। अब विशेष गुणों के बारे में और बता दीजिये। समकित : हमारा अगला विषय यही है। द्रव्य उसे कहते हैं जिसके कार्य के लिये दूसरे साधनों की राह न देखना पड़े। -बहिनश्री के वचनामृत प्रत्येक द्रव्य अपने द्रव्य-गुण-पर्याय से है। जीव, जीव के द्रव्य-गुण पर्याय से है और अजीव अजीव के द्रव्य-गुण-पर्याय से है। इस प्रकार सभी द्रव्य परस्पर असहाय हैं प्रत्येक द्रव्य स्वसहायी है तथा पर से असहायी है। प्रत्येक द्रव्य किसी भी पर द्रव्य की सहायता लेता भी नहीं है और कोई भी पर द्रव्य को सहायता देता भी नहीं है। शास्त्र में ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्' कथन आता है, परन्तु वह कथन उपचार से है। वह तो उस-उस प्रकार के निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का ज्ञान कराने के लिये है। उस उपचार का सच्चा ज्ञान वस्तुस्वरूप की मर्यादा समझ में आये तभी होता है, अन्यथा नहीं होता। -गुरुदेवश्री के वचनामृत तू सत्की गहरी जिज्ञासा कर जिससे तेरा प्रयत्न बराबर चलेगा, तेरी मति सरल एवं सुलटी होकर आत्मा में परिणमित हो जायगी। सत्के संस्कार गहरे डाले होंगे तो अन्त में अन्य गति में भी सत् प्रगट होगा। इसलिये सत्के गहरे संस्कार डाल। सारे दिन में आत्मार्थकों पोषण मिले ऐसे परिणाम कितने हैं और अन्य परिणाम कितने हैं वह जाँचकर पुरुषार्थ की ओर झुकना। चिंतवन मुख्यरूप से करना चाहिये। कषाय के वेग में बहने से अटकना, गुणग्राही बनना। -बहिनश्री के वचनामृत 1.rare 2.utilize