Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ 92 समकित-प्रवेश, भाग-4 जिस तरह उनको धन्धे-व्यापार के पुरुषार्थ का अशुभ राग आये बिना नहीं रहता उसी तरह मोक्ष के पुरुषार्थ का शुभ राग भी आये बिना नहीं रहता, बल्कि बढ़-चढ़ कर आता है। प्रवेश : मतलब मोक्षार्थी जीव कभी भी पुरुषार्थ का लोप नहीं करते? समकित : हाँ, वे ऐसा नहीं करते। ऐसा करने वाले हमेशा भ्रष्ट' और स्वच्छंदी जीव ही होते हैं क्योंकि भ्रष्ट और स्वच्छंदी जीव भगवान की वाणी को शास्त्र नहीं शस्त्र की तरह प्रयोग करते हैं। प्रवेश : और मोक्षार्थी जीव ? समकित : मोक्षार्थी जीव तो शास्त्र में जहाँ जिस अपेक्षा से जो बात कही गयी हो उस बात को वहाँ उस अपेक्षा से ही समझते हैं। छल ग्रहण नहीं करते। इसी को जैन दर्शन का अनेकांतवाद व स्याद्वाद का सिद्धांत कहते हैं। प्रवेश : भाईश्री ! अगुरुलघुत्व आदि सामान्य गुण ? समकित : आज नहीं, आज काफी देर हो चुकी है। भगवान की आज्ञा से बाहर पाँव रखेगा तो डूब जायेगा। अनेकान्त का ज्ञान कर तो तेरी साधना यथार्थ होगी। स्याद्वाद तो सनातन जैनदर्शन है उसे जैसा है वैसा समझना चाहिये। वस्तु त्रैकालिक ध्रुव है उसकी अपेक्षा से एक समय की शुद्ध पर्याय को भी भले ही हेय कहते हैं परन्तु दूसरी ओर, शुभराग आता है-होता है उसके निमित्त देव-शास्त्र-गुरु की श्रद्धा का शुभ राग होता है। भगवान की प्रतिमा होती है उसे जो न माने वह भी मिथ्यादृष्टि है। भले ही उससे धर्म नहीं होता, परन्तु उसका उत्थापन करे तो मिथ्यादृष्टि है। शुभ राग हेय है, दुःखरूप है, परन्तु वह भाव होता है उसके निमित्त भगवान की प्रतिमा आदि होते हैं उनका निषेध करे तो वह जैन दर्शन को नहीं समझा है, इसलिये वह मिथ्यादृष्टि है। -गुरुदेवश्री के वचनामृत 1.corrupt 2.self-willed 3.weapon 4.intention 5.excuse