Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ समकित-प्रवेश, भाग-3 69 तरह सातों प्रकार के भय' एवं उपसर्गों से न डरूँ। और ऐसे सम्यकदर्शन को पाने के लिये मुझे सबसे पहले सात-तत्वों का यानि कि जीव और अजीव का सच्चा ज्ञान करना होगा। और ऐसा तत्वज्ञान करके, मैं शरीर आदि अजीव तत्व नहीं बल्कि जानने-देखने के स्वभाव वाला जीव तत्व हूँ ऐसे भेद-विज्ञान का अभ्यास मैं हर-एक अनुकूल और प्रतिकूल प्रसंग में करूँगा। और आत्मा के आनंद में लीन होने का प्रयास करूंगा। और जब तक मैं स्वयं को जानकर, स्वयं में अपनापन कर पूर्ण रूप से स्वयं में लीन नहीं हो जाता तब तक पंच परमेष्ठी की शरण में रहूँगा। सच्चे वीतरागी गुरु भगवंतों की आज्ञा का पालन करूँगा। जिनवाणी को सुनेगा-पलूंगा और उसका चिंतवन व मनन करूंगा एवं रात्रि भोजन, बिना-छना जल, जमीकन्द आदि का सेवन कभी नहीं करूँगा। और एक दिन जरूर ही स्वयं को जानकर, स्वयं में अपनापन कर और पूर्ण रूप से स्वयं में लीन होकर मोह, राग-द्वेष आदि का अभाव (खातमा) कर अपने आत्मा के गुणों (स्वभाव) को प्रगट करूँगा क्योंकि मुझे मात्र भगवान का भक्त नहीं बना रहना हैं बल्कि स्वयं भगवान बनना है। क्योंकि यही भगवान की आज्ञा है और भगवान की आज्ञा को मानने वाला ही भगवान का सच्चा भक्त है। इस प्रकार जब मैं भगवान बनने का प्रयास शुरु करूँगा तो भगवान का सच्चा भक्त तो अपने-आप ही बन जाऊँगा। भगवान की प्रतिमा देखकर ऐसा लगे कि अहा ! भगवान कैसे स्थिर हो गये हैं ! कैसे समा गये हैं ! चैतन्य का प्रतिबिम्ब हैं ! तू ऐसा ही है ! जैसे भगवान पवित्र हैं, वैसा ही तू पवित्र है, निष्क्रिय है, निर्विकल्प है। चैतन्य के सामने सब कुछ पानी भरता है। -बहिनश्री के वचनामृत 1. fears 2.contrarities 3.seven-elements 4.incidents 5.roots/yams 6.devotee 7.efforts