Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ जिनवाणी स्तुति वीर हिमाचलते निकसी, गुरु गौतम के मुख कुंड ढरी है / मोह महाचल भेद चली, जग की जड़ता तप दूर करी है / / ज्ञान पयोनिधि माँहि रली, बहु भंग तरंगनिसों उछरी है / ता शुचि शारद गंगा नदी प्रति, मैं अंजुलि कर शीश धरी है / / या जगमंदिर मे अनिवार, अज्ञान अंधेर छयो अति भारी / श्री जिन की धुनि दीपशिखा सम, जो नहिं होत प्रकाशन हारी / / तो किस भांति पदारथ पांति, कहाँ लहते रहते अविचारी / या विधि संत कहें धनिं है, धनिं हैं जिन वैन बड़े उपकारी / / सारांश - यह जिनवाणी की स्तुति है। इसमें दीपशिखा' के समान अज्ञान अंधकार को नाश करने वाली पवित्र जिनवाणी-रूपी गंगा को नमस्कार किया गया है। जिनवाणी अर्थात जिनेन्द्र भगवान द्वारा दिया गया तत्वोपदेश', उनके द्वारा बताया गया मुक्ति का मार्ग। हे जिनवाणी-रूपी पवित्र गंगा ! तुम महावीर भगवान रूपी हिमालय पर्वत से प्रवाहित होकर गौतम-गणधर के मुखरुपी कुण्ड में आई हो। तुम मोहरूपी महान पर्वतों को भेदती हुई जगत के अज्ञान और ताप (दुःखो) को दूर कर रही हो। सप्तभंगी-रूप-नयों की तरंगों से उल्लसित होती हुई ज्ञानरूपी समुद्र में मिल गई हो। ऐसी पवित्र जिनवाणी-रूपी गंगा को मैं अपनी बुद्धि और शक्ति अनुसार अंजलि में धारण करके शीश पर धारण करता हूँ। इस संसार रूपी मंदिर में अज्ञान रूपी घोर अंधकार छाया हुआ है। यदि इस अज्ञान अंधकार को नष्ट करने के लिए जिनवाणी रूपी 1.lamp-flame 2.darkness of ignorance 3.preachings 4. flow 5.pond 6.mountains 7.seven-perspectives 8.waves 9. forehead