Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
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________________ समकित-प्रवेश, भाग-3 प्रवेश : अरे ! यह तो कभी सोचा ही नहीं। यह तो वाकई सबसे बुरी आदत यानि कि सबसे बड़ा व्यसन है। समकित : हाँ, इनको अंतरंग' या भाव-व्यसन कहते हैं और तुमको पता है कि इन्हीं भाव व्यसनों के कारण जुआ आदि बहिरंग या द्रव्य-व्यसनों के सेवन के भाव होते हैं। प्रवेश : वो कैसे? समकित : हमने देखा न कि मोह (मिथ्यात्व), राग-द्वेष (कषाय) आदि ही भाव व्यसन हैं। इन मोह, राग आदि की तीव्रता के कारण ही तो जुआ आदि द्रव्य व्यसनों के सेवन का भाव होता है। प्रवेश : अरे हाँ ! सातों व्यसनों को डीटेल में समझाईये न ? समकित : हार-जीत को ध्यान में रखकर रुपये-पैसे, प्रॉपर्टी आदि से दाव या शर्त लगाकर कोई भी खेल खेलना या काम करना द्रव्य जुआ व्यसन है। जुआ खेलने वाला व्यक्ति हमेंशा ही फायदे की उम्मीद से या नुकसान के डर से आकुलित (अशांत) रहता है। उसका दिन का चैन व रात की नींद उड़ी रहती है। प्रवेश : हाऊजी (तम्बोला) भी तो पैसे लगाकर खेलते हैं, वह भी जुआ है ? समकित : हाँ, बिल्कुल। मार कर या स्वयं मरे हुए जीवों के शरीर के अंगो को खाना यह द्रव्य माँस भक्षण (खाना) व्यसन है। प्रवेश : ओह ! और मदिरापान तो शराब पीने को कहते हैं न ? समकित : शराब और शराब जैसी दूसरी नशीली चीजें जैसे बियर, भांग, गांजा, आदि लत लगने बाली चीजों का सेवन द्रव्य मदिरापान व्यसन है। वेश्या से प्रेम करना, उसके पास जाना यह द्रव्य वेश्यागमन व्यसन है। प्रवेश : और शिकार खेलना मतलब हंटिंग न ? 1.internal 2.external 3.gambling 4.peace 5.hunting