Book Title: Samkit Pravesh - Jain Siddhanto ki Sugam Vivechana
Author(s): Mangalvardhini Punit Jain
Publisher: Mangalvardhini Foundation
View full book text
________________ समकित-प्रवेश, भाग-3 मोह, राग-द्वेष से रहित हो और सर्वज्ञ उन्हें कहते हैं जो लोकालोक के समस्त पदार्थों' को एकसाथ जानते हों। वही आत्महित का उपदेश देने वाले होने से हितोपदेशी कहलाते हैं। वीतराग भगवान से प्रार्थना करता हुआ भव्य जीव सबसे पहले यही कहता है कि मैं मिथ्यात्व का नाश और सम्यकज्ञान को प्राप्त करूँ क्योंकि मिथ्यात्व का नाश किये बिना धर्म की शुरुआत ही नहीं हो सकती। इसके बाद वह अपनी भावना व्यक्त करता हुआ कहता है कि मेरी प्रवृत्ति पाँचों पापों और कषायों में न जावे। मैं हिंसा न करूँ, झूठ न बोलूँ, चोरी न करूँ, कुशील सेवन न करूँ तथा लोभ वश परिग्रह संग्रह न करूँ, सदा संतोष धारण किये रहूँ और मेरा जीवन धर्म की सेवा में लगा रहे। हम धर्म के नाम पर फैलने वाली कुरीतियों को दूर कर के धार्मिक क्षेत्र में सही परम्पराओं का निर्माण करें तथा परस्पर में वात्सल्य रखें। हम सुख में प्रसन्न होकर फूल न जावें और दुःख को देखकर घबरा न जावें, दोनों ही दशाओं में धैर्य से काम लेकर समताभाव' रखें और न्यायमार्ग पर चलते हुए लगातार आत्मबल में वृद्धि" करते रहें। आठों ही कर्म दुःख के निमित्त हैं, कोई भी शुभ-अशुभ कर्म सुख का कारण नहीं हैं, अतः हम उनके नाश का उपाये करते रहें। आपका स्मरण" सदा रखें जिससे सन्मार्ग में कोई विघ्न न आवें। हे भगवन् ! हम और कुछ भी नहीं चाहते हैं, हम तो सिर्फ यही चाहते हैं कि हमारी आत्मा पवित्र हो जावे और उसे मिथ्यात्व आदि पापरूप मैल कभी भी मैला न करें तथा हमारा तत्वज्ञान लगातार बढ़ता रहे। हम सभी भव्य जीव हाथ जोड़कर आपको नमस्कार कर रहे हैं, आपके चरणों की शरण में आ गये है, अब हमारी भावना जरूर ही पूरी होगी। 1.substances2.feelings 3.express4.satisfaction 5.malpractices6.establishment 7.mutual-devotion 8. patience 9.equanimity 10.right-path 11.increment 12. formal-cause 13.remembrance 14.right-path