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महावीर : मेरी दृष्टि में
जोर से अंधे की तरह कुछ पकड़ लिया तो तुम कभी भी कुछ नहीं खोल पाओगे ! इसलिए पकड़ना मत ।
जो मैं निरन्तर कह रहा हूँ उसका कुल मतलब, इतना है कि शास्त्र को पकड़ना मत । पढ़ना, पकड़ना मत; सुनना किसी को लेकिन बहरे मत हो जाना; पढ़ो, अंधे मत हो जाना ! सुनना और पूरी तरह जानते हुए सुनना कि सुनने से क्या हो सकता है । ओर, मैं कहता हूँ कि अगर इस तरह सुना तो सुनने से भी हो सकता है। पढ़ने से क्या हो सकता है ? अगर ऐसा जानते हुए पढ़ा तो पढ़ने से भी हो सकता है। हो सकने का मतलब यह कि वह भी निमित्त बन सकता है तुम्हारी भीतर की यात्रा का । कोई भी चीज निमित्त बन सकती है । लेकिन अंधे होकर पकड़ लेने से सब बाधा हो जाती है। पढ़ो; सुनो ! लेकिन प्रत्येक क्षण यह जानते रहो कि खोज मेरी है और मुझे करनी होगी। इसमें बासा और उधार सत्य नहीं ले सकता है । यह अगर स्मरण रहे तो मैं
जो कह रहा हूँ वह तुम्हारे लिए बाधा नहीं बनेगा । नहीं तो वह भी बाधा
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बन जाएगा ।
अब तुमने देखा खजुराहो का मन्दिर । जिनकी समझ में बात आई उन्होंने कितनी मेहनत से खोदने की कोशिश की है । मन्दिर के बाहर की दीवार पर सारी सेक्स, सारी काम और योनि सब खोद डाला है । बड़ी अद्भुत बात खोदी है पत्थर पर । लेकिन भीतर मन्दिर में नहीं है सेक्स का कोई चित्र । सब बाहर की परिधि पर खोदा गया है । बोर मतलब यह है सिर्फ कि जीवन की बाहर
मन्दिर के भीतर
की परिधि 'सेक्स' से बनी है, काम से बनी हैं । और अगर
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जाना है तो इस परिधि को छोड़ना पड़ेगा । मन्दिर के बाहर ही रहना हो तो
ठीक है, यही चलेगा । 'काम' जीवन की बाहर की दीवार है और 'राम' भीतर मन्दिर में प्रतिष्ठित है । जब तक काम में उलझे हो तब तक भीतर नहीं जा सकोगे । लेकिन अगर सारे मैथुन चित्रों को कोई घूमता हुआ देखता रहे तो कितनी देर देखता है । फिर थक जाता है, फिर ऊब जाता है, फिर कहता है कि अब मन्दिर में अन्दर चलो। और अन्दर जाकर बड़ा विश्राम पाता है क्योंकि वहाँ पर एक दूसरी दुनिया शुरू होती है । जब जीवन की अनन्त यात्राओं में थक जाएँगे हम, सैक्स के जीवन से बाहर घूम-घूमकर, तब एक दिन मन कहेगा कि अब बहुत हुआ; अब बहुत देखा; अब बहुत समझा; अब भीतर चलो । इस तथ्य को पत्थर में खोद कर छोड़ दिया किन्हीं ने, जिन्होंने जाना उन्होंने छोड़ दिया। अनुभव से यह बात उनको दिखाई पड़ी कि दो ही तरह का