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कर्मों का आमव : स्वरूप और भेद ५५१ अन्य दर्शनों में भी आस्रव और उसके कारणों का उल्लेख
जैनकर्म-विज्ञान में आम्नव या आश्रव को भव-भ्रमण का, एवं बन्ध का पूर्वकारण माना गया है, वैसे ही बौद्धदर्शन में भी आसव को भव (संसार-परिभ्रमण) का हेतु माना गया है। बौद्ध धर्मग्रन्थों में जैनागमों की तरह आसव (आसव) शब्द का प्रयोग लगभग समान अर्थ में हुआ है। इसे देखकर एस. सी. घोषाल आदि कुछ विचारकों ने यह अभिप्राय व्यक्त किया है कि 'आसव' शब्द बौद्धधर्म में जैनधर्म से लिया गया है। किन्तु ऐसा सोचना ठीक नहीं है। जैन और बौद्ध दोनों श्रमण-परम्परा के धर्म हैं। दोनों में एक ही अर्थ के द्योतक कई शब्द और प्रचलित थे।
जैसे-जैनों में प्रचलित ‘पौषध' शब्द वहाँ 'उपोसथ' नाम से प्रचलित था। 'प्रमाद' शब्द भी उसी अर्थ में, उसी भाव का अभिव्यंजक था। दोनों श्रमण परम्पराओं में कतिपय शब्दों की व्याख्या अपने-अपने ढंग की थी।
जैन परम्परा में ही आचारांगसूत्र को लीजिए, उसमें कतिपय शब्द ऐसे आए हैं, जिनकी व्याख्या पूर्वापर आचार्यों, नियुक्तिकारों, चूर्णिकारों एवं वृत्तिकारों ने अलगअलग ढंग से की है।
बौद्ध परम्परा में 'आसव' (आसव) शब्द की व्याख्या इस प्रकार की गई है जो आसव अर्थात् मद्य के समान मत्त बनाकर ज्ञान का विपर्यय कर देता है, वह आसवआम्नव कहलाता है। जिससे संसार के जन्म-मरणादिरूप दुःख का चारों ओर से प्रसव (जन्म) होता है, वह आसव (आम्रव) है।
बौद्धदर्शन में तीन तथा अभिधम्मत्थकोश के अनुसार चार प्रकार के आसव माने - · गए हैं-(१) काम, (२) भव, (३) अविद्या और (४) दृष्टिा' ये चारों आसव के कारण
होने के कारण इन्हें ही जैनदर्शन-मान्य मिथ्यात्व आदि की तरह आस्रव मान लिया। जैनदर्शन में मिथ्यात्व आसव है, उस अर्थ में यहाँ अविद्या है। जैनदर्शन में अविरति है,
उसी प्रकार यहाँ 'दृष्टि' शब्द है, जो चारित्रमोह की वृत्ति के अर्थ में है। जैन दर्शनमान्य .. प्रमाद को जैसे आसव का हेतु माना गया है, वैसे बौद्ध धर्मग्रन्थ 'धम्मपद' में भी ‘प्रमाद'
. को आसव का हेतु बताया गया है। जैनदर्शन में 'कषाय' एवं इन्द्रिय-विषयों के प्रति - राग-द्वेष को आसव के कारण बताये गये हैं, वैसे ही बौद्धदर्शन में उस अर्थ में 'काम'
(ग) वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम या क्षय से तथा पुद्गलों के आलम्बन से होने वाले आत्मप्रदेशों के परिस्पन्द (कम्पन व्यापार) को योग कहते हैं।
-तत्त्वार्थसूत्र (पं. सुखलालजी) १. (क) बौद्धधर्म-दर्शन पृष्ठ २४५ .... (ख) संयुत्तनिकाय ३६/८, ४५/५/१0, ४३/७/३ ...२. धम्मपद गा. २९२
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