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अवांछनीय कर्मों का अस्वीकार या उपेक्षा किस प्रकार हो ?
मूल बात यह है कि अवांछनीय कर्मों को अपने मन-वचन-काया से सर्वथा अस्वीकृत, या उपेक्षित कर दिया जाए या उनके साथ मन इन्द्रियों तथा तन-वचन से असहयोग कर दिया जाए तो उन अवांछनीय अशुभ कर्मों को वापस ही लौटना पड़ेगा, वे आत्म प्रदेशों में प्रविष्ट नहीं हो सकेंगे। व्यक्ति के मन-वचन और काया के दरवाजे और इन्द्रियों की खिड़कियाँ बन्द हों तो अवांछनीय कर्म प्रवेश करने का साहस नहीं करेंगे। अर्थात् उनके साथ कषायों और राग-द्वेष-मोह का कालुष्य न मिलाया जाए तो वे आत्मा के प्रति ही वफादार रहेंगे, आत्मा में प्रतिसंलीन होकर रहेंगे, अन्यत्र दौड़ेंगे ही नहीं, फिर अशुभ कर्मों या सभी कर्मों के आने का खतरा भी टल जाएगा। आत्मा (व्यक्ति) की ओर से अस्वीकृति की प्रखरता हो तो कोलाहल की तरह अन्यान्य अवांछनीय तत्त्वों या अशुभ कर्मों को या बन्धक कर्मों को भी वापस लौटाया जा सकता है, भले ही उनका अस्तित्व अपनी जगह बना रहे।
कर्मों का आनव : स्वरूप और भेद ५४९
व्यक्तित्व को ढिलमिल या दुर्बल न बनाएँ
अपना व्यक्तित्व ढिलमिल हुआ या अपने विविध योग दुर्बल एवं कायर होंगे तो कर्मों का चारों ओर से आक्रमण हो सकता है, कर्म चारों ओर से खिंचे चले आ सकते हैं। तन-मन-वचन की दुर्बलता या कर्मों के स्रोतों के प्रति असावधानता या अजागरूकता होगी तो अवांछनीय कर्म झटपट चढ़ दौड़ेंगे। पानी का ढलान निचाई की ओर तीव्र गति से होता है, ऊँचाई होने पर पानी का अपने आप चढ़ पाना कठिन होता है।' इसी प्रकार व्यक्ति (आत्मा) का अपना चिन्तन-मनन तथा तन-मन-वचन पर अनुशासन सुदृढ़ हुआ, अपना चरित्र उच्च हुआ तो आकाशीय या पारिपार्श्विक वातावरण में घूमते हुए अशुभ कर्मों के परमाणु न तो आकृष्ट या प्रविष्ट होंगे और न ही कोई क्षति पहुँचा सकेंगे।
कर्म उसी व्यक्ति के आत्मप्रदेशों में प्रविष्ट या आकृष्ट हो सकेंगे, जिसके तन-मनवचन पर राग-द्वेषादि की स्निग्धता होगी, चारित्रिक दुर्बलता होगी या किसी भी प्रवृत्ति के समय असावधानता (प्रमत्तता ) होगी।
कर्मों के आनव के दो प्रकार और उनका कार्य
राग-द्वेष रहित केवलज्ञानी या तीर्थंकर भी शरीरधारी होने के नाते अपनी आवश्यक प्रवृत्तियाँ करते हैं-तन-मन-वचन से; और एक सामान्य व्यक्ति भी अपने तन-मन-वचन से मनचाही प्रवृत्तियाँ करता है, तथा एक वीतरागता प्रेमी मुमुक्षु साधक भी यत्नाचारपूर्वक समस्त दैनिक आवश्यक प्रवृत्तियाँ करता है।
अखण्ड ज्योति अक्टूबर १९७८ से पृष्ठ ४०
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