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५४८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) लिया जाता है। रेलगाड़ियाँ पटरी पर जाती-आती रहती हैं। वहीं अत्यन्त निकट ही कई झोंपड़े तथा मकान होते हैं, उनमें रहने वाले गहरी नींद सोते रहते हैं और गाड़ियाँ धड़धड़ाती हुई दौड़ती रहती हैं। कभी-कभी उन्हें समय पर कहीं जाना होता है, या ट्रेन पकड़नी होती है, तो रेलगाड़ियों के आने-जाने के साथ आवश्यकतानुसार समय का . . तालमेल भी बिठा लेते हैं।
सामान्यतया देखा जाता है कि जरा-सी खट-खट से या कोलाहल से व्यक्ति की नींद उचट जाती है, वह जाग जाता है, किन्तु बड़े-बड़े कल-कारखानों या सिनेमाघरों के आस-पास रहने वाले लोग उस कोलाहल की उपेक्षा करके सामान्य रीति से अपना अभीष्ट कार्य करते रहते हैं, गहरी नींद भी ले लेते हैं।' मशीनों पर काम करने वाले कर्मचारी अवकाश पाकर वहीं पास में ही कहीं लेट जाते हैं और गहरी नींद की जरूरत पूरी कर लेते हैं। कोलाहल अपना काम करता रहता है, और नींद अपनी जगह काम करती है।
नदियों और झरनों के किनारे लगातार तीव्र ध्वनि होती रहती है, किन्तु वहाँ के पर्वतीय निवासी उससे कोई असुविधा या अपने दैनिक कार्य-कलापों में कोई रुकावट महसूस नहीं करते। बल्कि कई कलाकार, कवि या चित्रकार तो झरनों और नदियों के पास रहकर उनकी ध्वनि से अपनी कविताओं या चित्रों में कमनीय कल्पना करके अपनी कला को सजीव बना लेते हैं। इसे तालमेल बिठाना कह सकते हैं, और अवांछनीय विषयों से मुख मोड़ना या उन्हें अस्वीकृत करना भी कह सकते हैं। अशुभ कार्यों का अस्वीकार, शुभकार्यों के साथ तालमेल :क्यों और कैसे ? ___ इसी प्रकार कर्मचेतना और कर्मफलचेतना पर ध्यान न देकर सिर्फ ज्ञानचेतना पर दृष्टि रखी जाए, ज्ञाता द्रष्टा बनकर रहा जाए, प्रत्येक पदार्थ, परिस्थिति या व्यक्ति के साथ अपने मन को राग-द्वेष से न जोड़ा जाए, अपनी इन्द्रियों को उस ओर आकर्षित न किया जाए, अपने वचन पर भी अंकुश रखा जाए, उस ओर से तटस्थ, उदासीन या केवल प्रेक्षक रहा जाए, तो कर्मपुद्गल चाहे वातावरण में बने रहें, चाहे वे अपने आस-पास वायुमण्डल में घूमते रहें, वे आकर्षित होकर उक्त व्यक्ति के आत्म प्रदेशों में प्रविष्ट नहीं हो पाएँगे। कदाचित् वांछनीय शुभकर्मों के साथ तालभेल बिठाने की आवश्यकता हो, तो व्यक्ति अपने मन-वचन-काया की प्रवृत्ति को शुभयोगपूर्वक तात्कालिक कर्तव्य निर्वाह के लिए कर सकता है, उससे शुभ कर्मों का ही आसव आ पाएगा। अशुभ आसव-अवांछनीय कर्मों के आगमन या प्रवेश से छुटकारा हो जाएगा।
१. अखण्ड ज्योति, अक्टूबर १९७८, पृष्ठ ३९-४०
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