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प्रास्ताविक
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सम्पन्न हो सकती है | चारित्र की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त का व्यवहार अनिवार्य है । सापेक्ष प्रायश्चित्तदान से होने वाले लाभ एवं निरपेक्ष प्रायश्चित्तदान से होनेवाली हानि का विचार करते हुए कहा गया है कि प्रायश्चित्त देते समय दाता के हृदय में दयाभाव रहना चाहिए । जिसे प्रायश्चित्त देना हो उसकी शक्ति - अशक्ति का पूरा ध्यान रखना चाहिए । प्रायश्चित्त के विधान का विशेष निरूपण करते हुए भाष्यकार ने प्रसंगवशात् भक्तपरिज्ञा, इंगिनीमरण तथा पादपोपगमनरूप मारणांतिक साधनाओं का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है । आलोचना, प्रतिक्रमण, मिश्र, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, मूल, अनवस्थाप्य और पारांचिकइन दस प्रकार के प्रायश्चित्त का स्वरूप बताते हुए तत्सम्बन्धी अपराध - स्थानों का भी वर्णन किया गया है । प्रतिक्रमण के अपरात्र - स्थानों का वर्णन करते हुए आचार्य ने अर्हन्नक, धर्मरुचि आदि के उदाहरण भी दिये हैं । अन्त में यह भी बताया है कि अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त का सद्भाव चतुर्दशपूर्वधर भद्रास्वामी तक ही रहा । तदनन्तर इन दोनों प्रायश्चित्तों का व्यवहार बन्द हो गया ।
बृहत्कल्प - लघुभाष्य :
यह भाष्य बृहत्कल्प के मूल सूत्रों पर है । इसमें पीठिका के अतिरिक्त छ : उद्देश हैं । प्राचीन भारतीय संस्कृति की दृष्टि से इस भाष्य का विशेष महत्त्व है । जैन श्रमणों के आचार का सूक्ष्म एवं सतर्क विवेचन इस भाष्य की विशेषता है । पीठिका में मंगलवाद, ज्ञानपंचक, अनुयोग, कल्प, व्यवहार आदि पर प्रकाश डाला गया है । प्रथम उद्देश की व्याख्या में ताल-वृक्ष से सम्बन्धित विविध दोष एवं प्रायश्चित्त, टूटे हुए ताल- प्रलम्ब अर्थात् ताल वृक्ष के मूल के ग्रहण से सम्बन्धित अपवाद, निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों के देशान्तर -गमन के कारण और उसकी विधि, श्रमणों की रुग्णावस्था के विधि-विधान, वैद्य और उनके प्रकार, दुष्काल आदि के समय श्रमण श्रमणियों के एक-दूसरे के अवगृहीत क्षेत्र में रहने की विधि, ग्राम, नगर, खेड, कर्बटक, मडम्ब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, संबाध, घोष, अंशिका, पुटभेदन, शंकर आदि पदों का विवेचन, नक्षत्रमास, चंद्रमास, ॠतुमास, आदित्यमास और अभिवर्धितमास का स्वरूप, मासकल्पविहारी साधु-साध्वियों का स्वरूप एवं जिनकल्पिक और स्थविरकल्पिक की क्रियाएँ, समवसरण की रचना, तीर्थंकर, गणधर, आहारकशरीरी, अनुत्तरदेव, कर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि की शुभाशुभ कर्म - प्रकृतियाँ, तीर्थंकर की एकरूप भाषाका विभिन्न भाषारूपों में परिणमन, आपणगृह, रथ्यामुख, शृङ्गाटक, चतुष्क, चत्वर अंतरापण आदि पदों का व्याख्यान एवं इन स्थानों पर बने हुए
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