________________
प्रास्ताविक ३. आषाढभूति, ४. अश्वमित्र, ५. गंग, ६. रोहगुप्त-षडुलूक, ७. गोष्ठामाहिल, ८. शिवभूति । भगवान् महावीर को केवलज्ञान होने के १४ वर्ष बाद प्रथम तथा १६ वर्ष बाद द्वितीय निह्नव हुआ। शेष निह्नव क्रमशः महावीर-निर्वाण के २१४, २२०, २२८, ५४४, ५८४ और ६०९ वर्ष बाद हुए। इनकी मान्यताएँ आठ प्रकार के निह्नववाद के रूप में प्रसिद्ध है। अपने अभिनिवेश के कारण आगमिक परंपरा से विरुद्ध तत्व-प्रतिपादन करनेवाला निह्नव कहलाता है । अभिनिवेशरहित अर्थ-विवाद निह्नववाद की कोटि में नहीं आता क्योंकि इस प्रकार के विवाद का प्रयोजन यथार्थ तत्व-निर्णय है, न कि अपने अभिनिवेश का मिथ्या पोषण । निह्नव समस्त जिनप्रवचन को प्रमाणभूत मानता हुआ भी उसके किसी एक अंश का परंपरा से विरुद्ध अथं करता है एवं उस अर्थ का जनता में प्रचार करता है। प्रथम निह्नव जमालि ने बहुरत मत का प्रचार किया। इस मत के अनुसार कोई भी क्रिया एक समय में न होकर बहु-अनेक समय में होती है। द्वितीय निव तिष्यगुप्त ने जीवप्रादेशिक मत का प्रचार किया। इस मत के अनुसार जीव का वह चरम प्रदेश जिसके बिना वह जीव नहीं कहलाता और जिसके होने पर ही वह जीव कहलाता है, वास्तव में जीव है। उसके अतिरिक्त अन्य प्रदेश तो उसके अभाव में अजीव ही हैं क्योंकि उसी से वे सब जीवत्व प्राप्त करते है । तृतीय निव आषाढभूति ने अव्यक्त मत का प्रचार किया। इस मत के अनुसार किसी को साधुता-असाधुता आदि का निश्चय नहीं हो सकता। अतः किसी को वन्दना-नमस्कार आदि नहीं करना चाहिए । चतुर्थ निह्नव अश्वमित्र ने सामुच्छेदिक मत का प्रचार किया। समुच्छेद का अर्थ है जन्म होते ही सर्वथा नाश हो जाना। सामुच्छेदिक मत इसी सिद्धान्त का समर्थक है । पंचम निह्नव गंग ने द्वैक्रियवाद का प्रचार किया। एक समय में दो क्रियाओं के अनुभव की शक्यता का समर्थन करना द्वैक्रियवाद है । षष्ठ निह्नव रोहगुप्त-षडुलक ने पैराशिक मत का प्रचार किया। इस मत के अनुसार संसार में जीव, अजीव और नोजीव-इस तरह तीन प्रकार की राशियां हैं। रोहगुप्त का नाम षडुलूक क्यों रखा गया, इसका समाधान करते हुए भाष्यकार ने लिखा है कि उसका नाम तो रोहगुप्त है किन्तु गोत्र उलूक है। उलूक गोत्रीय रोहगुप्त ने द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय-इन षट् पदार्थों (वैशेषिक मत) का प्ररूपण किया अतः उसका नाम षट् और उलूक के संयोग से षडुलूक हो गया । सप्तम निह्नव गोष्ठामाहिल ने अबद्धिक मत का प्रचार किया। इस मत के अनुसार जीव और कर्म का बंध नहीं अपितु स्पर्शमात्र होता है। अष्टम निह्नव शिवभूति-बोटिक ने दिगम्बर मत का प्रचार किया। इस मत के अनुसार वस्त्र कषाय का हेतु होने से परिग्रहरूप है अतः त्याज्य है। निह्नववाद के बाद सामायिक के अनुमत आदि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org