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प्रास्ताविक
१३.
ज्ञानपंचक, निरुक्त, निक्षेप, अनुगम, नय, सामायिक की प्राप्ति, सामायिक के बाधक कारण, चारित्रलाभ, प्रवचन, सूत्र, अनुयोग, सामायिक की उत्पत्ति, गणधरवाद, सामायिक का क्षेत्र काल, अनुयोगों का पृथक्करण, निह्नववाद, सामायिक के विविध द्वार, नमस्कार की उत्पत्ति आदि, 'करेमि भंते' आदि पदों की व्याख्या | ज्ञानपंचक प्रकरण में आभिनिबोधिक, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान के स्वरूप, क्षेत्र, विषय, स्वामी आदि का विवेचन किया गया है । साथ ही मति और श्रुत के सम्बन्ध, नयन और मन की अप्राप्यकारिता, श्रुतनिश्रित मतिज्ञान के ३३६ भेद, भाषा के स्वरूप, श्रुत के चौदह प्रकार आदि का भी विचार किया गया है । चारित्ररूप सामायिक की प्राप्ति का विचार करते हुए भाष्यकार ने कर्म की प्रकृति, स्थिति, सम्यक्त्व प्राप्ति आदि का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है । कषाय को सामायिक का बाधक बताते हुए कषाय की उत्कृष्टता एवं मंदता से किस प्रकार चारित्र का घात होता है, इस पर विशेष प्रकाश डाला है । चारित्र प्राप्ति के कारणों पर प्रकाश डालते हुए आचार्य ने सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार त्रिशुद्धि, सूक्ष्मसम्पराय और यथाख्यात चारित्र का विस्तार से व्याख्यान किया है । सामायिक चारित्र का उद्देश, निर्देश, निर्गम, क्षेत्र, काल पुरुष, कारण, प्रत्यय, लक्षण, नय, समवतार, अनुमत, किम्, कतिविध, कस्य, कुत्र, केषु, कथम्, कियच्चिर, कति, सान्तर, अविरहित, भव, आकर्ष, स्पर्शन और निरुक्ति -- इन छब्बीस द्वारों से वर्णन किया है । इस वर्णन में सामायिकसम्बन्धी सभी आवश्यक ara का समावेश हो गया है । तृतीय द्वार निर्गम अर्थात् सामायिक की उत्पत्ति की व्याख्या करते हुए भाष्यकार ने भगवान् महावीर के एकादश गणधरों की चर्चा की है एवं गणधरवाद अर्थात् भगवान् महावीर एवं गणधरों के बीच हुई चर्चा का विस्तार से निरूपण किया है। एकादश गणधरों के नाम ये हैं : १. इंद्रभूति, २. अग्निभूति, ३. वायुभूति, ४. व्यक्त ५. सुधर्मा ६. मंडिक, ७. मौर्यपुत्र, ८. अकंपित, ९. अचलभ्राता, १०. मेतार्य, ११. प्रभास । ये पहले वेदानुयायी ब्राह्मण-पंडित थे। किन्तु बाद में भगवान् महावीर के मन्तव्यों से प्रभावित होकर उनके शिष्य हो गये थे । यही महावीर के गणधर प्रमुख शिष्य कहलाते हैं । इनके साथ महावीर की जिन विषयों पर चर्चा हुई थी । वे क्रमश: इस प्रकार हैं : १. आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व, २. कर्म की सत्ता, ३. आत्मा और देह का भेद, ४. शून्यवाद का निरास, ५. इहलोक और परलोक की विचित्रता, ६. बंध और मोक्ष का स्वरूप, ७. देवों का अस्तित्व, ८. नारकों का अस्तित्व, ९ पुण्य और पाप का स्वरूप, १०. परलोक का अस्तित्व, ११. निर्वाण की सिद्धि । आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता सिद्ध करने के लिए अषिष्ठातृत्व, संघातपरार्थत्व आदि अनेक हेतु दिये गये हैं । ये हेतु सांख्य आदि अन्य दर्शनों में भी उपलब्ध हैं । आत्मा के अस्तित्व की सिद्धि के साथ ही साथ एकात्मवादः
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