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१२.
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास विशेषावश्यकभाष्य आदि नौ ग्रंथों का निर्माण किया था। इनमें से सात ग्रन्थ पद्यबद्ध प्राकृत में हैं। एक ग्रन्थ-अनुयोगद्वारचूणि प्राकृत गद्य में है जो जिनदासकृत अनुयोगद्वारचूणि तथा हरिभद्रकृत अनुयोगद्वारवृत्ति में अक्षरशः उद्धृत की गई है । उनकी अन्तिम कृति विशेषावश्यकभाष्य-स्वोपज्ञवृत्ति जो कि उनके देहावसान के कारण अपूर्ण ही रह गई थी और जिसे बाद में कोट्टार्य ने पूर्ण की थी, संस्कृत गद्य में है। उनके एक ग्रन्थ ध्यानशतक के कर्तृत्व के 'विषय में अभी विद्वानों को सन्देह है। उनकी बहुमुखी प्रतिभा से प्रभावित हो बाद के आचार्यों ने उनका जो वर्णन किया है उससे प्रतीत होता है कि आचार्य जिनभद्र आगमों के अद्वितीय व्याख्याता थे, युगप्रधान पद के धारक थे, श्रुति आदि अन्य शास्त्रों के कुशल विद्वान् थे, विभिन्न दर्शनशास्त्र, लिपिविद्या, गणितशास्त्र, छन्दःशास्त्र, शब्दशास्त्र आदि के अद्वितीय पंडित थे, स्व-पर सिद्धान्त में निपुण थे, स्वाचार-पालन में प्रवण एवं सर्व जैन-श्रमणों में प्रमुख थे। उत्तरवर्ती आचार्यों ने इनके लिए भाष्यसुधाम्भोधि, भाष्यपीयूषपाथोधि, भगवान् भाष्यकार, प्रशस्यभाष्यसस्यकाश्यपीकल्प आदि अति सम्मानपूर्ण शब्दों का प्रयोग किया है। इन सब तथ्यों को देखने से यह सिद्ध होता है कि भाष्यकार 'जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण अपने समय के एक प्रभावशाली आचार्य थे।
बृहत्कल्प-लघुभाष्य तथा पंचकल्प-महाभाष्य के प्रणेता आचार्य संघदासगणि वसुदेवहिडि प्रथम खण्ड के प्रणेता आचार्य संघदासगणि से भिन्न हैं । वसुदेवहिंडिकार संघदासगणि भी विशेषावश्यकभाष्यकार आचार्य जिनभद्र के पूर्ववर्ती है। विशेषावश्यकभाष्य :
इसमें जैन आगमों के प्रायः समस्त महत्त्वपूर्ण विषयों की चर्चा है। इस भाष्य की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि इसमें जैन मान्यताओं का निरूपण केवल जैन दृष्टि से न किया जाकर, इतर भारतीय दार्शनिक मान्यताओं के साथ तुलना, खण्डन, समर्थन आदि करते हुए किया गया है । यही कारण है कि प्रस्तुत भाष्य में दार्शनिक दृष्टिकोण का विशेष प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । जैनागामों का रहस्य समझने के लिए विशेषावश्यकभाष्य निःसंदेह एक अत्यन्त उपयोगी ग्रन्थ है । इसकी उपयोगिता एवं महत्ता का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि जिनभद्र के उत्तरवर्ती आगमिक व्याख्याकारों एवं ग्रन्थकारों ने एतनिरूपित सामग्री के साथ ही साथ इसकी तर्कपद्धति का भी बहुत उदारतापूर्वक उपयोग किया है । यह ग्रन्थ, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, आवश्यकसूत्र की व्याख्या के रूप में है। इसमें आवश्यक के प्रथम अध्ययन सामायिक से सम्बन्धित नियुक्ति-गाथाओं का व्याख्यान है जिसमें निम्नोक्त विषयों का समावेश किया गया है : मंगलरूप
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