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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास के प्रणेता भद्रबाहु स्वामी को नमस्कार किया है। इसमें समाधि, स्थान, शबल, आशातना, गणी, संपदा, चित्त, उपासक, प्रतिमा, पर्युषणा, मोह आदि पदों का निक्षेप-पद्धति से विवेचन किया गया है। पयुषणा के पर्यायवाची शब्द ये हैं : परिवसना, पर्युषणा, पयुपशमना, वर्षावास, प्रथम समवसरण, स्थापना, ज्येष्ठग्रह । बृहत्कल्पनियुक्ति : ___ यह नियुक्ति भाष्यमिश्रित अवस्था में उपलब्ध है। इसमें ताल, प्रलम्ब, ग्राम, नगर, खेड, कर्बटक, मडम्ब, पत्तन, आकर, द्रोणमुख, निगम, राजधानी, आश्रम, निवेश, संबाध, घोष, आर्य, उपाश्रय, उपधि, चर्म, मैथुन, कल्प, अधिकरण, वचन, कण्टक, दुर्ग आदि अनेक महत्त्वपूर्ण पदों का व्याख्यान किया गया है । बीच-बीच में दृष्टान्तरूप कथानक भी उद्धृत किये गये हैं। व्यवहारनियुक्ति :
यह नियुक्ति भी भाष्य में मिल गई है। इसमें साधुओं के आचार-विचार से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण पदों एवं विषयों का संक्षिप्त विवेचन है। एक प्रकार से बृहत्कल्पनियुक्ति और व्यवहार नियुक्ति परस्पर पूरक है।
जैन परम्परागत अनेक महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों की सुस्पष्ट व्याख्या सर्वप्रथम आचार्य भद्रबाहु ने अपनी आगमिक नियुक्तियों में की है । इस दृष्टि से नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु का जैन साहित्य के इतिहास में एक विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। पीछे के भाष्यकारों एवं टीकाकारों ने प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप में उपयुक्त नियुक्तियों का आधार लेते हुए ही अपनी कृतियों का निर्माण किया है। भाष्य :
नियुक्तियों का मुख्य प्रयोजन पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या रहा है । इन शब्दों में छिपे हुए अर्थबाहुल्य को अभिव्यक्त करने का सर्वप्रथम श्रेय भाष्यकारों को है। नियुक्तियों की भाँति भाष्य भी पद्यबद्ध प्राकृत में हैं। कुछ भाष्य नियुक्तियों पर हैं और कुछ केवल मूल सूत्रों पर । निम्नोक्त आगम ग्रन्थों पर भाष्य लिखे गये हैं : १. आवश्यक, २. दशवकालिक, ३. उत्तराध्ययन, ४. बृहत्कल्प, ५. पंचकल्प, ६. व्यवहार, ७. निशीथ, ८. जीतकल्प, ९. ओघनियुक्ति, १०. पिण्डनियुक्ति । आवश्यकसूत्र पर तीन भाष्य लिखे गये । इनमें से विशेषविश्यकभाष्य आवश्यकसूत्र के प्रथम अध्ययन सामायिक पर है। इसमें ३६०३ गाथाएँ हैं। दशवकालिकभाष्य में ६३ गाथाएँ हैं। उत्तराध्ययन भाष्य भी बहुत छोटा है। इसमें ४५ गाथाएँ हैं। बृहत्कल्प पर दो भाष्य है।
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