Book Title: Jain Dharma Darshan Ek Samikshatmak Parichay
Author(s): Mohanlal Mehta
Publisher: Mutha Chhaganlal Memorial Foundation Bangalore
View full book text
________________
जैन परम्परा का इतिहास
ने महावीर के निर्वाण के २० वर्ष बाद मुक्ति प्राप्त की। ग्यारह गणधरों में सबसे अन्त में मरने वाले वे ही थे। जम्ब, जो अन्तिम सर्वज्ञ थे, उनके शिष्य थे। जम्बू ने महावीरनिर्वाण के ६४ वर्ष बाद मोक्ष प्राप्त किया। सुधर्मा के बाद छठी पीढ़ी में भद्रबाहु हुए जिनका समय तीसरी शती ई. पूर्व है। भद्रबाहु की मृत्यु महावीर-निर्वाण के १७० वर्ष बाद हुई। वे अन्तिम श्रुतकेवली थे। स्थूलभद्र को चार पूर्वो के अलावा अन्य सभी सिद्धान्त-ग्रन्थों का ज्ञान था। उन्होंने नेपालस्थित भद्रबाहु से प्रथम दस पूर्व अर्थसहित और अन्तिम चार बिना अर्थ के ही ग्रहण किये थे । इस प्रकार आगम ग्रन्थों का क्रमश: ह्रास होने लगा। फिर भी बहुत से प्रामाणिक मूल आगम-ग्रन्थ अभी भी सुरक्षित हैं। लेकिन दिगम्बरों की ऐसी धारणा है कि मूल आगम सबके सब लुप्त हो गये।
जम्बू के समय तक दिगम्बर और श्वेताम्बर परम्पराओं में धर्माचार्यों के नामादि में कोई अन्तर दृष्टिगोचर नहीं होता। वे दोनों ही परम्पराओं में समान रूप से उपलब्ध होते हैं। यद्यपि भद्रबाहु के जीवन से संबंधित घटनाओं के विषय में दोनों में विभिन्न मान्यताएं हैं, तथापि उन्हें दोनों ही सम्प्रदायों में समान स्थान प्राप्त है। उनके उत्तराधिकारी के नाम के संबंध में भी कोई एक निविरोध मान्यता नहीं है। बीच के आचार्यों के नामों में तो काफी अन्तर है ही। इन सभी बातों को देखते हुए ऐसा लगता है कि दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में भद्रबाहु ( श्रुतकेवली) नाम के अलग-अलग दो आचार्य हुए हैं जो संभवतः समकालीन थे। श्वेताम्बर मत के अनुसार भद्रबाहु की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org