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गया है और पहले पद्य के उत्तरार्ध में कुछ परिवर्तन किये गये हैं'चतुःशर्त ' की जगह ' 'चतुरानं', 'जपन् ' की जगह 'अपेत्' और ' लभेत् ' की बगह ' भवेत् ' बनाया गया है। इन परिबर्तनों में से पिछले दो परिवर्तन निरर्थक हैं—— उनकी कोई जरूरत ही न थी और पहला परिवर्तन ज्ञानार्याव के मत से विरुद्ध पड़ता है जिसके अनुसार कथन करने की प्रतिज्ञा की गई है ४ । ज्ञानार्थय के अनुसार " चतुरक्षरी मंत्र का चारसो संख्या प्रमाण जप करने वाला योगी एक उपवास के फलको पाता है' परन्तु यहाँ जाप्य की संख्या का कोई नियम न देते हुए, चार रात्रि तक जप करने का विधान किया गया है और तब कहीं एक उपवास का फल होना लिखा है । इससे
* यह प्रतिज्ञा वाक्य इस प्रकार है
ध्यानं तावदहं वदामि विदुषां ज्ञानार्थवे यन्मतम् ।
* पं० पनालालजी सोनी ने अपने अनुवाद में, "चार रात्रि पर्यंत जप करें तो उन्हें मोक्षकी प्राप्ति होती है" ऐसा लिखा है और इससे यह जाना जाता है कि आपने एक ७५ वै पद्य में प्रयुक्त हुए 'चतुर्थ' शब्दका अर्थ उपवास न सममकर 'मोद' समझा है। परन्तु यह आपकी बड़ी भूल है-मोक्ष इतना सस्ता है भी नहीं। इस पारिभाषिक शब्दका कार्य यहाँ 'मोक्ष' (चतुर्थवर्ग ) न होकर 'चतुर्थ' नाम का उपवास है, जिसमें भोजन की चतुर्थ देखा तक निराहार रहना होता है । ७६ वै पद्य में 'प्रागुक्तं ' पद के द्वारा जिस पूर्वकथित फल का उल्लेख किया गया है उसे शाना के पूर्ववर्ती पच नं० ४६ में 'चतुर्थतपसः फलं' लिखा है । इससे 'चतुर्थस्य फलं' और 'चतुर्थतपसः फलं' दोनों प्रकार्थवाचक पद हैं और वे पूरे एक उपवास- फल के घोतक है। पं० पन्नालालजी बाकलीवाल ने मीं ज्ञानाय के अपने अनुवाद में, जिसे उन्होंने पं० जयचन्दजी कीं