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" पुत्र जाते पिता तस्य कुर्यादाचमनं मुदा । प्राणायामं विधायोचैराचमं पुनराचरेत् ॥ १३ ॥ पूजावस्तूनि श्वादाय मंगलं कलशं तथा । महावाद्यस्य निर्घोषं प्रज्ञेखजिनालये ॥ ६४ ॥ ततः प्रारभ्य सद्विमान् जिनालये नियोजयेत् । प्रतिदिनं स पूजार्थ यावशालं प्रच्छेदयेत् ॥ ६४ ॥ दानेन तर्पयेत् सर्वान् महान् भिक्षुमान् पिता । " " जननेऽप्येवमेवाऽयं मात्रादीनां तु सूनकम् ॥ तदामाऽयं पितुर्भ्रातुर्नामिकर्तनतः पुरा ॥ ६२ ॥ पिता दद्यात्तदा स्वर्णताम्बुलषसनादिकम् । अशुचिनस्तु नैव स्युर्जनास्तत्र परिग्रहे ॥ ६३ ॥ तदास्य एष दानस्यानुत्पत्तिर्भवेद्यदि । "
पाठक जन ! देखा, सूतक की यह कैसी विडम्बना है !! घर में मल, दुर्गन्धि तथा रुधिर का प्रवाह वह जाय और उसके प्रभाव से कई कई पीढ़ी तक के कुटुम्बी जन भी अपवित्र हो जाय उन्हें सूतक का पाप लग जाय परन्तु पिता और माई जैसे निकट सम्बन्धी दोनों उस पाप से अछूते ही रहें !!! वे खुशी से पूजन की सामग्री लेकर मंदिर जा सकें और पूजनादिक धर्मकृत्यों का अनुष्ठान कर सकें परन्तु दूसरे कुटुम्बी जन नहीं !! और दो एक दिन के बाद जब यथारुचि माल काट दी जाय तो वह पाप फिर उन्हें भी आ पितचे—वे भी अपवित्र हो जायें और तब से पूजन दानादि जैसे किसी भी अच्छे काग को करने के वे योग्य न रहें ।1! इससे अधिक और क्या बिडम्बना हो सकती है !!! मालूम नहीं भट्टारकजी ने नैन धर्म के कौन से गूढ तत्व के आधार पर यह सब व्यवस्था की है !! जैन सिद्धान्तों से तो ऐसी हास्यास्पद बातों का कोई समर्थन नहीं होता। इस व्यवस्था के
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