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[१७] तो और क्या है ! भरत चक्रवर्ती जैसे धार्मिक नेता पुरुषों ने तो ऐसे छोगों से मेट में चमरी और कस्वती ( मुंरक नाके) जैसी चीजें ही नहीं कित कन्याएँ तक भी ली थीं, जिनका उल्लेख आदिपुराण थादि ग्रंथों में पाया जाता है। राना लोग ऐसे व्यक्तियों से कर और जमादार लोग अपनी जमीन का महसूल तथा मकान का किराया भी लेते हैं । उनके खेतों की पैदावार भी ली जाती है । अतः महारकजी का उक्त उद्गार किसी तरह मी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता।
अब रही उन लोगों को कभी न छुने की बात, यह उद्वार मी युक्ति-संगत मालूम नहीं होता । नव हम लोग उन लोगों के उपकार तथा उधार में प्रवृत्त होंगे, जो जैनमत का खास उद्देश्य है, तब उन्हें कमी अथवा सर्वथा कुएं नहीं यह बात तो बन ही नहीं सकती। फिर भट्टारकनी अपने इस उद्गार के द्वारा हमें क्या सिखलाना चाहते हैं वह कुछ समझ में नहीं पाता! क्या एक शराबी को शराब के नशे में कूपादिक में गिरता हुआ देख कर हमें चुप बैठे रहना चाहिये और छू जाने के भय से उसका हायपकड कर निवारण न करना चाहिये ? अथवा एक चमार को डूबता हुआ देखकर जाने के डर से उसका उहार न करना चाहिये ? क्या एक गोघाती मुसलमान, मच्छीमार, ईसाई या शराब बेचनेपासे हिन्द के घर में आग लग जाने पर, स्पर्शमय से, हमें उसको तथा उसके बालबच्चों को पकड़ पकड़ कर बाहर न निकालना चाहिये । और क्या हमारा कोई पातिकी भाई यदि अचानक चोट खाकर लहूलुहान हुआ बेहोश पड़ा हो तो हमें उसको उठा कर और उसके पापों को धो पंछ कर उसकी महम पट्टी न करना चाहिये, इसलिये कि वह पातिकी है और हमें उसको छूना नहीं चाहिये ? अथवा एक वैद्य या डाक्टर को अपने कर्तव्य से च्युत होकर ऐसे लोगों की चिकित्सा ही नहीं करनी चाहिये । यदि ऐसी ही शिक्षा है तब तो कहना होगा