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"लागे चलकर गाव महाशय के विषय में जो मापने लिखा है वह भी ठीक नहीं है क्योंकि वे महाशय जैन नहीं हैं। किसी दि० जैन ऋषि का प्रमाण देकर पुनर्विवाह सिद्ध करते तो अच्छा होता । ........ यह कहा जा चुका है कि १७१ से १७६ तक के श्लोक दि० जैन ऋषि प्रणीत नहीं हैं, मनुस्मृति के हैं ।"
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इससे बाहर है कि खोनीजी इस श्लोक पर से स्त्रियों के पुनर्विवाह की सिद्धि जरूर मानते थे परन्तु उन्होंने उसे अमन श्लोक चतथा कर उसका तिरस्कार कर दिया था । इस मनुवाद के समय आपको अपने उस तिरस्कार की निःसारता मालूम पड़ी और यह जान पड़ा कि वह कुछ भी कार्यकारी नहीं है। इसलिये ध्यापने और भी अधिक निष्ठुरता धारण करके, एक दूसरी नई तथा विलक्षया चाल चली और उसके द्वारा बिलकुल ही अकल्पित म कर डाला । अर्थात् इस पद्म को स्त्रियों के पुनर्विवाह की जगह पुरुषों के पुनर्विवाह का बना डाला ! इस कपट कक्षा कूटलेखकता और समर्थ, का, भी, कहीं कुछ, ठिकाना है 111 भज़ा कोई सोनीनी से पूछे कि 'कलौ तु पुनरुद्वाहं वर्जयेत्' का अर्थ जो आपने " कलियुग में एक धर्मपत्नी के होते हुए दूसरा विवाह न करे " दिया है उसमें ' एक धर्मपत्नी के होते हुए ' यह अर्थ मूल के कौन से शब्दों का है अथवा पूर्व प किन शब्दों पर से निकाला गया है तो इसका भाप, क्या, उधर देंगे ? क्या ' हमारी इच्छा ' श्रपवा] यह कहना समुचित होगा कि पुरुषों के अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिये-त्री के सर माने पर भी, वे कहीं इस मतानुसार पुनर्विवाह के अधिकार से वंचित न हो, जय इसलिये - हमने अपनी ओर से ऐसा कर दिया है ? कदापि नहीं । वास्तव में, आपका, यह, अर्थ, किसी तरह भी नहीं बनता, सौर-न कहीं से उसका
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