________________
[२४०] रहा, आपने अपनी शक्तिमर यहाँ तक चेष्टाकी है कि ग्रंथममें अमितगतिका नाम तक न रहने पावे और न दूसरा कोई ऐसा शब्द ही रहने पावे जिससे यह ग्रंथ स्पष्ट रूपसे किसी दिगम्बर जैनकी कृति समझ लिया जाय । उदाहरण के तौरपर.यहाँ इसके कुछ नमूने दिखलाये जाते हैं। १-श्रुत्वा वाचमशेषकल्मषभुषां पायोमुखशंखिनी .. नस्वा केवक्षिपादपंकजयुग मामरेन्द्रार्चितम् । आत्मानं प्रतरतमूषितमसौ चके विशुद्धाशयो। मान्यः प्राप्य यतेगिरोऽमितगतेयाः कथं कुते ॥१०१३
यह पद्य अमितगतिकी धर्मपरीक्षाके १९ परिच्छेदका अन्तिम पप है। इसमें मुनिगहारानका उपदेश पुनकर पवनवंगके श्रावकात धारण करनेका उल्लेख करते हुए, चौथे चरणमें लिखा है कि 'मन्यपुरुष अपरिमित ज्ञानके धारक मुनिके उपदेशको पाकर उसे व्यर्थ कैसे कर सकते है। साथ ही, इस चरणमें अमितगतिने अन्यपरिच्छेदोंके अन्तिम पोंक समान युक्तिपूर्वक गुमरीतिस अपना नाम भी दिया है। पयसागर, गंगीको अमितगतिका यह गुप्त नाम मी असा हुभा और इसलिए उन्होंने अपनी धर्मपरीक्षा में, इस पचको नं. १४७७ पर ज्योका त्यों उद्धृत करते हुए, इसके अन्तिम चरणको निन्न प्रकारसे बदल दिया है। "मित्रासमतो न कि भुवि नर. प्रामोति सदस्वहो।"
इस तबदीलीसे प्रकट है कि यह केवल ममितगतिका नाम मिटानेकी गरवसे ही की गई है। अन्यथा, इस परिवर्तनको पहॉपर कुछ मी जरूरत न थी। २-खकालान्तरमंथो निकषायो विद्रियः।
परीपइसहः साधुआंतरूपधरो मतः ॥१८-७६॥ इस पथमें अमितगतिने साधुका भक्षण 'जातरूपधरः' अर्थात नादिगम्बर बताया है। साधुका अक्षण नादिगम्बर प्रतिपादन करनेसे कही दिगम्बर जैनधर्मको प्रधानता प्राप्त न हो माय, अपना यह प्रय