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ઉપર
और साम्प्रदायिक मोहमुग्धताका एक अच्छा नमूना जान पढ़ती है और इससे आपकी प्रक्षाका बहुत कुछ पता लग जाता है। इस लिये दूसरी बात ही प्रायः सत्य मालम होती है। खेताम्बरमन्यासे अच्छी जानकारी न होने के कारण ही आपको यह मालूम नहीं हो सका कि उपर्युक्त कथन या इन्हीक सदश और धूसरे अनेक कवन भी श्वेताम्बर सम्पदायके विरुद्ध बार इस लिए आप उनको निकाल नहीं सके । जहाँ तक मैं सममता हूँ पनसागरनीकी योग्यता और उनका शालीय ज्ञाव बहुत साधारण था। वे इवेताम्बर सम्प्रदायमें अपने आपको विज्ञान प्रसिद्ध करना चाहते थे और इस लिए उन्होंने एक दूसरे विद्वानको कृतिको अपनी कृति बनाकर उसे मोले समानमें प्रचलित किया है। नहीं सो, एक अच्छे विद्वान्की ऐसे जघन्याचरणमें कमी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । उसके लिए ऐसा करना बड़े ही कलंक और शर्मकी बात होता है। पप्रसागरजीने, यद्यपि, यह पूरा ही अन्य चुरानेका साहस किया है और इस लिए भाप पर कमिकी यह सक्ति बहुत बेक घटित होती है कि "अखिलप्रबंध हो साहसकर्त्रे नमस्तुभ्यं परंतु तो भी आप, शर्मको उतारकर अपने मुंह पर हाथ फेरते हुए, वहे अमिमानके साथ लिखते हैं कि:
गणेशनिर्मितां धर्मपरीक्षां कर्तुमिच्छति । मादशोऽपि जनस्तत्र चित्रं वकुलसंभषात् ॥ ४॥ यस्तसमन्यते हस्तिवरेण स कथं पुनः। कलभेनेति नाशक्यं तत्कुलीनत्वशक्तितः॥५॥ चक्के श्रीमत्प्रवचनपरीक्षा धर्मखागरी।।
घाचकेन्द्रस्ततस्तेषां शिष्येणषा विधीयते ॥६॥ • अर्थात्-गणावरदेवकी निर्माण की हुई धर्मपरीक्षाको मुख जैशा मनुष्य भी यदि बनानेकी इच्छा करता है तो इसमें कोई साधर्मकी बात नहीं है क्योंकि मैं भी उसी कुलमै उत्सम हुआ है। जिस पक्षको एक गमरान वो बाता है उसे हाधीका पवा कैसे तो डालेगा, यह माशंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि उसकीय कुलाकिसे वह भी उसे तोद डाल सकता है। मेरे शुरु धर्मसागरची वायकेन्द्रने 'प्रवचनपरीक्षा' नामका अन्य बनाया है और मैं उनका शिष्य यह 'धर्मपरीक्षा' नामका प्रप रचता है। इस प्रकार पयसागरजीने बड़े अहंकार के साथ अपना प्रयकतल प्रगट किया है। परन्तु मापकी इस कतिको देखते हुए कहना पड़ता है कि आपका यह कोय और थोथा अहंकार विद्वानोंकी दृष्टिमे केवल हास्यास्पद होनेके सिवाय और कुछ भी नहीं है। यहाँ पाठकोंपर अभिवगतिका यह पथ भी प्रगट किया जाता है, जिसको बदलकर ही नगीनीने उपरके दो छोक (०.४-५) बनाए हैं
धर्मों गणेशेन परीक्षितो यः कथं पर्यक्षेतमहं जडात्मा।' शको हि य मक्कुमिमाधिराज भज्यते किं शशकेन वृक्षः ॥१५॥