Book Title: Granth Pariksha Part 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 264
________________ छोहेकी कीलें खींचकर निकाली; वदनादिकके छेपसे उसे सचेत किया और उसके घावोंको अपनी मुद्रिकाके रलजलसे धोकर अच्छा किया। इस उपकारके बदले में विद्याधरने पांडको, उसकी चिन्ता मालम करके, अपनी एक अंगूठी दी और कहा कि यह अंगूठी स्मरण मानसे सब मनोवांछित कायोंको सिद्ध करनेवाली है, इसमें मक्सीकरण आदि अनेक महान् गुण हैं। पाण्डने घरपर माफर उस अंगूठीसे प्रार्थना की कि 'हे अगूठी 1 मुझे कुन्तीके पास के चल, मंगूठीने उसे कुन्तीके पास पहुंचा दिया। इस समय कुन्ती, यह मालूम करके कि उसका विवाह पाटके साथ नहीं होता है, गमें फाँसी पालकर मरनेके लिए अपने उपवनमें एक अशोक के नीचे घटक रही थी। पाखने यहाँ पहुँचते ही गलेसे उसकी फांसी काट डाली और कुन्तीके सचेत तथा परिचित हो जानेपर उसके साथ मोग किया । उस एक ही दिनके भोगसे कुन्तीको गर्भ रह गया। पालकका जन्म होने पर धात्रीकी सम्मतिसे अन्तीने उसे मंजूषामें रखकर गगामें बहा दिया। कुन्तीकी माताको, कुन्तीकी मारुति मादि देखकर, पूडनेपर पीछेसे इस कृल्पकी खबर हुई। यह मंजूषा 'मतिरथि' नामके एक सारथिको मिला, जिसने बालकको उसमेंसे निकालकर उसका नाम 'कर्ण' खाक उस सारथिको श्रीको, मंजूषा मिलेनेके उसी दिन प्रातः काल, स्वप्नमें मार सूर्यने यह कहा था कि है वत्स! पान तुझे एक उत्तम पुरकी प्राप्ति होगी। इसलिए सूर्यका दिया मा होनेसे पाकका दूसरा नाम सूर्यपुत्र भी रखा गया। श्वेताम्बरीय पांडवचरित्रके इस संपूर्ण कपनसे पयसागरजीके प्लाँक वनका कहाँतक मेल है और यह कितना सिरसे पैर तक विलक्षण है, से पाठकोंको बतानेकी अमरत नहीं है। वे एक नजर डालते ही दोनोंकी विभिन्नवा मालम कर सकते हैं। मत इसी प्रकारके और भी अनेक कथन इस धर्मपरीक्षामें पाए जाते है जो दिगम्बरशाक भतुफूल तथा श्वेताम्बर बालक प्रतिकूल है और बिनसे प्रवक्ताको साफ चोरी पकी जाती है। परन सब विरुद्ध कवनोंसे पाठकोंक हदोंमें पावके साथ यह प्रश्न उत्तम हुए बिना नहीं रहेगा कि 'नब गणीजी महाराज एक विगम्बरथको श्वेताम्बरप्रव बनाने के लिए प्रस्तुत हुए थे तब मापने श्वेतावरणाबोंकि विश्व इतने अधिक कपनोंको उसमें क्यों रहने दिया ! क्यों उन्हें दूसरे कथनोंकी समान, जिनका दिग्दर्शन इस लेखक में कराया गया है नहीं निकाल दिया या नहीं बदल दिया ! तर सप्रनकर पीया सादा यही हो सकता है कि या तो गणीनीको श्वेताम्बरसम्प्रदायके प्रन्यों पर पूरी पक्षा मही थी, षषवा उन्हें उस सम्बदायके प्रन्योंका अच्छा भान नहीं था। इन दोनों पावमिस पहली बात पहुत कुछ संदिग्ध मालम होती है और उसपर प्रानः विश्वास वहीं किया जा सकता । क्योंकि पपीजीकी यह कृति ही सनकी श्वेताम्बर-सम्प्रदाय-भकि

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