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नहीं है, बल्कि छमी हुई प्रतिमेस, कर दिये हुए, ११ श्लोक और वेहलीपाली प्रतिमेस । २५ छोक कम कर देनेपर वह पूज्यपादका उपासकाचार रहता है और उसका म प्रायः वही है जो भाराकी प्रतियों में पावा. पाता है। संभव है कि प्रन्धके अन्तमें कुछ पयोको प्रशस्ति और हो और वह किसी जगहकी दूसरी प्रतिमें पाई जाती थे। उसके लिये विद्वानोंको अन्य स्थानोंकी प्रतियाँ भी खोजनी चाहिएँ ।
अब देखना यह है कि, यह पंथ कौनसे पूज्यपाद आचार्यका बनाया हुआ है। 'पूज्यपाद ' नामके भाचार्य एकसे अधिक हो चुके हैं। उनमें सबसे ज्यादा प्रसिद्ध
और बहुमाननीय पाचार्य 'जैनेन्द्र ' व्याकरण तथा 'सर्वार्थसिद्धि' आदि प्रन्योंकि फर्ता हुए हैं। सबका दूसरा नाम देवबन्दी' मी थाऔर देवनन्दी नामके भी कितने ही वाचायोका पता पता है। इससे, पर्याय नामकी वजहसे यदि उनमेसे ही किसीका प्रण किया जाय तो किसका प्रहण किया जाय, यह शक समझ नहीं आता। अन्य मन्तमें अभी तक कोई प्रशस्ति उपलब्ध नहीं हुई और न थके शुरुमें- किसी भाचार्यका स्मरण किया गया है। हाँ भाराकी एक प्रतिके अन्तमें समातिसूचक को पाक्य दिया है वह इस प्रकार है• वि श्रीवासपज्यपादाचार्यविरचित उपासकाचार समायः॥"
इसमें पूज्यपाद से पहले 'बा' शब्द और जुड़ा हुमा है और उससे दो विकल्प सपना हो सकते हैं। एक तो यह कि यह अन्य 'पासपन्य' नामके वाचार्यका बनाया हुआ है और लेखकके किसी अभ्यासकी वजहसे-पून्यपावका नाम चित्तपर ज्यावा बाहुमा प्रथा अभ्यासमें अधिक पाया हुआ होनेके कारण-पाद' शब्द उसके साथमें गलतीसे और अधिक लिखा गया क्योंकि वारपल्य' नामकेमी भाचार्य
ए-एक पासपूत्य' श्रीधर भाचार्य के शिष्य थे, जिनका ख मापनंविधावकाचारकी प्रशस्तिमें पाया जाता है और 'दानशासन ' प्रेयके का भी एक 'वासुपूज्य' हुए है, जिन्होंने शक संवत् १३४३ में उछ अंगकी स्वना की है। दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि यह प्रन्य' पूज्यपाद'माचार्यका ही बनाया हुआ है
और उसके साथ में 'वासु' शब्द लेखकके वैसे ही किसी सम्बासके कारण, गलतीसे जुड गया है। व्यावातर सयाल वही होता है कि वह पिछला विकल्प ही ठीक है। क्योंकि भाराकी दूसरी प्रतिक मंतमें भी वही पाय दिया हुआ है और उसमें 'पास' शब्द नहीं है। इसके सिवाय, छपी हुई प्रति और बेहलीकी प्रतिमें भी यह अन्य पूज्यपादका
बनाया हुआ किया है। साथ ही, "दिगम्बर जैनप्रन्यकर्ता और उनके प्रन्य, नामकी सूचीम भी पूज्यपादके नाम के साथ एक श्रावकाचार प्रन्यका उगोख मिलता है।
एक देवनदी बिनयबाके बिष्य और विसंधान ' काव्य की 'पदकौमदी थोकरके कर्ता नेमिचंद्रके गुषधे, और एक देवनदी भाचार्य ब्रह्मलान्यकके गुरु थे जिसके पटने के लिये संवत् १६२७ में 'बिनयाकल्प' की यह प्रति लिखी गई थी जिसका खच सेठ माणिकचंद्रके प्रशस्तिसंग्रह' रविटरमें पाया जाता है।