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ग्रन्थ-परीक्षा
तृतीय भाग ।
टेटफ
६० झुगलकिशोर तार ।
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ग्रन्थ-परीक्षा तृतीय भाग।
अर्थात् सोमसेन-त्रिर्णाचार, धर्मपरीक्षा (श्वेताम्बरी), अकलंब प्रतिष्ठापाठ और पूज्यपाद-उपासकाचारके
परीक्षा-लेखोंका संग्रह।
श्रीयुत पंडित जुगलकिशोर मुख्तार.
सरसावा जि० सहारनपुर [प्रन्ध-परीक्षा प्रथम द्वितीय माग, उपासनातत्व, जिनपूर्वाधिकार-मीमांसा, विवाहसदेश्य, विवाह-क्षेत्र-प्रकाश, स्वामीसमन्तभा (इतिहास), बीर-गुष्पांजलि, बैनावायोका शासनमेव, आदि अनेक ग्रन्थोंके स्वविता, और जैनहितैषी मादि पत्रों के
भूतपूर्व सन्मादक]
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प्रकाशक
जैन-ग्रन्थ-रत्नाकर कार्यालय, हीराबाग, पो० गिरगांव-चम्बई।
प्रथमावृत्ति ५०. प्रति
मावों,०, १९८५ विक्रम सितम्बर, सन् १९३४
मूल्य १०)
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प्रकाशक
छगनमल बाकलीवाल मालिक-जैन-ग्रन्थ-त्नाकर कार्यालय
हीराबाग, पो० गिरगांव-चम्बई।
बाबू दुर्गाप्रसाद दुर्गा प्रेस मजमेर पेज संख्या १ से २१४ तक
और शेष अंश म. ना. कुळकर्णी कर्नाटक प्रेस ... ३१८ ए अकुरबार बम्बई।
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भूमिका।
वर्षाका जल जिस शुद्ध रूपमें बरसता है, उस रूपमै नहीं रहता। आकासे नीचे उतरते उतरते और जलाशयोंमें पहुँचते पहुँचते वह विकृत हो जाता है और इसके बाद तो उसमें खनी विकृतियों उत्सम हो जाती हैं कि उनके मारे उसके वास्तविक स्वामका हदयंगम कर सकना मी दुष्कर हो जाता है। फिर भी नो बस्ततत्वके मर्मज्ञ है, पदायोका विश्लेषण करनेमें कुशल या परीक्षाप्रधानी है, उन्हें उन सब विकृतियोंसे पृथक् वास्तविक मलका पता लगानेमें देर नहीं लगती है। परमहितैषी और परम धीवराग भगवान महावीरकी वाणीको एक कविने बलष्टिकी उपमा दी है, जो बहुत ही उपयुक मालम होती है। पिछले साई इमार वर्षाका उपन्य इतिहास हमें बताता है कि माबान्का विश्वकल्याणकारी समीचीन धर्म जिस समें उपदिष्ट हुमा था, उसी रूप में नहीं रहा, धीरे धीरे वह विकृत होता गया, ज्ञात और महातरूपसे उसे विकृत करनेके बराबर प्रयत्न किये जाते रहे और अब तक किये जाते हैं। सम्प्रदाय, संघ, गण, गच्छ, माम्नाय, पन्य आदि सब प्राइन्ही विकृतियोंके परिणाम है । भगवानका धर्म सबसे पहले दिगम्बर और श्वेताम्बर दो सम्प्रदायमि विभक हुमा, और उसके बाद मूल, मापनीय, प्रविष, काछा, माघर, मादि नाना संघों और उनके गणों तथा गच्छों में विकृत होता रहा है। यह असंभव है कि एक धर्मके इतने भेद प्रमेद होते जायें और उसकी मूब प्रकृतिपर विकृतियों का प्रभाव नहीं पड़े। यद्यपि सर्वसाधारण जन न सम्प्रदायों और पन्योंके विकारसे विकृत हुए धर्मका वास्तविक मुख स्वक्षम अवधारण नहीं कर सकते है। परन्तु समय समयपर ऐसे विचारशील विवेकी महात्मामोंका जन्म अवश्य होता रहता है जोन सब विकारोंका अपनी रासायनिक मार विश्लेषक खिसे भूषवरण करके वास्तविक धर्मको स्वर देख लेते हैं और दूसरोंको दिखा जाते हैं।
जो लोग यह समझते हैं कि वर्तमान जैनधर्म ठीक वही जैनधर्म है जिसका उपदेश भगवान महावीरकी विष्यवाणीद्वारा हुआ था, उसमें बरा भी परिवर्तन, परिषदन या सम्मेलन नहीं हुआ है अक्षरशा ज्योका त्यों पड़ा भा रहा है, उन्हें धर्मात्मा या श्रवाल भले ही मान लिया बाबपरन्तु विचारशील नहीं कहा जा सकता। यह समव है कि उन्होंने शास्त्रका अध्ययन किया हो, वे शास्त्रीया पण्डित कहलाते हों, परन्तु शान पड़ने या परीक्षायें देनेसे ही यह महीं कहा जा सकता है कि वे इस विषयमें कुछ गहरे बैठ सके हैं। जो लोग यह जानते हैं कि मनुष्य रागदेषसे पुक है, अपूर्ण हैं और उनपर देश-कालका कल्पनातीत प्रभाव पाता है, वे इस वावपर कमी विश्वास नहीं करेंगे
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किमाई हमार वर्षके तने लम्बे समयमें, इसने संघों और गण-मच्छोंकी खींचातानीमें पर भी उनके द्वारा भगवान् के धर्ममें जरा भी रूपान्तर नहीं हुआ है।
हमारे समाजके विद्वान तो अभी तक यह माननेको भी तयार नहीं थे कि जैनापायोंमें भी परस्पर छ मतमेव हो सकते हैं। यदि कहीं कोई ऐसे भेद नगर माते थे, तो वे उन्हें अपेक्षाओंकी सहायतासे या उपचार मादि कहकर टाल देते थे; परन्तु अब 'प्रन्यपरीक्षा के लेखक पडित मुगलकिशोरजी मुख्तारने अपनी सुचिन्तित और सुपरीक्षित 'जैनाचायोका शासनमेद' नामकी लेखमागमें इस बातको अच्छी तरह सर कर दिया है कि नाचायोमें भी काफी मतमेद थे, जो यह निवास करनेके लिए पर्याप्त है कि भगवानका धर्म धुलसे अब तक ज्योका त्यों नहीं चला आया है और उसके असली सके सम्बन्धमें मतभेद हो सकता है।
संसारके प्राया सभी धमोंमें रूमान्तर हुए हैं और धरायर होते रहते हैं। उदाहरणक लिए पहले हिन्दू धर्मको ही ले लीजिए । बड़े बड़े विद्वान् इस बात को स्वीकार करते है कि जैनधर्म मार पौषमक नपर्दस्त प्रभाव परकर उसकी वैदिकी हिंसा प्राय हो गई है और पैदिक समयमें विस गौके पडोके माथसे ब्राह्मणोश अतिषिसलार किया जाता था, (महौज का महोक्ष वा श्रोत्रियाय प्रकल्पयेत् ) वहीं आम हिन्दु बोकी पूजनीया माता है और वर्तमान हिन्दू धर्ममें गौहत्या महापातक गिना जाता है। हिन्दू मब अपने प्राचीन धर्मप्रन्योम पतला हुई नियोगकी प्रथाको व्यभिचार और अनुलोम-प्रतिलोम विवाहको भनाचार समझते हैं। विस चौधर्मने संसारसे जीवहिंसाको उठा देने के लिए प्रवत आन्दोलन किया था, उसीके अनुयायी तिव्वत और बीमके निवासी भाग सर्पमधी बने हुए
है दर, कोदे गमको तक उनके लिए मचाय नहीं हैं। महात्मा बुबनीच ऊँचके भेदभावसे युक वर्णव्यवस्थाके परम विरोधी थे; परन्त मान समके नेपाउदेशवासी अनुयायी हिन्दुओक ही समान बाविमेदके रोगसे प्रसित है। महात्मा कीर जीवन भर इस मण्यात्मवाणीको सुनावे रहे:
जात पात पूछे नहिं कोई,
हरिको भने सो हरिका होई। परन्तु आप उनके आखों अनुयायी जातिपातिके कीचड़ में अपने अन्य पौषिगौक ही पमाम फैसे हुए हैं। इस ऊँच-नीचके मेवभावकी बीमारीखे तो मुछ यूरोपसे माया हुमा ईसाई धर्म भी नहीं बच सका है। पाठकोंने सना शेगा कि मबास प्रान्तमें माझम इसाइयोंकि मिरवापर सदा भौर शूद्र सायकि गिरिजापर शुदा हैं और वे एक
सारेको एमाको पिसे देखते हैं। ऐसी वा बदि हमारे मैनधर्मम देशकारके प्रमा• * यह खमाला मद मुख्तारसाहबके द्वारा संशोषित और परिवदित होकर बैन
to कार्यालय कम्बद्वारा पुस्तकाकार प्रकाषित हो गई है।
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पसे और अपने पड़ोसी धमोंके प्रभावसे कुछ विकृतियाँ घुस गई हों, तो इसपर किसीको भावयं नहीं होना चाहिए । इन विकृतियों में कुछ विकृतियों इतनी स्थल है कि उन्हें साधारण शुद्धिके लोग भी समझ सकते हैं । यथा
१- जैनधर्मसम्मत वर्णव्यवस्था के अनुसार जिसका कि आधिपुराणमें प्रतिपादन किया गया है, प्रत्येक वर्णके पुस अपनेसे बाइके सभी क्योंकी कन्याभोंक साप निगाह कर सकते हैं बल्कि धर्मसंग्राहावकाचारके अनुसार तो पहळेके तीन पोंमें परसर अनुलोम और प्रवियोम दोनों ही क्रोस विवाह हो सकता है और पुराणान्योंकि उदाहरणोंसे इसकी पुष्टि भी होती है *, परन्तु वर्तमान चैनधर्म तो एक वर्णकी जो बैकों जातियाँ बन गई है और बैनधर्मका पालन कर रही है, उनमें भी परस्पर विवाह करना पाप बतलाता है और इसके लिए उसके को बड़े दिग्गव पण्डित शास्त्रोंसे खींच तानकर प्रमाण तक देनेकी रक्षा करते हैं। क्या यह विकृति नहीं है।
-भगवविनसेनके आदिपुराणकी 'वर्णकामक्रिया के अनुसार प्रत्येक मरीनको अवधमकी दीक्षा दी जा सकती है और फिर उसका नया वर्ण स्थापित किया जा सकता है, तथा उस नये मैं उसका विवाहसम्बन्ध किया जा सकता है। उसको उसके प्राचीन धर्मसे यहाँ तक खुदा कर डालनेकी विधि है कि उसका प्राचीन गोत्र मी बदल कर से बये पोत्रसे अभिहित करना चाहिए । परन्त पर्वमान नैनधर्मके के दानि मोली भाली जनताको सुधारकों के विरुद्ध मकाने के लिए इसी बातको एक हथि भार पना रक्खा हक देखिए, ये मुसम्मानों और ईसाइयोंको भी लेनी बनाकर उनके साब रोटी-बठी व्यवहार जारी कर देना चाहते हैं। मानो मुसलमान और ईसाई मनुष्य ही नहीं है। क्या यह विकृति नहीं है। क्या भगवान महावीरका विश्वधर्म इतबाही संकीर्ण था विसारकी १९५वी गापाकी टीका सष्ट मालम होता है कि मच्छ देशले माये हुएम् ममी अनिका के सखते रे और जिप्रतिके अधिकारी बनने थे।
इस विषयको अच्छी तरह समझनेके लिए पवित जुगलकिशोर तारकी लिखी हुई 'विवाहक्षेत्रप्रकाश' नामकी पुस्तक और मेरा किया हुआ विम और मासिमेद ' नामका निवन्ध देखिए । यह निबन्ध शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाला है।
जम्भ मिअमनुष्याणां सकलसंयममहण कर संमतीति नाशंकितव्य । दिग्विजयाले चक्रवर्तिना सह आर्यखण्डमागवाना म्लेच्छानानां चक्रवत्यादिभिः सहभातवैवाहिकसम्बन्धानां संयमप्रतिपत्तेरनिरोधात् । अपवा तत्कन्यकानो चकवविपरिलीवानो गर्मलाल मातृपक्षापेक्षया व्यपदेशमाचा सैरमसमवार तयाजातीयकाना दीक्षाईवे प्रतिषेषाभावात् । १९५ ॥ २१
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-सारस्त्रयके प्रसिद्ध टीकाकार श्री जयतेनसूरिके कथनानुसार सत्-श्रद्र भी मुनिदीक्षा ले सकते हैं। परन्तु वर्तमान जैनधन तो शवोंको इसके लिए सर्वया अयोग्य समझता है। शुद्र तो खर बहुत नीची रष्टिसे देखे जाते है, परन्तु उन दक्षिणी अनियोंकि भी मुनिदीक्षा देने पर कोलाहल मचाया बाता है जिनके यहाँ विधवाविवाह होता है । उदार जनधर्मपर इस प्रकारको विकृतियाँ क्या लाव्हनस्वरूप नहीं है।
जैसा कि प्रारमनें कहा जा चुका है, इन विकृतियोंको पहिचान करके असली धर्मको प्रकाधन बनेवाली विभूतियाँ समय समय पर होती रहती है। सारत्रयके कता भाषा कुन्दकुन्द ऐसी ही विमुनियों से एक थे। वर्तमान दिगम्बर संप्रदानके अषिअंश छोग अपनेो कुन्दकुन्दको आम्बायका बतलाते हैं। मालम नहीं, लोगोंका कुन्द कुन्दाम्नाय और फन्दकन्दान्वपके सम्बन्ध में क्या सपा है। परन्तु मैं तो हो जनधर्ममें उस समय तक मो विकृतियों हो गई थी उन सबको हटाकर उसके वास्तविक स्वरूपको
आविष्कृत करके सर्व साधारणके समक्ष उपस्थित करनेवाले एक महान् आचार्वक अनुबाथियोंका सम्प्रदाय समझता हूँ। मगवान् छन्दकुन्दके पहले और पीछे अनेक पड़े बड़े भाषाब हो गये हैं, उनकी भाम्नाय या मन्वय न कहलाकर इन्वान्दकी की मात्राय या मन्वय कहलानेका मन्चपा कोई पलपकारण दृष्टिगोर नहीं होता है। मेरा मनुमान है कि भगवाकुन्दकुन्दके समय तक जैनधर्म लगभग उतना ही विकृत होगमा या, जितना पर्वमान तेहपन्धके उदय होने के पहले भामरकोंके शासन-तमममें हो गया था और उन विकृतियाँस मुख करनेपाः सपा जैनधर्मके परम पोतराग शान्त मार्गको फिरसे प्रवर्तित करनेवाले भगवान् कोण्डकुण्ड ही थे। परन्तु समयका प्रमाब देखिए कि वह संशोधित शान्तमार्ग भी चिरकाल तक शुद्ध न रहा, भागे चलकर वही मधरकाका धर्म बन गया। कहाँ तो तिल-तष मात्र परिग्रह रखनेका मी निषेष भार कहाँ हाथी घोडे और पालकियों के गठबाट 1 घोर परिवर्तन हो गया।
सब कुन्वान्दान्वयी शुद्ध मार्ग धीरे धीरे खना विकृत हो गया-विकृतिकी पराकाष्ठापर पहुंच गवा, सब कुछ विवेकी और विश्ढेषक विद्वानों का वान फिर इस मोर पया और वैसा कि मैंने अपने 'बनवातियों और चैववातियोंकि सम्प्रदाय या तेरहपन्य और वीसपन्य' सीर्थक विस्तृत टेसमें बतलाया है, विक्रमकी सत्रहवीं शताब्दिमें स्वर्गीय ५० बनारसीदासनीने फिर एक संशोधित और परिष्कृत मार्गको नीष डाली, जो पहले 'पाणारसीय' वा 'बनारसी-पन्य' कहलाया और भागे चल कर तेहपन्यक
....एवं गुणविशिष्टपुरुपो बिनदीमामहणे योग्बो भवति । यथायोम्य स्वायपि प्रवनसारतात्पयंति, पृष्ठ ३०५॥
+देखो, जैनहितपी भाग १४, अंक ४।
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नामसे प्रसिद्ध हुआ है। इस पन्थने और इसके भनुयायी पं० ठोकरमानी, पं०:जयव न्दवी, पं० दौलतरामजी, पं. सदासुखजी, पं० पक्षालालजी धूनीवाले आदि विद्वानोंने जो साहित्य निर्माण किया और जिस शुखमार्गका प्रतिपादन किया, उसने दिगम्बरसम्धदायमें एक बड़ी भारी क्रान्ति कर डाली और उस क्रान्तिका प्रभाव इतना वेगशाली हुआ कि उससे जैनधर्मके शिथिलाचारी महन्तों या भधारकोंक स्थायी समझे जानेवाले सिंहासन देखते देखते धराशायी हो गये और कई सौ वषोंसे बो धर्मके एकच्छाधारी समाद बन रहे थे, वे अप्रतिष्ठाके गहरे गमें फेंक दिये गये।
भाटारकोंका उच्च विकृत मार्य कितना पुराना है, इसका अनुमान पण्डितप्रवर माशाघरद्वारा उद्धत इस पचनसे होता है
पण्डितम्रचारिक घठरैश्चतपोधनः।
शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम् ॥ अर्थात् अचरित्र पण्डितों और कर साधुओं या भधारकोंने जिन भगवानका निर्मख शासन मलीन कर डाला। पं० माशापरजी विक्रमकी वेहवी शताब्दिके अन्तमें मौजूद थे और उन्होंने इस लोकको किसी अन्य मन्यसे उसत किया है। अर्थात इससे भी बहुत पहले भगवान् महावीरके शासनमें अनेक विकृतियों पैठ गई थी।
रहपन्यके पूर्वोक मिक्षनने जैनधर्मकी विकृतियोंको हटाने और उसके शुख स्वल्पको प्रकट करने में जो प्रशंसनीय व्योग किया है, यह चिरस्मरणीय रहेगा । यदि इसका उदय न हुआ होता, तो भान दिगम्बर जैनसमानकी क्या दुर्दशा होती, उसकी कल्पना भी नहीं हो सकती है। बागल प्रान्तम दौरा करनेवाले बम्बई जैन प्रान्तिक समाके एक उपदेशकने कोई १०-१२ वर्ष हुए मुझसे कहा था कि कुछ समय पहले वहाँके श्रावक शाबस्वाध्याय मादि तो क्या करेंगे, उन्हें बिन भगवानकी मूर्तिका अभिषेक और प्रक्षाल करनेका मी अधिकार नहीं पा! मारकणीके शिष्य पण्डितजी ही जब कभी आते थे, यह पुण्यकार्य करते थे और अपनी दक्षिणा लेकर चले जाते थे। कहते थे, उम बाल पोषाले मनमचारी झोप
सुप्रसिद्ध श्वेताम्बर साधु श्रीमेषविषयजी महोपाध्यायने अपना 'युधिप्रबोध' मामका प्राकृत अन्य स्वोपन सेकसटीकासहित इस 'पापारसीय ' मतके खमनके लिए ही विक्रमी भारहवीं शताब्दिके प्रारममै पनाया था-"पोच्छ मुयणहितत्थं पाणारसियरस मयमेयं ।'-मुलबोंके हितार्थ पाणारसी मतका मेद कहता है। इस प्रन्थमै इस मतकी उत्पत्तिका समय विक्रम संवत् १९८० प्रकट किया है। यथा
सिरिविक्कमनरनाहागपार्ह सोलहसपाहि पाहिं।. असि उत्तरोई जाय वाणारसिअस मयमेयं ॥१८॥
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भगवान की प्रतिमाका स्पर्श कैसे कर सकते हो ! और यह तो अभी कुछ ही वर्षोंकी बात है जब मारकोंके कर्मचारी श्रावकोंसे मारमारकर अपना टैक्स वसूल करते थे तथा जो श्रावक उनका वार्षिक टैक्स नहीं देता था, वह बँधवा दिया जाता था । इम आज भले ही इस बातको महसूस न कर सकें; परन्तु एक समय था, जब समूचा दिगम्बर जैन समान इन शिमिलाचारी साथ ही अत्याचारी पोपोंकी पीडित प्रभा था और इन पोपोके सिंहासनको उलट देनेवाला यही शक्तिशाली तेरहपन्थ था। यह इसीकी कृपाका फल है, जो आम हम इतनी स्वाधीनताके साथ धर्मचर्चा करते हुए नजर भा रहे हैं।
तेरहपन्यने महारकों या महन्तोंकी पूजा-प्रतिष्ठा और सत्ताको तो नष्टप्राय करदिया; परन्तु उनका साहित्य अब भी जीवित है और उसमें वास्तविक धर्मको विकृत कर देनेवाले तत्व मौजूद है। यद्यपि तेरहपन्थी विद्वानोंने अपने भापामन्योंके द्वारा और श्रामग्राम नगर नगर में स्थापित की हुई शानसभाओ कि द्वारा लोगोंको इतना सजग और सावधान अवश्य कर दिया है कि अब वे शिथिलाचार की बातोंको सहसा मानने के लिए तैयार नहीं होते हैं और वे यह भी जानते हैं कि भेपी पाखण्डियन वास्तविक धर्मको बहुतसी मिथ्यात्वपोषक वातोंसे भर दिया है; फिर भी संस्कृत ग्रन्थोंके और अपने पूर्वकालीन बड़े बड़े झुनि तथा आचायोंके नामसे वे अब भी उगाये आते हैं। बेचारे सरक प्रकृतिके लोग इस बातकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि धूर्त लोग आचार्य भद्रबाहु, कुन्दकन्द, उमास्वाति, भगवन्दिनसेन आदि बड़े बड़े पूज्य मुनिराजोंके नामसे भी अन्य बनाकर प्रचलित कर सकते हैं! उन्हें नहीं मालूम है कि संस्कृतमें जिस तरह सत्य और महान् सिद्धान्त लिखे जा सकते हैं, उसी तरह असत्य और पापकथायें भी रची जा सकती है।
अतएव इस ओरसे सर्वया निश्चिन्त न होना चाहिए। लोगोंको इस संस्कृतभक्ति और नाममकिसे सावधान रखनेके लिए और उनमें परीक्षाप्रधानताको भावनाको ढ बनाये रखनेके लिए अब भी आवश्यकता है कि तेरहपन्यके उस मिशनको बारी रक्खा जाय जिसने भगवान् महावीरके धर्मको विशुद्ध बनाये रखनेके लिए अब तक निःसीम परिश्रम किया है। हमें सुहृदर पण्डित जुगल किशोरजी मुख्तारका चिर कृतज्ञ होना चाहिए कि उन्होंने अपनी 'प्रन्य-परीक्षा' नामक लेखमाला और दूसरे समर्थ लेखोंद्वारा इस मिशनको बराबर बारी रक्खा है और उनके अनवरत परिश्रमने भट्टारकोकी गद्दियोंके समान उनके साहित्यके सिंहासनको भी उलट देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है।
गमम १९ वर्षके बाद 'प्रन्वपरीक्षा' का यह तृतीय भाग प्रकाशित हो रहा है जिसका परिचय करानेके लिए मैं ये पतियाँ लिख रहा हूँ। पिछले दो भागोंकी
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अपेक्षा यह भाग बहुत बड़ा है, और यही सोचकर यह इतने विस्तृत रूपमें लिखा गया है कि अन इस विषयपर और कुछ लिखनेकी आवश्यकता न रहे। महारकी साहित्यके प्रायः संभी अंग प्रत्यंग इसमें अच्छी तरह उजाड़कर दिखला दिये हैं और जैनधर्मको विकृत करनेके लिए महारकोंने जो जो जघन्य और निम्ध प्रयत्न किये है, वे प्रायः सभी इसके द्वारा स्पष्ट हो गये हैं ।
मुख्तारसाहमने इन लेखोंको, विशेषकरके सोमसेन त्रिवर्णाचारकी परीक्षाको, कितने परिश्रम से लिखा है और यह उनको कितनी बड़ी तपस्याका फल है, यह बुद्धिमान पाठक इसके कुछ ही पृष्ठ पढ़कर जान देंगे। में नहीं जानता हूँ कि पिछले कई सौ वर्षोंमें किसी भी जैन विज्ञानने कोई इस प्रकारका समालोचक ग्रन्थ इतने परिश्रमसे लिखा होगा और यह बात तो बिना किसी हिचकिचाहटके कही जा सकती है कि इस प्रकारके परीक्षाळेस चैनसाहित्य में सबसे पहले है और इस बातकी सूचना देते हैं कि जैनसमाज में तेरहपन्थद्वारा स्थापित परीक्षाप्रधानताके भाव नष्ट नहीं हो गये हैं। वे अब और भी तेजीके साथ बढ़ेंगे और उनके द्वारा मलिनीकृत बैनशासन फिर अपनी प्राचीन निर्मलताको प्राप्त करने में समर्थ होगा ।
विद्वषोधक आदि प्रत्योंमें भी महारकोंके साहित्यकी परीक्षा की गई है और उसका खण्डन किया गया है, परन्तु उनके लेखक कि पास जाँच करनेकी केवल एक ही कसौटी थी कि अमुक विधान वीतराग मार्गके अनुकूल नहीं है, अथवा वह अमुक पदे आचार्यक तसे विरुद्ध है और इससे उनका सम्मन बहुत जोरदार न होता था; क्योंकि वह फिर भी कह सकता था कि यह भी तो एक आचार्यका कहा हुआ है, अथवा यह विषय किसी ऐसे पूर्वाचार्यके अनुसार लिखा गया होगा जिसे हम नहीं जानते है; परन्तु प्रन्थ-परी क्षाके लेखक महोदयने एक दूसरी अलब्धपूर्व कसौटी प्राप्त की है जिसकी पहलेके लेखकोंको कल्पना भी नहीं थी और वह यह कि उन्होंने हिन्दुओंके स्यूतिमन्यों और दूसरे कर्मकाण्डीय भन्यो सैकयों लोकोंको सामने उपस्थित करके बतला दिया है कि सक प्रन्थोंमेंसे बुरा चुरा कर और उन्हें तोड़-मरोबर सोमसेन आदिने वे अपने अपने 'मानमतीके कुनबे ' तैयार किये हैं। आँच करनेका यह हम निल्कुल नया है और इसने जैनधर्मका तुलनात्मक पद्धति से अध्ययन करनेवालोंके लिए एक नया मार्ग खोल दिया है ।
ये परीक्षालेख इतनी साबधानीसे और इतने अकाव्य प्रमाणक आधारसे लिखे गये है कि अभीतक उन लोगोंकी ओरसे जो कि त्रिषणचारादि भारकी साहित्यके परम पुरस्कर्ता और प्रचारक हैं, इनकी एक पंक्तिका भी खण्डन नहीं किया गया है और न अब इसकी केला ही हैं। अन्यपरीक्षांके पिछले दो भागोंको प्रकाशित हुए लगभग एक लुग (१२ वर्षे ) बीत गया। उस समय एक दो पण्डितमन्याने इमर उपर घोषणायें की थीं के हम उनका खण्डन लिखेंगे; परन्तु ने अब तक लिख ही रहे हैं। यह तो असंभव है कि लेखोंका
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सम्बन लिखा जा सकता और फिर भी पण्डितोंकापलकादक सुपचाप पैग रहता; परन्तु बात यह है कि इनपर कुछ लिखा ही नहीं जा सकता । मोबी बहुत पोल होती, तो बह की मी वा पकाची परन्तु महाँ पोल ही पोल है, यहाँ क्या किया जाय ! गरम यह कि यह लेखमाला प्रतिवादियों के लिए मेहेक बने हैं, यह सब तरहसे सप्रमाण और सुजित लिखी गई है।
मुझे विश्वास है कि जैनसमाज इस लेखमालाका पूरा पूरा भादर करेगा और इसे पड़ कर बैनधर्ममें घुसे हुए मिथ्या विश्वासों, शिथिलाचारों और भवन प्रपत्तियोंको पहिचाननेकी पधि प्राप्त करके वास्तविक धर्मपर माल होगा।
मेरी समझमें इस लेखमालाको पढ़कर पाठकों का ध्यान नीचे लिखी हुई बातोंकी थोर माकर्षित होना चाहिए
-किसी अन्यपर किसी जैनाचार्य यश मितान्कामाम देखकर ही यह निश्वयन कर लेना चाहिए कि वह मैनप्रन्य ही है और उसमें जो कुछ लिखा है वह सभी भगवानकी वाणी है।
२-मारकोंने जैनधर्मको बहुत ही भूषित किया है। वे स्वयं ही अष्ट नहीं हुए थे, जैनधर्मको मी उन्होंने प्रा करनेका प्रपल किया पा। यह प्राया असंभव है कि वो स्वयं भ्रष्ट हो, वह अपनी अताको शास्त्रोच सिद्ध करनेका कोई सष्ट या असष्ट प्रयल बकरे।
मगरको पास बिपुल धनसम्पत्ति थी। उसके सोमसे अनेक माह्मण उनके विम पन मातेबे मोर समय पाकर वे ही महारक बनकर जैनधर्मके शासक पदको प्रास करते थे। इसका फल यह होता था कि वे अपने पूर्वके मामणस्वके संस्कार छत और बात सासे नैनधर्म, प्रविष्ट करनेका प्रयत्न करते थे। उनके साहित्यमें इसी कारण बन संस्कारोंका इतना प्राश्य है कि उसमें वास्तविक जैमपम बिल्कुल छुप गया है।
४-पुष्प गया है कि महारक लोग पाहणों को नौकर रखकर उनके द्वारा अपने मापसे अन्यरथमा भाते थे। ऐसी क्यामे यदि उनके साहित्यमें जैनधर्मकी कलाई किया हुमा बाह्मण साहित्य ही दिखाकाई है, तो यावर्य न होना चाहिए।
बातका विषय परवा कठिन है मारकोंक साहित्यका कबसे प्रारम हुला इसलिए मप हमें इस पसे जलकर छोयो भी फंककार पीना चाहिए। हमें अपनी एक ऐसी विवेककी कसौटी पना छेनी चाहिए जिसपर हम प्रत्येक प्रन्धको कर सकें। जिस तरह हमें किसी को भाचार्य के नामसे मुखवेमें न पड़ना चाहिए, सखी तरह प्राचीनता के कारण भी किसी प्रत्वपर विश्वास न करवा चाहिए।
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-तके विद्यार्थियों, पण्डितों तथा शानियों का ध्यान इन लेखमालाओंक द्वारा सुखनात्मक पथतिकी भोर माकर्षित होना चाहिए और उन्हें प्रत्येक विषयका अध्ययन
म परिसमस करनेकी पादत डालनी चाहिए। ये परीक्षा लेख पताते है कि परिश्रम करना किये कहते हैं। . अमी बरूरत है कि और अनेक विद्वान्, स मागेपर काम करें। मधारकोंकि रखे हुए फयानन्य और परिवमन्य बहुत अधिक है। उनका मी पारीकीसे अध्ययन किया जाना चाहिए और जिन प्राचीन अन्योंकि भाषासे वे किये गये हैं, उनके साथ उनका मिलान किया जाना चाहिए। मधारकोंने ऐसी भी पीसों कपायें स्वयं गड़ी है बिना कोई मूल नहीं है।
मन्तमें मुहबर पण्डित जुगल किशोरणीको उनके इस परिश्रमके लिए अनेकशः धन्यवाद देकर मैं अपने इस बजव्यको समाप्त करता हूँ। सोमसेन-त्रिवर्णाचारकी यह परीक्षा उन्होंने मेरे ही मामह और मेरी ही प्रेरणासे लिखी है, इसलिए मैं अपनेको सौभाग्यशाली समझता है। क्योंकि इससे जैनसमाबका जो मियाभाव हटेगा, उसका एक छोटासा निमित्त मैं भी हूँ। इति ।
मुलण्ड (गा) । मामकृष्ण २,स. १९८५ ,
नाथूराम प्रेमी।
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विषय-सूची
विषय
२ खोमसेन-त्रिवर्णाचारकी परीक्षा... प्राथमिक निवेदन ... ... ... .. १ ग्रंथका संग्रहत्व ... ... ... ... ९ मन प्रथोसे संग्रह ... ... ... ... २९ प्रतिक्षादि-विरोध भगवजिनसेनप्रणीत मादिपुराणके विरुद्ध कपन
मानार्णव प्रयके विकर कथन ७ दूसरे विरुद्ध कथन--(देव, पितर और प्रपियोंका घेरा, १ दन्तधावन करनेवाला पापी, ३ वेळ मलनेकी विलक्षण फलपोपणा, ४ रविवार के दिन बानादिकका निषेष, ५ घरपर डे बरसे मान न करनेकी माझा, ६-८ शवत्वका अद्भुत योग, .
मरकालपमें वास, १. ममकी विचित्र परिभाषा, ११ अघोतका अद्भुत सक्षण, १२ पतिक विलक्षण धर्म, १३वासनकी अनोखी फलकल्पना, १४ सूटन न छोदनेका भयकर परिणाम, १५ देवताओंकी रोक याम, १६ एक पलमें भोजन-मननादिपर भापति, १७ सुपारी खानेकी सबा, १८ भनेककी भजीव करामात, १९ तिलक और वर्मक धुए, २० सूतककी विडम्बना, २१ पिप्पलादि पूमन, २२ पंधपयोग और मर्कविवाह, २३ संकीर्णहयोगार, १४ अनुकालमें भोग न करनेवालोंकी पति, २५ भलीमता और अशिष्टाचार, २६ त्याग या तलाक, २७ वी पुनर्विवाह, २८ तर्पण पाद और पिण्डदान।)
उपसंहार ... ... .. ३धर्मपरीक्षा (श्वेताम्बरी)की परीक्षा ...
२३७ ४ मकर्मक-प्रतिष्ठापाठकी जांच ५पूज्यपाद-उपासकाचारकी जाँच ...
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ग्रन्थ परीक्षा।
(तृतीय भाग) सोमसेन-त्रिवर्णाचार की परीक्षा।
छ वर्ष हुए मैंने 'जैन हितैषी' में 'अन्य परीक्षा', नाम की एक शेखमाला निकालनी प्रारम्भ की थी।
जो कई वर्ष तक जारी रही और जिसमें (१)
- उमास्वामि श्रावकाचार (२) कुन्दकुन्द श्रावका । “चार (३)बिनसेन त्रिवर्णाचार, (१) मद्रबाहु संहिता और (1) धर्म परीक्षा (श्वेताम्बर) नामक ग्रंथों पर विस्तृत मालोचनात्मक निबन्ध लिखे गये और उनके द्वारा, गहरी खोग तथा जाँच के बाद, इन ग्रंथों की असलियत को खोल कर सर्व साधारण के सामने रखा गया और यह सिद्ध किया गया कि ये सब
अकसक-प्रतिष्ठा पाठ, नेमिचन्द्र संहिता (प्रतिष्ठा तिलक) और पूज्यपाद उपासकाचार नाम के प्रयों पर भी बोटे छोटे सेब हिले गये, जिनका उद्देश्य प्रायः अन्य कर्ता और अन्य के निर्माणसमयादि-विषयक मासमझी को दूर करता था और उनके द्वारा यह सष्ट किया गया कि ये अन्य क्रमश तत्वार्थ रामवार्तिक के का महासंकदव, गोमटखार के प्रणेता मीनेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती और सपार्षसिदि के रवयिवा श्री पूज्यपादाचार्य के बनाये हुए नहीं है।
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अंथ वाली सपा बगावटी हैं और इनका अवतार कुछ क्षुद्र पुरुषों यात्रा तस्कर लेखकों द्वारा भाधुनिक महारकी युग में हुआ है। इस सेखमाला ने समाज को जो नया सन्देश सुनाया, जिस भूल तपां पलत का अनुभव कराया, अन्धश्रद्धा की जिस नींद से उसे जगाया और उसमें जिस विचारस्वातव्य तया तुलनात्मक पद्धति से ग्रंथों के अध्ययन को उत्तेजित किया, उसे यहाँ बताने की जहरत नहीं है, उसका अच्छा अनुभव उक्त लेखों के पढ़ने से ही सम्बंध रखता है । हाँ इतना ज़रूर बतलाना होगा कि इस प्रकार की लेखमाला उस वक्त जैन समाज के शिये एक विलकुल ही नई चाल थी. इसने उसके विचार वातावरण में अच्छी क्रान्ति उत्पन्न को, सहृदय विद्वानों ने इसे खुशी से अपनाया, इसके अनेक लेख दूसरे पत्रों में उद्धृत किये गये; अनुगोदन किय गये, मराठी में अनुवादित हुए और अलग पुस्तकाकार भी छपाये गये। स्गद्वादषारिधि पं० गोपालदासजी वरेण्या मे, जिनसेन त्रिवर्णाचार की परीक्षा के बाद से, त्रिवर्णाचारों को अपने विद्यालय के पठनक्रम से निकाल दिया और इसर विचारशील विद्वान् मी उस वक्त से बराबर अपने कार्य तथा व्यवहार के द्वारा उन लेखों की उपयोगितादि को स्वीकार करते अथवा उनका अमिनदन करते भा रहे हैं। और यह सब उक्त लेखमाला की सफलता का अच्छा परिचायक है। उस वक्त-निनसेन त्रिवर्णाचार की परीक्षा लिखते समय मैंने यह प्रगट किया था कि सोमसेन-त्रिवर्णाचार की परीक्षा भी एक स्वतंत्र लेख द्वारा की जायगी। परंतु खेद है कि अवकाश के कारण इच्छा रहते मी, मुझे भान तक उसकी परीक्षा
* बबई के जैन प्रन्धरनाकर कार्यालय ने 'अन्य परीक्षा' प्रथम भाग और द्वितीय माग नाम से, पहले चार प्रन्यों के लेखों को दो मागों में छाप कर प्रकाशित किया है और उनका नागत मल्य क्रमशः छह आने तथा चार पाने क्या है।
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[ ३ ]
लिखने का कोई असर नहीं मिल सका । मैं उस वक्त से बराबर ही दूसरे ज़रूरी कामों से घिरा रहा हूँ। आज भी मेरे पास, यद्यपि इसके लिये काफी समय नहीं है--- दूसरे अधिक बरूरी कामों का ढेर का ढेर सामने पड़ा हुवा है और उसकी चिंता हृदय को व्यथित कर रही हैपरंतु कुछ अर्से से कई मित्रों का यह लगातार भाग्रह चल रहा है कि इस विचार की शीघ्र परीक्षा कीजाय । वे आज कल इसकी परीक्षा को खास तौर से आवश्यक महसूस कर रहे हैं और इसलिये श्राज इसी का त्रिचित् प्रयत्न किया जाता है।
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इस त्रिवर्णाचारका दूसरा नाम 'धर्म रसिक' ग्रंथ भी है और यह तेरह अध्यायों में विभाजित है। इसके कर्ता सोमसेन, यद्यपि, अनेक पथों में अपने को 'मुनि', 'गणी' और 'मुनीन्द्र' तक लिखते है परन्तु वे वास्तव में उन आधुनिक महारकों में से थे जिन्हें शिपिसा चारी और परिप्रहधारी साधु अथवा श्रमणांमास कहते हैं। और इसलिये उनके विषय में बिना किसी संदेह के यह भी नहीं कहा जा सकता कि वे पूर्णरूप से श्रावक की ७ वीं प्रतिमा के भी धारक थे। उन्होंने अपने को पुष्कर छ के भट्टारक गुणमद्रसूरिका पट्टशिष्य लिखा है और साथ ही महेन्द्रकीर्ति गुरु का जिस रूप से, उन किया है उससे यह जान पड़ता है कि वे इनके विद्या गुरु थे | भट्टारक सोमसेनजी कब हुए हैं और उन्होंने किस सन् सम्बत् में इस ग्रंथ की रचना की है, इसका अनुसन्धान करने के लिये कहीं दूर जाने की ज़रूरत नहीं है। स्वयं महारकजी ग्रंथ के प्रत में लिखते हैं
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* यथाः
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... श्रीभट्टारक सोमसेन मुनिभिः
॥२- ११५ ॥
श्रीमहारक सोमसेन मसिना ।। ४-२१७ ॥ * पुण्यान्तिः सोमसेनैमुनीन्द्रैः ॥६- २१८ ॥
०५०
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[ ४ ]
अ तत्वरचन्द्रकलिने श्रीविक्रमादित्यज्ञे मासे कार्तिक नामनी धवले पक्षे शरत्वभवे । वारंभास्यति सिद्धनामनि तथा योगे सुपूर्णतिथौ ।
नक्षत्रेऽश्विनिनानि धर्मरसिको प्रथम पूर्वीकृतः ॥ २१७n अर्थाद यह धर्म रसिक ग्रंथ विक्रम सं० १६६५ में कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा को रविवार के दिन सिद्ध योग और अश्विनी नक्षत्र में लगाकर पूर्ण किया गया है।
इस ग्रंथ के पहले अध्याय में एक प्रतिज्ञा-वाक्य निम्न प्रकार से दिया हुआ है
यत्प्रोक्तं जिनसेनयोन्यगणिभिः सामन्तमद्वैस्तथा । सिद्धान्ते गुणभद्र नाममुनिभिर्महाकांकः परैः श्रीसूरिविजनामधेय विद्युधैराशाघरेयग्बरेस्तदृदृष्ट्वा रचयामि धर्मरसिकंशात्रिचर्यात्मकम् ॥ अर्थात् — जिनसेनगरणी, समेतमद्राचार्य, गुरणमद्रमुनि, मट्टाकसंक, विबुध ब्रह्मसूरि और पं० आशावर मे अपने २ ग्रंथों में जो कुछ कहा है उसे देखकर मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य नाम के तीन वणों का आचार बतलाने वाला यह 'धर्मरसिक' नामका शास्त्र रचता हूँ ।
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ग्रंथ के शुरू में इस प्रतिज्ञा वाक्य को देखते ही यह मालूम होने लगता है कि इस ग्रंथ में जो कुछ भी कथन किया गया है वह सब उक्त विद्वानों के ही बचनानुसार उनके ही ग्रंथों को देखकर किया गया है। परन्तु ग्रंथके कुछ पत्र पलटने पर उसमें एक जगह ज्ञानार्णव ग्रंथ के अनुसार, जो कि शुभचंद्राचार्य का बनाया हुआ है, ध्यान का कपन करने की और दूसरी जगह. भट्टारक एकसंधि कृत संहिता (जिनसंहिता) के अनुसार होमकुण्डों का लक्षण कथन करने की प्रतिज्ञाएँ भी पाई जाती है। यथा
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"यान तापवई पवामिविज्ञानावे यम्मतम् ॥१-२॥". "क्षणं रोमकरसानां पतये शासानुसारतः।
महारकंसन रष्ट्या निर्मलसंहिताम् ॥४-१०४॥.., , इसके सिवाय कहीं २ पर खास तौर से मासूरि, अथवा ,बिनसेनाचार्य के महापुराण के अनुसार कपन करने की जो पृषक रूप से प्रतिज्ञा या सूचना की गई है उसे पहची प्रतिज्ञा के ही अंतर्गत अषया उसी का विशेष रूप समझना चाहिये, ऐसी एक सूचना तथा प्रतिक्षा नीचे दी जाती है- . __श्रीप्रसासपिरिजवंशरत्न श्रीजैनमार्गप्रषिवुद्धतत्वः : वाचतु तस्यैवविलोक्यशासंकविशषामुनिसोमवेने।३-१५० जिनसेनमुनि नत्वा वैवाहविधिमुत्सवम् । वक्ष्येपुराणमार्गखलौकिकाचारसिद्धये ॥११-२॥
इन सब प्रतिज्ञा पाक्यों और सूचनाओं से ग्रंथ करी में अपने पाठकों को दो बातों का विश्वास दिखाया है
(१) एक तो यह कि, यह त्रिवर्णाचार कोई संग्रह पंप नहीं है बल्कि भनेक जैनमयों को देखकर उनके आधार पर इसकी स्वतंत्र रचना कीगई है।
(२)ससे यह कि इस ग्रंथ में जो कुछ लिखा गया है यह उक्त जिनसेनादि हों विद्वानों के अनुसार तथा जैनागम के अनुकूल • ग्रेन्थ के नाम से भी यह कोई संग्रह अन्य मालूम नहीं होता
औरन इसकी संधियों में ही इसे संग्रह अन्य प्रकट किया गया है। एक संषि नमूने के तौर पर इस प्रकार है-. . .
इति श्री धर्मरसिक, शाले.निवर्णाचार निरूपके भहारक श्री सोमसेन विरविते मानवस्वाचमन संध्या वर्षय वसनो नाम वतीयोऽध्यायः
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[ ] लिखा गया है और जहाँ कहीं दूसरे (शुभचन्द्रादि) विद्वानों के प्रथानुसार कुछ कहा गया है यहाँ पर उन विद्वानों अथवा उनके प्रयों का नाम देदिया गया है।
परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । ग्रंथ को परीक्षादृष्टि से अवलोकन करने पर मालूम होता है कि यह ग्रंथ एक अच्छा खासा संग्रह पंथ है, इसमें दूसरे विद्वानों के देर के ढेर वाक्यों को ज्यों का यो वठा कर या उनमें कहीं कहीं कुछ साधारणसा भवत्रा निरर्थकसा परिवर्तन करके रक्खा गया है, ने वाक्य ग्रंथ के प्रतिपाथ विषय को पुष्ट करने के लिये 'उक्तं च' आदि रूप से नहीं दिये गये, बल्कि वैसे ही ग्रंथ का अंग बना कर अपनाये गये हैं और उनको देते हुए उनके लेखक विद्वानों का या उन ग्रंथों का नाम तक भी नहीं दिया है, जिनसे उठाकर उन्हें रक्खा है। शायद पाठक यह समझे कि ये दूसरे विद्वान् ही होंगे, जिनका उक्त प्रतिक्षा-वाक्यों में उल्लेख किया गया है। परन्तु ऐसा नहीं है-उनके अतिरिक्त और भी बीसियों विद्वानों के शब्दों से ग्रंप का कलेवर बदाया गया है और वे विद्वान् जैन ही नहीं किन्तु अनैन भी हैं। अनेनों के बहुत से साहित्य पर हाथ साफ किया गया है और उसे दुर्भाग्य से जैन साहित्य प्रकट किया गया है, यह बड़े ही खेद का विषय है । इस व्यर्थ की उठा घरी के कारण ग्रंथ की तरतीब भी ठीक नहीं बैठसकी-वह कितने ही स्थानों पर स्खलित अथवा कुछ बेढंगेपन को लिये हुए होगई है और साप में पुनरुक्तियों भी हुई है। इसके सिवाय, काही २ पर उन विद्वानों के विरुद्ध भी कयन किया गया है जितके वाक्यानुसार कथन करने की प्रतिज्ञा अथवा सूचना की गई है और बहुतसा कपन जैन सिद्धांत के विद्ध, अथवा लैनादर्श से गिरा हुआ मी.इसमें पाया जाता है। इस तरह पर यह ग्रंथ एक बड़ा ही विचित्र ग्रंथ जान पड़ता है, और 'कहीं की ईट कहीं का रोड़ा, मानमती ने कुनबा जोगा' वाली
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[७] कहावत को भी कितने ही देशों में चरितार्थ करता है । यथापित यह अंथ उक्त जिनसेन त्रिवर्णाचारादि की तरह का जासी अंग नहीं है, इसकी रचना प्राचीन बड़े आचार्यों के नाम से नहीं हुई-फिर भी यह अर्धजाली वरूर है और इसे एक मान्य जैन ग्रंथ के तौर पर स्वीकार पारने में बहुत बड़ा संवोध होता है । नीचे इन्हीं सब बातों का दिग्दर्शन कराया जाता है, जिससे पाठकों को इस प्रन्थ के विषय में अपनी मेक सम्मति सिर काने का अवसर मिल सके।
सव से पहले मैं अपने पाठकों को यह मतक्षा देना चाहता है कि उक्त प्रतिज्ञा पचान में जिन विद्वानों के नाम दिये गये हैं उनमें 'महाकलंक से अभिप्राय राजषार्तिक के कर्ता भटाकलंक देव से नहीं है बल्कि प्रकासंक-प्रतिष्ठापाठ (प्रतिष्ठातिक) आदि के कर्ता पूसरे महाकलंक से है जिन्होंने अपने को 'मटाकलंकादेव.' भी सिखा है और जो विक्रम की प्रायः १६ वीं शताब्दी के विद्वान थे। और 'गुणभद्र' मुनि संभवतः बेही मारक गुणभद्र बान परते हैं, नो अंश कर्ता के पद गुरु थे। गुणमद महारक के बनाये हुए 'पूनाकम्प' मामक एक पंथ का उल्लेख मी 'दिगम्बर जैन ग्रंथकर्ता और उनके प्रय नामक सूची में पाया जाता है । होसकता है कि इस ग्रंथ के पाधार
इस निर्याधार में जिनसेन मावि दुसरे विद्वानों के वाक्यों का जिस प्रकार से मोन पाया जाता है, उस प्रकार से राजवानिक के का मकसक देव के बनाये हुए किसी भी प्रथ का आया कोई सोन'नहीं मिलता। हाँ, प्रकर्षक प्रतिष्ठापाठ के कितने ही कपनों *साय विचार के कपनों का मेला तथा सीडश्य जंबर है और कुछ पधादिक दोनों ग्रंथों में समान रूप में भी पाये जाते इससे एक पत्र में महाक " पद का पाच्य क्या है। यह बहुत कुछ स्पट होजाता है।
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पर भी प्रकृत विचार में कुछ कपन किया गया हो और इसके भी वाक्यों को बिना नाम धाम के उठा कर रखा गया हो । परन्तु मुझे गुणभद्र मुनि के किसी भी प्रथ के साथ इस ग्रंथ के साहित्य को माँचने का अवसर नहीं मिल सका और इसलिये में उनके ग्रंथ विपय का यहाँ कोई उल्लेख नहीं कर सकूँगा । बाकी चार विद्वानों में से जिनसेनाचार्य तो 'श्रादिपुराण' के कर्ता, स्वामी समन्तभद्र 'रत्नकरण्डक' श्रावकाचार के प्रणेता पं० शाघर' सागार धर्मामृत' आदि के रचयिता और विष प्रसूरि हासूरि-त्रिवर्णाचार' अथवा 'जिनसंहिता सारोदार' के विधाता हुए हैं जिसका दूसरा नाम 'प्रतिष्ठातिलक' भी है। श्राशावर की तरह ब्रह्मसूरि भी गृहस्थ विद्वान थे और उनका समय विक्रम की प्रायः १५वीं शताब्दी पाया जाता है। ये जैन धर्मानुयायी ब्राह्मण थे। सोमसेन ने भी 'श्रीब्रह्मसूरिद्विजवंशरवं','ब्रह्मसूरिसुविप्रेण,' 'श्रीब्रह्मसूरिवरविप्रकवीश्वरेण' आदि पदों के द्वारा इन्हें माह्माण वंश का प्रकट किया है । इनके पिता का नाम 'विजयेन्द्र' और माता का 'श्री' था। इनके एक पूर्वज गोविन्द भट्ट, वो वेदान्तानुयायी ब्राह्मण थे, खामी समन्तभद्र के 'देवागम' स्तोत्र को सुनकर जैनधर्म में दीक्षित होगये ये f । उसी वक्त से इनके वंश में जैनधर्म को बराबर मान्यता चली आई है, और उसमें कितने ही विद्वान हुए हैं।
ब्रह्मसूरि-त्रिवर्णाचार को देखने से ऐसा मालूम होता है कि अ सूरि के पूर्व जैनधर्म में दीक्षित होने के समय हिन्दूधर्म के कितने -डी संस्कारों को अपने साथ लाये थे, जिनको उन्होंने स्थिर हो नहीं रक्खा बल्कि उन्हें मैन का लिवास पहिमाने और त्रिवर्णाचार जैसे ग्रंथों द्वारा उनका जैनसमाज में प्रचार करने का भी आयोजन किया है। संभव है देश काल की परिस्थिति ने भी उन्हें वैसा करने के लिये
+ देखो ठक 'निसंहितासापेदार' की प्रशस्ति ।
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[8] मजबूर किया हो-उस वक प्राण. लोग जैन द्विजों अथवा मैनधर्म में दीक्षितों.को 'वर्णानः पाती और.संस्कारविहीनों को 'शद तक कहते. थे; माश्चर्य नहीं जो यह बात नव दीक्षितों को-खासकर विद्वानों कोअसह्य हो उठी हो और उसके प्रतीकार के लिये ही उन्होंने अथवा उनसे पूर्व दीक्षितों ने उपर्युक्त आयोजन किया हो। परंतु कुछ भी हो। इसमें संदेह नहीं कि.उस वक्त दक्षिण मारत में इस प्रकार के साहित्य की-संहिता शास्त्रों, प्रतिष्ठा पाठों और त्रिवर्णाचारों की बहुत कुछ सृष्टि हुई है। एक संधि भ० जिन संहिता, इन्द्रमन्दि संहिता, नेमिचंद्र संहिता, भद्रबाहु,संहिता, आशाधर प्रतिष्ठापाठ, अकसक प्रतिष्ठा पाठ
और जिनसेन त्रिवर्याचार शादि बहुत से अंथ उसी वक्त के.बने हुए हैं। इस प्रकार के सभी उपलब्ध ग्रंथों की सृष्टि विक्रम की प्रायः दूसरी सहसान्दी में पाई जाती है-विक्रम की पहली सहसाब्दी (दसवीं शताब्दी तक) का बना हुमा वैसा एक भी ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं सुना
और इससे यह माना जाता है कि ये ग्रंथ उस जमाने की किसी खास हलचल के परिणाम हैं और इनके कितने ही नूतन विषयों का, जिन्हें खासतौर से लक्ष्य में रखकर ऐसे ग्रंथों की सृष्टि की गई है, जैनियों के प्राचीन साहित्य के साथ प्रायः कोई सम्बन्ध विशेष नहीं है । प्रस्तु, . . .. अन्यका संग्रहत्व। . .
(1) इस त्रिवर्णाचार में सब से अधिक संग्रह यदि किसी संथ का किया गया है तो वह ब्रह्मसूरि का उक्त निवर्णाचार ही है। सोमसेन ने अपने त्रिवर्णाचार की श्लोक संख्या, प्रथके अंत में,२७०० दी है और यह संख्या ३२ अक्षरों की श्लोक. गणना के अनुसार
#नेमिचंद्र संहिवाके रचपिया'नेमिचंद्र' भी एक हस्थ विद्वान थे और वे प्रारि के मानने थे।देखो नेमिचंद्र संहिता की मशस्ति अथवा जैन हितैषी के १२३ भाग का अंकन:४-१५
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[१०] भान पड़ती है। परन्तु वैसे, अंथ की पद्य संख्या २०४६ है और वाक्री का उसमें मंत्र भाग है जो १५० या ६०० श्लोकों के करीब होगा । कुछ अपवादों को छोड़ कर, यह सारा मंत्र माग प्रमूरित्रिवर्णाचार से उठाकर-व्यों का त्यों अपवा कहीं कहीं कुछ बदलकररक्खा गया है। रही पद्यों की बात, उनका जहाँ तक मुकाबला किया गया उससे मालूम हुआ कि इस अन्य में .६६ पप तो ऐसे है जो प्राय: ज्यों के त्यों और १७७ पब ऐसे हैं जो कुछ परिवर्तन के साथ ब्रह्मसूरि त्रिवर्णाचार से उठा पर रक्खे गये हैं। इस तरह पर अंथ का कोई एकतिहाई माग ब्रह्मसूरि त्रिवर्णाचार से लिया गया है
और उसे बाहिर में अपनी रचना प्रकट किया गया है । इस अन्य संग्रह के कुछ नमूने इस प्रकार हैं:
(क) ज्यों के त्यों उठाकर रक्खे हुए पथ । सुख पांचम्ति सर्वेऽपि जीवा दुख न जावित् । वस्मात्सुपिणो जीवा संस्कारागामिसम्मताः ॥२-७॥ एवं वशाहपर्यन्तमेतत्कर्म विधीयते। पिंड तिलोदकं चापि कर्चा दद्याचदान्वहम् ।। १३-९७६ ॥
इन पचों में से पहला पथ ब्रह्मसूरि-त्रिवर्णाचार का ५याँ और दूसरा पथ उसके अन्तिम पर्व का १३९ वा पर है । दूसरे पद्य के भाग पीछे के और भी पचासों पर ब्रह्मसूरि-त्रिवर्णाचार से ज्यों के त्यों उठाकर रखे गये हैं। दोनों प्रन्यों के अन्तिम भाग (अध्याय तथा पर्व ) सूतक प्रेतक अथवा जननाशोच और मृताशीच नामके प्रायः एक ही विषय को लिये हुए भी है। .
(ख)परिवर्तन करके रक्खे हुए पद्य । । कालादिग्धितः पुंसामन्तशुचिः प्रजायते।
मुख्यापेक्षा संस्कारो पाखामपेक्षते ।।
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चतुर्थे दिवसे सायास्त्राताँतर्गत:पुरा। । पूर्वाहवाटिकाषट्कं गोलग इति भापितः ॥१३,२२॥
शुद्धाममतुतिमोजने ल्यनेऽपिया। देवपूजा गुरूपास्तिहोमलेवासु पंचमे ॥ १३-२३ ॥
ये पथ ब्रह्मसूरि-त्रिवर्याचार के जिन पदों को परिवर्तित करके. बनाये गये है वे क्रमशः इस प्रकार है
अन्तशुद्धिस्तु जीवानां भवेत्कालाविलब्धितः । एपामुख्यापिलरकारे पाह्यशुचिरपेक्षते ॥७॥ रजस्वलाचतुम्हि बायादोसर्गतः परं । पूर्वाह टिकापट्कं गोलग इवि भाषितः ।। -१३॥ तस्मिनहनि चोग्या स्थाबुक्क्या गृहकर्मणि । ६षपूजा गुरूपास्तिहोमसेवा पंचमे ॥ ८-१०॥
इन पदों का परिवर्तित पदों के साथ मुकाबला करने से यह सहन ही में मालूम हो जाता है कि पहले पत्र में बो परिवर्तन किया गया है उससे कोई अर्थ-मेद नहीं होता, बल्कि साहित्य की दृष्टि से वह कुछ घटिया जरूर हो गया है। मालूम नहीं फिरे इस पर को बदलने का क्यों परिश्रम किया गया, जब कि इससे पहला 'सुखवांछन्ति' नाम का पच ज्यों का सो उठाकर रखा गया था! इसे. भी उमी तरह पर उठाकर रख सकते थे। शेष दोनों पयों के उत्तरार्ध ज्यों के यों है, सिर्फ पूर्वार्ष बदखे गये हैं और उनकी यह तबदीली बहुत कुछ मही जान परती है। दूसरे पक्ष की तबदीची ने तो कुछ विरोध, भी उपस्थित कर दिया है-ब्रह्मरि ने चौथे दिन रजखना के लान का समय पूर्वाह की घड़ी के बाद कुछ दिन चढे रक्खा पा; परन्तु ब्रह्मसूरि । के अनुसार कथन की प्रतिज्ञा करने वाले सोमसेनजी ने, अपनी इस तबदीनी के द्वारा गोसर्ग की, उक्त छह घड़ी से पहले रात्रि में ही उसका विधान
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[१२] कर दिया है। इससे इन पदों के परिवर्तन की निरर्थकता स्पष्ट है और साथ ही सौमसेनजी की योग्यता का भी कुछ परिचय मिल जाता है।
(ग) परिवर्तित और अपरिवर्तित मन्त्र । इस अन्य के तीसरे अध्याय में, एक स्थान पर, दशदिक्पालों को प्रसन्न करने के मन्त्र देते हुए, लिखा है। वतोऽपि मुखितकर कुड्ममा सन् "नमोहते भगवते . श्री शांतिनाथाय शांतिफराय सर्वविनमणानाय सर्वरोगापमृत्युविनाशनाय सर्व पर शुद्रोपदयविनाशनाय मम सर्वशास्तिर्मवतु " इत्युचा
इसके बाद पूर्वस्यां दिशि इन्द्रः प्रसीदतु, आग्नेयां दिशि अग्नि प्रसीदतु, दक्षिणस्यां दिशि यमा मशीदतु' इलादि रूप से ये प्रसन्नता सम्पादन कराने वाले दसों मन्त्र दिये हैं। ये सब मन्त्र वेही है भो बासीर-त्रिवर्णाचार में भी दिये हुए हैं, सिई 'उत्तरसां दिशि कुवेर प्रसीदतु' नामक मन्त्र में कुवर की जगह यहाँ 'या ' पद का परिवर्तन पाया जाता है। परन्तु इन मन्त्रों से पहले 'ततोऽपिमुकलितकरकुदमलः सन्' और 'इत्युचार्य के मध्य का.जो मंत्र पाठ है वह मासूरि त्रिवर्णाचार में निम्न प्रकार से दिया हुआ है। गोईत श्रीयाविनाथाय शांतिकराय सर्व शांतिर्मपतु स्वाहा।
समंत्र में जिन विशेषण पयों को बढ़ाकर इसे कार का रूप दिया गया है से लोमसनजी के उस विशेष स्थान का एक नमूना समझना चाहिये जिसकी सूचना उन्होंने अध्याय के अन्त में निन्न पप द्वारा की है
श्री ब्रह्मसार लिमबंध रख भी जैनमार्ग प्रविबुद्धतत्वा । पाचंतु तस्यैष पिशोप शाय एवं विशेषान्मुगिसोमसेन ।
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[१३] इस प्रदर्शन से यह स्पष्ट जाना जाता है कि सोमसेनजी इन किया मंत्रों को ऐसे पार्ष मंत्र नहीं समझते थे जिनके अक्षर अचेतुले अथवा शिने चुने होते हैं और नितमें अक्षरों की कमी वेशी आदि के कारण कितनी ही बिडम्बना होजाया करती है भषवा पों कहिये कि यथेष्ट फल संघटित नहीं होसकता । ये शायद इन मंत्रों को इतना साधारण समझते थे कि अपने जैसों को भी उनके परिवर्तन का अधिकारी मानते थे । यही वजह है बो उन्होंने उक्त दोनों मंत्रों में और इसी तरह और मीबहुत से मंत्रों में अपनी इच्छानुसार तबदीली अथवा न्यूनाधिकता की है, जिस सबको यहां बतलाने की भावश्यकता नहीं है । मंत्रों का मी इस पंप में कुछ ठिकाना नहीं-अनेक देवताओं के पूजा मंत्रों को छोड़कर, नहाने, घोने, कुल्चा दाँतन करने, खाने, पीने, पत्र पहनने, चलने फिरने, उठने बैठने और हगने मूतने मादि बात बात के मंत्र पाये जाते हैं-मंत्रों का एक अनसा नजर आता है और उनकी रचना का ढंग भी प्रायः बहुत कुछ सीधा सादा तथा आसान है। ॐ ही, भाई स्वाहा श्रादि दो चार अक्षर इधर उधर जोड़ कर और कहीं कहीं कुछ विशेषण पद भी साथ में लगाकर संस्कृत में यह बात कहदीगई है जिस विषय का कोई मंत्र है। ऐसे कुछ मंत्रों का सारांश यदि हिन्दी में दे दिया जाय तो पाठकों को उन मंत्रों की जाति तथा प्रकृति मादि के समझने में बहुत कुछ सहायता मिलेगी। अतः नीचे ऐसे ही कुछ मंत्रों का हिन्दी में दिग्दर्शन कराया जाता है। १ ॐ ही, हे यहाँ के क्षेत्रपात ! क्षमा करो, मुझे मनुष्य बानो, इस स्थान से चले जाओ, मैं यहाँ मल मूत्र का त्याग करता है, स्वाहा।
. २ ॐ इन्द्रों के मुकुटों की रलप्रमा से प्रक्षामित पाद पम भाईसमगवान को नमस्कार, मैं शुद्ध जल से पैर धोता हूँ, स्वाहा।
३ ॐ ही . .""मैं हाथ धोता हूँ, स्वाहा ।
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[१४] ४ ॐ ही क्षी मत्री, मैं मुँह धोता हूँ, स्वाहा। ५ ऊँपरम पवित्राय, मैं दन्तपावन (दातन कृया) करता हूँ, स्वाहा।
६ ऊहाँ श्री की एंबई असिनावमा, मैं लान करता हूँ, स्वाहा। • ७ॐ ही, संसार सागर से निकले हुए महन्त भगवान को नमस्कार, मैं पानी से निकलता हूँ, स्वाहा।
ॐ ही ली मवी अहं हंसा परम पावनाय, मैं पस पवित्र करता हूँ, स्वाहा ।
ॐ, हे खेतवर्ण वानी, सर्व उपद्रवों को हरने वाली, सर्व महाजनों का मनोरंजन करने वाली, धोती दुपट्टा धारण करने वाली हंझ में संत में घोती दुपट्टा धारण करता हूँ स्वाहा । १० ॐ मर्मवः स्वः प्रसिधाउसा, मैं प्राणायाम करता हूँ, स्वाहा। ॐही ...,मैं सिरके ऊपर पानी के छोटे देता हूँ, स्वाहा ।
ॐ ही ....मैं चुल्लू में पानी लेता हूँ, स्वाहा। १३ ॐ ही मैं चुल्लू का अमृत (जन ) पीता हूँ, स्वाहा । १४ ॐ ह्रीं अहं, मैं किषाय खोजता हूँ, स्वाहा । १५ऊँ हो अहं मैं हारपासको(भीतर जाने की सूचना देताहूँ,स्वाहा। १६ ॐ ही, मई में मंदिर में प्रवेश करता हूं, खाहा। १७ ॐ ही, मैं मुख पक्ष को उपाइता हूँ, स्वाहा । १८ ॐ ही, आई, मैं यागभूमि में प्रवेश करता हूँ, स्वाहा । १६ ॐ ही. मैं बाजा बनाता हूँ, स्वाहा। २. ॐ ही...मैं पृथ्वी को पानी से धोकर शुद्ध करता हूँ, खाहा । २१ ॐ ही अहं हां ठठ, मैं दर्मासन विधाता है, स्वाहा । २२ ॐ ही अहं निस्साही हूँ फट् मैं दर्मासन पर बैठता हूँ, स्वाहा।
२३ ॐ ही ही हूँछौंः , श्री हन्त भगवान को नमस्कार, मैं शुद्ध जल से बरतन धोता हूँ, स्वाहा । ।
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ॐ ही मई" मैं पूजा के द्रव्य को धोता हूँ स्वाहा। . २५ ॐ हीं गई....मैं हाथ मोदता हूँ. स्वाहा । २६ ही लक्षये. मैं कलश उठाता, स्वाहा।
ॐ ॐ सर, मैं दर्म डालकर भाग जलाता हूँ स्वाहा। ॐ ह्री. मैं पवित्र जलसे द्रव्य शुद्धि करता हूँ, स्वाहा । ॐ ही, मैं कुश प्रक्षण करता हूँ, स्वाहा । ॐ ही, में पवित्र गंधोदक को सिर पर लगाता हूँ, स्वाहा।
ॐ ही..., मैं बासक को पालने में सुलाता हूँ, स्वाहा । ३२ ऊही भई प्रसिभाउसा, मैं पासक को बिठलाता हूँ. स्वाहा।
३३ ॐ ही श्री भई, में बालक के कान नाक वीषता हूँ, असि भासा स्वाहा।
३४ ॐ मुक्ति शक्ति के देने वाले अहन्त भगवान को नमस्कार में बालक को भोमन करता हूँ...स्वाहा!
२५ ॐ......, मैं बालक को पैर धरना सिखलाता हूँ, स्वाहा।
प्रायः ये सभी मंत्र नमसूरि-त्रिवर्णाचार में भी पाये जाते हैं और वहीं से उठाकर यहाँ रखे गये मालूम होते हैं। परंतु किसी २ मंत्र में कुछ अक्षरों की कमी बेशी अथवा तबदीली जरूर पाई जाती है और इससे उस विचार को और भी ज्यादा पुष्टि मिलती है जो ऊपर बाहिर किया गया है। साथ ही, यह मालूम होता है कि ये मंत्र जैनसमान के लिये कुछ अधिक प्राचीन तथा रूढ नहीं है और न उसकी व्यापक प्रकृति या प्रकृति के अनुकूल ही जान पड़ते हैं। कितने ही मंत्रों की सृष्टि-उनकी नवीन कल्पना—महारकी युग में हुई है और यह बात आगे चक्षकर सष्ट की जायगी | - '
(२)पं० आशाधर के अंधों से भी कितने ही पथ, इस त्रिवर्णा। पार, में, बिना नाम धाम के संग्रह किये गये हैं । छठे अध्याय में २२
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[१६] और दसवें अध्याय में १३ पप सागार धर्मामृत से लिये गये हैं । इनमें से छठे अध्याय के दो पदों को छोड़कर, जिनमें कुछ परिवर्तन किया गया है, शेष ३२ पथ ऐसे हैं जो इन अध्यायों में ज्यों के त्यों उठाकर रखे गये हैं। अनगारधर्मामृत से भी कुछ पथ लिये गये हैं और भागाधर-प्रतिष्ठापाठ से भी कितने ही पयों का संग्रह किया गया है। छठे अध्याय के ११ पचों का माशापर-प्रतिष्ठा पाठ के साथ जो मुक्काबला किया गया तो उन्हें ज्यों का लों पाया गया । इन पदों के कुल नमूने इस प्रकार हैं:
योग्य कालासनस्थानमुद्राऽवशिरोमतिः। : विनयेन यथाजात तिकर्मामसं भजेत् ॥१-६३ : किमिच्छकेन दानेन जगवाया पूर्व या र घनिभिः क्रियते सोऽहंयको कारपर्युमो मतः ॥ ६-७ ॥ जाती पुष्पसामाणि जप्त्वा द्वादश सरसा।
विधिनादच होमस्य विद्या सिदधति पर्मिनः ॥६-४॥ • • इनमें से पहचा-पद्य अनगारधर्मामृत के इवें अध्याय का ७८ वो, दूसरा पद-सागारधर्मामृत के दूसरे अध्याय का २८ वाँ और तीसरा पच आशधर-प्रतिष्ठापाठ (प्रनिष्ठासरोद्धार ) के प्रथमाध्याय का १३ वापरः । प्रतिष्ठापाठ के अगले नं० १४ से २४ तक के पष भी यहीं एक स्थान पर ज्यों के यो उठाकर रखे गये हैं। . . .
. षिमपणे बामे सोने चोगे विपर्यये। .. ; • बनवावरी मुखे दुःखे सर्वदा समतामम ॥ १-६४॥
यह अनगारनामृत के आठवें अध्याय का २७ वा पथ है। इसका चौथा चरण यहाँ बदला हुआ है-साम्यमेवाभ्युपैम्यहम्' की जगह 'सर्वदा समंता मम ऐसा बनाया गया है। मालूम नहीं इस परिवर्तन की क्या जरूरत पैदा हुई भार इसने कौनसी विशेषता
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[१७] उत्पन्न की ! बक्कि नियतकालिक सामायिक के अनुष्ठान में 'सर्वदा' शब्द का प्रयोग कुछ खटकता बरूर है। मद्यमांसमधून्युमेरपंचतीरफलानि । अष्टैवान गृहियां मूलगुणान् स्थावधाविदुः । ६.१६४ ॥
यह पब सागर-धर्मामृत के दूसरे अध्याय के पद नं० २ और नं. ३ बनाया गया है । इसका पूर्वार्ध पथ नं. २ का उत्तरार्ध
और उचिरा पर नं ३ का पूर्षि है । साथ ही स्थूलवधादि वा' की नगइ यहाँ 'स्थूलषधाद्विदुः' ऐसा परिवर्तन भी किया गया है। सागार-धर्मामृत के वक्त पच नं० १का पूर्वाध है 'तत्रादौ अहषज्जैनीमाज्ञा हिसामपासितु' और पच नं० ३ का उचराध है 'फलस्थाने स्मरेद चूतं मधुस्थान इहैव वा। ये दोनों प १० अध्याय में ज्यों के त्यों उद्धृत भी किये गये हैं
और वहाँ पर अटल गुणों का विशेष रूप से कपन भी किया गया है, फिर नहीं मालूम यहाँ पर यह भष्ठमूम गुणों का कपन दोबारा क्यों किया गया है और इससे क्या लाम निकाला गया। प्रकरण में यहाँ स्याज्य भाग अथवा मोबन का था-कोल्हापुर की छपी हुई प्रति में 'अपत्याज्यामम्' ऐसा उक्त पच से पहले लिखा भी है और उसके लिये इन पान बातों का कथन उन्हें पास गुरु की संख्या न देते हुए भी किया था सकता था और करना चाहिये था-खासकर ऐसी हालत में जब कि इनके व्याग का मूलगुण रूप से भागे कथन करना ही था। इसके सिवाय दूसरे 'रागजीववधापाय' नामक पत्र में जो परिवर्तन किया गया है यह बहुत ही साधारण है। उसमें 'रानिमक की जगह 'रात्रीसुति बनाया गया है और यह बिलकुल ही निरर्थक परिवर्तन जान पड़ता है।
* यह सागार-धर्मामुत नुसरे अध्याय का १४ वा पय है और सोमसन-त्रिवर्णाचार के छ अध्याय में नं० २०१ पर बजे है।
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[१८]
(३) इस ग्रंथ के दसवें अध्याय में कर श्रावयंप्रचार के 'विषयाशावशातीतो' आदि साठ पथ तो ज्यों के त्यों और पाँच पथ कुछ परिवर्तन के साथ संग्रह किये गये हैं । परिवर्तित पद्यों में से पहला पद्म इस प्रकार है ।
अष्टांगेः पालितं शुद्धं सम्यक्त्यं शिषदायकम् ।
न हि मंत्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ॥ २८ ॥
यह पद्य रत्नकरण्ड श्रावकाचार के २१ में पथ रूपान्तर है । इसका उत्तरार्ध तो नही है जो उक्त २१ में पद्य का है, परन्तु पूर्वार्ध को बिलकुल ही बदल डाला है और यह तबदीली साहित्य की दृष्टि से बड़ी दी भद्दी मालूम होती है । रत्नकरण्ड श्रावकाचार के २१ वे पथका पूर्वार्ध है
नाङ्गहीनमलं छेत्तुं दर्शनं जन्मसन्ततिम् ।
पाठकजन देखें, इस पूर्वार्ध का उक्त पथ के उत्तरार्ध से कितना गहरा सम्बन्ध है । यहाँ सम्यग्दर्शन की मंगहीनता जन्मसंतति को नाश करने में समर्थ है और वहाँ उदाहरण में मंत्र की अक्षरन्यूनता विषवेदना को दूर करने में अशक्त है-दोनों में कितना साम्प, कितना सादृश्य और कितनी एकता है, इसे बतलाने की ज़रूरत नहीं | परन्तु खेद है कि भट्टारकनी मे इसे नहीं समझा और इसलिये उन्होंने रत्न के एक टुकड़े को अलग करके उसकी जगह काच जोड़ा है जो बिल फुल ही बेमेल तथा बेडौल मालूम होता है। दूसरे चार पर्योों की भी प्रायः ऐसी ही हालत है- उनमें जो परिवर्तन किया गया है वह व्यर्थ जान पड़ता है । एक पंथ में तो 'महाकुला!' की नगह उत्तमकुलाः' बनाया गया है, दूसरे में 'ज्ञेयं पाखडिमोहन' को 'ज्ञेया'पाखण्डिमूढता' का रूप दिया गया है, तीसरे में 'स्मयमा हुर्गे'तस्मयाः' की जगह 'श्रीपते तन्मदाष्टकम्' यह चौथा चरण कायम किया गया है और चौथे पथ में 'दिव्यशरीरं च लभ्यन्ते'
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[१९] के स्थान पर विद्यन्ते कामदा नित्यम्' यह नवीन पंद जोबा या है और इससे मूलका प्रतिपाय विषय मी कुछ कम होगया है। ।
(१) श्रीजिनसेनाचार्यप्रणीत भादिपुराण से भी कितने ही पर उठाकर इस मंथ में रक्खे गये हैं, जिनमें से दो पथ नमूने के तौर पर इस प्रकार हैं
प्रतचर्यामहं वक्ष्ये क्रियामस्त्रोपविभ्रता। फट्यूब शिरोलिंगमनूचामनतोधितम् ॥ ६-६७ ॥ वनामरयामाल्याविनाधर्ष गुनुलया।
शनोपजीविधवद्धारच्छन्नमात्यः -० ॥ इनमें से पहचा पथ तो शादिपुराण के १८३ पर्व का १०९ वाँ पर है-इसके आगे के और भी कई पद्म ऐसे हैं जो ज्यों के त्यों उठाकर रखे गये हैं और दूसरा उसी पर्व के पन नं० १२५ के उत्तरार्ध और नं. १२६ के पूर्वाध को मिलाकर बनाया गया है। प्रथ नं० १२५ का पूर्वार्ध और नं १२६ का उत्तरार्ध क्रमश: इस प्रकार हैं
अवविाचनस्यास्य बनायतरणोधितम् ॥ ०.१२५ ॥
खवृधिपरिरक्षार्थ शोमार्थ चास्य सह ॥ ३० १२६ ॥ मालूम नहीं दोनों पक्षों के इन अंशों को क्यों छोड़ा गया और उसमें क्या नाम सोचा गया । इस व्यर्ष की छोड़ छाड़ तथा काट छाँट का ही यह परिणाम है जो यहाँ प्रतावतरण क्रिया के कपन में उस सार्वकातिक प्रत का ,कपन हट गया है जो गादिपुराण के मद्यमांस परित्याग' नामक १२३ में पब में दिया हुआ है। और इसलिये
* 'तावतरण चेदं से पहले प्राविपुराण का वह १२३ माँ पद्य इस प्रकार
मयमांसपरित्याग पंचोदुम्बरवर्जनम् । दिसाविपिरतिक्षास्पबतं स्यात्साकालिकाम् ॥
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[२०] उक्त ८० वें पथ से पहले भादिपुराण का जो १२४ वा पथ उद्धृत किया गया है यह एक प्रकार से बेढंगा तथा असंगत नान पड़ता है। मह पब इस प्रकार है
प्रतापतरण चेदं शुरुसाहिकतार्चनम्।
वत्सरा हादसावर्षमथवा पोडशात्परम् ॥६-७ ॥ इसमें 'इदं शब्द का प्रयोग बहुत खटकता है और वह पूर्वकपन को 'तावतरण किया का कपन बतलाता है परन्तु अन्य में यह 'प्रतचों का कथन है और 'वतचर्यामहं वक्ष्ये' इस ऊपर उधृत किये हुए पद्य से प्रारम्भ होता है । मत! महारकाजी की इस काट छाँट और उगई धरी के कारण दो क्रियाओं के कपन में कितना गोलमाल होगया है, इसका अनुमष विन पाठक स्वयं कर सकते हैं
और साथ ही यह जान सकते है कि महारानी काट घोट करने में कितने निपुण थे।
(५) श्रीशुभचन्द्राचार्य-प्रणीत 'ज्ञानार्णव' प्रन्य से भी इस त्रिवर्णाचार में कुछ पयों का संग्रह किया गया है। पहले अध्याय के पाँच पयों को जांचने से मालूम हुआ कि उनमें से तीन पथ तो ज्यों के लों और दो कुछ परिवर्तन के साप उठा कर रखे गये हैं। ऐसे पषों में से एक एक पद्य नमने के तौर पर इस प्रकार है
चतुर्वर्णमय मंत्र चतुर्वर्गफलमवम् । चतपत्र जपेयोगी चतुर्थस्य फलं भवेत् ॥ ७॥ विधां पड्वर्णसंभूताममय्या पुण्यशालिनीम् ।
जपन्याशुकमभ्येति फसध्यानी शवयम् ॥६॥ ये दोनों पप हानाग के ३८ प्रकरण के पद्य हैं और वहां क्रमशः नं० ११ तथा ५० पर दर्ज है-यहाँ इन्हें भागे पछि उद्धृत किया गया है। इनमें से दूसरा पद्य तो ज्यों का त्यों उठा कर रक्खा
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[२१]
गया है और पहले पद्य के उत्तरार्ध में कुछ परिवर्तन किये गये हैं'चतुःशर्त ' की जगह ' 'चतुरानं', 'जपन् ' की जगह 'अपेत्' और ' लभेत् ' की बगह ' भवेत् ' बनाया गया है। इन परिबर्तनों में से पिछले दो परिवर्तन निरर्थक हैं—— उनकी कोई जरूरत ही न थी और पहला परिवर्तन ज्ञानार्याव के मत से विरुद्ध पड़ता है जिसके अनुसार कथन करने की प्रतिज्ञा की गई है ४ । ज्ञानार्थय के अनुसार " चतुरक्षरी मंत्र का चारसो संख्या प्रमाण जप करने वाला योगी एक उपवास के फलको पाता है' परन्तु यहाँ जाप्य की संख्या का कोई नियम न देते हुए, चार रात्रि तक जप करने का विधान किया गया है और तब कहीं एक उपवास का फल होना लिखा है । इससे
* यह प्रतिज्ञा वाक्य इस प्रकार है
ध्यानं तावदहं वदामि विदुषां ज्ञानार्थवे यन्मतम् ।
* पं० पनालालजी सोनी ने अपने अनुवाद में, "चार रात्रि पर्यंत जप करें तो उन्हें मोक्षकी प्राप्ति होती है" ऐसा लिखा है और इससे यह जाना जाता है कि आपने एक ७५ वै पद्य में प्रयुक्त हुए 'चतुर्थ' शब्दका अर्थ उपवास न सममकर 'मोद' समझा है। परन्तु यह आपकी बड़ी भूल है-मोक्ष इतना सस्ता है भी नहीं। इस पारिभाषिक शब्दका कार्य यहाँ 'मोक्ष' (चतुर्थवर्ग ) न होकर 'चतुर्थ' नाम का उपवास है, जिसमें भोजन की चतुर्थ देखा तक निराहार रहना होता है । ७६ वै पद्य में 'प्रागुक्तं ' पद के द्वारा जिस पूर्वकथित फल का उल्लेख किया गया है उसे शाना के पूर्ववर्ती पच नं० ४६ में 'चतुर्थतपसः फलं' लिखा है । इससे 'चतुर्थस्य फलं' और 'चतुर्थतपसः फलं' दोनों प्रकार्थवाचक पद हैं और वे पूरे एक उपवास- फल के घोतक है। पं० पन्नालालजी बाकलीवाल ने मीं ज्ञानाय के अपने अनुवाद में, जिसे उन्होंने पं० जयचन्दजी कीं
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[२२] दोनों में परस्पर कितना अन्तर है और उससे प्रतिज्ञा में कहाँतक विरोध पाता है इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं । इस अध्याय में और भी कितने ही कथन ऐसे हैं जो मानार्णव के अनुकूल नहीं है। उनमें से कुछ का परिचय भागे चलकर प्रयास्यान दिया जायगा।
(६) एकसंधि भट्टारक की 'मिनसंहिता' से भी कितने ही पधादिकों का संग्रह किया गया है और उन्हें प्रायः व्यों का स्यों अथवा कुछ परिवर्तन के साथ उठाकर अनेक स्थानों पर रखा गया है। चौथे अध्याय में ऐसे बिन पयों का संसह किया गया है उनमें से दो पद्य नमूने के तौर पर इस प्रकार हैं
तीर्थकरणमृच्छपकेवल्यन्तमहोत्सवे। प्राप्य ये पूजनात्वं पवित्रत्वमुपागताः ॥ ११ ॥ ते प्रयोपि प्रणेतल्या कुराहेवेषु महानपम् ।
गाई पत्याहवनीयदक्षिणानिमासिद्धया ॥ ११६॥ मापा-टीका का 'अनुकरण मात्र लिखा है, 'चतुर्थ' का अर्थ अनेक स्थानों पर 'उपवास दिया है। और प्रायश्चित प्रयों से तो यह बात और भी स्परा है कि 'चतुर्थ' का 'उपवास जैसाकि प्रापधित चूतिका' की भीनन्दिगुरुकृत टीका के निन्न वाफ्यों से प्रकट है'त्रिचतुर्थानि वीणि चतुर्थानि प उपवासा इत्यर्थः ।' 'चतुर्थ उपवास' । इससे सोनीजी की भूल स्पष्ट है और उसे इसलिये स्पट किया गया है जिससे मेरे उक्त लिखने में किसी को भ्रम न हो सके । अन्यथा, उनके अनुवादकी भूल दिखलाना यहाँ इट नहीं है, भूलों से तो सारा मनुवाद भरा पड़ा है- कोई भी ऐसा पृष्ठ नहीं जिसमें अनुवाद की प्रसपांच भूल न हो-उन्हें कहाँतकदिखलाया जा सकता है। हाँ, मेरे लेखके विषय से जिन भूलोकावासमथवा शहप-सम्बन्ध होगा उन्हें यथावसर पर किया आयगा ।
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[२१] ये दोनों पक्ष एकसंधि-जिनसंहिता के ७ परिच्छेद में क्रमश: नं.१६, १७ पर दर्ज हैं और वहाँ से उठाकर रक्खे गये मालूम होते हैं। साप में आगे पीछे के और भी कई पत्र लिये गये हैं। इनमें से पहला पथ यहाँ ज्यों का स्यों और दूसरे में महानयर' की मगह 'महाग्नयः' तथा प्रसिद्धया' की जगह 'प्रसिद्धयः 'ऐसा पाठ भेद पाया जाता है और ये दोनों ही पाठ ठीक जान पड़ते हैं। अन्यथा, इनके स्थान पर जो पाठ यहाँ पाये जाने हैं उन्हें पथ के शेष भाग के साथ प्रायः असम्बद्ध कहना होगा | मालूम होता है ये दोनों पद संहिता में थोड़े से परिवर्तन के साथ आदिपुराण से लिये गये हैं। प्रादिपुराण के १० पर्व में ये नं०८३, ४ पर दिये हुए हैं, सिर्फ पहले पथ का चौथा चरण वहाँ ' पूजाङ्गत्वं समासाथ' है और दूसरे पक्ष का पूर्वार्ध है-कुण्डनये प्रणेतव्यालय एते माग्नयः इनका जो परिवर्तन संहिता में किया गया है वह कोई अर्थविशेष नहीं रखता-उसे व्यर्थ का परिवर्तन कहना चाहिये।
यहाँ पर इतना और भी बतला देना उचित मालूग होता है कि यह संहिता विक्रम की प्रायः १३ वीं शताब्दी की बनी हुई है और
आदिपुराण विक्रम की री १० वी शताब्दी की रचना है। , (७३ बसुनन्दि-प्रतिष्ठापाठ से भी बहुत से पत्र लिये पाये। छठे अध्याय के १६ पषों की जाँच में ११ पब ज्यों के त्यों और पप कुछ बदधे हुए पाये गये | इनमें से तीन पन नमूने के तौर पर इस प्रकार हैं
शक्षणैरपि संयुक्त विम्बंष्टिविवर्जितम् । । न शोमते पवस्तस्मात्यर्याद धिप्रकाशनम् ॥३३॥ मर्थनार्थ विरोधच सिग्हमेयं वदा । अपस्तात्पुयनांश च मार्यामरणामूर्खडक ॥ ३४ ॥
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[ २४ ]
शोकसन्तापं सदा कुर्यादनक्षयम् । शान्ता सौभाग्यपुत्रार्थमान्यिवृद्धिप्रदा नदन् ॥ ३५ ॥
ये तीनों पच वसुनन्दि-प्रतिष्ठापाठ ( प्रतिष्ठासार संग्रह ) के चौष परिछेद के पथ हैं और उसमें क्रमशः नं० ७२, ७५, ७६, पर दर्ज हैं। इनमें पहला पद्म ज्यों का त्यों और शेष दोनों पच कुछ परिवर्तन के साथ उठा कर रक्खे गये हैं। दूसरे पथ में ' दृष्टिर्भयं ' की जगह 'रष्टेर्भय', ' तथा ' की जगह 'तदा' और ऊर्ध्वगा' की जगह ' ऊर्ध्वहक' बनाया गया है। और तीसरे पद्य में 'स्तब्धा' की जगह 'सदा' और 'प्रदा भवेत् ' की जगह 'प्रदानहक' का परिवर्तन किया गया है। ये सन परिवर्तन निरर्थक जान पड़ते हैं,
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' तथा ' की जगह ' तदा ' का परिवर्तन भद्दा है और 'स्तच्धा ' की जगह 'सदा' के परिवर्तन ने तो अर्थ का अनर्थ ही कर दिया है। यही वजह है जो पन्नालालजी सोनी ने अपने अनुवाद में, स्तब्धा दृष्टि के फल को भी ऊर्ध्व दृष्टि के फल के साथ जोड़ दिया है— अर्थात् शोक, उद्वेग, सन्ताप और धनक्षय को भी ऊर्ध्वदृष्टि का फल बता दिया है * !
यहाँ इतना और भी जान लेना चाहिये कि पहले पथ में जिस दृष्टि- प्रकाशन की प्रेरणा की गई है, जिनबिम्ब को वह दृष्टि कैसी होनी चाहिये उसे बतलाने के लिये प्रतिष्ठापाठ में उसके अनन्तर मी निम्नलिखित दो पक्ष और दिये हुए हैं---
नात्यन्तोन्मीलिता स्तब्धा न विस्फारितमतिता । तिर्यगूर्ध्वमघट वर्जयित्वा प्रयक्षतः ॥ ७३ ॥
यथा - " ( प्रतिमा की दृष्टि यदि ऊपरको हो तो स्त्री का मर होता है और वह शोक, उगे, सन्ताप और धनका क्षय करती है ।"
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[२५] नासाग्रनिहिता शान्ता प्रसन्ना निर्विकारिका ।
वीतरागस्य मध्यस्था कर्तध्या चोचमा तथा ॥७॥ मालूम नहीं इन दोनों पधों को सोगसेनजी ने क्यों छोड़ा और क्यों इन्हें दूसरे पर्थो के साथ उद्धृत नहीं किया, बिनका उद्धृत किया जाना ऐसी हालत में बहुत जरूरी था और जिनके अस्तित्व के बिना अगला कथन कुछ अधूरा तपा संडूरा सा मालूम होता है । सच है अच्छी तरह से सोचे समझे बिना योही पयों की उठाईधरी करने का ऐसा ही नतीना होता है।
(८) अन्य के दसवें अध्याय में वसुनन्दिश्रावकाचार से छह और गोम्मटसार से आठ गाथाएँ प्रायः ज्यों की लो उठाकर रखी गई है, जिनमें से एक एक गाथा नमूने के तौर पर इस प्रकार है
पुवत पविहाण पि मेहुणं सम्यक्षा विवस्तो। इथिकहाविषिषची सचम बभचारी सौ । १२७ ॥ चत्वारि बि खेचाई भाउगवंधण शोह सम्म ।
अणुब्बयमहन्षयाई ण या पेयाउगं मोसु ॥४१॥ इनमें से पहली गाथा वसुनन्दिश्रावकाचार की २१७ नम्बर की और दूसरी गोम्मटसार की ६५२ नम्बर की गाथा है। ये गापाएँ भी लिसी कपिल शर्प का समापन करने के लिये ' ' से नहीं दी गई बल्कि वैसे ही अपनाकर अंथ का अंग बनाई गई है। प्राकृत की और भी कितनी ही गापाएँ इस अन्य में पाई जाती है। ये संब मी ' मूलाचार' आदि दूसरे अन्यों से उठाकर रखी गई हैं।
(९) भूपाल कवि-प्रणीत 'बिनचतुर्विशतिका' खोत्र के मी कई पथ अन्य में संग्रहीत हैं। पहले अध्याय में 'सुप्तास्थितेन' और 'श्रीलीलायतन चौथे में किसलपितमनल्यं' और 'देव
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[२६] त्वदधि तथा छठे में 'स्वामिन्नर्थ' और 'इष्टं धामरसायनस्य' नाम के पच ज्यों के त्यों उद्धृत पाये जाते हैं । और ये सब पब 36 स्तोत्र में क्रमशः ० १६, १, १३, १६, ३और २५ पर दर्ज हैं।
(१०) सोमदेवमूरि-प्रणीत यशस्तिलक' के गी कुछ पोंका संग्रह पाया जाता है, जिनमें से दो पद्य नमूने के तौरपर इस प्रकार हैं
मूढायं मवानादौ तथानायसनानि पट् । अष्टौ शंकादयो दोपाः सम्यक्त्वे पंचविंशतिः ॥१०-२६॥ अद्धा मक्तिस्तुधिष्ठिानमनुष्यता क्षमा सत्वम् ।
यौते सप्तगुणास्त दातारं प्रशंसन्ति ॥१०-११॥ इनमें से पहला 'यशस्तिलक के छठे आवास का और दूसरा पाठ आवास का पथ है। पहले में 'शंकादयश्चेति हग्दोषा। की जगह 'शंकादयो दोषा: सम्यक्त्व का परिवर्तन किया गया है और दूसरे में 'शक्ति ' की जगह 'सत्वम् बनाया गया है। ये दोनों ही परिवर्तन साहित्य की दृष्टि से कुछ भी महत्व नहीं रखते और म अर्थकी दृष्टि से कोई खास भेद उत्पन्न करते हैं और इसलिये इन्हें व्यर्थ के परिवर्तन समझना चाहिये।
(११) इसीतरह पर और मी कितने है। चैनपंधों के पछ इस विषयांचार में फुटकर रूप से इधर उधर संगृहीत पाये जाते हैं, उनमें से दो चार ग्रंथों के पोंका एक र नमूना यहाँ और दिये देता हूँ-- विवर्गसंसाधनमन्तरेण पशोरिवायुविफल नरस्य । वापि धर्म प्रवरं वदन्ति न त विना यद्भवतोऽर्थकामौ 10-81
यह सोमप्रमाचार्यको 'सूक्तमुक्तावली का जिसे 'सिन्दूरप्रकर' भी कहते हैं, तीसरा पर्व है।
समाः स्थूखास्तथा जीवाः सन्खुम्बरमभ्यया। • समिमित्तं जिनोदि पंचोदुम्बरवर्जनम् ॥ १०-१०४॥
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माह 'पूज्यपाद-उपासकाचार' का पथ है और उसमें इसका संध्यागम्बर ११।।
वादसत्याचौर्याच कामा ग्रंथाभियतनम् । पंचकाणुवतं रानिमुक्ति षष्ठमणुप्रतम् ॥१०-१५॥ यह चामुण्डराय-विरचित 'चारित्रसार ग्रंथ के भगुवत-प्रकरण का अन्तिम पद्य है।
अन्दोमुखेऽवसाने च यो वे घटिके त्यजत् । निशामोजनोपोऽनात्यती पुण्यभोजनम् ॥ १०-८६॥ यह हेगचन्दाचार्य के योगशास्त्र का पथ है और उसके तीसरे प्रकाश में नं०६३ पर पाया जाता है । इसमें 'त्यजन् की जगह 'त्यजेत्' और 'पुगपभाजनम्' की जगह यहाँ 'पुण्यभोजनम् बनाया गया है। पधका यह परिवर्तन कुछ अच्छा मालूम नहीं होता। इससे 'सुबह शामकी दो दो बड़ी छोड़कर दिनमें भोजन करनेवाला मनुष्य पुण्यका भाजन (पात्र) होता है की जगह यह प्राशय हो गया कि नो सुबह शागकी दोदो घड़ी छोड़ता है वह पुण्य भोजन करता है, और यह भाशय भयमा कथनका ढंग कुछ समीचीन प्रतीत नहीं होता।
प्रास्तामेतधविध जननी यहां मन्यमाना निन्यां चेयं विदधति जना मित्रपार पीतमया। तत्राधिक्यं पथि निपतिता यस्किरस्सारमेयात्
घले सूत्रं मधुरमधुरं भाषमाणाः पियन्ति ॥ ६-२६७ ॥ यह मधपान के दोषको दिखाने वाला पद्य पमनन्दि-भाचार्यविरचित 'पअनन्दिपंचविंशति' का २२ वौ पच है।
* पं० पचालालजी सोनी ने मी, अपने अनुवाद में, यही शिखा' हैकि "पुरुष पुण्यभोजन करता है।"
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E२८] स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा कपायवान् ।
पूर्व मापयतराणां तु पश्चात्स्यावा न पा वधः ॥ १०-GER यह पयः'राजवार्तिक' के ७वें अध्याय में 'उक्तंच रूप से दिया हुआ है और इसलिये किसी प्राचीन ग्रंथ का पथ जान पड़ता है। हाँ, रानवार्तिक में 'कपायवान्' की जगह 'प्रभादवान् ' पाठ पाया जाता है, इतना ही दोनों में अन्तर है।
यह तो हुई जैनयों से संग्रह की बात, और इसमें उन नैनविद्वानों के वाक्यसंग्रह का ही दिग्दर्शन नहीं हुभा जिनके ग्रंथों को देखकर उनके अनुसार कथन करने की कि उनके शब्दों को उठा कर ग्रंथ का अंग बनाने की प्रतिहार अथवा सूचनाएँ की गई थी बल्कि उन जैन विद्वानों के पाक्यसंग्रह का भी दिग्दर्शन होगया जिनके वाक्यानुसार कपन करने की बात तो दूर रही, ग्रंथ में उनका कहीं नामोलेन तक भी नहीं है। नं०६ के बाद के सभी उल्लेख ऐसे ही विद्वानों के वाक्य-संग्रह को लिये हुए हैं। __ यहाँ पर इतना और भी वतजादेना उचित मालूम होता है कि इस संपूर्ण जैनसमह में ब्रह्मसूरि-त्रिवर्णाचार जैसे दो एक समकक्ष प्रयों को छोड़कर शेप ग्रंथों से जो कुछ संग्रह किया गया है वह उस क्रियाकांड तथा विचारसम्झ के साथ प्रायः कोई खास मेल अथवा सम्बंधविशेष नहीं रखता निसके प्रचार अषमा प्रसार को लक्ष्य में रखकर ही इस त्रिवर्णाचार का अवतार हुआ है और जो बहुत कुछ दूपित, श्रुटिपूर्ण तथा आपचि के योग्य है । उसे बहुभा त्रिवर्णाचार के मूल अभिप्रेतों या प्रधानतः प्रतिपाच विषयों के प्रचारादि का साधनमात्र समझना चाहिये अथवा यों कहना चाहिये कि वह खोटे, बाली तथा अन्य मुल्य सिक्कों को चलाने के लिये उनमें खरे, पैर बाली तथा बहुमूल्य सिकों का संमिश्रण है और कहीं कहीं मुबम्मे का काम भी देता है, और इसलिये एक प्रकार का धोखा है।
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[२६] इस धोखे से सावधान करने के लिये ही यह परीक्षा की मारहा है और यथार्य वस्तुस्थिति को पाठकों के सामने रखने का यन किया जाता है । अस्तु । ___ अब उस संग्रह को भी बानगी लीजिये जो मजैन विद्वानों के ग्रंथों से किया गया है और जिसके विषय की न कहीं कोई प्रतिज्ञा और में तत्सम्बंधी विद्वानों के नामादिक की कही कोई सूचना ही ग्रंथ में पाई जाती है। प्रत्युत इसके, अनसाहित्य के साथ मिलाकर अश्या जैनाचार्यो के वाक्यानुसार बताकर, उसे भी जैनसाहित्य प्रकार किया गया है। '
अजैन ग्रंथों से संग्रह। (१२) अंजन विद्वानों के ग्रंथों से जो विशाल संग्रह महारकजी ने इस ग्रंथ में किया है उनके सैकड़ों पद-वाक्यों को ज्यों का त्यों अथवा कुछ परिवर्तन के साथ उठाकर रक्खा है-उस सबका पूरा परिचय यदि यहाँ दिया जाय तो लेख बहुत बढ़ नाय, और मुझे इनमें से कितने हा पद-वाक्यों को भागे चलकर, विरुद्ध कायनों के अवसर पर, दिखलाना है-वहाँ पर उनका परिचय पाठकों को मिलेगा ही। अतः यहाँ पर ममने के तौर पर, कुछ थोड़े से ही पयों का परिचय दिया जाता है।
सन्तुष्टी भार्यया मता भनी भाषा तथैव ।। यमिन्नेव फुले नित्य फाल्याणं तत्र वैभुवम् ॥ १-४६ । । यह पथ, जिसमें भार्या से भतार के और भतार से भार्या के नित्य सन्तुष्ट रहने पर कुख में सुनिश्चित रूप से कल्याण का विधान किया गया है, 'मनु' का पचन है, और 'मनुस्मृति' के तीसरे अध्याप में नं०६० पर दर्ज है। वहीं से ज्या का त्यों उठाकर रक्खा गया मासूम होता है।
मात्र भौम तथाऽनयं पायव्यं विन्यमेव च। घाण मानसं चैव सतस्नानान्यनुकमात् ॥ ३-४२० .
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[३०]
इस श्लोक में खान के सात मेद बतलाये गये हैं-मंत्र खान, भूमि ( मृतिका) स्नान, अग्नि ( भस्म ) स्नान, बायुस्तान, दिव्यस्नान, अस्नान तथा मानसस्नान - और यह ' योगि याज्ञवल्क्य ' का बचन है । विठ्ठलात्ममनारायण कृत 'न्हिकसूत्रावलि' में तथा श्रीवेकूटनाथ - रचित 'स्मृतिरत्नाकर' में भी इसे योगियाज्ञवल्क्य का वचन बतलाया है और 'शब्द कल्पद्रुम' कोश में भी 'स्नान' शब्द के नीचे यह उन्हीं के नाम से उद्धृत पाया जाता है।
सिंहकर्कयोर्मध्ये सर्वा नद्यो रजस्वलाः ।
तासां वटे न कुर्वीत वर्जयित्वा समुद्रगाः ॥ ७८ ॥ उपाकर्मणि चोत्सर्गे प्रातः स्नाने तथैव च । चन्द्रसूर्यग्रहे चैव रजोदोषो न विद्यते ॥ ७६ ॥
धनुस्सहस्राण्यौ तु गतियांलां न विद्यते ।
न या नद्यः समान्याता गर्तास्ताः परिकीर्तिताः ॥ ८० ॥ सुतीय अध्याय । ये तीनों पद्म बारा २ से परिवर्तन के साथ 'कात्यायन स्मृति' से लिये गये मालूम होते हैं और उक्त स्मृति के दस खण्ड में क्रमशः मं० ५, ७ तथा ६ पर दर्ज हैं। 'आन्हिक सूत्रावति' में भी इन्हें 'कात्यायन' ऋषि के वचन लिखा है। पहले पथ में ' मासद्वयं श्रावणादि' की जगह 'सिंहकर्कटयोर्मध्ये' और 'तासुस्नानं ' की जगह 'तासांमटे' बनाया गया है, दूसरे में 'प्रेतस्नाने' की नगह 'प्रातः स्नाने' का परिवर्तन किया गया है और तीसरे में 'सदीशब्द बहाः' की जगह 'नथः समाख्याताः ऐसा पाठ भेद किया गया है । इन चारों परिवर्तनों में पहला और अन्त का दोनों परिवर्तन तो प्रायः कोई अर्थमेद नहीं रखते परन्तु शेष दूसरे और तीसरे परिवर्तन ने बडा मारी अर्षद उपस्थित कर दिया है। कात्यायन
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[३१] स्मृतिकार मे, भाषण भादों में सब नदियों को रजस्वला बतलाते हुए यह प्रतिपादन किया था कि 'उनमें (समुद्रगामिनी नदियों को दोहर) लान न करना चाहिये । मधारकजी ने इसकी जगह, अपने परिवर्तन द्वारा, यह विधान किया है कि उनके तट पर न करना चाहिये। परंतु क्या न करना चाहिये, यह उक्त पब से कुछ जाहिर नहीं होता। हाँ, इससे पूर्व पथ नं० ७७ में मापने तीर्थ तट पर प्राणायाम, पाचमन.संध्या, आद्ध और पिण्डदान करने का विधान किया है और इसलिये उक्त पत्र के साथ संगति मिलाने से यह अर्थ हो जाता है कि ये प्राणायाम आदि की क्रियाएँ रजस्वला नदियों के तट पर नहीं करनी चाहिये-मले ही उनमें लान कर लिया जाय । परन्तु ऐसा विधान कुछ समीचीन अथवा सहेतुक मालूम नहीं होता और इसलिये इसे भट्टारकनी के परिवर्तन की ही खूबी समझना चाहिये । तीसरे परिवर्तन की हालत भी ऐसी ही है । स्मृतिकार ने जहाँ 'मेतस्नान' के अवसर पर नदी का रजस्वला दोष न मानने की बात कही है वहाँ मापने 'प्रातः स्नान के लिये रजस्वला दोष न मानने का विधान कर दिया है । लान प्रधानतः प्रातःकास ही किया जाता है, उसीकी
आपने छुट्टी देदी है, और इसलिये यह कहना कि आपके इस परिवर्तन ने स्नान के विषय में नदियों के रजस्वला दोष को ही प्रायः उन दिया है कुछ मी अनुचित न होगा। . छत्वा यज्ञोपवीतं च पृष्ठतः कण्ठसम्मितम् ।
वियमूमेतु यही कुर्याहामकणे प्रवान्विताः ॥२-२७ ।। यह 'अंगिरा ऋषि की बचन है । 'श्रान्तिकसूत्रापति' में भी इसे भगिरा का बचन लिखा है। इसमें समाहितः' की जगह 'प्रतान्वितः.का परिवर्तन किया गया है और यह निरर्षक जान पलवा है । यहाँ 'व्रतान्धित:' पद यधपि 'गृही पद का विशेषण
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में समानिक कारिका'का विमा है और इसका उपराधं उपवीतं सदा पार्य मथुने तूपवीतिवाद' दिया है। भकारकबी में बस उतरार्ध को धारपेद्रामसूत्र तु मैथुने मस्तके तयार केला में बदल दिया है। पान्तु इस सम और परिवर्तन के अवसर पर उन्हें इसका पान नहीं रहा कि यह हग दो विधनों के परस्पर मतभेद में किये हुए बधन को अपना सो को हमें अपने अन्धविरोध को दर करने के लिये कोई ऐसा शब्द प्रयोग साथ में आकर करना चाहिये जिससे ये दोनों विविविधान विजय रूप से समझे कार्य और यह मन ही में 'सया'को जगह पागद देने से हो सकता है ऐसा नही किया, और इससे उनकी साह तथा परिवर्तन सम्बंधी योग्य खाका और भी बना परिचय मिल आता है।
अपित्तनमामा मधमा मृतिका मा हितीया तु वतीया तु माया प्रकीर्तिता । ३-५०॥ होने पर कार्य गोषको शी समुः। शोधाचारविहानन्य समन्ता निष्पासा किया ॥२-५४ ॥ এরশালে আৰ কিকি ? सबसव दिवाराधी प्राशा बान विधापनम् । ।
'सस्थति के पास है | are दसति के इसरे अभ्यार से ज्यों को बम कर रखा गया है-शव्दव्यम कोश में भी उसे '
द पिका पचन लिखा है। दूसरा पर उक्त सी के पांचवें अध्याय का पब है और उसमें २०२ पर दर्ज है तिरनाकर में भी यह पदक' के नाम से उदात पाया जाता है-उसमें सिद्विजा कीममह 'यही का परिवर्तन किया गया है। पहला पत्र मी पाच पावक मा है और उसो
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[३२]
है और इस श्लोक में गृहस्थ के लिये मलमूत्र के त्याग समय यज्ञोपवीत को बाएँ कान पर रखकर पीठ की तरफ लम्वायमान करने का विधान किया गया है परन्तु पं० पन्नालालजी सोनी ने ऐसा नहीं समझा और इसलिये उन्होंने इस पथ के विषय को विभिन्न व्यक्तियों (जती- भत्रती) में बाँटकर इसका निम्न प्रकार से अनुवाद किया है—
"" गृहस्थजन अपने यज्ञोपवीत (जनेऊ) को गर्दन के सहार से पीठ पीछे लटकाकर टट्टी पेशाब करे और व्रती श्रावक बाएँ कान में लगाकर टट्टी पेशाब करे ।"
इससे मालूम होता है कि सोनीजी ने यज्ञोपवीत दीक्षा से दीक्षित व्यक्ति को भवती' भी समझा है । परन्तु भगवजिनसेनाचार्य ने तो, 'व्रता विहं दधत्सूत्र' आदि वाक्यों के द्वारा यज्ञोपवीत को प्रतचिह्न बतलाया है तब सर्वथा 'ती' के विषय में जनेऊ की कल्पना कैसी ? परन्तु इसे भी छोड़िये, सोनीजी इतना भी नहीं समझ सके कि जन इस पथ के द्वारा यह विधान किया जारहा है कि व्रती श्रावक तो जनेऊ को बाएँ कान पर रखकर और अती उसे यही पीठ पीछे लटका कर टट्टी पेशाब करे तो फिर अगले पथ में यह विधान किसके लिये किया गया है कि जनेऊ को पेशाब के समय तो दाहिने कान पर और टट्टी के समय बाएँ काम पर टाँगना चाहिये। यही वजह है जो आप इन दोनों पद्यों के पारस्परिक विरोध का कोई स्पष्टीकरण भी अपने अनुवाद मैं नहीं करसके । अस्तु; वह अगला पण इस प्रकार है
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मूत्रे तु दक्षिणे कर्वे पुरीषे वामकर्यके ।
धारयेद्रह्मसृणं तु मैथुने मस्तके तथा ॥ २८ ॥
इस पद्य का पूर्वार्ध, जो पहले पद्य के साथ कुछ विरोध उत्पन्न करता है, वास्तव में एक दूसरे विद्वान का वचन है। आन्हिक सूत्रावलि
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[३४] नं०७ पर दर्ज है। इस पप में “प्रमृतिमात्रा तु" की जगह 'विल्वफलमात्रा','च' की जगह 'तु' और 'तदर्थोपरिकीर्मिता' की जगह तदर्थार्धा प्रकीर्तिता'ये परिवर्तन किये गये हैं, जो साधारण हैं और कोई खास महल नहीं रखते। यह पञ्च अपने दक्षस्मृति वाले रूप में ही पाचारादर्श और शुद्धिविवेक नामके प्रन्पों में 'दक्ष' के नाम से उल्लखित मिलता है।
अन्तहे देवगृहे वल्मीके मूषकस्थले। कृतशौचाधिशेषे च न ग्राह्या पंचमृतिकाः ॥२-४५ ॥
यह लोक जिसमें शौच के लिये पाँच जगह की मिट्टी को त्याग्य ठहराया है * ' शातातप' ऋषि के निम्न श्लोक को बदल कर बनाया गया मालूम होता है
अन्तर्जलाइवाइल्मीकान्मूपकगृहात् ।
कृतशौचस्थखाचन प्रायाः पंचसूतिकाः॥ यह लोक ' पाहिक सूत्रावलि ' में भी 'शातातप' के नाम से उद्धृत पाया जाता है।
अनामे दन्तकाष्ठानां निषिद्धायां सियावपि । - अगं द्वादशगराइपैमुबशुद्धिः प्रजायते ॥२-७३ ॥ __यह 'व्यास ऋषिका वचन है। स्मृतिरनाकर और निर्णयसिन्धु में भी इसे 'न्यास' का वचन लिखा है। हाँ, इसके पूर्वार्ध में प्रतिषिद्धदिनेष्वपि की जगह निषिद्धायां तिथावपि'
और उत्तरार्ध में भविष्यति' की जगह 'प्रजायते ' ऐसा पाठ भेद यहाँ.पर जरूर पाया जाता है जो बहुत कुछ साधारण है और कोई खास अर्गन्द नहीं रखता। '
पंथ के दूसरे अध्याय में. मल-मूत्र के लिये निषिद्ध स्थानों का वर्णन करते हुए, एक लोकं निम्न प्रकार से टिका तमा है- '
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[३५]
हलकटे बले चित्यां चरमीके गिरिमस्तके | देवालये नदीतीरे धर्मपुपु शाहले ॥ २२ ॥ मह 'चौधायन ' नाम के एक प्राचीन हिन्दू लेखक का बचन है। स्मृतिरत्नाकर में भी यह 'बौधायन' के नाम से ही उद्धृत मिलता है। इसमें फालकृष्टे' की जगह यहाँ ' हलकृष्टे ' धोर 'दर्भपृष्ठे तु ' की जगह 'दर्भपुष्पेषु' बनाया गया है, और ये दोनों ही परिवर्तन कोई खास महत्व नहीं रखते बल्कि निरर्थक जान पड़ते हैं ।
प्रभाते मैथुने चैव प्रत्राचे दन्तधावने ।
खाने च भोजने चाम्यां सप्तमौनं विधीयते ॥१-३१ ॥
यह पद्य, जिसमें सात छावसरों पर मौन धारण करने की व्यवस्था की गई है - यह विधान किया गया है कि १ प्रातःकाल, २ मैथुन, ३ मूत्र, ४ दन्तधावन, ५ स्नान. ६ भोजन, मोर ७ वमन के अवसर पर मौन धारण करना चाहिये- 'हारीत' ऋषि के उस वचन पर से कुछ परिवर्तन करके बनाया गया है, जिसका पूर्वर्ष 'प्रभाते' की जगह 'उच्चारे' पाठभेद के साथ बिलकुल वही है जो इस पद्य का है और उतरार्ध है 'श्रद्धे (स्नाने) भोजनकाले च षट्सु मौनं समाचरेत् ।' और जो 'आन्हिक सूत्रावति' में भी 'हारीत' के नाम से उद्घृत पाया जाता है । इस पथ में 'उचारे' की जगह 'प्रभाते'
* इस लोक के बाद 'मलमूत्रसमीपे ' नाम का एक पद्म और मी पंचमृचिका के निषेध का है और उसका अन्तिम चरण भी 'नं प्राह्माः पंचमृत्तिका' है। वह किसी दूसरे विद्वान की रचना जान पड़ता है।
+ 'श्रद्धे' की जगह 'खाने' ऐसा पाठ भेद भी पाया जाता · है। देखो 'शब्द कल्पद्दम ।
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[३६] का जो खास परिवर्तन किया गया है वह बड़ा ही विचित्र तथा विलक्षण जान पड़ता है और उससे मक्षस्योग के अवसर पर गौन का विधान न रहकर प्रातःकाल के समय मौन का विधान हो जाता है। जिसकी संगति कही से भी ठीक नहीं बैठती । मालूम होता है सोनाजी को भी इस पंचकी विलक्षणता कुछ खटकी है और इसीलिये उन्होंने, पकी असलियत को न पहचानते हुए, यों ही अपने मनगढन्त 'प्रभाते का अर्थ "सामायिक करते समय" और 'प्रस्तावे' का अर्थ "दृष्टी पेशाब करते समय" दे दिया है, और इस तरह से अनुवाद की भर्ती द्वारा महारानी के पथ की त्रुटि को दूर करने का कुछ प्रयन किया है । परन्तु आपके ये दोनों ही अर्थ ठीक नहीं है-'प्रभात' का अर्थ 'प्रातकाल' है न कि 'सामायिक' और 'प्रस्ताव का अर्थ 'मूत्र' है न कि 'मल-मूत्र (ही पेशाब) दोनों । और इसलिये अनुवाद की इस लीपापोती द्वारा मूल की त्रुटि दूर नहीं हो सकती और न विद्वानों की नजरों से यह छिपी सकती है। हाँ, इतना जरूर स्पष्ट' हो जाता है कि अनुवादकनी में सत्य अर्ष को प्रकाशित करने की कितनी निष्ठा, तत्परता और क्षमता है। .
खदिरश्च करंजश्च कदम्बश्च घटस्तथा। विक्षिणी घेणुमच निम्ध श्रावस्तथैव च । २-६३ ॥ अपामार्गध विल्यम हर्क प्रामकस्तथा। पते प्रशस्ताः कथिता वन्वधावनकर्मणि ॥२-६४ ॥ ये दोनों पथ, जिनमें दाँतन के शिये उत्तम काष्ठ का विधान किया गया है 'नरसिंहपुराण के वचन हैं। भाचारादर्श नामक अप में भी इन्हें 'नरसिंहपुराण के हो वाक्य लिखा है। इनमें से पहले पद्य, में 'माननिम्बौं' की जगह 'निम्ब प्रानाका तया 'घेणपष्टश्च' की नगह 'वेणुवृक्षार्थ' का पाठभेद पाया जाता है, और दूसरे पक्ष
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[३७]
में 'अर्कव्योदुम्बरः' की जगह 'झर्क आमखक:' ऐसा परिवर्तन किया गया जान पड़ता है। दोनों पाठमद साधारण हैं, और परिवर्तित पद के द्वारा उदुम्बर काठ की जगह श्रवले की दाँवन का विधान किया गया है।
कुमाः काशा पवा दुर्गा उशीराश्च कुकुमराः ।
गोधूमा यो सुजा दशर्माः प्रकीर्तिता ॥ ३८१ ॥
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यह 'गोल' ऋषि का वचन है । स्मृतिरत्नाकर में भी इसें 'गोमिस' का वचन लिखा है। इसमें 'गोधूमाभाथ कन्दरा:' की जगह 'उशीरा कुकुंदरा' और 'उशीरा' की जगह 'गोधूमाः' का परिवर्तन किया गया है, जो व्यर्थ जान पड़ता है; क्योंकि इस परिवर्तन से कोई अर्थभेद उत्पन्न नहीं होता सिर्फ दो पदों का स्थान बदलता है ।
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एक पंपावान धर्मिणां सहभोजने ।
यद्येकोऽपि स्वजत्पाणं शेपैरनं न भुज्यते ॥ १-२२० ।
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ग्रह पथ, जिसमें सहभोजन के अवसर पर एक पंक्ति में बैठे हुए किसी एक व्यक्ति के भी पात्र छोष देने पर शेष व्यक्तियों के लिये भोजनस्माग का विधान किया गया है, जरा से परिवर्तन के साथ 'पराशर ' ऋषि का वचन है और वह परिवर्तन 'विप्राणां' की जगह ' धर्मिणां ' और ' शेषमत्र न भोजयेत् ' की जगह 'शेषरखं न शुन्यते ' का किया गया है, दो बहुत कुछ साधारण है
पाः-१ 'सूत्रं प्रस्तावः' इति भ्रमरकोशः । ५ ' प्रस्रावः सू' इति शपमा ।
३ 'उच्चारपथयेत्यादि' वाद पुरीषः प्रखवणं सूत्रं ।
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इति क्रियाकलापटीकायां प्रमाचन्द्रः ।
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[८] आन्हिका सूत्रावलि और स्मृतिरनाकर नामक ग्रंथों में भी यह पर्व 'पराशर ऋषि के नाम से ही वधुत पाया जाता है।
खगृहे प्रायशिरा कुर्याङ्गापुरे दक्षिणामुखः ।
प्रत्यक्ष प्रवाचन कदाचिदुवक मुखः।-२४ ॥ यह पथ, जिसमें इस बात का विधान किया गया है कि अपने घर पर तो पूर्व की तरफ सिर करके, सासके घर पर दक्षिण की ओर मुंह करके और प्रयास में पश्चिम की घोर मुंह करके सोना चाहिये तथा उत्तर की तरफ मुंह करके कभी भी न सोना चाहिये-~-घोड़े से परिवर्तनों के साथ-'गर्ग ऋषि का वचन है । प्रान्हिकसूत्रावति में इसे गर्ग ऋषि के नाम से निस तरह पर उद्धृत किया है उससे मालूम' होता है कि यहां पर इसमें शते श्वाशुयें की जगह 'कुर्याच्वायुरें का, 'पाशिरा' की जगह 'प्राशिरः का, 'तु' की जगह 'च' का और पिछले तीनों चरणों में प्रयुक्त हुए प्रत्येक शिरा पद की मगह 'मुखः' पद का परिवर्तन किया गया है । और यह सत्र परिवर्तन कुछ भी महत्व नहीं रखता--'शेते' की जगह 'कुर्यात की परिवर्तन महा है और शिराः' पदों की जगह 'मुखः'पदों के परिवर्तन ने तो अर्थ का अनर्थ ही कर दिया है। किसी दिशा की भोर सिर करके सोना और बात है और उसकी तरफ मुँह करके सोना दूसरी बात है-एक दूसरे के विपरीत है। मालूम होता है भरकाली को इसकी कुछ खबर नहीं पड़ी परन्तु सोनीजी ने खबर जसर लेखी है। उन्होंने अपने अनुवाद में मुख की जगह सिर बनाकर उनकी त्रुटि को दूर किया है और इस तरह पर सर्वसाधारण को अपनी सत्यार्थ प्रकाशकता का परिचय दिया है।
नावे समुत्पने मृते रजति सूत्रके। . 'पूर्वमेव विनं प्राय यावदेति वै रविः ॥ १३-६॥
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[३६]
यह पथ, 'नोदेति वै ' की जगह ' नोठ्यते ' पाठभेद के साथ 'करण' ऋषि का वचन है । याज्ञवल्क्यस्मृति की 'यिताइरा' टीका में भी, 'पथाह कश्यप'' वाक्य के साथ, इसे 'करपथ' ऋषि का वचन सूचित किया है ।
पूर्वमायुः परीक्षेत पश्चात्तयमेव च । प्रायुजाः किं प्रयोजनम्॥११८॥ यह 'सामुद्रक' शास्त्र का वचन है । शब्दकान्मम को में इसे किसी ऐसे सामुद्रक ज्ञान से उद्धृत किया है जिसमें श्रीकृष्ण तथा महेश का संवाद है और उसमें इसका तीसरा चरण 'आयुहीन नराणां चेत् ' इस रूप में दिया हुआ है।
महानद्यन्तर पत्र गिरिवी व्यवधायकः ।
पाचो यत्र विभिद्यन्ते देशात
१३-६६ ॥ यह 'देशान्तर' का लक्षण प्रतिपादन करने वाला पण 'वृद्धमनु' धन है, ऐसा शुद्धिविवेक नागक ग्रंथ से मालूम होता है, जिसमें वृद्धमनुरप्याह ' इस वाक्य के साथ यह उद्धृत किया गया है। यहाँ पर इसके चरणों में कुछ श्रम-मेद किया गया है- पहले चर को तीसरे नम्बर पर और तीसरे को पहले नम्बर पर रक्खा गया है--- बाकी पाठ सब ज्यों का त्यों है।
पितस्यातां रोये हि पुत्रकः ।
श्रुत्वा तद्दिनमारभ्य पुवायां शराणकम् ॥१३-७१
"
यह पथ, जिसमें गाता पिता की मृत्यु के समाचार सुनने पर दूर देशान्तर में रहने वाले पुत्र को समाचार सुनने के दिन से दस दिन का 'सूतक बताया गया है, 'पैठीनसि ' ऋषि का वचन है। पाइ वल्क्यस्मृति की 'मिताक्षरा' टीका में भी, जो एक प्राचीन अंग है और 'दासतों में गान्यकिण जाता है, ' इति पैठीनसि स्मरथात् '
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[४०] घाक्य के द्वारा इसे 'पेठानसि' ऋषि का पचन सूचित किया है। यहाँ इसका चौथा चरण बदला हुआ है-'दशाह सूतकी भवेत्' की जगह 'पुत्राणां दशरात्रकम्' अगाया गया है। और यह तबदीली विज्ञकुल भदौ जान पड़ती है-'पुत्रका मादि पदों के साथ इन परिवर्तित पदों का अर्थसम्बंध भी कुछ ठीक नहीं बैठता, खासकर 'पुत्राणां पद का प्रयोग तो यहाँ बहुत ही खटकता है-~-सोनाजी ने उसका अर्थ भी नहीं किया और वह मटारकजी की योग्यता को और भी अधिकता के साथ व्यक्त कर रहा है।
ज्वरामिभूता या गारी रजसा चेत्सरिजुना। कथं तस्या भवेच्छाचं शुद्धिा स्यात्न कर्मणा ॥ ६॥ चतुर्थेऽहनि समाते शेवन्या तु तांत्रियम् । नात्या चैव पुनस्ता वै स्पृशेत् मात्वा पुनः पुनः ॥ ८ ॥ पशबादशकृत्यो वा हायमेन पुनः पुनः। । अन्त्ये च बासखां स्थान खात्या शुद्धा भबेनु सा Rel
-१३ वौं अन्याय। इन पदों में ज्वर से पीड़ित रजस्वला बी की शुद्धि का प्रकार बतलाया गया है और वह यों है कि 'चौथे दिन कोई दूसरी श्री बाग करके उस रजस्वला को छो, दोबारा स्नान करके फिर थे और इस तरह पर दस या बारह बार मान करके प्रत्येक मान के बाद उसे छुचे साथ ही बारबार पाचगन भी करती रहे । अन्त में सब काही का (निन्हें रजस्वला ओढे पहने अथवा बिछाए हुए हो ) त्याग कर दिया चाय तो वह रजस्वला शुद्ध होजाती है। ये तीनों पर रासे परिवर्तन के साथ 'उशना' नामक हिन्दू ऋषि के वचन हैं, जिनकी स्मृति! भी 'प्रौशनसधर्मशाल' के नाम से प्रसिद्ध है । याज्ञवल्क्यस्मृति की मिताघरा टीका, शुद्धिविवेक और स्मृतिरमार आदि प्रन्यों
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[१] में भी इन्हें 'उशना' के पचन लिखा है। मिताक्षरा आदि मयों में इन पचों का बो रूप दिया है उससे मालूम हाता हानि पहले पत्र में सिर्फ 'च' की जगह 'चद' बनाया गया है, इस का उत्तरार्ध 'सा सचलायगाथापालावा लात्वा पुनःस्पृशत्' नामक तवराम की बगह काया किया गया है और तीसरे में त्यागसता की यह 'त्याग लामाका परिवर्तन हुआ है। इन तीनों परिवर्तन में से पहला परिवर्तन निरर्षक है और उसके द्वारा पक्ष का प्रनिपार विषय का कम हो जाता है या सी भर से पीदिन हो । यदि रजस्वला होगाय तो उसी की शुद्धि का विधान रसमा कन्ति को पहले से रमस्वना हो
और पीई बिसे वर भाजाय उसकी सुद्धकी कोई व्यवस्था नहीं रहती। 'च' शब्द का प्रयोग इस दंप पोरन देताह और यह दोनों में से किसी भी वाया की जलसा के लिये एक हो शुद्ध का विधान बनाना है। मन की बार चित्'का परिवर्तन या ठीक नहीं था। मा परिवर्तन एक विशेष परिवर्तन है और उसके सम्बस भगाइन की बात को घोडार उस दूसरी जी के साथ साम की बात को ही अपनाया गया है । रहा सीसरा परिवर्तन, यह बड़ा ही शिक्षण भाग पड़ना है, उस 'लाता' पद का सम्बन्ध अंतिम 'सा' पद के आप ठीक नहीं बैठता और 'त्याग' पद से उसका और भी ज्यादा सस्ता है । हो सकता है, कि यह परिवर्तक का असावधाम सखों की ही कर्वन हो, उनके रा 'यागसतात: का 'खाम लाता लिखा ना कुछ भी मुश्किल नहीं है, क्यों कि दोनों में अबरों की बहुत कुछ समानता है, परंतु सोमीनी से
शायद इसीक्षिय पचासनी मामी इस पथ के अनुवाद में लिखने में कोई स्वर से पीड़ित की पधिरजसका होगाय तो उसकी साबिसकोसी किया करने सेवाश्व हो सकती है।"
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[४२] 'त्यागं लाता' पाठको ही शुद्ध समझा है-शुद्धिकर में भी उसका संशोधन नहीं दिया--भार अनुवाद में 'लाता' पर का सम्यंत्र उस दूसरी स्त्री के साथ जोड़ दिया है जो स्नान करके रजस्वला को ढूं। यह सब देखकर बड़ा ही खेद होता है ! आप लिखम है--"अन्त में यह सर्श करने वाला खी अपने कपड़े गी उतार दे मार उस रजस्वला के कपड़े भी उतार दे और स्नान करले ।" समझ में नहीं पाता, जब उस दूसरीखी को अन्त में भी अपने कपड़े उतारने तथा बान कान की जरूरत वाकी रह जाती है और इस तरह पर यह उस अंतिम मान से पहले अशुद्ध होती है तो उस अशुद्धा के द्वारा रजस्वला की शुद्धि कैसे हो सकती है ! सोनीजी ने इसका कुछ भी विचार नहीं किया
और वैसे ही खींचतान कर 'लाता' पद का सम्बंध उस दूमरी की के साथ जोड़ दिया है जिसके साथ पत्र में उसका कोई सम्बंध ठीक नहीं बैठता ! और इसलिये यह परिवर्तन यदि गहारकजी का ही किया हुआ है तो इससे उनकी योग्यता की और भी अच्छी कलई खुल जाती है।
यहाँ तक के इस सम्पूर्ण प्रदर्शन से यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि यह ग्रंथ, जैसा कि सखारम्भ में जाहिर किया गया था, वास्तव में एक बहुत बड़ा संग्रह ग्रंथ है और इसमें जैन अनैन दोनों ही प्रकार के विद्वानों के वास्यों का भारी संग्रह किया गया है-ग्रंथ की २७०० लोकसंख्या में से शायद सौ डेइसौ श्लोक ही मुशकिल से ऐसे निकालें जिन्हें अंधकार की खतन्त्र रचना कहा जा सके, बाकी सब लोक ऐसे ही हैं जो दूसरे जैन-अजैन ग्रंथों से ज्यों के त्यों अथवा कुछ परिवर्तन के साथ उठा कर रक्खे गये है-अधिकांश पद्य तो इसमें अनैन ग्रंथों तथा उन जैन ग्रंथों पर से ही उठा कर रखे गये हैं जो प्रायः अनेन ग्रंथों के आधार पर या उनकी छाया को लेकर बने हुए हैं। साथ ही, यह मी स्पष्ट हो जाता है कि ग्रंथकार ने अपने प्रतिज्ञा वाक्यों तथा
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[४३] सूचनाओं के द्वारा जो यह विश्वास दिलाया था कि उसने इस अंग में जो कुछ लिखा है वह उक्त जिनसेनादि छहों विद्वानों के प्रथानुसार लिखा है और जहाँ कहीं दूसरे विद्वानों के प्रधानुसार कुछ कपन किया है वहाँ पर उन विद्वानों का अथवा उनके ग्रंथों का नाम दे दिया है। यह एक प्रकार का धोखा है । अंपकार महाशय (महारानी) अपनी प्रतिज्ञाओं तथा सूचनामों का पूरी तौर से निर्वाह नहीं कर सके और न पैसा करना उन्हें इष्ट था, ऐसा जान पड़ता है-उन्होंने दो चार अपवादों को छोड़ कर कहीं भी दूसरे विद्वानों का या उनके प्रयों का नाम नहीं दिया और न ग्रंथ का सारा कयन ही उन जैन विद्वानों के वाक्यानुसार किया है जिनके ग्रंथों को देख कर कपन करने की प्रतिज्ञाएँ की गई थी, बल्कि बहुतसा कथन भजैन ग्रंथों के आधार पर, उनके वाक्यों तक को उद्धृत करके, किया है जिनके अनुसार कथन करने की कोई प्रतिज्ञा नहीं की गई थी। और इसलिये यह कहना कि' भधारकजी ने जान बूझ कर अपनी प्रतिज्ञाओं का विरोध किया है और उसके द्वारा पवलिक को धोखा दिया है' कुछ भी अनुचित न होगा । इस प्रकार के विरोष तथा धोखे का कुछ और भी स्पष्टीकरण 'प्रतिज्ञादि-विरोध' नाम के एक अवग शीर्षक के नीचे किया जायेगा। ____ यहाँ पर मैं सिर्फ इतना और बतला देना चाहता हूँ कि मारकजी ने दूसरे विद्वानों के ग्रंथों से जो यह बिना नाम पाम का भारी संग्रह करके उसे अपने ग्रंथों में निबद्ध किया है-'उक्त च* आदि रूप से भी नहीं पता-और इस तरह पर दूसरे विद्वानों की कृतियों को अपनी कृति अपवा रचना प्रकट करने का साहस किया है वह
*पंथ में इस पाँच पद्यों को जो 'उ ' भाविकपसे देखा है उनका यहाँ पर महण नहीं है।
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[१४] एक बड़ा ही निन्ध तथा नीच कर्म है । ऐसा जघन्य भाचरण करने बालों को श्रीसोमदेवसरि ने 'काव्यचोर' और 'पातकी' लिखा है । यथाः--
छत्वा कृती: पूर्वकृताः पुरस्तात्मायावर ताः पुनरीक्षमाणः। वष जस्पेदय योऽन्यथा पास काम्यचोरोऽसुखातकीच ॥
यशस्लिलका श्री अजिनसेनाचार्य ने तो दूसरे कामों के सुन्दर शब्दायों की छाया तक हरने वाले कवि को 'चोर' (पश्यतोहर) बतसाया है । यथाः
अन्यकाव्यशब्दार्थछायां नो ग्चयेत्कविः । सकाव्य सोज्यथा लोके पश्यतोहरतामरेत् ॥६५u
-मलवारधिन्तामणि । ऐसी हालत में महाका सोगमेनजी इस कार्य से किसी तरह गौ मुक्त नहीं हो सकते । वे माने ग्रंथ की इस स्थिति में, उस प्राचार्यों के निर्देशानुसार, अवश्य हो 'काम्पचोर' और 'पानकी' कहलाये जाने के योग्य है और उसकी गहना तस्कार लेखकों में की नानी चाहिये । उन्हें इस कलंक से बचने के शिये कमसे क्रम उन पद-वास्यों के साथ में नो ज्यों के से उठाकर रक्खे गये हैं उन विद्वानों अथवा उनके ग्रन्थों का नाम जरूर देदेना चाहिये था जिनके व पचन थे; जैसा कि 'पाचारादर्श' और 'मिताक्षरा' आदि ग्रन्थों के कनीओं ने किया है। ऐसा करने से ग्रंथ गत मइस कम नहीं होता किन्तु उसकी उपयोगिता और प्रामाणिकता बढ़ जाती है। परन्तु महारानी में ऐसा नहीं किया और उसके दो खास कारण जान पड़ते हैं--एक तो यह कि, वे हिन्दू धर्म की बहुनसी थानों को प्राचीन जैनाचार्यों अथषा जैनविद्वानों के नाम से बैनसमाज में प्रचारित करना चाहते'
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[५] पे और यह बात पर विधानों के वाक्यों के साथ उनका मका उनके अन्यों का नाम देदेने से नहीं बन सकती थी, बैनी जन उसे गान्य न करने । दूसरे यह कि, वे मुख में अन्य परिश्रम से ही कान्य. कीर्ति मी कमाना चाहते थे-दूसरे कवियों की कृतियों को अपनी कवि प्रकट करके, सहन ही में एक अच्छे कति का पद तथा सम्मान प्राप्त करने की उनकी इच्छा थी और यह इच्छा पूरी नहीं हो सकनी थी यदि समी उद्धत पद-बाक्यों के साथ में दूसरे विद्वानों के नाम देदिये जाते । तब तो आपकी निमकी कृति प्रायः कुछ गौम रहती अषमा यो कहिये कि महत्वशय और सेबाहानसी दिवसाई पड़ती ! अतः मुख्यतया इन दोनों वित्पुत्तियों से अभिभूत होकर ही आप ऐसा होनाथरस करने में प्रवृत्त हुए है, जो एक सत्यादि के लिये कमी शोभा नहीं इसा, बल्कि उबटा साना तथा शर्मा का स्थानक होता है। शायद इस राजा तथा शर्म को उतारने या उसका कछ पारिंगार्जन करने के लिये। भट्टारकत्री ने अन्य के अन्त में, उसकी समाप्ति के बाद, एक पर निम्न प्रकार से दिया है
सोकायऽथपुरातना प्रिनिखिता अम्मामिरम्पर्षत-- लदीपा व सम्मु फायरचनामुद्दीपबम्ने परम् । गानाशासमनाम यदि नषं प्रायोऽकरिष्यं त्वाम् भाशा माऽस्य मालदेति सुषिया कविस्मयोगपवार ।
इस पथ से नहीं यह सूनना गिलानी है कि प्रप में कुछ पुगतन पत्र भी सिख गया है यहाँ प्रकार का उन पुरातन पया के सहारे से अपनी काम्परचना को तपोतित करने अषया काव्यनति कमाने का यह माप मी बाहुन कुछ व्यक्त हो जाता है जिसका उपर उसख किया गया है। मारकमी पप के पूर्वार्ध में खिचते हैं-'हगने इस मन्प में, प्रकरणानुसार, निन पुरातन सोकों को लिखा है दीपक की तरह
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[४] सत्पुरुषों के सामने हगारी काव्यरचना को उद्दीपित ( प्रकाशित ) करते है। परन्तु उन्होंने, अपने ग्रंथ में, जन स्वकीय और परकीय पयों का प्रायः कोई भेद नहीं रक्खा तब ग्रंथ के कौन से पद्यों को 'दीपक' और कौनसों को उनके द्वारा 'उद्दीपित' समझा जाय, यह कुछ समझ में नहीं आता । साधारण पाठक तो उन दस पांच पयों को छोड़कर निन्हें 'उक्तंच', 'मतान्तर' तथा 'अन्यमतम्' मादि नामों से उल्लखित किया गया है और जिनका उक्त संग्रह में कोई खास बिक भी नहीं किया गया अथवा ज्यादा से ज्यादा कुछ परिचित पद्यों को भी उनमें शामिल करके, शेष सब पयों को मारकजी की ही रचना समझने हैं और उन्हीं के नाम से उनका उल्लेख भी करते हुए देखे जाते हैं। क्या यही महारकजी की कान्परचना का सचा उद्दीपन है । अथवा पाठकों में ऐसी अक्षत समझ उत्पन्न करके काव्यकीर्ति का लाभ उठाना से इसका एक उद्देश्य है । मैं तो समझता हूँ पिछली बात ही ठीक है और इसीसे उन पचों के साथ में उनके लेखको अथवा ग्रंथों का नाम नहीं दिया गया और न दूसरी ही ऐसी कोई सूचना साप में की गई जिससे' वे पढ़ते ही पुरातन पच समझ लिये जाते । पत्र के उत्तरार्ध में महारकनी, अपनी कुछ चिन्तासी व्यक्त करते हुए, लिखते हैं-'यदि मैं नाना शास्त्रों के मतान्तर की नवीनप्राय रचना करता तो इस ग्रंथ का तेन पाता-अथवा यह मान्य होता इसकी मुझे कहा पाणथी। और फिर इसके मनन्तर ही प्रकट करते हैं-इसीलिये कुछ सुधीजन 'प्रयोगवद' होते हैं-आधीन प्रयोगों का उल्लेख करदेना ही उचिव समझते हैं।'
*पं० पन्नालालजी सोनी ने इस पद्य के उत्तरार्ध का अनुवाद पाही विलक्षण किया है और वह इस प्रकार है
" यद्यपि मैने अनेक शान और मतो से सार लेकर इस नवीन शाल की रचना की है, उनके सामने इसका प्रकाश पडेगा यह माशा
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[१७] और इस तरह पर आपने अपने को प्रयोगवद (प्रयोगवादी ) अपना प्रयोगवद की नीतिका अनुसरण करने वाला भी सूचित किया है । हो सकता है महारानी की उक्त चिन्ता कुछ ठीक हो-वे अपनी स्थिति
और कमशोरी आदि को भाप जानते थे परन्तु जब उनको अपनी रचना से तेज अथवा प्रभाव पड़ने की कोई आशा नहीं थी तब तो उन्हें दूसरे विद्वानों के वाक्यों के साथ में उनका नाम देदेने की और भी ज्यादा वसरत थी। ऐसी हालत में भी उनका नाम न देना उक्त दोनों कारणों के सिवाय और किसी बातको सूचित नहीं करता । रही 'प्रयोगवद की मोतिका अनुसरण करने की बात, प्रयोगाद की यह नीति कदापि नहीं होती कि वह दूसरे की रचना को अपनी रचना प्रकट करे । यदि ऐसा हो तो 'काव्यचोर' और 'प्रयोगवद' में फिर कुछ भी अन्तर नही रह सकता। यह तो इस बात की बड़ी सावधानी रखता है और इसी में आनन्द मानता है कि दूसरे विद्वान का बो वाक्य प्रयोग उद्धृत किया जाय उसके विषय में किसी तरह पर यह काहिर कर दिया जाय कि यह अमुक विद्वान का पाक्य है अथवा उसका अपना वास्य नहीं है । उसकी रचना-प्रणाली ही अलग होता है और वह नहीं, वो भी कितने ही बुद्धिमान नवीन नवीन प्रयोगों को पसंद करते है, अतः उनका चितसले अवश्य अनुरंजित होगा।"
अनुवादकजी और तो क्या, ललकार की प्रकरिष्यं किया का अयं मी ठीक नहीं समझ सके ! तय 'इतिसुधियः केचित्मयोगवदाः ' का अर्थ समझना तो उनके लिये दूर की बात थी ।
आपने पुरातन पयावरण के समर्थन में नवीन नवीन प्रयोगों को पसंद करने की बात तो खूब कही ! और 'उनका चित्त इससे अवश्य अनुरंजित होगा' इस अन्तिम धास्यावतार ने तो मारके ग्राप ही ढा दिया !!!
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[ 2] दुराग के प्रयोगों को बदल कर रखने की जमत नहीं मगना और न अपने को उमगा अधिकारी हा गामना है । गोगगनजी को सिनि ग्रंथ पर से ऐमी गालूग नहीं होनी वे इस विषय में प्रार: कुछ भी सावधान नजर नहीं पाते उन्होंगे सैकड़ों पुगतान घों को विनासरत ही बदल डाला है और जिन पदों को ज्यों का स्यों उठाकर रखा है उनके विषय में प्राय: कोई सूचना ऐसी नहीं कि जिससे दूसरे विद्वानों के वाक्य सग जाय । साथ ही, ग्रंथ की रचना-प्रणाली भी एपी मालूम नहीं होती जिसे प्रायः 'प्रयोगंबद की नौनिका अनुमग्ण करने वाली कहा जा म एसी हालत में इस पय द्वारा जिन बानों की सूचना की गई है ये काव्यपारीको उम फलंका को दूर करने के लिये किसी तरह भी समर्थ नहीं हो सानी । उन्हें प्रायः बैंग मात्र समगना चाहिये अथवा यों कहना चाहिये कि ये पांच से कुछ शर्म सी उतारने अथवा अपने दुष्कर्म पर एक प्रकार का पर्दा डालने के लिये ही लिली गई हैं । अन्यथा, विद्वानों के समक्ष उगमा कुछ भी मूल्य नहीं है।
अन्य में एक जगह कलौतु पुनमहाहं वर्जयेदितिगालको पसा लिखा है। यह वाश्य येशक प्रयोगंबद की नीतिका अनुसरण करने वाला है-इसमें 'गालव ऋषि के वाक्य का उनके नाम के साथ उलेख है । यदि सारा अन्य अथवा ग्रन्थ का अधिकांश माग इस तरह से भी खिला जाता तो बह प्रयोगधर की नीति का एक अच्छा अनुसरण कहलाता। और तब किसी को उपयुक आपत्ति का अबसर हीन रहता । परन्तु अन्य में, चार उदाहरणों को छोड़कर, इस प्रकार की रचना का प्रायः सर्वत्र प्रभाव है।
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[ X ]
प्रतिज्ञादि - विरोध |
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यह त्रिवर्णाचार अनेक प्रकार के विरुद्ध तथा अनिष्ट कथनों से भरा हुआ है । प्रथके संग्रहत्व यादि का दिग्दर्शन कराने के बाद, छान मैं उन्हीं को लेता हूँ और उनमें भी सब से पहले उन कथनों का दिग्दर्शन कराना चाहता हूँ जो प्रतिज्ञा भादि के विरोध को लिये हुए हैं। इस सब दिग्दर्शन से ग्रंथ की रचना, तरतीब, उपयोगिता और प्रमाणता आदि विषयों की और भी कितनी ही बातें पाठकों के अनुभव में जाएँगी और उन्हें यह अच्छी तरह से मालूम पड़ जायगा कि इस ग्रंथ में कितना धोखा है, कितना जाता है और वह एक मान्य नैन अन्य के तौर पर खीकार किये जाने के लिये कितना भयोग्य है अथवा कितना अधिक प्रापति के योग्य है: --
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(१) महारक सोमसेनजी ने, प्रन्ध के शुरू में, ' यत्प्रोक्तं जिनसेनयोग्यगणिभिः ' नामक पथ के द्वारा जिन विद्वानों के ग्रन्थों को देख कर — उनके वचनानुसार प्रन्थ रचना की प्रतिज्ञा की है उनमें ' जिनसेनाचार्य' का नाम सब से प्रथम है और उन्हें आपने ' योग्यगणी ' भी सूचित किया है। इन जिनसेनाचार्य का बनाया हुआ एक पुराण ग्रन्थ सर्वत्र प्रसिद्ध है जिसे 'आदिपुराण' अथवा ' महापुराण' भी कहते हैं और उसकी गणना बहुमान्य भार्ष ग्रन्थों में की जाती है। इस पुराण से पहले का दूसरा कोई भी पुराण प्रन्थ ऐसा उपलब्ध नहीं है जिसमें गर्भाधानादिक क्रियाओं का संक्षेप अथवा विस्तार के साथ कोई खास वर्णन दिया हो । यह पुराण इन क्रियाओंों के लिये ख़ास तौर से प्रसिद्ध है । महारकभी ने अन्य के आठवें अध्याय में इन क्रियाओं का वर्णन श्रारम्भ करते
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हुए, एक प्रतिक्षा वाक्य निम्न प्रकार से दिया है-
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[५] गर्माधानादयो भन्यानिविशक्रिया मता।
वदयेऽधुना पुराणे तु या प्रांता गणिभिः पुरा nail इस वाक्य के शरा यह प्रतिज्ञा की गई है कि प्राचीन आचार्य महोदय ( जिनसन )ने पुराण ( आदिपुराण) में जिन गांधानाटिक ३३ क्रियाओं का कथन किया है उन्हीं का मैं अब कायन करता हूँ। यहाँ बहुवचनान्त 'गणिभिः' पदका प्रयोग नहीं है जो पहले प्रतिज्ञा वाक्य में जिनसनाचार्य के लिये उनके सम्मानार्थ किया गया है और उसके साथ में 'पुराणे'*पद का एकवचनान्त प्रयोग उनके उक्त पुराण ग्रन्थ को सूचित करता है। और इस तरह पर इस विशेष प्रतिमा बाक्य के द्वारा यह घोषणा की गई है कि इस प्रय में गर्भाधानादिक क्रियाओं का अयन जिनसनाचार्य के प्रादिपुराणानुसार किया जाता है । साथ ही, कुछ पच मी आदिपुराण से इस पथ के मनन्तर उद्धृन पि गये हैं, ' युष्टि ' नामक क्रिया को पादिपुराण के ही दोनों पषों ('ततोऽस्य हायने' प्रादि) में दिया है और प्रतवर्ष 'तथा ' प्रतापतरण ' नामक क्रियाओं के मी कितने ही पथ ('वतचर्यामहं वक्ष्ये' आदि) श्रादिपुराण से ज्यों के त्यों उठाकर रखे गये हैं । परंतु यह सब कुछ होते हुए भी इन क्रियाओं का अधिकांश कथन मादिपुराण अथवा भगवजिनसेनाचार्य के वचनों के विरुद्ध किया गया है, जिसका कुछ खुलासा इस प्रकार है:
६० पन्नालालजी सोनी ने 'पुराणे' पद का ओ बहुवचनान्त अर्थ "शास्त्रों में" ऐसा किया है वह ीक नहीं है। इसी तरह 'गशिभिः 'पद के पडवधनान्स प्रयोग का प्राशय मी भाप ठीक नहीं समझसके और आपने उसकाअर्थ "मपियों ने " दे दिया है।
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[ १] (क) भगवजिनसेन ने गर्भाधानादिक क्रियाओं की संख्या ५३ दी है और साथ ही निम्न पच द्वारा यह प्रतिपादन किया है कि गर्माधान से लेकर निर्वाण तक की ये ५३ क्रियाएँ परमागम में 'गन्षिय क्रिया' मानी गई है
प्रयपंचाशदता हिमता गर्मान्धयक्रियाः । , गर्भाधानादिनिषिपंयन्ता परमानमे ।
पस्तु बिनसन के बचनानुसार कथन करने की प्रतिज्ञा से बंधे हुए भट्टारकनी उक्त क्रियाओं की संख्या ३३ पताते हैं और उन्होंने उन ३३ केनो नाम दिये हैं वे सब भी ये ही नहीं है जो प्रादिपुराण की ५३ क्रियाओं में पाये जाते हैं । यथा:
माधानं प्रीतिः सुप्रीति तिमोदः प्रियोदयः । नामकर्म पहियोग शिपया प्राशन तथा ॥४॥ म्युटिव केशधापन लिपिसंस्थानसंग्रहः । अपनीतिर्वतचर्या तावतरखं तथा ॥५॥ विवाहो वर्णमामय कुलचा गृहीशिता । प्रशान्तिश्व गृहत्यागो दक्षिाय जिनकपमा ॥६॥ सूतफल व संस्कारो निर्वाण पिण्डदामकम् । बाई व सूतकतं मायश्चित्तं तथैव ॥७॥ तीर्थयाति कविता बानियलण्यया किया।
भयाशिव धर्मस्य देशनाण्या विशेषत: इनमें से पहले तीन पथ तो प्रादिपुराण के पथ हैं और उनमें गर्भाधान को आदि लेकर २९ क्रियाओं के नाम दिये है, बाकी के दो पष भरकनी की प्राथा अपनी रचना बान पड़ते हैं और उनमें र क्रियाओं के नाम देकर तेतीस क्रियाओं की पूर्ति की गई है। और यहाँ से प्रकृत विषय के विरोध मला उस का भारमहमा है। इस
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[ ५२ ६ क्रियाओं में, निर्वाण' क्रिया को छोड़कर, मृतक संस्कार, पिण्डदान, आइ, दोनों प्रकार के सूतक (जननाशौच, मृताशौच ), प्रायश्चित, तीर्थयात्रा और धर्मदेशना नाम की क्रियाएँ ऐसी है जो प्रादिपुराण में नहीं हैं। आदिपुराण में उक्त २४ क्रियाओं के बाद गौनाध्ययमत्व' आदि २६ क्रियाएँ और दी है और उनमें मन्तिा क्रिया निति' अर्थात् निर्वाण बतलाई है । और इसीसे ये क्रियाएँ गर्भाधानादि निर्वाणान्त' कहलाती हैं । भगवजिनसेन ने इन गधान से लेकर निर्वाण तक की ५३ क्रियाओं को 'सम्यक् क्रिया' मतलाया है
और उनसे मिल इस संग्रह की दूसरी क्रियाओं को अथवा 'गर्भाघानादि स्मशानान्त' नाम से प्रसिद्ध होने वाली दूसरे बोगों * की क्रियानों को मिथ्या क्रिया ठहराया है। यया:
*हिन्दुओं की क्रियाएँ 'गर्भाधानादिश्मशानांत' नाम से प्रसिद्ध हैं, यहथात 'याज्ञवल्क्यस्मृति के निम्नवायसरपट है
ब्रह्मक्षत्रियविदशना वर्णास्वाथालयो द्विजाः।
निकाधा श्मशानान्तास्तेषां वै मंत्रित किया ॥१०॥ महारफजी ने अपनी ३३ क्रियाएँ विस क्रम से यहाँ ( उपयों में) दी है इसी क्रम से उनका भागे कथन नहीं किया, 'मृतक संस्कार माम की क्रिया को उन्होंने सब के अन्त में क्या है और इसलिये सनकी इन क्रियाओं को भी 'गर्भाधानादिश्मशानांत' कहना चाहिये। यह दूसरी बात है कि उन्हें अपनी क्रियाओं की सूची उसी क्रम से देनी नहीं आई, और इसलिये उनके कथन में क्रम-विरोध हो गया, जिसका कि एक दूसरा नमूना बतावतरण क्रिया के बाद "विवाई को न देकर 'प्रायाचित' का देना है। .
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[ ५३ ] क्रिया गर्मादिका यस्ता निर्वाणान्ता पुरोदिताः। आघानादि श्मशानान्ता न ताः सम्यक् मियामतः ॥२५॥
-३६ वा पर्ष। और इसलिये महारकजी की 'पिण्डदान' तथा 'श्राद्ध' आदि नाम की उक्न क्रियाओं को भगवन्जिनसेनाचार्य के केवल विरुद्ध ही न समझना चाहिये बल्कि 'मिथ्या क्रियाएँ मी गानना चाहिये।
(ख) अपनी उद्दिष्ट क्रियाओं का कपन करते हुए, भतारकजी ने गर्भाधान के बाद प्रीति, सुप्रीति, और धृति नाम की क्रियाओं का कोई कथन नहीं किया, जिन्हें आदिपुराण में क्रमशः तीसरे, पाँचवें और सातवें महीने करने का विधान किया है, बल्कि एकदम मोद' क्रिया का वर्णन दिया है और उसे तीसरे महीने करना लिखा है। पया:----
गर्भस्थिरे ऽध संजाते माले दुनीयक धुषम् ।
प्रमोदनव संस्कार्यः क्रियामुण्या प्रमोदकः ॥ ५५ ॥
परन्तु आदिपुराण में 'नवमे मास्यतोऽभ्यर्षे मोदोनाम क्रियाविधिः' इस वाक्य के द्वारा 'मोद' क्रिया र गहीने करनी लिखी है। और इसलिये महारकबी का कथन मादिपुराण के विरुद्ध है।
यहाँ पर इतना और भी बतला देना उचित मालूम होता है कि भट्टारकनी ने 'प्रीति' और 'सुप्रीति' नामकी क्रियाओं को 'प्रियोद्भव क्रिया के साथ पुत्रजन्म के बाद करना लिखा है । और साथ ही, सजनों में उत्कृष्ट प्रीति करने को 'प्रीति', पुत्र में प्रीति करने को 'सुप्रीति और देवों में महान् उत्साह फैलाने को प्रियोदषक्रिया बतलाया है। यथा:
*'ति' क्रिया के कथन को श्राप यहाँ भी छोड़ गये है और उसका वर्णन अंथ भर में कहीं भी नहीं किया। इसीतरह 'तीर्थयात्रा' मादि और मी छ क्रियाओं के कथन को आप विलकुल ही छोड़ गये अथवा भुला गये हैं।
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[ ५४] पुत्रजन्मनि संजात प्रतिसुप्रीतिके किये । प्रियोदयश्च स्रोत्साहः कर्तव्यों जातकर्मणि ॥५॥ सबनेषु परा प्रीतिः पुत्र सुप्रीमिरुच्यते । प्रियोदवाव पेपत्तास्तु क्रियते महान् ॥ १२ ॥ यह सब कयन मी मगजिनसेनाचार्य के विरुद्ध है-क्रमविरोध को मी लिये हुये है-और इसमें 'प्रीति बादि तीनों क्रियाओं का माखरूप दिया है बह बड़ा ही विलक्षण जान पड़ता है। भादिपुराण के साथ उसका कुछ भी मेल नहीं खाता; जैसा कि आदिपुराण के निन्न वाक्यों से प्रकट है--
पर्माधानास्परं मासे हतीय संप्रवर्तते । प्रीतिनाम क्रिया प्रीयांऽनुप्ठेया दिजन्ममिः ॥ ७ ॥ माधानात्पंचमे मासि किया सुप्रीतिरिष्यते। था सुगनप्रयोगव्या परमोपासकवतैः ।।८० ॥ मियोदयः प्रसूनायां जातकर्मविधिः स्मृतः। जिनजातकमायाय मवलों योयथाविधि ८५
-वौं पर्व। पिछले लोक से यह मी प्रकट है कि आदिपुराण में जातकर्मविधि' को ही 'प्रियोद्भव क्रिया बतलाया है । परन्तु मट्टारकजी ने प्रियोद्भव' को 'जातकर्म से मिन्न एक दूसरी क्रिया प्रतिपादन किया है। यही वजह है बो उन्होंने अध्याय के अन्त में, प्रतिपादित क्रियामों की गणना करते 'हुए, दोनों की गणना क्षगायलग क्रियाओं के रूप में की है। और इसलिये पापका यह विधान मी बिनसेनाचार्य के विरुद्ध है।
एक बात और भी बतला देने की है और वह यह कि, भरएकजी ने 'नातकर्म विधि में 'जननाशौच 'को भी शामिल किया है और उसका कथन छह पचों में दिया है। परंतु 'बननाशैच' को मापन भवग क्रिया भी बतलाया है, तब दोनों में कान्तर क्या रहा, यह
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[५] सोचने की बात है। परंतु अन्तर कुछ रहो पा न रहो, इससे प्रथ की बेतरतीची और उसके बेढंगेपन का हाख कुछ जरूर मालूम हो जाता है।
(ग) मोद' क्रिया के बाद, त्रिवर्णाचार में 'पुंसवन' और 'सीमन्त' नाम की दो क्रियाओं का क्रमश: निर्देश किया गया है और उन्हें यथाक्रम गर्म से पांचवें तथा सातवें महीने करने का विधान किया है। यथा:
समस्याथ पुरय क्रियां पुंसवनामिधाम । कुन्तु पंचमे माखि पुमाला नेममिधः ॥३॥ अथ सप्तमके मासे सीमन्तविधियच्यते ।
फेशमध्ये तु गमिएया सीमा सीमन्तमुच्यते १७२॥ ये दोनों क्रियाएँ शादिपुराण में नहीं है और न भट्टारकनी की उक्त ३३ क्रियाओं की सूची में ही इनका कही नामोशेख है। फिर नहीं मालूम इन्हें यहाँ पर क्यों दिया गया है क्या महारानी को अपनी प्रतिज्ञा, ग्रंथ की तरतीय और उसके पूर्वापर सम्बंध आदि का कुछ मी ध्यान नहीं रहा। वैसे होनहाँ जो जी में आया शिख मारा!! और क्या इसी को प्रथरचना कहते हैं ! वास्तव में ये दोनों क्रियाएँ हिन्दू धर्म की ख़ास क्रियाएँ (संस्कार) हैं। हिन्दुओं के धर्म ग्रंथों में इनका विस्तार के साथ वर्णन माया जाता है । गर्भिणी बी के केशों में माँग पाइने को 'सौगत क्रिया कहते हैं,निसके द्वारा वे गर्म का ख़ास तौर से संस्कारित होना मानते हैं । और 'पुंसवन क्रिया का अभिप्राय उनके यहाँ यह माना जाता है कि इसके कारण गर्मिणी के गर्भ से लड़का पैदा होता है, जैसा कि मुहतचिंतामणि की पीयूषधारा टीका के निम्न वाक्य से भी प्रकट है"पुमान् सूपतेऽनेन कर्मलेति व्युत्पत्या पुंसवनकर्मणा पुंस्त्वहेतुना।"
परंतु नैन सिद्धांत के अनुसार, इस प्रकार के संस्कार से, गर्म में आई हुई लड़की का लड़का नहीं बन सकता । इसलिये बैन धर्म से इस संस्कार का कुछ सम्बध नहीं है। मगवषिजनसन के वचनानुसार इन दोनों
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[ ५६ ] क्रियाओं को भी मिथ्या क्रियाएँ समझना चाहिये । मालूम होता है कुछ विद्वानों ने दूसरों की इन क्रियाओं को किसी तरह पर अपने ग्रंथों में अपनाया है और भट्टारकजी ने उन्हीं में से किसी का यह अंधाऽनुकरण किया है। अन्यथा, आपकी तेतीस क्रियाओं से इनका कोई सम्बंध नहीं था।
(घ) त्रिवर्णाचार में, निर्धन के लिये, गर्भाधान, प्रमोद, सीमंत और पुंसवन नाम की चार क्रियाओं को एक साथ र महीने करने का भी विधान किया गया है । यथाः--
गर्भाधान प्रमोदश्च सीमन्तः पुंसवं तथा।
नवमे मासि चैका कुर्यात्सर्वतु निर्धन Non यह कथन भी मगनिनसेनाचार्य के विरुद्ध है--आदिपुराण में गर्माधान और प्रमोद नाम की क्रियाओं को एक साथ करने का विधान ही नहीं। यहाँ 'गर्भाधान क्रिया का, जिसमें भारफनी ने बीसंमोग का खासतौर से तफसीलवार विधान किया है, वे महीने किया जाना बड़ा ही विलक्षण जान पड़ता है और एक प्रकार का पाखण्ड मालूम होता है। उस समय मारकजी के उस 'कामयज्ञ' का रचाया जान्ग जिसका कुछ परिचय मागे धन कर दिया जायगा, निःसन्देह, एक बड़ा ही पाप कार्य है और किसी तरह भी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । स्वयं मट्टारकाजी के 'मासानु पंचमाचर्च तस्याः संगंधिवजयत् इस वाक्य से भी उसका विरोध माता है, जिसमें लिखा है कि पांच महीने के बाद गर्मिणी जी का संग छोड देना चाहिये-उससे भोग नहीं करना चाहिये । और वैसे भी गर्भ रह जाने के बाठ नौ महीने बाद 'गर्भाधान क्रिया का किया जाना गहन एक दीग रह जाता है, जो सत्पुरुषों द्वारा भादर किये जाने के योग्य नहीं। भधारकामी निर्धनों के लिये ऐसे दोग का विधान करते हैं, यह आपकी बड़ी हीविचित्र लीला अथवा परोपकार बुद्धि है! आपकी राय में शायद ये गर्माधान भादि की क्रियाएँ विपुलधन-साध्य हैं और उन्हें धनवान लोग ही कर
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[५७ ] सकते हैं । परन्तु आदिपुराण से ऐसा कुछ भी मालूम नहीं होता। यहाँ अनेक क्रियाओं का विधान करते हुए 'यथाविमा 'यथाविमचअनापिदि शब्दों का प्रयोग किया गया है और उससे मालूम होता है कि इन क्रियाओं को सत्र लोग अपनी अपनी शक्ति और सम्पति के जानुसार कर सकते हैं धनवानों का ही उनके लिये वोई ठेका नहीं है।
() महारवानी ने, निग्न पथ द्वा, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शव चारों जातियों के लिये क्रमशः १२३, १६ , २०. वें, भौर ३२ दिन बालक का नाम रखने की व्यवस्था की है-. । .. द्वादशे पोहरी बिशेवानिशे दिवसेदिया
नामफर्म स्वजातीनां कर्तव्य पूर्वमानतः ॥ ११९॥ ' . आपको यह व्यवस्था भी भगवजिनसेन के विरुद्ध है। श्रादिपुराण में जना दिन से १२ दिन के बाद-१३३, १४, आदि किसी भी अनुकूच दिवस में नाम कर्म की सबके लिये सगाग व्यवस्था की गई है और उसमें बाति अथवा वर्णमद को कोई स्थान नहीं दिया गया । यथा:
सोनीजी ने इस पंप के अनुवाद में कुछ गलती साई है। इस पच में प्रयुक्त हुए खजातीनां पर और अपि' तथा 'पा' शब्दों का अर्थ ये डीक नहीं समझ सके। स्वजातीना ' पद यहाँ चारों जातियों अर्थात् धणी का धावक है और 'अपि समुधपार्थ में तथा 'बा' शब्द अवधारण अर्थ में गया है विकल्प अर्थ में नहीं। हिन्दुओं के यहाँ भी, जिनका इस ग्रन्थ में पाया अनुतरण किया गया है, 'वर्णक्रम ही नाम कर्म का विधान किया गया है, जैसा "सारसंग्रह' केनिने पाय से प्रकट है जो मु० चिन्तामणि दीपायपधारा का में दिया जा है-'
पिकादोजह विमा क्षेत्रियाणां प्रयोदश। • वैश्यानां पोर्ड नाम मांसाले जन्मनः ।
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[५] द्वादशाहात्परं नाम फर्म जन्मदिनान्मानम् । अनुकले सुनस्याम्य पित्रारगि सुखावहे ॥ ३ ॥
(च) निवर्णाचार में, ' नाम ' क्रिया के अंगता, बारीक के कान नाक बींधने और उरो पालो में बिठलीने के दो गंन दिये है
और इस तरह पर 'फर्णवधन' तथा 'आंदोलारोपण ' नाम की दो मीन क्रियाओं का विधान किया है, निनका उस ३३ क्रियाओं में कहीं भी नागोनल नहीं है।यादिपुराण में भी इन क्रियाओं का कोई कयन नहीं है। और इसलिये महारानी का यह विधान भी भागारिननसेन के विरुद्ध है और उनकी इन क्रियाओं को मी 'मिस्याक्रियाएं समझाना चाहिये। ये क्रियाएँ भी हिन्दू धर्म की खास किया है
और उनके यहाँ दो अलग संस्कार गाने जाते हैं । मालूम नहीं महारानी इन दोनों कियाशों के सिर्फ मंत्र देकर ही क्यों रह गये और उनका पूरा विधान क्यों नहीं दिया ! शायद इसका यह कारण हो कि जिस मन्य से भाप सम्रह कर रहे हों उसमें कियाओं पर गंत्र भाग थलग दिया हो और उस पर से नाम किया ये मंत्र को नकल करते हुए उसके अनन्तर दिये हुए इन दोनों गंत्रों की भी आप गाल कर गये हो और आपको इस बात का खयाल ही न रहा हो कि हमने इन क्रियाओं को अपनी तेतीस क्रियाओं में विधान अथमा नामरण ही नहीं किया है। परन्तु कुछ गी हो, इससे मापके ग्रन्थ की अव्यवस्था और वैनातीवी असर पाई जाती है।
यहाँ पर मैं इतना और भी बनला देना चापता हूँ कि मेरे पास ब्रह्ममूरि-त्रिवर्णाचार की जो हस्तलिखित प्रति पं० सीताराम शास्त्री की शिखी हुई है उसमें अान्दोलारोपण का मंत्र तो नहीं शायद बूटगया हो-परन्तु कर्णवेधन का गंत्र जरूर दिया हुआ है और वह नामक के मंत्र के अनन्तर ही दिया हुआ है । लेकिन यह मंत्र इस त्रिवर्णाचार के मंत्र से कुछ मिन है, जैसा कि दोनों के निम्नरूपों से प्रकट है
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[ 8] ॐ ही पार्णमालावधनं करोमि स्वाहा।
-प्रसारित्रिषांचार! আঁখী আগষ্টুঃ ক্ষাগৰ থালি গালিঙ্গাৱা।
..-सोमसेनत्रिवधार।, इससे बक्षसूरित्रिवर्णाचार के मंत्रों का मांशिक विरोध पाया जाता है और उस यहाँ बदलकर रखा गया है, ऐसा जान पड़ता है । इसी तरह पर और मी कितने ही मंत्रों का प्रसूरि-त्रिवर्णाचार के साथ विरोध है और यह ऐसे मंत्रों के महत्व अषया उनकी समीचीनता को और भी कम किये देता है।
(छ) मारकी ने 'अन्नप्राशन के बाद और 'न्युष्टि क्रिया से पहले 'गमन' नाम की भी एक क्रिया का विधान किया है, निसके द्वारा बालक को पैर रखना सिखलाया जाता है । यथा:
अथास्य नवम मासे गमन कारयेरिया ।
गमनाधितन सुवार शुभयोगके ॥१४॥ यह क्रिया भी शादिपुराण में नहीं है-पादिपुराण की दृष्टि से यह मिथ्या क्रिया है और इसलिये इसका कथन भी भगवग्जिनसेन के विरुद्ध है। साथ ही, पूर्वापर-विरोध को भी लिये हुए है, क्योंकि महारकजी की तीस क्रियाओं में गी इसका नाम नहीं है। नहीं मालूम भट्टारकजी को बारबार अपने कथन के गी विरुद्ध कथन करने की यह क्या धुन समाई योनिब आप यह बतला चुके कि गर्भाधानादिक क्रियाएँ तेतीस है और उनके नाम भी दे चुके, तब उसके विरुद्ध बीच बीच में दूसरी क्रियाओं का भी विधान करत जाना और इसतरह पर सल्या प्रादि के भी विरोध को उपस्थित करना चाचित्तता, असमीक्ष्यचारिता अथवा पापसपन नहीं वो और क्या है । इस तरह की प्रवृत्ति निःसन्देह भापकी प्रन्यरचना-सम्बन्धी अयोग्यता को अच्छी तरह से ख्यापित करती है।
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[६] यहाँ पर में इतना और भी बतला देना चाहता है कि 'लिपिसंस्थानसंग्रह (अक्षराभ्यास ) नामक क्रिया के बाद भी एक क्रिया और बढ़ाई गई है और उसका नाम है 'पुस्तकप्रदप यह किया भी भादिपुराण में नहीं है और न तेती क्रियाशों की सूची में ही इसका नाम है । लिपिसंस्थान क्रिया का विधान करते हुए, 'मौसीबंधनतः पश्चाच्छास्त्रारंभी विधीयते' इस वाक्य के द्वारा, यपि, यह कहा गया था कि शासाध्ययन का प्रारम्म मानीवन्धन (उपनयन क्रिया ) के पश्चात् होता है परन्तु यहाँ । पुस्तकमहण' क्रिया को बढ़ा कर उसके द्वारा उपनयन संस्कार से पहल ही शक के पढने का विधान कर दिया है और इस बात का कुछ भी ध्यान नहीं रस्सा कि पूर्व कथन के साथ इसका विरोध माना है । यथा:
उपाध्यायेन वे शिप्पं पुस्तक दीयते ना। शिष्योऽपि य एठच्याशं गान्दीपउनपूर्वकम् ॥१॥ (ज) मारकाजी ने लिपि-संस्थान-समाह' नामक क्रिया को देते हुए उसका मुहूर्त भी दिया है, जबकि दूसरी क्रियाओं में से गाधान, उपनयन (यज्ञोपवीत) और विवाहसंस्कार जैगी बड़ी क्रियायों तक का भापने कोई मुहूर्त नहीं दिया। नहीं मालूम इस क्रिया के साथ में मुहूर्त देने की आपको क्या सूझी और पापका यह कैसा रचना-कम है जिसका कोई एक तरीका, नियम अथवा ढंग नहीं !! अस्तु, इस मुहूर्त के दो पद्य इस प्रकार हैं:मृशादिपंचस्वपिसे मिपुमूने, इस्तादिकेच फियत नित्य]ऽश्विनी
इस पद्य में जो पाठ मेद्र प्रैफिटी में दिया गया है वही मूलका शुद्ध पाठ है, सोनीजी की अनुवाद-पुस्तक में यह पलत रूप से दिया हुआ है। पयकाभनुवाद भी कुछ गलत हुआ है.। कमसे कम चित्रा' के बाद 'स्वाती'का और' पूर्वापाड 'से पहले. 'पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र का नाम और दिया जाना चाहिये था। .
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{११] [प]भिषेप प्रचणनये च, विधासमारम्भमशस्तिसिसौ॥ १६५ उदगते भास्वनि पंचमेऽये, मातेऽसरस्वीकार्य शिशूनाम् । , सरस्वती देवधुपालकं च, युद्धोदनारमिपूज्य कुर्यात् ॥ १६ ॥
इनमें से पहला, पच 'श्रीपति ' का और दूसरा विशिष्ट' अपि का वचन है । मुहूर्त चिन्तामणि की पीयूषधारा टीका में भी ये ही विद्वानों के नाम से उधृत पाये जाते हैं। दूसरे पक्ष में 'विनविनायक' की बगह 'चेन्न{पालक' का परिवर्तन किया गया है और उसके द्वारा गणेशजी' के स्थान में क्षेत्रपास की गुरु और चावच वगैरह स पूजा की व्यवस्था की गई है।
क्षेत्रपाल की यह पूजन-व्यवस्था आदिपुराल के मिरुद्ध है। सीतरह पर दूसरी क्रियाओं के बर्थन में बो यच, यची, विशाल
और जयावियतानों के पूजन का विधान किया गया है, अथवा 'पूर्ववत्पूजयेत् "पूर्ववद् होमपूजां च कृत्वा आदि नाक्यों के द्वारा प्रकार के दसरे देवताओं की मी पूजा का-विसका वर्णन चीप पाँच अध्यायों में है-बो इशारा किया गया है वह सब मी मादि पुराण के विरुद्ध है । श्रादिपुराण में गाग्जिनसेन ने, गर्माधानादिक फियाओं के अवसर पर, इसप्रकार के देवी देवतामों के पूजन की कोई व्यवस्था नहीं की। उन्होंने अामतौर पर सा कियाओं में सिद्धों का बन रखा है, जो 'पोठिया' मन्त्रों द्वारा किया जाता है । बहुतसी क्रियाओं में बर्हन्तो का, देवगुरु का और किसी में प्राचार्यो भादि का पूजन भी बदलाया है, जिसका विशेष-ज्ञान-आदिपुराण के ३८ और 20 से पलों को देखने से मालूम हो सकता है।
एतैः पठिकाम ) सिखाचन कुर्यावामानादि क्रियाथियो।
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[२] यहाँ पर में त्रिवर्णाचार की एक दूसरी विलक्षण पूजा का भी उनम्न कर देना उचित सममाना हूँ, और वह है 'योनिस्य देवता की पूजा। महारकजी ने, गर्भाधान क्रिया का विधान करते हुए, इस अपूर्व अपना भक्षुतपूर्व देवता की पूजा का जो मंत्र दिया है वह इस प्रकार है
ॐ ह्रीं की न्यूँ योनिस्थदेवते मम सत्पुन जनयस प्रसिधाउसा स्वाहा।
इस मन में यह प्रार्थना की गई है कि है योनिस्थान में बैठे हुए देवता ! मेरे सत्पुत्र पैदा करो। भारकजी लिखते हैं कि 'यह मत्र पड़कर गोवर, गोमूत्र, दूध, दही, घी कुश (दर्भ ) और जन से योनिका अच्छी तरह से प्रक्षासन करे और फिर उसके ऊपर चंदन, केसर तथा कस्तुरी आदि का संप कर देवे । यथाइति मंत्रेण गोमयगोमूत्रचीरदघिसपिंकुशोदकोंनि सम्प्रदाय श्रीगंधकुंकुमकस्तूरिकाचनुलेपनं कुर्यात् ।
यही योनिस्य देवता का साक्षात पूवन है। और इससे यह मालून होता है कि मारकजी ऐसा मानते थे कि खी के योनि स्थान में किसी देवता का निवास है, जो प्रार्थना करने पर प्राथों से अपनी पूजा लेवार उसके लिये पुत्र पैदा कर देता है। परन्तु जैनधर्म की ऐसी शिक्षा नहीं है
और न बैनमतानुसार ऐसे किसी देवता का अस्तित्व या व्याक्तित्व ही माना जाता है। ये सब धाममानियों अपना शाक्तिकों जैसी बातें हैं। महारानी नै सम्भवतः उन्हीं का अनुकरण किया है, उन्हीं बैसी शिक्षा को समान में प्रचारित करना चाहा है, और इसलिये गर्माधान' क्रिया में श्रापमा यह पूजन-विधान महज प्रतिज्ञा-विरोध को ही लिये हुये नहीं है बल्कि जैनधर्म और जननीति के भी विरुद्ध है, और आपके इस क्रिया मन को अपये मंत्र सगना चाहिये।
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(क) इस आठवें अध्याय में, और भागे मी, मादिपुराण वर्णित क्रियाओं के बो भी मत्र दिये हैं वे प्रायः सभी प्रादिपुराण के विरुद्ध हैं | मादिपुराण में गर्भाधामादिक क्रियाओं के मंत्रों को दो भागों में विभाबित किया है-एक 'सामान्यविषय मंत्र' और दूसरे विशेषविषय मंत्र' । 'सामान्यविषय मंत्र' वे हैं जो सब क्रियाओं के लिये सामान्य रूप से निर्दिछ हुए हैं और विशेषविषय' उन्हें कहते हैं जो खास खास क्रियामों में अतिरिक्त रूप से नियुक्त हुए हैं । सामान्यविषय मंत्र १ पीठिका, २ जाति, ३ निस्तारक, ४ ऋषि, ५ सुरेन्द्र, ६ परमरान
और ७ परमेष्ठि मंत्र-भेद से सात प्रकार के हैं।इन सबों को एक नाम से 'पीठिका-मंत्र कहते हैं। क्रिया-मंत्र, साधन-मंत्र तया धाहति-मंत्र भी इनका नाम है और ये 'उत्सर्गिक-मंत्र भी कहलाते हैं, जैसाकि श्रादिपुराण के निम्न नाश्यों से प्रकट है।
एते तु पीठिका मंत्राः सात या विजोत्तमः। प: सिद्धार्चन फयाक्षाधानादिक्रियाषिधौ ॥ ७७ ॥ कियामंधास्त एतेस्युराधानादिक्रियावित्री। सूझे गणधरोद्धाय यान्ति साघनमंत्रताम् ॥ ७८ ॥ सध्यास्वमित्रये देवपूजने नित्यकर्महि । भवन्याहुतिमंत्रायत पते विधिलाधिताः ॥७॥ साधारणास्त्विमे मंत्राः सर्वव क्रियाविधौ । यथासमयमुझेन्ये विशेषविषयांब सान् ॥ ३१॥ , क्रियामंत्रास्त्विहोया ये पूर्वमनुवर्णिताः।
सामान्यविषयाः सप्त पीठिकामंधरुडयः ।। २१५ ॥ • ते हि साधारणा सक्रियानु विनियोगिनः ।
तत उत्सर्गिकाताम्मंत्रान्मत्रविको विदुः ॥२१६ ।। विशेषविपया मैत्राः क्रियासूनानु वर्शिताः ।
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इतः प्रकृति चाम्यूयास्त पथानायनमः ॥ २१७ ॥ मंत्रानिमापया योग्यं यः क्रियानु पिनियोजयेन् । ' स लोके सम्मति पाति युताधारी हिजोसम् ॥ २१८ ॥ ...
-४० वा पर्य। इन पाक्यों से मादिपुराण-पर्णित मंत्रों का खास तौर से गाय पाया जाता है और यह गालग होता है कि जैन श्राम्गायानुसार मलमूलियत के साथ इन क्रियानों के मंत्र हैं। गणधर रचित सूत्र (पासकाध्ययन) अथवा परमागम में उन्हें 'साधनमंत्र' कहा है-क्रियाएँ उनके द्वारा सिद्ध होती है ऐसा प्रतिपादन किया है और इसलिये सब क्रियाओं में उनका पपायोग्य विनियोग होना चाहिये। एक दूसरी जगह भी इस विनियोग की प्रेरणा करते हुए लिखा है कि 'जनमत' में इन मंत्रों का सब क्रियाओं में विनियोग माना गया है, अतः श्रावकों को चाहिये कि षे व्यामोह मया भ्रम छोर कर-निःसंदेह रूप से -इन मंत्रों का सर्वत्र प्रयोग करें। यथा:
विनियोगस्तु सांसु क्रियास्येषां मनो जिनः ।
अम्यामोहावतस्ततः प्रयोज्यास्त उपासः ॥ ३८-७ ॥ परन्तु, यह सब कुछ होते हुए भी, महारयानी ने इन दोनों प्रकार के सनातन और यथाम्नाय + मंत्रों में से किसी भी प्रकार के मंत्र का यहाँ प्रयोग
+भाविपुराण में 'तन्मनास्तु यथाम्नायं ' आदि पक्ष के द्वारा इन मंत्रों को जैन प्राचाय के मंत्र बतलाया है।
* पाँच अध्याय में, नित्यपूजन के मंत्रों का विधान करने, हुए, सिर्फ एक प्रकार के पीठिका मंत्र दिये है परन्तु उन्हें भी उनके असली रूप में नहीं दिया प्रदर्शन रपया है-अब मंत्रों के शुरू में जोड़ा गया है और कितनहा मंत्रों में 'नमो आदि शब्दों के हित्वं प्रयोग की जगह एकत्व का प्रयोग किया गया है। इसी तरह और भी कुछम्यूना त्रिकता की गई है। आदिपुराण के मंत्र जचे तुजे लोकों में बद्ध है।
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[६५] नहीं किया, बल्कि दूसरे ही मंत्रों का व्यवहार किया है जो आदिपुराण से बिलकुल ही विलक्षण अथवा मिन्न टाइप के मंत्र हैं । इससे अधिक भगवज्जिनसेन का और उनके बचनानुसार जैनागम का भी विरोध और क्या हो सकता है । मैं तो इसे भगवबिजनसेनको खासी अबहेलना और साथ ही जनसाधारण की अच्छी प्रतारणा (चना) समझता हूँ। मस्त मगजिनसेनने 'मंन्त्रास्त्र एव धया। स्युर्य क्रियासु विनियोजिता: ' इस ३६ वे पर्व के वाक्य द्वारा उन्हीं मंत्रों को 'धर्म्यमंत्र' प्रतिपादन किया है जो उतप्रकार से क्रियाओं में नियोमित हुए हैं, और इसलिये महारकजी के मंत्रों को 'अपय मंत्र' अथवा 'झूठेमंत्र' कहना चाहिये । जब उनके द्वारा प्रयुक्त हुए मंत्र वास्तव में उन क्रियाओं के मंत्र ही नहीं, तब उन क्रियाओं से लाम भी क्या हो सकता है ? बल्कि सूठे मंत्रों का प्रयोग साथ में होने की धनह से कुछ बिगाड़ हो नाय तो पाचर्य नहीं।
यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि, त्रिवर्णापार में जो क्रिया-मंत्र दिये हैं वे आदिपुराण से पहले के बने हुए
* बाहरण के तौर पर 'लिपधा' क्रिया के मंत्र कोलिजिये। श्रादि पुराण में 'सत्यजाताय नम' आदि पीटिकामंत्रों के अतिरिकास क्रिया का जो विशेष मंत्र दिया वह है-"दिव्यसिंहासनभागी भव, विजयसिंहासनमागी भव, परमसिंहासनभागी भव" और शिवाचार में जो मंत्र दिया है वह है-कहीं अहं असि मा उसापालकमुपदेशयामि स्वाहा होनी में कितना अन्तर हैस पाठक स्वयं समझ सकते हैं। एक उचम आशीर्षावात्मक अथवा भावनात्मक है तो दूसरा महज़ सूचनात्मक है कि मैं बालक को बिठलाता हूँ । प्रायः ऐसी ही हालत दूसरे मन्त्रों की समझनी चाहिये।
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[६६] किसी गी प्रन्य में नहीं पाये जाते, और श्रादिपुग्ण से यह स्पष्ट मालूम हो रहा है कि उसमें जो क्रिया-मन्त्र दिये हैं वे ही इन क्रियाओं के असली, आगम-कथित, सनातन और जैनाम्नायी गंत्र हैं । ऐसी हासत में त्रिवर्णाचार पाने मंत्रों की बात यही नतीजा निकलता है कि वे श्रादिपुराण से बहुत पीछे के बने हुए हैं। उनकी अथवा उन जैसे मंत्रों की कल्पना महारकी युग में--संभवतः १२वी से १५ वीं शताब्दी तक के मध्यवर्ती किसी समय में हुई है, ऐसा जान पड़ता है। .
(ब) अध्याय के अन्त में, 'पुस्तकहरु ' क्रिया के बाद, भट्टारकनी ने एक पथ निम्नप्रकार से दिया है:
* गर्भाधान मोदपुंसवनका सीमन्तजन्मामित्रा यानुपानभोजन व गमनं धौलाक्षराभ्यासनम् । सुप्रीतिः प्रियसूखयो गुरुमुखाच्छालस्यसंग्राहणे
एता:पंचदश क्रिया समदिता अस्मिन् जिनेन्द्रागमे ॥१८॥ इसमें, अध्याय-वर्णित क्रियाओं को उनके नामके साथ गणना करते हुए, कहा गया है कि ये पंद्रह क्रियाएँ इस जिनेन्द्रागम में भलेप्रकार से कयन की गई है, परन्तु क्रियानों के बो नाम यहाँ दिये हैं के चौदह है- गर्भाधान, २ मोद, पुंसवन, १ सीमन्त, १ नन्म, ६ ममिया (नाम), बहिर्यान, ८ भोजन, ६ गमन, १० चौस, ११ अक्षराम्यास, १२ प्रीति, १३ प्रियोगब तथा १४ शामग्रहण और अध्याय में जिन कियायों का वर्णन किया गया है उनकी संख्या उनीस है। प्रीति, निषधा (उपवेशन ), न्युष्टि, कर्णवेधन और पान्दोहारोपण
*स पद्य के अनुवाद में सोनीजी ने जो व्यर्थ की बचातानी की है वह खादय विद्वानों को अनुवाद के देखते ही मालूम परमाती है। उस पर यहाँ छ टीका टिप्पण करने की जरत नहीं है।
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[ ६७ ]
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नागरी पाँच क्रियाओं का यहाँ तो वर्णन है, परन्तु यहाँ गणना के अवसर पर विलकुल ही भुला दिया है। इससे आपका महम चचन- विरोध ही नहीं पाया जाता, बल्कि यह भी आपकी ग्रन्थ रचना की विलक्षणता का एक अच्छा नमूना है और इस बात को जाहिर करता है कि आपको अच्छी तरह से ग्रंथ रचना करना नहीं भाता था । इतने पर भी, खेद है कि, आप अपने इस मंत्र को 'जिनेन्द्रागम' बतलाते हैं ! जो प्रय प्रतिज्ञाविरोध, ध्यागमविरोध, आम्नायविरोध, ऋषिवाक्यविरोध, सिद्धान्तविरोध, पूर्वापरविरोध, युक्तिविरोध और श्रमविरोध यदि दोषों को लिये हुए है, साथ ही चोरी के कलंक से कलपित है, उसे 'जिनेंद्रागम' बतलाते हुए आपको जरा भी सम्मा तथा शर्म नहीं आई | x इससे अधिक धृष्टता और धूर्तता और क्या हो सकती है ? यदि ऐसे हीन ग्रन्थ भी 'गिनेन्द्रागम' कहलाने लगे तब तो जिनेन्द्रागम की अभी खासी मिट्टी पलीद हो जाय और उसका कुछ भी महत्व न रहे। इसीलिए ऐसे छद्यवेपधारी ग्रंथों के नम रूप को दिखला पर उनसे सावधान करने का यह प्रयक्ष किया जा रहा है।
(ट) त्रिवर्णाचार के में अध्याय में, 'यज्ञोपवीतसत्कर्म eet नत्वा गुरुक्रमात्' इस वाक्य के द्वारा गुरु-परम्परा के अनुसार यज्ञोपवीत ( उपनीति ) क्रिया के कथन की विशेष प्रतिक्षा करते हुए, निम्न पथ दिये हैं:--
गर्भारमे
कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्
देव राशो गर्भान्तु द्वादशे विश्वः ॥ ३ ॥
ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्ये चित्रस्य पंचमे ।
·
रासो बलार्थिनः पठे वैश्यस्येार्थमोऽष्टमे ॥ ४ ॥
सोमीजी को अनुवाद के समय कुछ किमक जरूर पेश हुई है और इस लिये उन्होंने "जिनेन्द्रागम" को " अध्याय " में बदल दिया है।
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[ ६८ ]
* आषोडशाश [ दा] द्वाविंशाच्चतुर्विंशात्तु [ ] वत्सरात् ब्रह्मक्षत्रविशां कालो ह्युपनयनाः [ न श्रौपनायनिकः ] पदः॥५॥ श्रत ऊर्ध्व पतन्त्येते सर्वधर्मवहिष्कृताः । प्रतिष्ठादिषु कार्येषु न योज्या ब्राह्मणोत्तमैः ॥ ६ ॥
इन पद्यों में से पहले पथ में उपनयन के साधारण काल का, दूसरे में विशेष काल का, तीसरे में काल की उत्कृष्ट मर्यादा का और चौथे में उत्कृष्ट मर्यादा के भीतर भी यज्ञोपवीत संस्कार न होने के फल का उल्लेख किया गया है, और इस तरह पर चारों पद्यों में यह बतमाया गया है कि- 'गर्म से भाठने वर्ष ब्राह्मण का ग्यारहवें वर्ष क्षत्रिय का और बारहवें वर्ष वैश्य का यज्ञोपवीत संस्कार होना चाहिये । परंतु जो ब्राह्मण ( विद्याध्ययनादि द्वारा ) ब्रह्मतेज का इच्छुक हो उसका गर्भ से पाँचवें वर्ष, राज्यवन के अर्थी क्षत्रिय का छठे वर्ष और व्यापारादि द्वारा अपना उत्कर्ष चाहने वाले वैश्य का आठवें वर्ष उक्त संस्कार किया जाना चाहिये । इस संस्कार की उत्कृष्ट मर्यादा ब्राह्मण के लिये १६ वर्ष तक, क्षत्रिय के लिये २२ वर्ष तक और वैश्य के लिये २४ वर्ष तक की है। इस मर्यादा तक भी जिन लोगों का उपनयन संस्कार न हो पाये, वे अपनी अपनी मर्यादा के बाद पतित हो जाते हैं, किसी भी धर्म कर्म के अधिकारी नहीं. रहते उन्हें सर्व धर्मकार्यों से बहिष्कृत समझना चाहिये और इसलिये ब्राह्मणों को चाहिये कि वे प्रतिष्ठादि धर्मकार्यों में उनकी योजना न करें' !
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यह सब कयन भी भगवज्जिनसेन के विरुद्ध है। आदिपुराण में वर्याभेद से उपनयनकाल में कोई मेद ही नहीं किया-- सब के लिये गर्भ से आठ वर्ष का एक ही उपनयन का साधारण कान रक्खा गया है। यथा 2
*इस पद्य में ब्रेकिटों के भीतर जो पाठभेद दिया है वह पथ का मूल पाठ है जो अनेक ग्रंथों में उल्लेखित मिलता है और जिले संभवतः यहाँ बदल कर रक्खा है ।
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[ ६६] क्रियोपनीनि माऽस्य वर्षे गर्माटम मवा। '
यधापनातकेयस्य मोझी सवतबन्धना ॥३-१०४॥ ;
और यह बात जैननीति के भी विरुद्ध है कि जिन लोगों का उक मर्यादा के भीतर उपनयन संस्कार न हुमा हो उन्हें सर्व धर्गकृत्यों से बहिष्कृत चौर वंचित किया जाय अथवा धर्म-सेवन के उनके सभी अधिकारों को छीन लिया जाय । जैनधर्म का ऐसा न्याय नहीं है और न उसमें उपनयन संस्कार को इतना महत्व ही दिया गया है कि उसके बिना किसी भी धर्म कर्म के करने का कोई अधिकारी ही न रहे । उसमें धर्मसेवन के अनेक मार्ग बतलाये गये हैं. जिनमें उपनयनसंस्कार भी एक मार्ग है अथवा एक मार्ग में दाखिल है। जेमी बिना यज्ञोपवीत संस्कार के भी पूजन, दान, स्वाध्याय, तप और संयम जैसे धर्मफलों का आचरण कर सकते हैं, करते हैं और करते आए हैं। आवक के बारह व्रतों का भी वे खंडशः अथवा पूर्णरूप से पालन कर सकते हैं और अन्त में सोखना व्रत का भी अनुष्ठान कर सकते हैं। प्रतिष्ठाकार्यों में भी बड़े बड़े प्रतिष्ठाचार्यों द्वारा ऐसे लोगों की नियुक्ति देखी जाती है जिनका उक्त मर्यादा के भीतर यज्ञोपवीत संस्कार नहीं हुमा होता । यदि त मर्यादा से ऊपर का कोई भी अजैन जैनधर्म की शरण में आए तो जैनधर्म उसका यह कह कर कभी याग नहीं कर सकता कि 'मर्यादा के भीतर तुम्हारा यज्ञोपवीत संस्कार नहीं हुभा इसलिये अब तुम इस धर्म को धारण तथा पालन करने के अधिकारी नहीं रहे। ऐसा कहना और करना उसकी नीति तथा सिद्धान्त के विरुद्ध है। वह खुशी से उसे अपनाएगा, अपनी दीक्षा देगा और जरूरत समझेगा तो उसके लिये यहोपवीत का भी विधान करेगा। इसी तरह पर एक जैनी, जो उक्त मर्यादा तक भवती अथवा धर्म कर्म से पराङ्मुख रहा हो, अपनी भूख को मालूम करके श्रावकादि के बत देना चाहें तो जैनधर्म उसके लिये मी यथायोग्य व्यवस्था करेगा। उसका
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मर्यादा के भीतर यज्ञोपवीत संस्कार से संस्कारित न होना, उसमें कुछ भी बाधक न होगा। और इन सब बातों को पुष्ट करने के लिये जैन शास्त्रों से सैकड़ों कथन, उपनयन और उदाहरण उद्धृत किये जा सकते हैं, जिनकी यहाँ पर कोई जरूरत गालग नहीं होती। अतः भट्टारकजी का उक्त लिखना जैनधर्म की नीति भौर प्रकृति के विरुद्ध है। वह हिन्दूधर्म की शिक्षा को लिये हुए है। मारकजी के उक पद्य भी हिन्दूधर्म की चीज़ है-पहले दोनों पद्य 'मनु' के पचन हैं और वे 'मनुस्मृति' के दूसरे अध्याय में क्रमशः मं० ३६, १७ पर ज्यों के त्यों दर्न | तीसरा पद्य और चौथे पथ का पूर्वार्ध दोनों 'याज्ञवल्क्य ऋषिके पचन हैं और 'याज्ञवल्क्यस्मृति' के पहले अध्याय में क्रमशः न० ३७ तथा ३८ पर दर्न है । रहा चौथे पद्य का उत्तरार्ध, यह भाारकजी की प्राय अपनी रचना नान पड़ता है और याज्ञवल्क्य स्मृति के 'सावित्रीपतिता नात्या वात्यस्तोमाइते ऋतोः' इस उत्तरार्ध के स्थान में बनाया गया है।
यहाँ पर पाठकों की समझ में यह बात सहज ही आणायगी कि कि जब महारकजी ने गुरुपरम्परा के अनुसार कथन करने की प्रतिज्ञा की तब उसके अनन्तर ही पापका 'मनु' और 'याज्ञवल्क्य के वाक्यों को उद्धृत करना इस बातको साफ सूचित करता है, कि आपकी गुरु परम्परा में मनु और याज्ञवल्क्य जैसे हिन्दू ऋषियों का खास स्थान था। आप बबाहिर अपने मकारकी वेष में भले ही, जैनी.तषा जेनगुरु बने हुए, मजैन-गुरुषों की निन्दा करते हों और उनकी कृतियों तथा विधियों को अच्छा न बतलाते हो परन्तु आपका अन्तरंग उनके प्रति झुका हुमा बरूर था, इसमें सन्देह नहीं; और यह भापकर मानसिक दौर्बल्य था जो आपको उन मनन-गुरुषों या हिन्दू क्राषियों के पाक्यों अथवा विधि-विधानों का प्रकट रूप से अभिनन्दन करने का
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[७१] साहस नहीं होता था और इसीलिये आपको छल करना पड़ा। आपने, जेनी होने के कारण, 'गुरुक्रमात् पद के प्रयोग बारा अपने पाठकों को यह विश्वास दिलाया कि आप जैन गुरुओं की (जिनसेनादि की) कपन-परम्परा के अनुसार यज्ञोपवीत क्रिया का कथन करते हैं परंतु कथन किया आपने 'मनु' और 'याज्ञवल्क्म' जैसे हिन्दू ऋषियों की परम्परा के अनुसार, उनके वचनों तक को उद्धृन करके । यही
आपका छल है, यही धोखा है और इसे भापकी ठगविद्या का एक खासा नमूना समझना चाहिये।
इस क्रिया के वर्णन में नान्दीश्राद्ध और पिप्पलपूजनादिक की और भी कितनी ही विरुद्ध बातें ऐसी ई नो हिन्दूधर्म से ली गई है और जिनमें से कुछ का विचार भागे किया जायगा।
(3)'व्रतचों क्रिया का कथन, यद्यपि, महारकजी ने प्रादिपुराण के पद्यों में ही दिया है परन्तु इस कथन के 'यावद्विधासमाप्ति (७७), तथा 'सूत्रमौपासिक' (७) नाम के दो पदों को आपने 'प्रतावतरण क्रिया का कथन करते हुए उसके मध्य में दे दिया है, जहाँ
असंगत मान पड़ते हैं और इन पत्रों के अनन्तर के निम्न दो पयों को निलकुछ ही छोड़ दिया है. उनका आशय भी नहीं दिया
शब्दविद्याऽर्थशासादि चाध्येय नाऽस्म दूष्यते । सुसंस्कारप्रपोधाय वैयात्यख्यातयेऽपि च ॥ ३८-११६ ॥ ज्योतिर्मानमथ छन्दो शाशानं च शाकुनम् ।
संख्यामानमितीम् च तेनाध्येय विशेषता १२० ॥ इन पथों को छोड़ देने अथवा इनका आशय.भी न देने से प्रकृत क्रिया के अन्यासी के लिये उपासकसूत्र और अध्यात्मशान के पढ़ने का ही विधान रह जाता है परंतु इन पदों द्वारा उसके लिये व्याकरणशाक्ष, अर्थशाखादिक, ज्योतिःशाख, छन्दाशाल, शकुन शाखा और गणित
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[७२] शाम के अध्ययन का भी साविशेष रूप से विधान पाया जाता है,* जिसे मट्टारकजी ने शायद अनुपयोगी समझा हो। इसी तरह पर व्रतावतरण' क्रिया के कयन में, 'व्रतावतरणं चदं' से पहले के निम्न दो पक्षों को भी आपने छोड़ दिया है, जिनमें से दूसरा पप जो 'सार्वकालिक व्रत' का उल्लेख करने वाला है, खासतौर से जरूरी था---
गतोऽस्याधीतविधस्य बनवृत्त्यवतारणम् । विशेषविषयं तच स्थितस्त्रौत्सर्गिके व्रते ॥ १२ ॥ मधुमांसपरित्यागः पंचोदुम्बरवर्जनम् ।
हिंसादिविरतिश्वास्य व्रतं स्यात्साशालिकम् ॥ १२३ ॥ इन पचों के न होने से 'व्रतावतरणं चेदं नाम का पध असम्बद्ध जान पड़ता है-'यावद्विद्या समाति:' आदि पूर्व पधों के साथ उसका कोई सम्बन्ध ही ठीक नहीं बैठता । और वस्त्राभरण' नाम का उत्तर पर भी, आदिपुराण के पथ नं० १२५ और १२६ के उत्तरार्धे वथा पूर्वार्ध को मिलाकर बनाए जाने से कुछ वेढंगा हो गया है जिसका उल्लेख ग्रंथ के संमहत्व का दिग्दर्शन कराते हुए किया जाचुका है। इसके सिवाय, मटारकजी ने बतावतरण क्रिया का निन्न पच भी नहीं दिया और न उसके भाशय का ही अपने शब्दों में उल्लेख किया है, जिसके अनुसार 'कामनावत' का अवतार (साग) उस वक्त तक नहीं होता-यह बना रहता है-जब तक कि विवाह नाम की उत्तर क्रिया नहीं हो लेती:
मोगब्रह्मानतादेवमवतीणों भवेसदा ।
कामब्रह्मवतं चास्य तावद्यापक्रियोत्तरा ॥ १२७ ॥ *पं० पन्नालालजी सोनी ने भी इस विधान का अपने अनुवाद में उल्लेख किया है परन्तु भाप से यह त गलती हुई जो मापने 'यावद्विधा समाति आदि चापे ही पयों को वापतरण किया के पद पतला दिया है। आपके "सी (मतावारण) क्रिया में यह और भी बताया है" शब्द बहुत खटकते हैं।
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यही सब इस ग्रंथ की दोनों (तचर्या और बतावतरण) क्रियाओं का आदिपुराण के साथ विरोध है। मालूम नहीं जब इन क्रियाओं को प्रायः आदिपुराण के शब्दों में ही रखना था तो फिर यह व्यर्थ की गड़बड़ी क्यों की गई और क्यों दोनों क्रियाओं के कयन में यह असामंजस्य उत्पन्न किया गया || मटारकी लीला के सिवाय इसे और क्या कहा जा सकता है ! मट्टारकजी ने तो अध्याय के अन्त में जा कर इन कियामों के अस्तित्व तक को मुला दिया है और 'इत्यं माँजी. पन्धन पाखनीय' मादि पत्र के द्वारा इन क्रियाओं के कथन को भी मौनीबन्धन का-यज्ञोपवीत क्रिया काही कयन बनसा दिया है!! इसके सिवाय, एक बात और भी जान लेने की है और वह यह कि श्रावकाचार अथवा श्रावकीय बसों का नो उपदेश 'प्रतचर्या क्रिया के अवसर पर होना चाहिये था * उसे मारकजी ने प्रतावतरण' क्रिया के भी बाद, दसवें अध्याय में दिया है और बतचर्या के कपन में वैसा करने की कोई सूचना तक भी नहीं दी । ये सब बातें भापके रचना-विरोध और उसके बेदंगेपन को सूचित करती हैं | आपको कम से कम ' प्रतावतरण ' क्रिया को दस अध्याय के अन्त में, अथवा ग्यारहवें के शुरू में-विवाह से पहले देना चाहिये था। इस प्रकार का रचना-सम्बन्धी विरोध अथवा बेढंगापन और भी बहुत से स्थानों पर पाया जाता है, और वह सब मिलकर महारकी की अंपरचना-संबंधी योग्यता को चौपट किये देता है।
. स्वतचर्या के अवसर पर उपासकाध्ययन के उपक्षेत्रों का संक्षेप में संग्रह होता है, यह बात आदिपुराण के निम्न पाय से मी प्रकट है
अथातोऽस्य प्रवक्ष्यामि प्रवचर्यामनुक्रमात् । स्थाधनोपासकाध्यायः समासनानुसंकृतः ॥ ४०-१६५ ॥
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[७४ (इ) विचार के ग्यारहवें अध्याय में, देतास नियामों में से लिई 'विवाह' नामती क्रिया का वर्णन है और, उसका प्रारम्भ करते हुए एक पद निम्न प्रकार से दिण है:
लियसनमुनि मला वैवाहविनिमुन्धवम् ।
फचे पुराणमाण लौकिकाधारसिधये ॥२॥ इस पथ में जिनहेव मुनि को नमस्कार करके पुराण के अनुसार विवाह-विधि के कथन करने की प्रतिज्ञा की ही है और इस ताह पर-पूर्वप्रतिक्षाओं की मौजूदगी में आसान होते हुए मीइस प्रतिद्वारा विशेष रूप से यह घोषणा की गई है अथवा विश्वास दिया गया है कि इस क्रिया का सब कथा भगवामिनसेन के भादिपुरुणानुसार किया जाता है। परन्तु अन्याय के नाम पर पलटते हैं तो
का विशाल ही अदला हुआ नजर आता है घोर यह मालूम होने लगता है कि ज्याप में वर्णित अधिकांश बातों का भादिपुराण के साथ प्रापः कोई सम्बन्धविशेष नहीं है। बहुतसी बातें हिन्दूधर्म के
आचारविचार को लिये हुए हैं-हिन्दुओं की सीनियाँ, विधियाँ प्रयवा क्रियाएँ हैं और कितनी ही लोक में इधर उधर प्रचलिन अनावश्यक रूवियाँ हैं, जिन सष का एक येहंगा संग्रह यहा पर किया गया है। इस संग्रह के नारकरी का अभिप्राय उक्त प्रकार की सभी बातों को नियों के लिये समन पर देने या उन्हें जैनों की माला प्राप्त कार ने कान पड़ता है, और यह कत आपके लौकिकाचारसिन्दये पद से मी धानत होती है। आप 'लौकिकाचार' के बड़े ही अन्ध मत थे ऐसा जान पड़ता है, वही लिया को कुछ कमलाएँ म तब-किताबों तक को दिनाचरा करने की आपने परपानी दी है और एक दूसरी जगइ तो, वितका विकर आगे किया
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[ ७५ ]
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नायगा, आप यहाँ तक लिख गये हैं कि ' एवं कृते न मिध्यात्वं -लौकिकाचारवर्तनात् ' अर्थात्, ऐसा करने से मि थ्यात्व का दोष नहीं लगता; क्योंकि यह तो लोकाचार का बर्तना है। आपकी इस अद्भुत तर्कणा और अन्धमस्ति का ही 'यह परिणाम है जो आप बिना विवेक के कितने ही विरुद्ध माचरणों तथा मिथ्या क्रियाओं को अपने ग्रंथ में स्थान दे गये हैं, और इसी तरह पर कितनी ही देश, काल, इच्छा ' तथा शक्ति आदि पर निर्भर रहने वाली वैकल्पिक या स्थानिकादि बातों को सबके लिये अवश्यकरणीयता का रूप प्रदान कर गये हैं। परन्तु इन बातों को छोड़िये, यहाँ पर मैं सिर्फ इतना ही बनलाना चाहता हूँ कि श्रादिपुराण में विवाहक्रिया का कथन, यद्यपि, सुत्ररूप से बहुत ही संक्षेप में दिया है परन्तु जो कुछ दिया है वह सार कथन है और त्रिवर्णाचार का कपन उससे बहुत कुछ विरोध को लिये हुए है। नीचे इस विरोध का ही कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है, जिसमें प्रसंगवश दो चार दूसरी बातें भी पाठकों के सामने जाएँगी :
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१- भट्टारकजी, सामुद्रकशास्त्रादि के अनुसार विवाहयोग्य कन्या का वर्णन करते हुए, लिखते हैं----
इत्यं लक्षयसंयुक्त' पराशिवर्जिताम् ।
• वर्णविन्दस्यतां सुभगां कन्यां वरेत् ॥ ३५ ॥
# इस वर्णन में सामुद्रक' के अनुसार कन्याओं अथवा खियाँके 'जो लक्षण फल सहित दिये हैं वे फल हृधि से बहुत कुछ आपत्ति के योग्य है कितने ही प्रत्यक्षाविरुद्ध है और कितने ही दूसरे सामुद्रक शास्त्रों के साथ विरोध को लिये हुए है-धन सब पर विचार करने का यहाँ अवसर नहीं है । इस लिये उनके विचार को छोड़ा जाता है।
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[ ७६ ]
इस पच में, अन्य बातों को छोड़कर, एक बात यह कही गई है कि जो कन्या विवाही जाय वह वर्णविरोध से रहित होनी चाहियेमर्याद, असवर्णा न हो किन्तु सवर्षा हो । परन्तु यह नियम श्रादिपुराण के विरुद्ध है । आदिपुराण में त्रैवर्णिक के लिये सब और सवर्णा दोनों ही प्रकार की कन्याएँ विवाह के योग्य बतलाई हैं । उसमें साफ़ लिखा है कि वैश्य अपने वर्ण की भार शूद्र वर्ण की कन्या से क्षत्रिय अपने वर्ण की और वैश्य तथा शुद्र वर्ण की कन्याओं
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से और ब्राह्मण चारों ही वर्ण की कन्याओं से विवाह कर सकता है। सिर्फ शुद्र के लिये ही यह विधान है कि वह शूद्रा अर्थात् सवर्णा से . ही विवाह करे असवर्णा से नहीं । यथा:--
शूद्रा शूद्रेण वोढव्या नान्या खां तां च नैगमः ।
वहेत्स्वां वे च राजभ्यः स्त्रां द्विजन्मा कचिश्व ता : १६-४७॥ इस पूर्वविधान को ध्यान में रखकर ही आदिपुराण में विवाहक्रिया के अवसर पर यह वाक्य कहा गया है कि ' वैवाहिके कुले कन्यामुचितां परिष्यते - अर्थात् विवाहयोग्य कुल में से उचित कन्या का परिणयन करे। यहाँ कन्या का ' उचिता ' विशेषण बढ़ा ही महत्वपूर्ण, गम्भीर तथा व्यापक है और उन सब त्रुटियों को दूर करने वाला है जो त्रिवर्गाचार में प्रयुक्त हुए सुभगा, सुलक्षणा अन्यगोत्रभवा, कानातङ्का, भायुष्मती, गुणान्या, पितृदत्ता और रूपवती आदि विशेषणों में पाई जाती हैं। उदाहरण के लिये 'रूपवती ' विशेषण को ही लीजिये । यदि रूपवती कन्याएँ ही विवाह के योग्य हो त ' कुरूपा ' सब ही विवाह के योग्य ठहरें । उनका तब क्या बनाया जाय ? क्या उनसे जबरन ब्रह्मचर्य का पालन कराया जाय अथवा उन्हें वैसे ही व्यभिचार के लिये छोड़ दिया जाय ? दोनों ही बातें अनिष्ट तथा अन्यायमूलक हैं । परन्तु एक कुरूपा का उसके
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[७७] अनुरूप कुरूप वर के साथ विवाह हो नाना अनुचित नही कहा ना सकता--उस कुरूप के लिये वह कुरूपा ' उचिता' ही है। मतः विवाहयोग्य कन्या 'रूपवती' ही हो ऐसा व्यापक नियम कदापि श्रादरणीय तथा व्यवहरणीय नहीं हो सकता-वह व्यक्तिविशेष के लिये ही उपयोगी पड़ सकता है। इसी तरह पर 'पितृदत्ता' आदि दूसरे विशेषणों की त्रुटियों का भी हाल जानना चाहिये। महारकनी उक्त पध के बाद एक दूसरा पधानिम्न प्रकार से देते हैं:
रूपवती स्वजातीया स्वतालचन्यगोत्रजा।
भोकुं मोजयितुं योग्या कन्या घाटुम्बिनी । ३६ ॥ यहाँ विवाहयोग्य कन्या का एक विशेषण दिया है 'स्वजातीयाअपनीजातिकी-और यह विशेषण 'सवर्णो का ही पर्यायनाम जान पड़ता है, क्योंकि 'जाति' शब्द 'वर्ण अर्थ में भी प्रयुक्त होता है-आदिपुराण में भी वह बहुधा 'वर्ण' अर्थ में प्रयुक्त हुआ है.मूल जातियाँ भी वर्ष ही हैं । परन्तु कुछ विद्वानों का कहना है कि यह विशेषण-पद अग्रवाल, खंडेलवाल श्रादि उपजातियों के लिये प्रयुक्त हुआ है और इसके द्वारा अपनी अपनी उपनाति की कन्या से ही विवाह करने को सीमित किया गया है। अपने इस कपन के समर्थन में उन लोगों के पास एक युक्ति भी है और वह यह कि यदि इस पथका भाशय सवर्णा का ही होता तो उसे यहाँ देने की जरूरत ही न होती; क्योंकि भट्टारकनी पूर्वपत्र में इसी प्राशय को 'वर्षविरुद्ध संत्यका' पद के द्वारा व्यक्त कर चुके हैं, वे फिर दोषारा उसी बात को क्यों लिखते ! परन्तु इस युक्ति में कुछ भी दम नहीं है। कहा जा सकता है कि एक पत्र में जो बात एक ढंग से कही गई है वही दूसरे पद्य में दूसरे ढंग से बतलाई गई है। इसके सिवाय, महारानी का सारा ग्रंथ पुनरुक्तियों से भरा हुआ है, वे इतने सावधान नहीं थे जो ऐसी बारी
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[७ ] कियों पर ध्यान देते, उन्होंने इधर उधर से अंय का संमह किया है
और इसलिये उसमें बहुतसी पुनरुक्तिया हो गई हैं । उदाहरण के लिये इसी अध्याय को लीजिये, इसके तीसरे पत्र में भाप विवाहयोग्य कन्या का विशेषण 'अन्यगोत्रमवा देते हैं और उक्त पथ नं० ३६ में 'अन्यगोनजा' लिखते हैं, दोनों में कौनसा अर्थ-भेद है । फिर यह पुनरुक्ति क्यों की गई। इसी तरह पर १६०२ पथ में 'ऊर्य विवाहासनयस्य नैव कार्यों विवाहो दुहितुः समाधम्' इस पाक्य के द्वारा जो 'पुत्र विवाह से छह महीने बाद तक पुत्री का विवाह न करने की बात कही गई है वही १९२३ पद्य में न घुविवाहोर्ध्वस्तुत्रयेऽपि विवाहकार्य दुहितुच कुर्यात्' इन शब्दों में दोहराई गई है। ऐसी हालत में उक्त हेतु साध्य की सिद्धि करने में असमर्थ है। फिर भी यदि वैसे ही यह मान लिया जाय कि महारकजी का भाशय इस पत्र के प्रयोग से अपनी अपनी उपजाति की कन्या से ही था तो कहना होगा कि आपका यह कपन भी आदिपुराण के विरुद्ध है; क्योंकि श्रादिपुराण में विद्याधर जाति की कन्याओं से ही नहीं किन्तु म्लेच्छ जाति जैसी विजातीय कन्याओं से भी विवाह करने का विधान हैस्वयं भरतजी महाराज ने, जो आदिपुराण-धार्णित बहुत से विधिविधानों के उपदेष्टा हुए हैं और एक प्रकार से 'कुखकर' माने गये हैं, ऐसी बहुतसी कन्याओं के साथ विवाह किया है, जैसाकि भादिपुराण के निम्न पत्रों से प्रकट है--
इत्युपायैरुपायक साधयन्वच्छ मुजाः । तम्यः कम्यामिरक्षानिः प्रमोमोग्यान्युपाहरत् ॥ २१-१५१ . कुलनास्समिसम्पमा वेश्यस्वायत्त्रमा स्मृताः। अपलापरयकान्तीनां पाः राधाकरभूमया । ३.७-३४।'
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[ ७६ ]
मच्छर (जादिभिर्दतास्तावन्त्यो नृपवनभाः । अप्सरः संकथा क्षोण यकाभिरवतारिताः ॥ ३७-३५ ॥
इन पथों से यह भी प्रकटं है कि खबातीय कन्याएँ ही भोगयोग्य नहीं होतीं बल्कि म्लेच्छ जाति तक की विजातीय कन्याएँ भी भोगयोग्य होती हैं; और इसलिये भट्टारकजी का खजातीय कन्याओं को हा 'भोक्तुं भोजयितुं योग्या' लिखना ठीक नहीं है वह आदिपुराण की नीति के विरुद्ध है ।
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२- एक स्थान पर भट्टारकजी, कन्या के स्वयंवराऽधिकार का नियंत्रण करते हुए लिखते हैं:---
पित्रादिवाश्रभावे तु कन्या कुर्यात्स्वयंधरम् ।
इत्येवं केचिदाचार्याः प्राहुर्महति संकटे ॥ ८३ ॥
इस पद्य में कन्या को 'स्वयंवर' का अधिकार सिर्फ उस हालत में दिया गया है जबकि उसका पिता, पितामह, भाई आदि कोई भी airs] कन्यादान करने वाला मौजूद न हो। और साथ ही यह भी कहा गया है कि स्वयंवर की यह विधि कुछ श्राचार्यों ने महासंकट के समय बतलाई है । परन्तु कौन से भाचायों ने बतलाई है ऐसा कुछ लिखा नहीं - भगवज्जिन सेन ने तो बतलाई नहीं। भादिपुराण में स्वयंवर को संपूर्ण विवाहविधियों में 'श्रेष्ठ' (वरिष्ठ) बतलाया है और उसे 'सनातनमार्ग' लिखा है । उसमें राजा अकम्पन की पुत्री 'सुलोचना' सती के जिस स्वयंवर का उल्लेख है वह सुलोचना के पिता आदि की मौजूदगी में ही बड़ी खुशी के साथ सम्पादित हुआ
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था। साथ ही, भरत चक्रवर्ती ने उसका बड़ा अभिनंदन किया था और उन लोगों को पुरुषों द्वारा पूज्य ठहराया था जो ऐसे सनातन भागों का पुनरुद्धार करते हैं । यथा:
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[ ८० ]
सनातनोऽस्ति मार्गोऽयं श्रुतिस्मृतिषु भाषितः । विवाहविधिमेदेषु वरिष्ठो हि स्वयंवरः ॥ ४४-३२ ॥
तथा स्वयंवरस्येमे माभूवन्यद्यकम्पनाः । कः प्रवर्तयिताऽन्येऽस्य मार्गस्यैप सनातनः ॥ ४५-४५ ॥ मागां चिरंतनान्येऽत्र भोगभूमितिरोहितान् । कुर्वन्ति नूतनान्सन्तः सद्भिः पूज्यास्त एव हि ॥ ४५-५५
ऐसी हालत में मट्टारकजी की उक्त व्यवस्था श्रादिपुराण के विरुद्ध है और इस बात को सूचित करती है कि आपने यादिपुराण की रीति, नीति अथवा मर्यादा का प्रायः कोई खयाल नहीं रक्खा ।
३ - एक दूसरे स्थान पर भट्टारकजी, विवाह के प्राक्ष, दैव, प्रार्ष. प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच, ऐसे आठ भेद करके, उनके खरूप का वर्णन निम्न प्रकार से देते हैं
ब्राह्मो वैवस्तथा चा [ चैत्रा ] र्षः प्राजापत्यस्तथाऽऽसुरः । गान्धर्वो राक्षसोच पैशाचाश्वाष्टमोऽधमः ॥ ७० ॥ श्राच्छाद्य चार्ड [ ] ] यित्वा च त्रतशीलवते स्वयम् । श्राह्वय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः ॥ ७१ ॥ यज्ञे तु चितते सम्यक् जिनाच [ ऋत्विजे ] कर्म कुर्वते । अकृत्य सुतादानं देषो धर्मः प्रचक्ष्यते ॥ ७२ ॥ एकं वस्त्रयुगं [ गोमिथुनं ] द्वे वा घरादादाय धर्मतः कन्याप्रदानं विधिवदापों धर्मः स उच्यते ॥ ७३ ॥ सोभौ चरतां धर्ममिति तं [वा ] चानुमान्य तु [च] कन्याप्रदानमभ्यर्च्य प्राजापत्यो विधिः स्मृतः ॥ ७४ ॥ ज्ञातिभ्यो द्रविणं इत्वा कम्याये चैव शक्तितः ।
कम्पादानं [ प्रदानं ] यत्क्रियते चा [ खाच्छन्द्यादा] सुरोधर्म
उच्यते ॥ ७५ ॥
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खे[] योन्यसंगो कम्पाया परस्य । गाव: स तु चित्रयों मैपुन्या कामगा ॥ ७ ॥ इत्या मित्या व नित्वा व कोणती ती राहा। असम कन्याहरसं राक्षसो विधिपते ॥ ७ ॥ सुमो प्रमख पा हो यत्रोपगति ।
যাবিন্তা ছিল বগঞ্জ জানামঃ [দৌ}{{Gঞ্জ
विवाहगेदों का यह सब वर्णन आदिपुग्रह सात मही है-उससे नहीं लिया गया--किन्तु हिन्दुओं के प्रसिद्ध मंथ 'मनुस्मृति ' से उसपर सखा गया है। मनुमति के तीसरे अध्याय में ये सब लोक, अविठों में दिये हुए पाठभेद के साप, क्रमशः म० २१ तथा न० २५ से ३४ तक दर्न है । और इनमें ऋत्विजे की जगह 'जि. नाची' तथा 'गोमिथुन' की जगह 'पत्रयुग' से पाठभेद भारकानी के किये हुए नाम पड़ते हैं।
-स विपक्रिया में मारकी में देवपूजन' का जो विधान किया है वह आदिपुराण से बड़ा ही विलक्षण मान पता है। गादिपुराण में इस अवसर के लिये खास दौर पर सिद्धोका पूजन रखा है जो प्रायः गाईपरयादि अभिकुण्डों में सम पीठिका मंत्रों द्वारा किया जाता है...और किसी पुरणाश्रम में सिद्ध प्रतिमा के सन्मुख पर और कन्या का पाणिग्रहमोत्सव करने की काका की है। पया---
सिनामावर्षि सम्पमिवयं दिजसमा कतानिनपसंपूजा कुस्तसाहित किया । ३६-१२६ ॥ पुरधाममे कपिलिवधिमाभिमुखं तयोः ।
दम्पत्योः परया भूला कार्य पाणिमहोत्सया--१३० ॥ * देखो 'मनुस्थति नियसागर प्रेक्ष पद बार सन् १६०५ की छपी हुई। अन्यत्र भी ली एलीसन का हवाला दिया गया है।
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[२] परंतु भट्टारकानी मे सिद्धपूजनादि की ऐसी कोई व्यवस्था नहीं की। आपने व्यवस्था की है जलदेवताओं की गंध, अक्षत, पुष्प तथा फों से पूजा करने की, घर में वेदी बना कर उसमें गृहदेवता+ की स्थापना करचे तथा दीपक मनाने आदि रूप से उसकी पूजा करने की, पंचमंडल और नवग्रह देवताओं के पूजन की, अघोरमंत्र से होम करने की और नागदेवताओं को बलि देने आदि की; जैसा कि आपके निम्न वाक्यों से प्रकट है
"फलगन्धाक्षतः पुष्पैः सम्पूज्य जलदेवताः।" (६१) "पेद्यो गृहाधिदेवं संस्थाप्य दीप प्रज्वालयेत् ।" (६३) "पुण्याहवाचनां पश्चात्पश्चमण्डल पूजनम् । गवानां देवतानां च पूजनं च यथाविधि ॥ १३३ ॥ वथैवाऽधोरमंत्रेण होमश्च समिधाधुतिम् । लाजाहुति पथूहलायेन च घरेश व " ५.१३४ ॥ "शुभे मंडपे दक्षिणीकृत्य तं वै प्रदायाशु नागस्य साक्षावाल
च" (१६४) इससे साफ जाहिर है कि त्रिवर्णाचार का यह पूजन-विधान आदिपुराण-सम्मत नहीं किन्तु भगवज्जिनसेन के विरुद्ध है। रही मंत्रों की बात, उनका प्रायः वही हाल है जो पहले लिखा जा चुका हैश्रादिपुराण के अनुसार उनकी कोई व्यवस्था नहीं की गई । हाँ, पाठकों
+ सोनीजी ने 'गृहाधिदेव' को “ल देवता " समझा है परन्तु यह उनकी भूल है, क्योंकि भारकजी ने चौथे अध्याय में कुल देवता से देवता को अलग पतक्षाया है और उसके विश्वेश्वरी, भरणेन्द्र, श्रीदेवी तथा कुबेर ऐसे पार भेद किये हैं। यथा
विश्वेश्वरीपराधीशश्रीदेवीधनदास्तथा। गृहलक्ष्मीकरा शेयावतुर्षा घेश्मदेवता ॥ २० ॥
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[८३ को यहाँ पर यह जानने की जरूर इच्छा होगी कि वह अघोरमंत्र कौनसा है जिससे मष्टारकजी ने विवाह के अवसर पर होम करने का विधान किया है और जिसे 'कुर्याद होम सन्मंत्रपूर्वकम् ' पाक्य के द्वारा 'सन्मंत्र' तक शिखा है। महारकजी ने इस मंत्र को नहीं दिया परंतु वह जैन का कोई मंत्र न हो कर वैदिक धर्म का एका प्रसिद्ध मंत्र नान पड़ता है जो हिन्दुओं की विवाह-पुस्तकों में निम्न प्रकार से पाया जाता है और जिसे 'नवरत्नविवाह पद्धति के छठे संस्करण में अथर्वन् वेद के १४ काण्ड के 8 अनु० का १८ वा मंत्र लिखा है"अघोरचक्षुरपतिज्यधि शिषा पशुभ्यः सुमनाः सुक्र्चा
धीरसुदेषकामास्योना शो भष द्विपदे श चतुष्पदे।"
इस सब विधिविधान से पाठक सहज ही में समझ सकते हैं कि महारकी हिन्दू धर्म की तरफ कितने मुके हुए अथवा उनके संस्कार कितने अधिक हिन्दू धर्म के आचार विचारों को लिये हुए थे और वे किस ढंग से जैनसमाज को भी उसी रास्ते पर अथवा एक तीसरे ही विलक्षण मार्ग पर चलाना चाहते थे। उन्होंने इस अध्याय में घर का मधुपकर
* यह मधु (शहद) का एक मिक्सचर (सम्पर्फ) होता है, जिसमें दही और वो भी मिला रहता है। हिन्दुओं के यहाँ दान-पूजनादि के अवसरों पर इसकी बड़ी महिमा है। महारषजी ने मधुग के लिये (मधुपर्कार्थ) एक जगह घर को महज़ वही चटाई है परंतु सोनीजी को आपकी यह फीकी दही पसन्द नहीं आई और इसलिये उन्होंने पीछे से उसमें 'शकर' और मिलादी है और इस वरह पर मधु के स्थान की पूर्ति की है जिसका खाना जैनियों के लिये वर्जित है। यहाँ मधुपर्क के निये दही का चटाया जाना हिन्दुओं की एक प्रकार की नकल को साफ जाहिर करता है।
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[४] से पूजन, घर का ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर अपने लिये कन्या चरण की प्रार्थना करना, वधू के गले में घर की दी हुई ताली बाँधना, सुवर्णदान और देवोत्थापन आदि की बहुत सी बातें हिन्दू धर्म से लेकर अथवा इधर उधर से उठाकर रखती हैं
और उनमें से कितनी ही बातें प्रायः हिन्दूग्रंथों के शब्दों में उल्लेखित हुई हैं, निसका एक उदाहरण 'देवोत्यापन-विधि'का निम्न पद्य है--
समेच दिवसे कुर्याइवतोत्थापनं बुधः ।
षष्ठे च विषमे ने त्यत्का पंचमसतमौ ॥ १०॥ यह 'नारद' ऋषि का वचन है। मुहूर्त चिन्तामारी की 'पीयूषधारा' टीका में भी इसे 'नारद' का वचन लिखा है । इसी प्रकरण में महारानी ने 'विषाहात्मथ पौषे नाग का एक पछ और भी दिया है जो 'ज्योतिर्निपन्ध' ग्रंथ का पथ है। परंतु उसका इस ' देवोत्यापन' प्रकरण से कोई सम्बंध नहीं, उसे इससे पहले 'वधू-गृह-प्रवेश' प्रकरण में देना चाहिये था, जहाँ 'वधूप्रवेशनं कार्य ' नाम का एक दूसरा पर भी 'ज्योतिनिबन्ध मंथ से बिना नाम धाम के उद्धृत किया गया है। मालूम होता है भट्टारकजी को नकल करते हुए इसका कुछ भी ध्यान नहीं रहा ! और न सोनीनी को ही अनुवाद के समय इस गड़बड़ी की कुछ खबर पढ़ी है ॥
५-आदिपुराण में लिखा है कि पाणिग्रहण दीक्षा के अवसर पर वर और वधू दोनों को सात दिन का ब्रह्मचर्य चेना चाहिये और पहले तीर्थभूमियों आदि में विहार करके तब अपने घर पर जाना चाहिये । घर पर पहुँच कर कारण खोलना चाहिये और तत्पश्चात् अपने घर पर ही शयन करना चाहिये--वार के घर पर नहीं । यथाः
पाणिग्रहणदीक्षायां नियुक्वं समधूवरम् । आसप्ताई घरेब्रह्मावतं देवाग्मिलाक्षिकम् ।। १३२॥
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[५] झारखा स्वस्योषितां भूमि तीर्थभूमीहित्य च । खगृहं प्रविशेब्त्या परया वधूवरम् ॥ १३३ ॥ विमुक्तकणं पश्चात्स्वगृहे शयनीयकम् । अधिशय्य तथाकालं भोगाइरुपलालितम् ।। १३४ ॥
-३वा पर्व । परंतु महारानी ने उन दोनों के ब्रह्मचर्य की अवधि तीन रात की रखी है, गृहप्रवेश से पहले तीर्थयात्रा को आने की कोई व्यवस्था नहीं की, बलिक सीधा अपने घर को जाने की बात कही है और यहाँ तक बन्ध लगाया है कि एक वर्ष तक किसी भी अपूर्व तीर्थ भयका देवता के दर्शन को न जाना चाहिये; कारण को प्रस्थान से पहले भशुरगृह पर ही खोल देना लिखा है और वहीं पर चौथे दिन दोनों के शयन करने अथवा एक शय्यासन होने की भी व्यवस्था की है । जैसा कि भापके निम्न पाक्यों से प्रकट है"तदनन्तरं कापमोचनं कृत्वा मवायोमया प्राम प्रतिसीकस्य पयापामगिधुषनापिकं सुखेन कुर्यात् । स्वग्राम गच्छेत् । "विधाहे दम्पती स्यातां नियत्रं प्रचारिणी।
अनंता वधूवष लाशय्याचनाएनौ ।। १७२ ।। मस वाक्य में ग्राम की मदाक्षिणा के अनन्तर सुखपूर्वकदुग्धपान तथा त्रीसंभोगाधिक (लिधुवनाविक) करने का साफ़ विधान है
और उसके बाद स्वग्राम को जामा शिक्षा है। परंतु सोनीजी ने अनुबाद मासके विरुद्ध पहले अपने ग्राम को जाना और फिर वहाँ मो. माविक करना पतलाया है, जो भगके पों के कथन से भी विश्व पड़ता है। कहीं श्रादिपुराण के साथ संगति मिलाने के लिये तो ऐसा नहीं किया गया व तो करण भी वहीं स्वनाम को जाफर बुलवाना था।
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[३]
सत्र कुन निवासं श्वशुगलये । चतुर्थदिनमत्रैव केचिदेवं वदन्ति हि ॥ १७३ ॥
" विवाहानन्तरं गच्छेत्सभार्यः स्वस्य मन्दिरम् । यदि ग्रामान्तरे तत्स्यात्तत्र यानेन गम्यते ॥ १७८ ॥ x स्नानं सतैलं तिलमिथकर्म, प्रेतानुपानं फरकप्रदानम् ।
अपूर्वतीर्थामरदर्शनं च विवर्जयेन्मङ्गताऽध्दमेकम् ॥१८॥ इससे स्पष्ट है कि भट्टारकजी का यह सब कथन ध्यादिपुराण के बिलकुल विरुद्ध है और उनकी पूरी निरंकुशता को सूचित करता है। साथ ही इस सत्य को और भी उजाल देता है कि श्री जिनसेनाचार्य के वचनानुसार कथन करने की आपकी सत्र प्रतिज्ञाएँ ढोग मात्र हैं ! आपने उनके सहारे अथवा छल से लोगों को ठगना चाहा है और इस तरह पर धोखे से उन हिन्दू संस्कारों - क्रियाकाण्डों- तथा भाचार विचारों को समाज में फैलाना चाहा है जिनसे आप स्वयं संस्कृत थे अथवा जिनको आप पसंद करते थे और जो जैन आचार-विचारों श्रादि
* इस पथ में, विवाह के बाद अपूर्व तीर्थ तथा देवदर्शन के निषेध के साथ एक साल तक तेल मलकर स्नान करने, तिलों के उपयोग वाला कोई कर्म करने, मृतक के पीछे जाने और करक (कम
ब्लु आदि) के दाम करने का भी निषेध किया है। मालूम नहीं इन सबका क्या हेतु है । तेल मलकर नहा लेने आदि से कौनसा पाप चढ़ता है ? शरीर में कौनसी विकृति भाजाती है ? तीर्थयात्रा अथवा देवदर्शन से कौनसी हानि पहुँचती हैं श्रात्मा को उससे क्या लाभ होता है ? और अपने किसी निकट सम्बन्धी की मृत्यु हो जाने पर उसके शव के पीछे न जाना भी फोनला शिष्ठाचार है! जैनधर्म की शिक्षाओं से इन सब बातों का कोई सम्बन्ध मालूम नहीं होता। ये सब प्रायः हिन्दू धर्म की शिक्षाएँ जान पड़ती हैं।
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[८]
के बहुत कुछ विरुद्ध हैं। इससे अधिक धूर्तता, उत्सूत्रवादिता और टगविद्या दूसरी और क्या हो सकती है ! इतने पर भी जो लोग, साम्प्रदायिक भोइवश, महारकजी को ऊँचे चरित्र का व्यक्ति रागगते हैं, संयम के कुछ उपदेशों का इधर उधर से संग्रह कर देने गान से उन्हें 'अद्वितीय संयमी ' प्रतिपादन करते हैं, उनके इस विचार की दीवार को आदिपुराण के ऊपर उसके आधारपर - खड़ी हुई बतलाते है और 'इसमें कोई भी बात ऐसी नहीं जो किसी श्राप ग्रंथ अथवा जैनागम के विरुद्ध हो' ऐसा कहने तक का दुःसाहस करते हैं, उन लोगों की स्थिति, निःसंदेह बड़ी ही शोचनीय तथा करुणाजनक है। मालूम होता है वे गोले हैं या दुराग्रही हैं, उनका अध्ययन स्वरूप तथा अनुभव है, पर साहित्य को उन्होंने नहीं देखा और न तुलनाताक पद्धति से कभी इस ग्रंथ का अध्ययन ही किया है । अस्तु ।
•
इस ग्रंथ में यादिपुराण के विरुद्ध और भी कितनी ही बातें हैं जिन्हें लेख बढ़ जाने के भय से यहीं छोड़ा जाता है।
(२) श्रादिपुराण के विरुद्ध अथवा आदिपुराण से विरोध रखने
वाले कथनों का दिग्दर्शन कराने के बाद, अत्र में एक दूसरे प्रंप को धौर लेता हूँ जिसके सम्बन्ध में भी महारकजी का प्रतिज्ञाविरोध पाया जाता है और वह ग्रंथ है ' ज्ञानार्थच ', जो श्री शुभचन्द्राचार्य का घनाया हुया है। इसी ग्रंथ के अनुसार ध्यान का कथन करने की एक प्रतिज्ञा भट्टारकजी ने, ग्रंथ के पहले ही 'सामायिक' अध्याय में, तिन प्रकार से दी है—
ध्यti arari पनि विदुषां नाममार्से रौद्रसधर्म्यशुक्ल चरमं दुःखाविसौख्यप्रदम् । पिराह्नस्थं च पदस्थरूपरहितं कपस्थनामा परं । भिचतुर्वियजा भेदाः परे सन्ति वै ॥२८).
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[ ] इस प्रतिज्ञावाक्य-द्वारा यह विवास दिखाया गया है कि इस अध्याय में ध्यान का~-उसके मात, रौद्र, धर्म्य, शुक मेदों का, उपभेदों का और पिण्डस्य, पदस्थ, रूपस्य तथा रूपातीत नाम के दुसरे भेदों का-जो कुछ कयन किया गया है वह सत्र 'ज्ञानार्णव' के मतानुसार किया गया है, भानाव से मिच अथवा विरुद्ध इसमें कुछ भी नहीं है। परन्तु बाँचने से ऐसा मालूम नहीं होता-पंथ में कितनी ही बातें ऐसी देखने में भाती हैं जो ज्ञानार्णव-सम्मत नहीं है अथवा शानार्णव से नहीं ली गई । उदाहरण के तौर पर यहाँ उनके कुछ नमूने नीचे दिये जाते हैं:- (अ) प्रणयविषय ' धर्मपान का लक्षण बताते हुए भड्काकाजी लिखते हैं* येन केन प्रकारण सैनो धर्मो प्रवर्धते ।
तदेव क्रियते पुम्मिरणायविचयं मतम् ॥ ३॥ अर्थात-निस तिस प्रकार से जैन धर्म बड़े वही करना अपायविचय माना गया है। परन्तु ज्ञानार्णव में तो ऐसा कहीं कुछ माना नहीं गया । उसमें दो साफ लिखा है कि 'बिस ध्यान में कर्मों के अपाय (नाश) का उपाय सहित चिन्तवन किया जाता है उसे अपा. यविषय कहते हैं । यथा:
* इस पथ पर से 'अपायषिचय' का जब कुछ ठीक लक्षण निकलता हुआ नहीं देखा तब सोनीजी ने वैसे ही खींचखाँच कर भावार्य आदि के द्वारा उसे अपनी तरफ से समझाने की कुछ चेर की है, जिसका अनुभव विक पाठकों को अनुवाद परसे सहज ही में हो जाता है।
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'अपाविच ध्यान तब्यन्ति मनीषिणः ।
अपाय कर्मणां यत्र सोपायः स्मयते बुत्रैः ॥३४-१॥ इस नक्षण के सामने महारकनी का उत बक्षण कितना विशक्षण नान पड़ता है उसे बतखाने की जरूरत नहीं । सहदय पाठक सहज ही में उसका अनुभव कर सकते हैं। पास्तव में, वह बहुत कुछ सदोष तथा त्रुटिपूर्ण है और ज्ञानार्गव के साथ उसकी संगति ठीक नहीं बैठती।
(आ) इसी तरह पर पिण्डस्प और रूपस्य ध्यान के जो लक्षण भहारकमी ने दिये हैं उनकी संगति भी मानार्णव के साथ ठीक नहीं बैठती | महारकजी लिखते हैं-'सोक में जो कुछ विषमान है उस सबको देह के मध्यगत चिन्तषन करना पिण्डस्थ ध्यान कहलाता है' और 'बिस ध्यान में शरीर नया जीव का भेद चिन्तयन किया जाता है उसे रूपस्थ ध्यान कहते हैं । यथा
“पत्किविविधते लोक वत्स देहमध्यगम् ।
इति चिन्तयते यत्त पिएखस्य ध्यानमुच्यते meen "शरीरजीवयोमेंदो यत्र पस्थमस्तु तत् ॥४॥ परत ज्ञानार्णव में ऐसा कुछ भी नहीं दिखा । उसमें पिण्डस्प ध्यान का जो पंचधारणात्मक खरूप दिया है उससे महारानी का यह लक्षण लाजिमी नहीं आता । इसी तरह पर समवसरण विभूति सहित देवाधिदेव श्री महतपरमेष्ठी के स्वरूप चिन्तबन को बो उसमें रूपस्थ ध्यान बतलाया है उससे यह शरीरजीवयोमेद नाम का लक्षण कोई गेल नहीं खाता ।
शायद इसीलिये पोनीजी को भावार्थ वारा यह लिखना पड़ा हो कि "विभूतियुक्त प्रहन्तदेव के गुणों का चिन्तन करना रूपस्थ ध्यान है। परन्तु सक-सक्षण का यह मावार्य नहीं हो सकता।
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[..] यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि महारकनी ने रूपस्थ ध्यान के अनन्तर 'रूपातीत' ध्यान का लक्षण एक पत्र में देने के बाद 'मातश्चोत्थाय से लेकर 'षडावश्यकसत्कर्म' तक १७ पद्य दिये हैं, जो अंथ में 'प्रात:काल सम्बंधी क्रियाएँ और 'सामायिक' शीर्षकों के साथ नं. ५० से १६ तक पाये जाते हैं। इन पथों में प्रातःकाल सम्बन्धी विचारों का कुछ उल्लेख करके सामायिक करने की प्रेरणा की गई है और सामायिक का स्वरूप आदि मी बतलाया गया है। सामायिक के बक्षण का प्रसिद्ध श्लोक 'समता सर्वभूतेषु' इनमें शामिल है, 'योग्य काखासन' तथा 'जीविते मरणे' नाम के दो पद अनगारधर्मामृत के भी उद्धृत हैं और 'पापिष्ठेन दुरात्मना' नाम का एक प्रसिद्ध पच प्रतिक्रमण पाठ का भी यहाँ शामिल किया गया है। और इन सब पषों के बाद 'पदस्य ध्यान' का कुछ विशेष कथन भारम्भ किया गया है । ग्रंथ की इस स्थिति में उक्त १७ पण यहाँ पर बहुत कुछ असम्बद्ध तथा बेढंगे मालूम होते हैं-पूर्वापर पद्यों अथवा कथनों के साथ उनका सम्बंध ठीक नहीं बैठता । इनमें से कितने ही पचों को इस सामायिक प्रकरण के शुरू में-'ध्यानं तावदई वदामि से भी पहले-देना चाहिये था। परंतु महारानी को इसकी कुछ भी सूझ नहीं पड़ी, और इसलिये उनकी रचना क्रममंगादि दोषों से दूषित हो गई, जो पढ़ते समय बहुत ही खटकती है । और भी कितने ही स्थानों पर ऐसे रचनादोष पायें जाते हैं, जिनमें से कुछ का उल्लेख पहले भी किया जा चुका है।
(इ) पदस्थ ध्यान के वर्णन में, एक स्थान परमधारकानी, 'ही मंत्र के जप का विधान करते हुए, खिखते हैं, वन्तः पाश्चंजिमोऽधोरेफरतलगतः सघरेन्द्रः तुर्यस्वर सापिन्छः समवेत्पमावतीसंका ७२ ॥
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[ १ ]
त्रिभुवननमोहकरी विधेयं प्रसवपूर्व नमनाता ।
एकाक्षरीति संज्ञा अपतः फलदायिनी मित्यम् ॥ ७३ ॥
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यहाँ 'ह्रीं' पद में हकार को पार्श्वनाथ भगवान का, नीचे के रफार को तखगत धरखेन्द्र का और बिन्दुसहित ईकार को पद्मावती का वाचक बसलाया है— अर्थात् यह प्रतिपादन किया है कि यह 'ह्रीं' मंत्र घरपेंद्र पद्मावती सहित पार्श्वनाथ जिनेंद्र का द्योतक है। साथ ही, इसके पूर्व में 'ॐ' और अंत में 'नमः' पद लगा कर 'ॐ ह्रीं नमः' ऐसा जप करने की व्यवस्था की गई है, और उसे त्रिभुवन के लोगों को मोहित करने वाली 'एकाचरी विद्या' लिखा है। परंतु ज्ञानाय में इस मंत्र का ऐसा कोई विधान नहीं है उसमें कहीं भी नहीं लिखा कि 'हाँ' पद धरणेंद्रपभावती सहित पार्श्व निन का बाचक है व्ययका 'ॐ ह्रीं नमः' यह एकाक्षरी विद्या है और इसलिये मट्टारकनी का यह सब कथन ज्ञानावि-सम्मत न होने से उनकी प्रतिज्ञा के विरुद्ध है।
(६) इसी तरह पर महारकनी ने एक दूसरे मंत्र का विधान भी निम्म प्रकार से किया है:
ॐ नमः सिद्धमित्तन्मत्रं सर्वसुखमदम् ।
खपत फलती स्वयं गुरावृंमितम् ॥ ८२ ॥
1
इसमें 'ॐ नमः सिद्धं मन के बाप की व्यवस्था की गई है और उसे सर्व सुखो का देने वाला तथा इट फस का दाता लिखा है। यह मंत्र भी ज्ञान में नहीं है। अतः इसके सम्बन्ध में भी महारकली पर प्रतिज्ञाविरोध पाया जाता है।
इस पद्म के बाद ग्रंथ में, 'इत्थं मंत्रं स्मरति सुगुणं यो नरः सर्वकाल' (८३) नामक एक के द्वारा आम तौर पर मंत्र स्मरण के फल का उल्लेख करके, एक पथ विच प्रकार से दिया है:--
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[२] अपं मंत्री महामंत्रः सर्वपापविनाशकः ।
अष्टोत्तरशतं ब्रतो पर्ने कार्याणि सर्वया ॥४॥ इस पथ में जिस मंत्र को सर्वपापविनाशक महामंत्र बतलाया है और जिसके १०८ बार जपने से सर्व प्रकार के कार्यों की सिद्धि होना लिखा है वह मंत्र कौनसा है उसका इस पथ से अथवा इसके पूर्ववर्ती पब से कुछ भी पता नहीं चलता।'ॐनमः सिद्धं' नाम का यह मंत्र तो हो नहीं समाता बो ८२ पथ में वर्णित है। क्योंकि उसके सम्बन्ध का ३३ पथ द्वारा-विच्छेद हो गया है। यदि उस से अभिप्राय होता तो यह पद्य 'इत्थं मंत्र' नामक ८३ पध से. पहले दिया जाता । अतः यह पथ यहाँ पर असम्बद्ध है। सोनीबी कहते हैं इसमें 'अपरामित मंत्र' का उल्लेख है। पैंतीस अक्षरों का अपरंजित मंत्र ('मो परहंताणं आदि ) बेशक महामंत्र है और वह उन सब गुणों से विशिष्ट भी है जिनका इसमें उल्लेख किया गया है परन्तु उससे यदि अभिप्राय था तो यह पप 'अपराजित् मंत्रोऽयं' नामक ८० पथ के ठीक बाद दिया जाना चाहिये था । उसके बाद 'षोडशाचरविद्या' तथा 'ॐनमः सिद्ध' नामक दो मंत्रों का और विधान बीच में हो चुका है, जिससे इस पत्र में प्रयुक्त हुए 'अयं (यह) पद का वाच्य अपरानित मंत्र नहीं रहा। और इस लिये अपराजितमंत्र की दृष्टि से यह पछ यहाँ और भी असम्बद्ध है और वह भट्टारकजी की रचनाचातुरी का मण्डाफोड़ करता है।
इस पद्य के बाद पाँच पच और हैं जो इससे भी ज्यादा असम्बद्ध है और वे इस प्रकार हैं:हिंसानृतान्यदारेच्छा चुरा चातिपरिग्रहः। अमूनि पंच पापानि दुःखदायीनि सस्ती ॥५॥ प्रोत्तरशतं मेवास्तेषां पृथगुदाहताः। दिखाता कता पूर्व करोति च करिष्यति ॥८६॥
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[१३] मनोवचनसायच ते तु निगुणिता नव। पुनः स्वयं छतकारितानुमोरैशाहतिः ॥७॥ सतार्षिशविस्ते भेदा कपाशुपयेवताम् । भोसरशतं शेयमसत्याविषु ताडशम् ॥ ॥ पृथ्वीपानीयतेजपवनसुतरवः स्थापरा. पंचकाया। मियानित्यौ निगोदी युगतिशिलिचतुः सत्यसावित्रसास्युः। एते प्रोका जिनेद्वादश परिगुणिता वाङ्मनः कायमेटेस्ते चान्यैः कारिताखिमिरपि गुणिताब्यायन्यैकसंस्था या
इन पदों में से पहले पब में हिंसादिक पंच पारों के नाम देकर लिखा है कि ये पाँचों पाप संसार में दुःखदाया है और इसके बाद वीन पदों में यह बताया है कि इन में से प्रत्येक पाप के १०८ भेद है। जैसे हिंसा पहले की, अन्न करता है, आगे करेगा ऐसे सीन मेद हुए। इनको मन-वचन-काय से गुणने पर हमेदारुत-कारित-अनुमोदना से गुणने पर २७ मेद और फिर चार कपायों से गुणने पर १०० भेद हिंसा के हो जाते हैं। इसी तरह पर असत्यादिक के भेद जानने ।
और पाचवे पच में हिंसादिक का कोई विकल्प उठाए बिना ही दूसरे प्रकार से १०८ भेदों को सूचित किया है--लिखा है 'पृथ्वी, आप, तेज, वायु, वृक्ष, (वनस्पति) ऐसे पाँच स्थावर काय, नित्य निगोद, अनित्य निगोद, दीदिय, बन्दिय, चतुरिन्द्रिय, संज्ञिपंचेन्द्रिय, और असजिपंचेत्रिय ऐसे बारह मेद निनद भगवान ने कहे हैं। इनको मन, वचन, काय तथा कृत, कारिव, अनुमोदना, से गुणने पर १०० भेद हो जाते हैं।
ये पारहमद भगवान ने किसके कहे।-जीवों के जीवहिलाके या असत्याविक के पेसा यहाँ पर कुछ भी नहीं दिखा । और न यही बतलाया कि ये पिचने मेद यदि जिनेंद्र भगवान के कहे हुए दो पहले भेद किसके कहे हुए है अथवा दोनों का ही कथन विकल्प करसे भगवान का किया माहै।
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[ ६४ ]
यही उक्त पथों का परिचय है । इस परिचय पर से सहृदय पाठक सहज ही में इस बातका अनुभव कर सकते हैं कि ये सब पद्म यहाँ पर पदस्य ध्यान के वर्णन में, पूर्वापर सम्बंध अथवा कपनक्रम को देखते हुए, कितने असंबद्ध तथा बेढंगे मालूम होते हैं और इनके यहाँ दिये आने का उद्देश्य तथा श्राशय कितना स्पष्ट है । एकसौ आठ भेदों की 1 यह गणना भी कुछ विलक्षण जान पड़ती है - भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालके भेद से मी हिंसादिक में कोई प्रकार - भेद होता है यह बात इस ग्रंथसे ही पहले पहल जानने को मिली। परंतु यह बात चाहे ठीक हा या न हो किन्तु ज्ञानार्णव के विरुद्ध जरूर है; क्योंकि ज्ञानावि में हिंसा भूत, भविष्यत और वर्तमान ऐसे कोई भेद न करके उनकी जगह पर संरंभ, समारंभ, और धारंभ, नाम के उन मेदों का ही उल्लेख किया है जो दूसरे तत्वार्थ ग्रंथों में पाये जाते हैं; जैसा कि उसके निम्न वाक्य से प्रकट है
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रम्भादित्रिकं योगेः कषायैर्व्याहतं क्रमात् । शवमष्टाधिकं ज्ञेयं हिंसा भेदेस्तु पिरिचतम् ॥६- १०॥
यहाँ पर मैं अपने पाठकों को इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि सोनीजी ने अपनी अनुवाद पुस्तक में पद्म नं० प और प के मध्य में 'उकं च तत्वार्थे' वाक्य के साथ संरंभसमारंभारंभयोग' नाम के तत्वार्थ सूत्र का भी अनुवादसहित इस ढंग से उल्लेख किया है जिससे वह मट्टारकजी के द्वारा ही सदूधृत जान पड़ता है । परंतु मराठी अनुवाद वाची प्रति में वैसा नहीं है। हो सकता है कि यह सोनीजी की ही अपनी कर्तत हो । परंतु यदि ऐसा नहीं है किन्तु भट्टारकमी ने ही इस सूत्र को अपने पूर्व कथन के समर्थन में उद्घृतं किया है और वह ग्रंथ की कुछ प्राचीन प्रतियों में इसी प्रकार से उद्धृत पाया जाता है तो कहना होगा कि भट्टारकजी ने इसे देकर अपनी रचना
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[५] को और भी बेढंगा किया है क्योंकि इससे पूर्व कथन का पूरीतरह पर समर्थन नहीं होता-~अथवा यो कहिये कि सर्व साधारण पर यह प्रकट किया है कि उन्होंने सरंभ, समारम तपा मासका अभिप्राय क्रमशः भूत, वर्तमान तथा भविष्यत् काल सा है। परंतु ऐसा समझना भूब है। क्योंकि पूज्यपाद बैसे बाधाों ने सर्वार्थ सिद्धि प्रादि मयों में प्रयत्नादेश को 'सरंग साधनसमन्यासीकरण को 'समारंभ और प्रक्रम या प्रथमप्रवृत्ति को 'आरंभ बताया है।
(a) पाँचौ पधों के अनन्तर प्रय में पोकरण, भाकर्षण संभन, मारय, विद्वेषण, उचाटन, शांतिकरण और पौष्टिक कर्म नाम के पाठकों के समय में आप की विधि बताई गई हैरीद यह प्रकट किया गया है कि किस वर्गविषयक मंत्र को किस समय, किस भासन वया मुदा से, कौनसी दिशा की ओर मुख करके, कैसी माला कर और मंत्र में कौमसा पक्षाव क्षगाकर जाना चाहिये । साथ ही, कुछ कों के सम्बन्ध में नप के समय माता का दाना पकाने के लिये वो बो गुती अंगूठे के साथ काम में लाई जावे उसका मी विधान किया है। यह सब प्रकार का विधि-विधान मी भानाव से बार की चीमई--उससे नहीं लिया गया है। साथ ही, इस विधाम में भाखामों का कथन दो बार किया गया है, जो दो जगहों से उठाकर रक्सा गया मालूम होता है और उससे कथन में कितना ही पूर्वापर विरोध भागया है । यथाः
मकर्मवि""माझा समशिमिता ॥ ४॥ अर्थात-पकमा म कर्म में समास की माला का और निषेध (भारण) का में जीयापूते की माला से सोनालीने पुत्र सीब नामक किसी माविकील की- समझा है। विधान किया यसरी जगह स्मन वा दुध के पवारान दोनों
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निषेधकर्मणि........पुत्रजीवकृतामाला ॥ ६६ ॥ स्तंमने दुष्टसमा अपेत् प्रस्तरकर्कराम् ॥ १०८ ॥
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विद्वेषकर्मणि ........पुत्रजीवकृता मासा ॥ १८६॥
विद्वेषेऽरिष्टषीजजा ॥ १०८ ॥
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शांतिकर्मणि..... मौक्तिकानां माझा ॥ १०१ ॥
शान्तये .........जपेदुत्पलमालिकाम् ॥ ११० ॥
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मालूम होता है महारकनी को इस विरोध की कुछ मी खबर नहीं पड़ी और वे वैसे ही बिना सोचे समझे इधर उधर से पद्यों का संग्रह कर गये हैं । ११० वें पद्म के उत्तरार्ध में आप लिखते हैं-' षट्कर्माणि तु प्रोक्तानि पलवा अन उच्यते ' अर्थात् छह कर्म तो कड़े गये अब पलों का कथन किया जाता है । परन्तु कथन तो आपने इससे पहले वशीकरण आदि आठ कर्मों का किया है फिर यह छकी संख्या कैसी ! और पात्रों का विधान भी थाप. प्रत्येक कर्म के साथ में कर चुके हैं, फिर उनके कथन की यह नई प्रतिक्षा कैसी है और उस प्रतिज्ञा का पालन भी क्या किया गया है पलवों की कोई खास व्यवस्था नहीं बतलाई गई, महब कुछ मंत्र दिये हैं जिनके साथ में पलत्र भी लगे हुए हैं और वे पल्लब भी कई स्थानों पर पूर्व कथन के विरुद्ध है। मालूम नहीं यह सब कुछ लिखते हुए भट्टारकजी क्या, किसी नशे
फर्मों के लिये पत्थर के टुकड़ों की माला बतलाई गई है। विद्वेष कर्म मैं एक जगह जीयापूर्व की और दूसरी जगह रीठे के बीज की माता लिखी है और शांतिकर्म में एक जगह मोतियों की वो दूसरी जगह कमलगो की माता की व्यवस्था की गई है। इस तरह पर वह कथन परस्परविरोध को लिये हुए है।
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की हालत में थे, उन्मस थे अथवा उन्हें इतनी भी सूझ बूझ नहीं पी जो अपने सामने स्थित एक ही पत्र पर के पूर्वापर विरोधों को भी समझ सकें ! और क्या इसी बिरते अथवा बूते पर आप मंथरचना करने बैठ गये! संभव है भट्टारकजी को घर की ऐसी कुछ ज्यादा कल न हो और उन्होंने किराये के साधारण भादमियों से रचना का काम लिया हो और उसी की वजह से यह सब गड़बड़ी फैली हो । परन्तु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि इस प्रथ का निर्माण किसी अच्छे हाथ से नहीं हुआ और इसीलिये वह पद पद पर अनेक प्रकार के विरोधों से भरा हुआ है तथा बहुत ही बेढंगेपन को लिये हुए है।
यहाँ पर पाठकों को यह जानकर बड़ा ही माश्रये तथा कोहल होगा कि महारकमी ने 'सामायिक' के इस अध्याय में विद्वेषण तथा मारण मंत्रों तक के जप का विधान किया है और ऐसे दुष्ट कार्यार्थी मंत्रों के जप का स्थान श्मशान भूमि + बतलाया है || खेद है जिस सामायिक की बाबत मापने स्वयं यह प्रतिपादन किया है कि "उसमें सब जीवों पर समता भाव रखा जाता है, सयम में शुभ भावना रहती है तथा धार्थ-रौद्र नाम के मशुम ध्यानों का त्याग होता है' और जिसके विषय में माप यहाँ तक शिक्षा दे पाए हैं कि उसके अम्यासी को जीवन-मरण, लाभ-प्रथाम, योग वियोग, बन्धु रात्रु तथा सुख-दुख में सदा समता माग रखना चाहिये - रागद्वेष नहीं करना चाहिये उसी सामायिक के प्रकरण में भाप विद्वेष फैलाने तथा किसी को मारने तक के मंत्रों का विधान करते हैं !! यह कितना भारी विरोध प्रा
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हूं फटू, के हीं सिद्धेभ्यो हूं फद
ॐ हां इत्यादि-विद्वेषमंत्रः । ॐ हांद्रो वेषे इति इत्यादि १) मारण मंत्रः । पचाः स्मशाने दुष्टकाप्रर्थं शान्त्या च जिनालये ॥ १११ ॥
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अन्याय है । क्या ऐसे पाप मंत्रों का अपना भी 'सामायिक हो सकता है ? कदापि नहीं | ऐसे मारणादि विषयक मंत्रों का आराधन प्रायः हिंसानन्दी रौद्र ध्यान का विषय है और वह कभी 'सामायिक' नहीं कहला सकता | भगवजिनसेन ने भी ऐसे मंत्रों को 'दुमंत्र' वतलाया है जो प्राणियों के मारण में प्रयुक्त होते हैं भले ही उनके साथ में अर्हन्तादिक का नाम भी क्यों न लगा हो। और इसलिये यहाँ पर ऐसे मंत्रों का विधान करके सामायिक के प्रकरण का बहुत ही बड़ा दुरुपयोग किया गया है, इसमें जरा भी संदेह नहीं है। और इससे भट्टारकजी के विवेक का और भी अच्छा खासा पता चल जाता है अथवा यह मालूम हो जाता है कि उनमें पादेय के विचार अथवा समझ बूझ का माद्दा बहुत ही कम था। फिर वे बेचारे अपनी प्रतिज्ञाओं का पालन भी कहाँ तक कर सकने थे, कहाँ तक वैदिक तथा लौकिक म्यागोह को छोड़ सकते थे धौर उनमें चारित्रवल भी कितना हो सकता था, जिससे वे अपनी अशुम प्रवृत्तियों पर विजय पाते और मायाचार अथवा इलकपट न करते ! अस्तु ।
यह तो हुआ प्रतिज्ञादि के विरोधों का दिग्दर्शन । अब मैं दूसरे प्रकार के विरुद्ध कथनों की ओर अपने पाठकों का ध्यान आकृष्ट करता हूँ, जो इस विषय में और भी ज्यादा महत्व को लिये हुए हैं और ग्रंथ को विशेष रूप से श्रमान्य, अश्रद्धेय तथा त्याज्य ठहराने के लिये समर्थ हैं।
दूसरे विरुद्ध कथन ।
लेख के इस विभाग में प्रायः उम कथनों का दिग्दर्शन कराया - जायगा जो जैनधर्म, अन सिद्धान्त, जैननीति, जैनध्यादर्श, जैन आचारविचार अथवा जैनशिष्टाचार आदि के विरुद्ध हैं और जैनशासन के
* यथा दुर्मनास्तेऽत्र विशेषा ये युक्ताः प्राणिमारणे ॥ ३६- २६ ॥ - आदिपुराण ।
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साथ निनका प्राय: कोई मेल नहीं । इससे पाठकों पर अंथ की बसलियत भी मी मी नसे पक्ष माया और बनो प्रयकर्ता की मनोदशा का मी कितना ही विशेष अनुभव हो जायगा अपवा यो कहिये ষ্টি মাজনী অঙ্ক ঋষ্টি জ ন য় থ অল্প বয়ঃ
देव, पितर और ऋषियों का घेरा। . (ौच' नाम के दूसरे अध्याय में, पुरला करने का विधान करते हुए, मटारकनी में लिखा है* पुरतः सर्वदेवाय दक्षिणे व्यन्त [पितर स्थिता था।
ऋषयः पृष्ठतः सर्वे यामे गण्डूपमुत्सृजेत् [ माचरेत् ] ॥ ६०
* इस पच के अनुवाद में सोनी ने बड़ा समासा किया है। मापने 'पुरता का अर्थ 'पूर्व की तर, 'त' का अर्थ 'पश्चिम की ओर' और 'नामे पद के साथ में मौजूद होते हुए भी दक्षिणं का अर्थ दाहिनी ओर न करके, दक्षिण दिशा की तरह प्रक्षत किया है और इस साल प्रलती के कारण ही पूर्व, दक्षिण तथा परिम दिशाओं में क्रमशः सर्व देवो, स्यान्तरों तथा सर्व शपियों का निवास बता दिया है ! परन्तु 'वामे का अर्थ या 'रदिशाम कर एके और इसलिये श्रापको " alन दिशामों में कुरक्षा न के" के साथ साथ यह भी लिखना पड़ा-"फिन्तु अपनी चौई ओर फेंके"। भन्नु ाँ और यदि पूर्व दिशा हों, पक्षिण दिशा छो, म पनि विश्था हो तर क्या बने और कैसे घोई ओर रक्षा करने का नियम कायम है। इसकी आपको कुछ मी खबर नहीं पड़ी ! और म यही खयाल आया कि नागम में कहाँ पर ये दिशाएँ इन देवादिकी के लिये मखसून अथवा निर्धारित की गई है। वैसे ही बिना सोचे समझे ओ जी में पाया कि मारा! यह भी नहीं सोचाक यदि
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अर्षात्-सामने सर्व देव, दाहिनी ओर व्यंतर (पितर) और पीठ पिछाडी सर्व ऋषि खरे हैं अत: बॉई तरफ कुरवा करना चाहिये।
और इस तरह पर,यह सूचित किया है कि मनुष्य को तीन तरफ से देव, पितर तथा ऋषिगण घेरे रहते हैं, कुरला कहीं उनके ऊपर न पड़नाय उसीके लिये यह अहतियात की गई है। परंतु उन लोगों का यह घेरा करने के बात ही होता है या स्वामाविक रूप से हरवत रहता है, ऐसा कुछ सूचित नहीं किया । यदि कुरले के वक्त ही होता है तो उसका कोई कारणविशेष होना चाहिये। क्या कुरले का समाशो देखने के लिये ही ये सब लोग उसके इरादे की खबर पाकर जमा हो जाते हैं ! यदि ऐसा है तब तो ये लोग आकाश में कुरला करने वाले के सिर पर खड़े होकर भी तमाशा देख सकते हैं और छोटों से बच सकते हैं। उनके लिये ऐसी व्यवस्था करने की बरूरत ही नहीं यह निरर्थक जान पड़ती है । और यदि उनका घेरा बराबर में हरवक्त बना रहता है तब तो बड़ी मुशकिल का सामना है पर तो उन बेचारों को बड़ी ही कवाइद सी करनी पड़ती होगी, क्योंकि मनुष्य बन्दी २ अपने मुख तथा भासन को इधर से उधर बदलता रहता है, उसके साथ में उन्हें भी जल्दी से पैतरा बदन कर बिना इच्छा भी घूमना पड़ता होगा !! और उपर मनुष्यों का थूकना तथा नाक साफ करना भी सब इधर उधर नहीं बन सकेगा, जिसके लिये कोई व्यवस्था नहीं. की गई। यह मल भी ले कुरले के जल से कुछ कम अपवित्र नहीं है । खैर, इसकी व्यवस्था भी हो सकेगी और यह मल मी बॉई भोर फेंका जा सकेगा, पर मूत्रोसर्ग के समय-जो उत्सर्ग के सामने की ओर
पूर्व की ओर सारे देव रहते है तो फिर इस ग्रंथ में ही पूर्व की ओर मुँह करके मलत्याग करने को क्यों कहा गया है । पया कुरक्षा भूष की धार से भी गया बीता है।
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[१०१] ही होता है-देवताओं की क्या व्यवस्था बनेगी, यह कुछ समझ में नहीं माता!! परंतु सगक में कुछ मानो या न माओ, कोई व्यवस्था बनो या न बनो, बड़ी मुशकिल का सामना करना पड़ा या छोटी मुशकिल का और पुरस के बाक पर उन देवादियों के उपरिषत होने का भी कोई कारण हो या न हो, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि जैनधर्म के साथ इस सब कथन का कुछ भी सम्बंध नहीं है-उसकी कोई संगति ठीक नहीं बैठती । जैनधर्म में देवो, पितरों तथा ऋपियों का नो स्वरूप दिया है अपवा नीयों की गति-खिति आदि का जो निरूपण किया है उसे देखते हुए मधारकजी का उक्त कथन उसके विलकुल विश्व बान पड़ता है और उस अतत्व श्रद्धान को पुष्ट करता है जिसका नाम मिथ्यात्व है। मालूम नहीं उन्होंने एक जैनी के रूप में उसे किस तरह अपनाया है। वास्तव में यह सब कयन हिन्दू-धर्म का कथन है। कलेक भी हिन्दुओं के प्रयोगपारिनात' पंप का ओक है और वह 'आन्हिकसूत्रावति' में भी, किटों में दिये हुए पाठभेद के साप, प्रयोगपारिनाव से उद्धृत पाया जाता है । पाठभेद में पितरकी जगह व्यन्तरा।' पद का नो विशेष परिवर्तन नजर आता है वह अधिकांश में लेखको की सीमा का ही एक नमूना जान पड़ता है। अन्यथा, उसका कुछ मी महत्व नहीं है, और सर्व देवों में भ्यन्तर भी शामिल हैं।
दन्तधावन करने वाला पापी। (२) निवाचार के दूसरे अध्याय में, दन्तथापन कर दर्शन करते हुए, एक पथ निम्न प्रकार से दिया है
सहमांशानुदिते या कुर्याइन्तधावनम् ।
सपापी मरण याति वर्षजीपश्यातिगः ॥७॥ इसमें लिखा है कि सूर्योदय से पहले जो मनुष्य दन्तधावन करता है वह पापी है, सर्व नीषों के प्रति निर्दयी है और (जन्दी ) मर जाती
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[१०] है। परंतु उसने पाप का कौनसा विशेष कार्य किया ! कैसे सर्व जीवों के प्रति उसका निर्दयत्व प्रमाणित हुना ? और शरीर में कौनसा विकार उपस्थित हो जाने से बह जल्दी मर नायगा ! इन सब बातों का उक्त पथ से कुछ मी बोध नहीं होता। आगे पीछे के पथ भी इस विषय में मौन हैं और कुछ उत्तर नहीं देते । लोकव्यवहार मी ऐसा नहीं पाया जाता और न प्रत्यक्षा में ही किसी को उस तरह से जल्दी मरता हुआ देखा जाता है। मालूम नहीं मारकमी ने कहाँ से ये निर्मूल मालाएं जारी की हैं, जिनका जननीति अथवा जैनागम से कोई समर्थन नहीं होता। प्राचीन बैनशारों में ऐसी कोई भी बात नहीं देखी जाती जिससे वेचारे प्रातःकाल उठ कर दन्तधावन करने वाले एक साधारण गृहस्थ को पापी ही नहीं किन्तु सर्व जीवों के प्रति निर्दयी तक ठहराया जाय । और न शरीरशाम का हो ऐसा कोई विधान जान पड़ता है जिससे उस वक्त का दन्तधावन करना मरण का साधन हो सके। वारमट जैसे शरीरशास के प्राचार्यों ने ब्राझ मुहूर्त में उठ कर शौच के अनंतर प्रात:काल ही दन्तधावन का साफ तौर से विधान किया है। वह स्वास्थ्य के लिये कोई हानिकर नहीं हो सकता । और इसलिये यह सव कपन भधारकनी की प्रायः अपनी शल्पना जान पड़ता है | जैनधर्म की शिक्षा से इसका कोई खास सम्बंध नहीं है । खेद है कि महारानी को इतनी भी खबर नहीं पड़ी कि क्या प्रातःसंध्या बिना दन्तधावन के ही हो जाती है * जिसको भाप स्वयं ही 'सूर्योदयाच मागेध मात संध्या समापयेत् ( ३-१३५) वाक्य के द्वारा सूर्योदय से पहले ही समाप्त कर देने को लिखते हैं। यदि खबर पड़ती तो आप व्यर्थ ही ऐसे
नहीं होती। महारकजी ने खुद संध्या समय के स्नान को जरूरी बतलाते हुए उसे दन्तधावनपूर्वक करना लिखा है । यथा-. सन्ध्याकाले.. कुर्यात्स्नानत्रयं जिलावन्तधावनपूर्वकम् ॥१०७-१९९५
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[ १०३]
निःसार वाक्य द्वारा अपने कथन में विरोध उपस्थित न करते । श्रस्तु; इसी प्रकरण में मङ्कारकजी ने दो पद निम्न प्रकार से भी दिये हैं
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महा [ह] घट
युवा [डा ] तालहितात्रतक्य [का] खर्जूरी नालिकेर उतैते दसराजकाः ॥ ६६ ॥ राजसमोपेतो [तं] वः कुर्याद्दन्तधावनम् । निर्दयः पापभागी स्थादनन्त कायिकं त्यजेत् ॥ ६७ ॥
इनमें से पहले पद्य में सात वृच्छों के नाम दिये हैं, मिनकी 'तूराज' संज्ञा है और जिनमें मद तथा खजूर भी शामिल हैं। और दूसरे पद्म में यह बतलाते हुए कि 'तुयाराज की जो दौतन करता है वह निर्दयी तथा पाप का भागी होता है,' परिणाम रूप से यह उपदेश भी दिया है कि ( यतः) मनन्तकायिक को छोड़ देना चाहिये। इस तरह पर महारनी ने इन वृक्षों की दाँतन को अनन्तकायिक बतलाया है और शायद इसीलिये ऐसी दाँतन करने वाले को निर्दयी तथा पाप का भागी ठहराया हो । सोनीजी ने भी अनुवाद में लिख दिया है- "क्योंकि इनकी दतौन के मीतर अनन्त जीव रहते हैं ।" परंतु जैनसिद्धान्त में 'अनंतकायिक' अथवा 'साधारण' वनस्पति का जो स्वरूप दिया हैजो पहिचान बताई है-उससे उक्त बड़ तथा खजूर आदि की दाँतन का तकायिक होना खाखिमी नहीं आता । और न किसी माननीय जैनाचार्य ने इन सब वृक्षों की दाँतन में अनंत जीवों का होना ही बतलाया है। प्राचीन जैनशालों में तो 'सप्त तृणराब' का नाम भी सुनाई नहीं पड़ता । भट्टारकजी ने उनका यह कथन हिन्दू-धर्म के ग्रंथों से उठा कर रक्खा है । उक्त पथों में से पहला पद और दूसरे पथ का पूर्वाध दोनों 'गोभिल' ऋषि के वचन हैं और वे ब्रेकिटों में दिये हुए पाठभेद के साथ 'रसूतिरत्नाकर' में भी 'गांमिल' के नाम से उखित मिलते है । गोसिस' ने दूसरे पत्र का उत्तरार्ध 'नरखाण्डाल
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[ १०४ ]
योनिः स्वाद्यावद् गंगा न पश्यति' दिया था जिसको भट्टारकजी ने 'निर्दयः पापभागी स्यादनंतकाधिकं त्यजेत्' के रूप में बदल दिया है ! और इस तरह पर ऐसी दाँतन करने वाले को पापी श्रादि सिद्ध करने के लिये उन दाँतनों में ही घनंत जीवों की कल्पना कर डाली है !! जो मान्य किये जाने के योग्य नहीं । और न उसके आधार पर ऐसी दाँतन करने वाले को पापी तथा निर्दयी है। ठहराया ना सकता है । खेद है कि भट्टारकजी ने स्वयं ही दो पद्म पहले ६३ वें पक्ष में-- 'चटस्तथा' पद के द्वारा, वाग्भट आदि की तरह, बंड़ की दाँतन का विधान किया और ६४ वे पद्म में 'एताः प्रशस्ताः efeat creatकर्मणि' वाक्य के द्वारा उसे दन्तधावन कर्म में श्रेष्ठ भी बतलाया परंतु बाद को गोमिल के वचन सामने आते ही आप उनके कथन की दृष्टि और अपनी स्थिति का विचार मूल कर, एक दम बदल गये और आपको इस बात का मान भी न रहा कि जिस बड़की दाँतन का हम अभी विधान कर आए हैं उसीका अब निषेध करने जारहे हैं !! इससे कथन की विरुद्धता ही नहीं किंतु भंडारकनी की खासी समीक्ष्पकारिता मी पाई जाती है ।
तेल मलने की विलक्षण फलघोषणा । .
- (३) दूसरे अध्याय में, तेलमर्दन का विधान करते हुए, भट्टारकमी ने उसके फल का जो बेथान किया है वह बना दी विलक्षण है । आप लिखते हैं
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खोमे कीर्तिः प्रसरति घरा रोविशेये हिरव
देवाचायें तरखितनये वर्षते नित्यमायुः तैलाभ्यङ्गात्ततुजमरणं दृश्यते सूर्यबारे
मौमे मृत्युर्मति च नितरां मार्गचे वित्तनाशः ॥ ८४ ॥ . अर्थात् सोमवार के दिन तेस मलने से उत्तम कीर्ति फैलती है,
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१०५ दुष के दिन देख मचने से सुवर्ण की वृद्धि होती है 'मी बढ़ती है-गुरुवार सपा शनिवार के दिन मलने से सदा वायु बढ़ती है, वि. बार के दिन माने से पुत्र का भरण होता है, मंगल के दिन की माविश से अपना ही मरण हो जाता है और शुक्रवार के दिन की मानिय सदा धन का क्षय किया करती है।
तेल की मालिश का यह फल कितना प्रत्यक्षविबद्ध है इसे बतभाने की जरूरत नहीं । सहदय पाठक अपने नित्य के अनुभव तथा व्यवहार से उसकी सहन ही में जांच कर सकते हैं। इस विषय की और भी गहरी ऑष के लिये अनसिद्धान्तों को बहुत कुछ टटोला गया और कर्म फिलॉसॉकी का भी बहुतेरा मयन किया गया परंतु कहीं से भी ऐसा कोई नियम उपलब्ध नहीं हुमा बिससे प्रत्येक दिन के तेल मर्दन का उसके सकस फल के साथ भविनामावी सम्बन्ध (व्याति ) स्वापित हो सके वैवक शाल के प्रधान पंप भी इस विषय में मौन मालूम होते हैं। वाग्मट प्राचार्य अपने 'मध्यगदप' में नित्य देख मर्दन का विधान करते हैं और उसका फल बतलाते है-'मरा, श्रम तथा वात विकार की हानि, दृष्टि को प्रसन्नता, शरीर की पुष्टि, भायु की स्थिरता, सुनिदा की प्राति और त्वचा की हड़ता।' और यह फस बात कुछ समीचीन नान पड़ता है। यथा
अपंगमाचरेनित्यं स बरामवातहा ।। · मिसाएवायुःखमस्वास्ववायंकत् ॥॥
मैं इस ढूँढ खोज में, शब्दकारभु कोश से, हिन्दू शासों के दो पंच बरूर मिले हैं जिनका विषय भारकजी के पथ के साथ बात कुछ मिलता श्रृंखला है, और वे इस प्रकार है- .. ' मन परति वर्ष कीर्तिशामश्च सोमे
मौमे मृत्युमबति नियतं चन्द्र पुत्रसामः।
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[ १०६ ]
• अग्लानिर्भवति च गुरौ मार्गचे शोकयुक्त -स्वैताभ्यंगासननमरणं सूर्य दीर्घमायुः ॥ ॐ सम्वापः कीर्तिरल्पायुर्धनं निधन . श्रारोग्यं सर्वकामातिरांगाद्भास्करादिषु ॥
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इनमें से पहला पथ' ज्योतिःसारसंग्रह' का और दूसरा 'गारुड के ११४ वे अध्याय का पथ है । दोनों में परस्पर कुछ अन्तर भी है-पहले पैच में बुध के दिन तेल मलने से पुत्र लाभ का होना बतलाया हैं तो दूसरे में धनका होना लिखा है और यह घनका होना भट्टारकजी के पद्य के साथ साम्य रखता है; दूसरे में शनिवार के दिन संर्वकामार्त (इच्छाओं की पूर्ति) का विधान किया है तो पहले में दीर्घायु होना' लिखा है और यह दीर्घायु होना भी महारकनी के पंथ के साथ साम्यै रखता है। इसीतरह शुक्रवार के दिन तेसमर्थन का फल एक में सिंग्ये तो दूसरे में ' शोकयुक्त' बतलाया हैं और महाराजी उसे विद्यनाश लिखते है जो शोक का कारण हो सकता है; 'रविवार और गुरुवार का फेश दोनों में समान है परन्तु मंहारकों के पथ में वह कुछ मित्र है और सोमवार या मंगल को तेल कमाने का फल तीनों में समान है *चैस्तु;‘इन पद्य के सामने याने से इतना तो स्पष्ट हो जाती हैं कि इस तेलमर्दन के फल का कोई एक नियम नहीं पाया जाता हो जिसकी जो भी में आया उसने वह फल अपनी रचना में कुछ विशेषता अथवा रंग लाने के लिये, एक दूसरे की देखा देखी घडी है - बहुत संभव हैं महारकजी ने हिन्दू ग्रंथों के किसी ऐसे ही यह मनुसरण शिया हो. अपना जरूरत बिना जरूरत उसे कुछ बंद कर या व्यों का स्यों ही उठाकर रख दिया हो । परंतु कुछ भी हो, 'इसमें संदेह नहीं कि उनका उक्त पक्ष सैद्धांतिक दृष्टि से जैनधर्ग के विरुद्ध है, और जैनाचारविचार के साथ कुछ सम्बं नहीं रखता । --
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[१०७ i: रविवार के दिन स्नानादिक का निधri T+
(8) मारकनी दूसर अध्याय में यह भी लिखते हैं किनविवार ६. इतधार ) के दिन दन्तधावन नहीं करना चाहिये; देख न मन चाहिये और न स्लाने ही करनी चाहिये । यथा---'': 7 : अवीरे व्यतीपाते संक्रान्ती जन्मासरे। '.. '
पर्जग्रहन्तकातुव्रताहीनी दिने ..' अभ्यां च चतुर्दश्यां पंचम्यांमवासर. बतादीनी दिनेष्वेन चिलमर्दनम् ।
तस्मात्मानं प्रकर्तव्य रविचार तुं वर्जयेत् ।। ७।। t, ''तैलमर्दन की बाधत तो और आपने लिख दिया कि उससे पुत्र की मरण हो चीता है परन्तु दन्तधावन और 'माने की बाबत कुछ भी
ही उन्हें क्यों न करना चाहिये ? या उनके करने से रवि महाराज ( सूर्यदेवता । नाराज हो जाते हैं। यदि ऐसा है तब तो लोगों को बहुत कुछ विपति में पड़ना पड़ेगाक्योंकि अधिकांश जनता रविवार के दिन सविशेष रूप से स्नान करती है-छुट्टी का दिन होने से.उस दिन बातों को..भासी तरह से तेजादिक मलकर स्नान करने का अवसर मिलता है। इसके सिंघाय, उस दिन भगवान का पूजनादिक भी न हो सकेगा, जो.महारकली के कथनानुसार दन्तधापनपूर्वक मान की अपेक्षा रखता है; उन देवपितरों को भी उसदिन प्यासे रहना होगा जिनके लिय बान के अवसर पर महरिकनी ने तप केजर की व्यवस्था की है और जिसकी विचार श्रोग किया आयगा और मौं क्षौक में कितनी ही अशुचिता छा जायगी और बहुत से धर्मकार्यों को हानि पहुँचेगी, बल्कि त्रिवर्णाचार की मानविषयकं प्रविश्यकताओं को देखते हुए तो यह कहना भी कुछ अत्युक्ति में दाखिन न होगा कि 'धर्मकायों में एक प्रकार का प्रलयसा उपस्थित होजायगान मालूमनिह महारकबीने फिर
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क्या सोचकर रविवार के दिन लोन का निषेध किया है। जैन सिद्धान्तों से तो इसका कुछ सम्बंध है नहीं और न भनियों के प्राचार-विचार के ही यह अनुकूल पाया जाता है, प्रत्युत उसके विरुद्ध है। शायद भतारकेबी को हिन्दूधर्म के किसी ग्रंथ से रविवार के दिन मान के निषेध का भी कोई वाक्य-मिल गया हो और उसी के भरोसे पर माप ने जैसी माला बारी कादी छ । परन्तु मुझे तो मुहर्तचिन्तामणि श्रादि पंषों से यह माचूम हुमा है कि रोगनिर्मुसमान' तक के लिये रविवार का दिन प्रशस्त माना गया है। इसीसे श्रीपतिजी लिखते हैं-'बग्नेचरें सूर्यकुजेज्यवारे......लानं हितं रोगविमुककानाम् ।। हो, दन्तधावन का निषेध तो उनके यहाँ व्यासजी के निम्न वाक्य से पाया जाता है जिसमें कुछ तिथियों तथा रविवार के दिन दाँतों से काष्ठ के संयोग करने की बाबत लिखा है कि वह सातवें कुल तक को दान करता है, और जो आन्हिकसूत्रावति में इस प्रकार से उद्धृत है
प्रतिपदपाही नवम्यां रविवासरे।
बतानां कासंयोगो पहत्यासतम कुलम् । परंतु जैनशासन की ऐसी शिक्षाएँ नहीं हैं, और इसलिये गशरकामी का उक्त कपन मी भेनमत के विरुद्ध है।
घर पर ठंडे जल से लान न करने की प्राज्ञा ।
(५)-महारकनी ने एक खास माझा और भी जारी की है और यह यह है कि घर पर कमी ठंडे जल से लान न करना चाहिये। भाप निखते हैं
अपने चैव मांगल्ये पोचवतु सर्वदा।
शीतोदकेन न स्नाया घार्य तितकं या nun अर्थात्-तेल मला हो या कोई मांगलिक कार्य करना हो उस
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८.१०] वर, मोर घर पर हमेशा ही लेटे नब से लोग न करना चाहिये मोरन से लान किये बिना तिलक ही धारण करना चाहिये। .
पहा शेतकी मालिश के अवसर पर गर्म ग से लाल को पात तो किसी तरह पर समझ में पा सकती है परन्तु घर पर सदा ही गर्म जल से लान करने की अपवा ठंडे नम से कमी मी लान न करने की बात कुछ समझ में नहीं पाती । मालूर नहीं उसका क्या कारण है और वह किस आधार पर अवम्बित है। क्या ठंडे नल से लान नदी-सरोवरादिक तीर्थों पर ही होता है अन्यत्र नहीं ! और घर पर उसके कर लेने से नलदेवता हट हो जाते हैं। यदि ऐसा कुछ नहीं तो फिर घर पर जल से लान करने में कौन बाधक है ! ठंढा नक्ष खास्थ्य के लिये बहुत लाभदायक है और गर्म नस प्रायः रोगी तथा भयक्त गावों के लिये बतलाया गया है। ऐसी हालत में महारानी की उफ्त मात्रा समीचीन मालूम नहीं होती---यह जैनशासन के विरुद्ध बैंचती है। लोकन्यवहार भी प्रायः उसके विरुद्ध है । लौकिक जन, श्रतु मादि के अनुकूल, घर पर स्लान के लिये ठंडे तथा गर्म दोनों प्रकार के नलका व्यवहार करने हैं।
हिन्दुओं के धर्मशाखों से एक बात का पता चलता है और वह यह कि उनके गहाँ नदी शादि तीयों पर ही लान करने का विशेष माहाल्य है, उससे लान का फल माना गया है, अन्यत्र के लान से महब शरीर की शुद्धि होती है, लान का जो पुगपपल है वह नहीं मिलता और इसाधये उनके यहाँ तीर्थामाव में अपना तीर्थ से बाहर (घर पर) वय नस से लान करने की भी व्यवस्था की गई है। सम्भव है उसका एकान्त खेकर ही भटारकमी को यह भामा नारी करने की सूमी हो, जो मान्य किये जाने के योग्य नहीं । अन्यथा, हिन्दुओं के यहाँ भी दोनों प्रकार के स्नान का विधान पाया जाता है। यथाः
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[३१] गित्यं नैगिधिक रनॉन क्रिया मलकंर्पणम् ।। तीर्थामा तु तिन्यमुध्योर्दिकपद "यमः। कुनिमाविक जाने शीतादिकाम्यमेव च।' निमय याविषयथासविसमाचरेत् । चंद्रिका
- इति ईस्मृतिरनाकरे ... । • भट्टारकी ने अपने वक्त पद्य से पहले 'पापा स्वभावता शुद्धा नाम का जो पच गर्म जल से मान की प्रशंसा में दिया है अथों से उठाकर रक्खा है। स्मृतिरनाकर मैं, वसाधारण से पाठभेद के साप, प्रायः ज्यों का स्खों पाया जाता है और उसे पातुरविषयक-रोगी तयों अशक्तों के मान सम्बंधी-सूचित किया है, जिसे भटाएकनी ने शायद नही समझा और वैसे ही अगले पथ में समूचे गृहस्नान के लिये सदा को ॐडे जल का निषेध कर दिया। -- ..
। शवत्वं का अदभुत योग । " (६) दूसरे अध्याय में, स्नान का विधान करते हुए, महारकानी लिखते है कि जो गृहस्पं सात दिन तक जल से स्नान नहीं करता पाइ शूद्गत्व को प्राप्त हो जाता है-शूद्र बन जाता है । यथाः-- : : सप्ताहान्यम्मसाऽखायी गृही प्रदत्वमाप्नुयात् ॥ ७॥ . ... शुदल के इस भादमुल योग प्रणा हल विधान को देखकर बड़ा
आश्चर्य होता है और समझ में नहीं आता कि एक ब्राह्मण, क्षत्रिय न्या-वैश्य महज़ सात दिन के खान न करने से कैसे शूद्र बन जाता हैं।
वह पाठभेव 'शुद्धा की जगह मेध्याः ' वन्हितापिता की जगह वन्हिसंयुना और अतः' की जगह 'तेन इतना ही है जो कुछ माप-भव नहीं रखता
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[१९१] कहाँ से शव उसके भीतर घुस आता है ? क्या. शहमा कर्म मार्ग न करना है ! अपना शव लान नहीं किया करत ! शूद्रों को बराबर स्नान करते हुए देखा जाता है, और उनका फर्ग स्लान न करना कहीं भी नहीं लिखा। स्वयं महारानी ने सातवें अध्याय में शो का वर्ग निक्षणों की सेवा तथा शिल्प कर्म बताया है और यहां तक लिखा है किये चारों पर्या अपने अपने नियत कर्म के विशेष से कहे गये हैं। जैनधर्म को पालन करने में इन.. चारों वणों के मनुष्य परम समर्थ है और उसे पालन करते हुए वे सब परस्पर में माई गाई के समान हैं । यथा--
"विपक्षप्रियवैश्यानां वास्तु सेवका मता ॥ १० ॥
तेषु माना विध शिल्पं कर्म प्रोकं विशेषतः ॥४॥ विप्रतत्रियविदादः प्रोकाः क्रियाधिशेषतः। .
जैनधर्म पर.शक्षास्ते सर्व बान्धवोपमा १४२॥ ..फिर आपका यह लिखना कि सात दिन तक लान न करने से, कोई शुद्ध हो जाता है, कितना असंगत है और सदों के प्रति. जितना तिरकार.फा घोतक तथा अन्यायमय है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते, हैं। हाँ, यदि कोई विज असें तक शिल्पादि कर्म करता रहे तो उसे भधारकजी अपने लक्षण के अनुसार यह कह सकते थे परन्तु स्लान न करना कोई शंद कर्म नहीं है-उसके लिये रोगादिक के भनेक कारण समी के लिये हो सकते हैं और इसलिये महन उसकी वजह से किसी में शदत्व का योग नहीं किया जा सकता। मालूम जहासिति दिन के बाद यदि वह गृहस्प फिरनहाना शुरू कर देवे तो महारानीको दृष्टि में उसका वह शावना दूर होता है या कि नहीं है, पंप में इस बाबत कुछ लिखा नहीं ... TARA ..!" (७) तीसरे अध्याय में महारकली. उस गनुष्य को जीवत 3 के लिये शर ठहराते हैं और गरने पर कुत्ते की योनि में जामाबताते
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[१११] है जो सध्याकाल, प्राप्त होने पर भी संध्या नहीं करता है। पया:
सपाकाले तु सम्मा सन्ध्यां नैवमुपासते। . जीवमानो भवेच्छद्रः मृतः ज्वा चैष जायते ॥ १४ ॥
यहाँ भी पूर्ववत् शुद्रत्व का अंद्भुत योग किया गया है और इस से यह भी ध्वनित होता है कि शुद्ध को संध्योपासन का अधिकारी नही समझा गया । परन्तु यह हिन्दूधर्म की शिक्षा है जैनधर्म की शिक्षा नहीं। बैनधर्म के अनुसार शूद्र संध्योपासन के अधिकार से वंचित नहीं रखा जा सकता । जैनधर्म में उसे नित्य पूजन का अधिकार दिया गया है पह त्रिसंध्या-सेवा का अधिकारी है और ऊँचे दर्जे का प्रामक हो सकता है। इससे सोमदेवसरि तथा पं० श्राशाघरनी ने मी भाचारादि की शुद्धि को प्राप्त हुए शूद्र को प्रामाणादिक की तरह से धर्मक्रियामों के करने का अधिकारी बतलाया है। जैसाकि उनके निम्न वाक्यों से प्रकट है--
"भाबागऽनषद्यत्वं शुचिपकार शरीरशुद्धिय करोति खा. मपि देवद्विजातिपरिकर्मसु योग्यान ।" . जातिवाक्यामृत ।
"अयशवस्याप्याहाराविधिमतो मासायाविषयमक्रियाकारित पोषितमनुमन्यमाना माह- ...
• छनोभयुपस्कराचारवपुष्शयास्तु साहय।। . चाया होनापिकासाविलम्बी बागास्ति धर्ममा ।"
-सागारधर्मास्व सटीक इसके सिवाय, महारकजी ऊपर सद्धृत किये हुए पथ में० १४२ में जब स्वयं यह बतक्षा चुके हैं कि शन्द्र भी जैन धर्म का पालन करने में 'परम समर्थ है तो फिर के संध्योपासन कैसे नहीं कर सकते !
प्रद्रों के इस सब अधिकारको अच्छी तरह से मारने के लिये देखक की लिखीपुर : जिनुपजाधिकार-मीमांसा मामक पुस्ताको देखना चाहिये।
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[११३]. और कैसे यह कहा जा सकता है कि जो संध्यासमय संध्योपासन नहीं करता वह जीवित शुद्ध होता है । मालूम होता है यह सब कुछ लिखते हुए मधरकनी जैनत्व को अथवा जैन धर्म के स्वरूप को बिजकल ही मूल गये हैं और उन्होंने बहुधा आँख मीच कर हिन्दू धर्म का अनुसरण किया है। हिन्दुओं के यहाँ शब्दों को संध्योपासन का अधिकार नहींवे बेचारे वेदमन्त्रों का उच्चारण तक नहीं कर सकते इसलिये उनके यहाँ ऐसे वाक्य बन सकते है। यह वाश्य मी उन्हीं के वाक्यों पर से बनाया गया भयमा उन्हीं के ग्रंथों पर से उठा कर रखा गया है । इस वाक्य से मिलता जुलता 'मरीचि ऋषि का एक वाक्य इस प्रकार है:
संध्या येन न विपाता संध्या येनानुपासिता। ।' जीवमानो भवच्छता मृत श्वा चामिजायते ।
-श्रान्तिकसूत्रापतिः । इस पद्य का उत्तरार्ध और महारकली के पब का उत्तरार्ध दोनों एक हैं और यही उत्तरार्ध नैनदृष्टि से भापचि के योग्य है। इसमें मर कर कुत्ता होने का जो विधान है वह भी जैन सिद्धान्तों के विरुद्ध है। संध्या के इस प्रकरण में और भी कितने ही पथ ऐसे हैं जो हिन्दू धर्म के प्रयों से ज्यों के त्यों उठा कर अथवा कुछ बदल कर रक्खे गये हैं। जैसे 'उत्तमा तारकोपेतान्होरांनेश्व यासन्धि'
और राष्ट्रभंगे पंचोमे' आदि पछ । और इस तरह पर बहुधा हिन्दू धर्म की भौंधी सीधी नकश की गई है।
(८) ग्यारहवें अध्याय में 'शवत्व का एक और भी विचित्र योग किया गया है और वह यह कि 'जो कन्या विवाह संस्कार से पहले पिता के घर पर ही रजस्वला हो जाय उसे 'शुदा (कृपली)' बत-, लाया गया है और उससे बो विवाह करे उसे शादापति । वृपवीपति) की संज्ञा दी गई है। यथा
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[११४] पितुहे तु या कन्या रजः पश्येदसंस्कृता ।
सा कन्या वृपक्षी या तत्पतिवृषलीपतिः ॥ १६ ॥ मालूम नहीं इसमें कन्या का क्या अपराध समझा गया और उसके खी-धर्म की स्वाभाविक प्रवृत्ति में शब्द की वृत्ति का कौनसा संयोग हो गया जिसकी वजह से वह वेचारी 'शदा' करार दी गई !! इस प्रकार की व्यवस्था से जैनधर्म का कोई सम्बन्ध नहीं। यह भी उसके विरुद्ध हिन्दूधर्म की ही शिक्षा है और उक्त लोक भी हिन्दूधर्म की चीज हैहिन्दुओं की विष्णुसंहिता * के २४वें अध्याय में वह नं० ११ पर दर्ज है, सिर्फ उसका चौथा चरण यहाँ बदला हुआ है और 'पितृवेश्मन' की जगह 'पितुहे तु बनाया गया अथवा पाठान्तर जान पड़ता है। प्रायः इसी भाशय के दो पद्य 'उद्वाहतत्व' में भी पाये जाते हैं, जिन्हें शब्दकल्पद्रुमकोश में निम्नप्रकार से उद्धृत किया है
"पितुर्गेहे च या कन्या रजः पश्यत्यसंस्कृता!...
भ्रूणहत्या पितुस्तस्याः सा कन्या वृपली स्मृता।" "यस्तु तां घरयेत्कन्यां ब्राह्मणो शानदुबलः।
अमायमपतियं तं विद्याद् वृषलीपतिम् ॥" इसके सिवाय, ब्रह्मवैवर्तपुराण में मी 'यदि शूद्रां व्रजद्विमो वृषलीपतिरेव सः' वाक्य के द्वारा शूद्भागामी ब्राह्मण को वृषलीपति ठहराया है । इस तरह पर यह सब हिन्दू धर्म की शिक्षा है, जिसको महारकजी ने जैन धर्म के विरुद्ध अपनाया है। जैन धर्म के अनुसार किसी व्यक्ति में इस तरह पर शुद्धत्व का योग नहीं किया जा सकता । यदि ऐसे भी शगल का योग होने लगे तब तो शुद्ध नियों की ही नहीं किन्तु पुरुषों की भी संख्या बहुत बढ़ जाय और लाखों कुटुम्बों को शूद्र-सन्तति में परिगणित करना पड़े 11
देखो वंगवासी प्रेस काकवाकासं०१६६४ का छपाहुप्रासंस्करण।
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[ ११५ 1 नरकालय में वास ।
(१) शायद पाठक यह सोचते हों कि कन्या यदि विवाह से पहले रजस्वला हो जाती है तो उसमें कन्या का कोई अपराध नहीं - वह अपराध तो उस समय से पहले उसका विवाह न करने वालों का है जिन्हें कोई सजा नहीं दी गई और बेचारी कन्या को नाइक शूद्रा (वृषली ) करार दे दिया गया ! परंतु इस चिंता की बरूरत नहीं, महारकजी ने पहले ही उनके लिये कड़े दण्ड की व्यवस्था की है और पीछ कन्या को शूद्रा ठहराया है । व्याप उक्त पद्य से पूर्ववर्ती पद्म में ही लिखते हैं कि यदि कोई अविवाहिता कन्या रजस्वला हो जाय तो समझ लीजिये कि उसके माता पिता और भाई सब नरकालय में पदे – अर्थात, उसके रनस्वला होते ही उन सब के नरकवास की रजिस्ट्री हो जाती है— शायद नरकायु बँध जाती है और उन्हें नरक में जाना पड़ता है । यथाः
नसंस्कृता तु या कन्या रजसा वेत्परिप्लुता ।
भ्रातरः पितरस्तस्पाः पतिता नरकालये ॥ १६५ ॥ पाठकगण | देखा, कितना विलक्षण, भयंकर और कठोर मॉर्डर है ! क्या कोई शाखा पडित जैन सिद्धान्तों से --- जैनियों की कर्म फिलॉसॉफी से इस ऑर्डर अथवा विधान की संगति ठीक बिठला सकता है ! अथवा यह सिद्ध कर सकता है कि ऐसी कन्याओं के माता पिता और भाई अवश्य नरक जाते हैं ? कदापि नहीं । इसके विरुद्ध में सम्प प्रमाण नैनशाखों से ही उपस्थित किये जा सकते हैं। उदाहरण के लिये, यदि भट्टारकजी की इस व्यवस्था को ठीक माना जाय तो कहना होगा कि ब्राह्मी और सुन्दरी कन्याओं के पिता भगवान ऋषभदेव, माताएँ यशस्वती ( नंदा ) तथा सुनंदा और भाई बाहुबलि तथा भरत चक्र
* यदि उनमें से पहिले कोई स्वर्ग चले गये हों तो क्या उन्हें मी खिंच कर पीछे से नरक में जाना होगा ? कुछ समझ में नहीं आना !
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वर्ती श्रादिक सब नरकं गये ; क्योंकि ये दोनों कन्याएँ युवावस्था में घर पर अविवाहिता रहीं और तब वे रजस्वला भी हुई, यह स्वाभाविक है। परंतु ऐसा कोई भी जैनी नहीं कह सकता। सब जानते हैं कि भगवान ऋषभदेव और उनके सब पुत्र निर्वाण को प्राप्त हुए और उक्त दोनों माताएँ भी ऊँची देवगति को प्राप्त हुई । इसी तरह सुलोचना भादि हबारों ऐसी कन्याओं के उदाहरण भी सामने रक्खे जा सकते हैं जिनके विवाह युवावस्था में हुए जब कि वे रनोधर्म से युक्त होचुकी थीं
और उनके कारण उनके माता पिता तथा माइयों को कहीं भी नरक जाना नहीं पड़ा | अतः भट्टारकली का यह सब कथन जैन धर्म के अत्यंत विरुद्ध है और हिंदूधर्म की उसी शिक्षा से सम्बंध रखता है जो एक अविवाहिता कन्या को पिता के घर पर रजस्वला हो जाने पर श्रद्धा ठहराता है । इस प्रकार के विधिवाक्यों तथा उपदेश ने ही समान में वाल-विवाह का प्रचार किया है और उसके द्वारा समाज तथा धर्म को मारी, निःसीम, अनिवर्चनीय तथा कल्पनातीत हानि पहुँचाई है । ऐसे जहरीले उपदेश जबतक समान में कायम रहेंगे,
और उनपर अमल होता रहेगा तबतक समान का कमी उत्यान नहीं हो सकता, वह पनप नहीं सकता और न उसमें धार्मिक जीवन ही मा सकता है। ऐसी छोटी उम्र में कन्या का विवाह महज उसी के लिये घातक नहीं है बल्कि देश, धर्म और समान तीनों के लिये घातक है। वास्तव में माता पिता का यह कोई खास फार्च अथवा कर्तव्य नहीं है कि वे अपनी संतान का विवाह कर ही करें और पह मा छोटी उम्र में। ' उनका मुख्य कर्तव्य तथा धर्म है संतान को मुशिक्षित करना, अनेक प्रकार की उत्तम विधाएँ तथा कलाएं सिखसाना, खोटे संस्कारों से उसे अलग रखना, उसकी शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों को विकसित करके उनमें दृद्धता लाना, उसे जीवनयुद्ध में स्थिर रहने तथा विजयी
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[११७] होने के योग्य बनाना अथवा अपनी संसार यात्रा का सुख पूर्वक निर्वाह करने की क्षमता पैदा कराना और साथ ही उसमें सत्य, प्रेम, धैर्य, उदारता, सहनशीलता तथा परोपकारता आदि मनुष्योचित गुणों का संचार कराके उसे देश, धर्म तथा समाज के लिये उपयोगी बनाना । और यह, सब तभी हो सकता है जबकि ब्रह्मचर्याश्चम के काल को गृहस्थाश्रम का काम न बनाया जावे अथवा विवाह जैसे महल तथा जिम्मेदारी के कार्य को एक खेल या तमाशे का रूप न दिया जाप, जिसका दियाजाना नाबालिगों का विवाह रचाने की हालत में नहर समझा जायगा । खेद है भट्टारकजी ने इन सब बातों पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और वैसे हो दूसरों की देखादेखी उटपटांग लिख मारा जो किसी तरह भी मान्य किये जाने के योग्य नहीं है।
नन की विचित्र परिभाषा। (१०) तीसरे अध्याय में, बिना किसी पूर्वापर सम्बन्ध अथवा नरू रत के, 'नग्न' की परिमापा बतलाने को ढाई लोक निम्न प्रकार से दिये हैं
अपवित्रपटो नो नमश्चार्षपटा स्मृतः। नमेव मनिनोद्वासी मनः कौपीनपानपि ॥२१॥ कपायवाससानो नश्वानुत्तरीयमान् । अन्ताकच्छो वहिकच्छो मुचकच्चस्तथैव च ॥२२॥ ' .
सामान ख विशेयो दस नमः प्रकीर्तिता। - इन छोकों में भट्टारकजी ने दस प्रकार के मनुष्यों को नग्न बतलाया है-अर्याद, जो लोग अपवित्र बच पहने हुए हों, भाषा वज पहने हो, मैले कुचले यस पहने हुए हों, लंगोटी लगाए हुए हों, भगवे वस्त्र पहने हुए हों, महज़ धोती पहने हुए हो, मीतर काच लगाए हुए हों, बाहर कच्छ लगाए हुए हों, कच्छ बिलकुल न लगाए हुए हों, और पक्ष से विशकुल रहित हों, उन सब को 'भग्न' ठहराया
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[११] है। मालूम नहीं महारानी ने नग्न की यह परिभाषा कहाँ से की है। प्राचीन जैन शाखों में तो खोजने पर भी इसका कहीं कुछ पता चलता नहीं !! भाम तौर पर जैनियों में 'जातरूपधरो नना' की प्रसिद्धि है । भट्टाकलंकदेष ने मी रानवार्तिक में 'जातरूपधारणं नाग्न्य' ऐसा शिखा है। और यह अवस्था सर्व प्रकार के वनों से रहित होती है। इमीसे अमरकोश में भी 'नग्नोऽवासा दिगम्बरे वाक्य के द्वारा वक्षरहित, दिगम्बर और नग्न तीनों को एकार्थवाचक बताया है। इससे भट्टारकनी की उक्त दशमेदात्मक परिभाषा बड़ी ही विचित्र जान पड़ती है। उनके दस भेदों में से अर्धवचधारी और कौपीनवान्
आदि को तो किसी तरह पर 'एकदेशनग्न' कहा मी जासकता है परन्तु जो लोग बहुत से मैले कुचैखे या अपवित्र धा पहने हुए हों अथवा इससे भी बढ़कर सर से पैर तक पवित्र भगवे वन धारण किये हुए हों उन्हें किस तरह पर 'नग्न' कहा नाय, यह कुछ समझ में नहीं माता !! ज़रूर, इसमें कुछ रहस्य है । भट्टारक योग बन पहनते हैं, बहुधा भगवे (कषाय) पक्ष धारण करते हैं और अपने को 'दिगम्बर मुनि कहते हैं। सभव है, उन्हें नग्न दिगम्बर मुनियों की कोटि में खाने के लिये ही यह नग्न की परिभाषा गढ़ी गई हो। अन्यया, भगवे बस वालों को तो हिन्दू अन्थों में भी नग्न लिखा हुआ नहीं मिलता। हिन्दुओं के यहाँ पंच प्रकार के नग्न बतलाये गये हैं और वह पंच प्रकार की संख्या भी विभिन्न रूप से पाई जाती है । ययाः
"जिकच्छ कच्छशेषश्च मुक्तकणस्तथैव च । एकवाला अवासाय नमः पंचविधः स्मृतः ।
-आदिक तत्व। "मो मखिनवनः स्यानो नीलपटस्तथा। विकदयोंऽनुत्तरीयच नमश्चापन एवच ॥
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११६] "अकच्चा पुछाच्छो वाऽद्विकच्छ कटिषष्टितः। कौपीनकधरबंध नमः पंचविधः स्मृतः ।।
स्मृतिरक्षाकर। जान पड़ता है हिन्दू ग्रंथों के कुछ ऐसे खोकों पर से ही भारकामी ने अपने लोकों की रचना की है और उनमें 'कषायवाससा नम:' जैसी कुछ बातें अपने मतलब के लिये और शामिल करती हैं।
अधौत का अद्भुत लक्षण। (११) तीसरे अध्याय में ही भट्टारकनी, 'अधौत' का लक्षण बताते हुए, शिखते हैं
खोतं लिया घौत शुदधीतं च चेटकैः। पालकैयौतमक्षारपौतमिति माध्यने ॥३२॥ अर्थात् जो (वन) कम धुला हुभा हो, किसी बी काधोया हुआ हो, शवों का धोया हुआ, हो, नौकरों का धोया हुमा हो,या अज्ञानी बालकों का धोया हुमा हो उसे 'भधौत'-बिना घुला हुमा-कहते हैं।
इस लक्षण में कम धुले हुए और अज्ञानी बालकों के धोये हुए वों को अधौत कहना तो कुछ समझ में माता है, परन्तु नियों, शनों
और नौकरों के धोये हुए बखों को भी जो अधौत बताया गया है वह किस आधार पर भवलाम्बित है, यह कुछ समझ में नहीं भाता ! क्या ये लोग वन धोना नहीं जानते अथवा नहीं जान सकते जरूर जामते हैं और थोड़े से ही अभ्यास से बहुत अच्छा कपमा धो सकते हैं। शों में धोनी (रजक) तो अपनी स्त्रीसहित बल धागे का भी काम करता है और उसके धोये हुए पत्रों को सगी जोग पानते हैं। इसके सिवाय, ला लिया तथा नौकर बस धोते हैं और उमकं धोए पुए पर लोक में अधीत नहीं समझे नाते । फिर नहीं मालूम गारपानी निस न्याय भयवा सिद्धान्त से ऐसे लोगों के द्वारा भुने हुए शो से वस को भी मधीत कहने का साहस करते हैं पाप शिका
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[१२०] त्रियों तथा नौकरों को मलिनता का पुन समझते है जो उनके स्पर्श से धौत वन भी भवौत हो जाते हैं। यदि ऐसा है तब तो बड़ी गड़बड़ी मचेगी और घर का कोई भी सामान पवित्र नहीं रह सकेगा--समी को उनके स्पर्श से अपवित्र होना पड़ेगा । और यदि वैसा नहीं है तो फिर दूसरी कोई भी ऐसी पजह नहीं हो सकती जिससे उनके द्वारा अच्छी तरह से धौत पक्ष को मा अधौत करार दिया जाय । वास्तव में इस प्रकार का विधान स्त्री जाति श्रादि का स्पष्ट अपमान है,
और वह जननीति अथवा जैनशासन के भी विरुद्ध है ।जनशासन का त्रियों तथा शद्रों के प्रति ऐसा घृणात्मक व्यवहार नही है, वह इस विषय में बहुत कुछ उदार है । हाँ, हिन्दू-धर्म की ऐसी शिक्षा जरूर पाई जाती है। उसके 'दक्ष ऋषि नियों तथा शद्रों के घोए हुये वन को सब कामों में गहित बतलाते हैं । यथा
पद्धति लिया धोतं शुद्धीतं तथैव च। प्रवारितं यमादिशि गर्हित सर्वकर्मसु ॥ ।
-आन्हिक सूत्रावलि ' ' इस श्लोक का पूर्वार्ध और महारकनी के श्लोक का पूर्षि दोनों प्रायः एक है, सिर्फ 'तथैव' को मट्टारकजी ने 'चेटकै में बदला है
और इस परिवर्तन के द्वारा उन नौकरों के धोए हुये वस्त्रों को भी तिरस्कृत किया है जो शब्दों से मिन 'त्रैवर्णिक ही हो सकते हैं!
इसीतरह हिन्दुओं के 'कर्मलोचन मंथ में थी तथा धोबी के धोए हुये बस को 'अधौत' करार दिया गया है। जैसा कि 'शब्दकल्पद्रुम में उद्धृत उसके निम्न वाक्य से प्रकट है
पद्धावं लिया धौतं यचोतं रसकेन ।
अधोतं तद्विजानीयाहशा दक्षिणपश्चिमे ।। ऐसे ही हिन्दू-वाक्यों पर से मट्टारकजी के उक्त पाक्य की सृष्टि 'हुई जान पड़ती है। परन्तु इस घृणा तथा वहम के व्यापार में महारफनी
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[११] हिन्दुओं से एक कदम और भी आगे बढ़े हुए मालूम होते हैं उन्होंने
वार्षिक सेवकों के धोए हुये बों को ही तिरस्कृत नहीं किया, बल्कि पहले दिनके खुद के धोए हुये पयों को भी तिरस्कृत किया है। श्राप लिखत है 'अधीत (बिना धाया हुआ), काव-धीत (शिल्पि शवों का धोया दुमा) और पूर्वपुर्धात (पहले दिन का धोया हुआ) ये तानों प्रकार के वक सर्व कार्यों के अयोग्य है किसी भी काम को करते हुये इनका व्यवहार नहीं करना चाहिये । यथा
अघौत कारुधीनं या पूर्वाधातमेव च।
अयमेतदसम्बंधं सर्वकर्मसु वर्जयेत् ।। ३१ ।। पाठकगण | देखा, इस बम का भी कहीं कुछ ठिकाना है ।। मालूम नहीं पहले दिन धोकर बहतियात से रक्खे हुए कपड़े भी अगले दिन कैसे बिगड़ जाते है। क्या हवा लगकर खराब हो जाते हैं या घरे घरे घुस जाते हैं । और जब वह पहले दिन का पोया हुआ वस्त्र अगले दिन काम नहीं पा सकता तो फिर प्रात: संध्या भी कैसे हो सकेगी, जिसे गहारकनी ने इसी अध्याय में सूर्योदय से पहले समात कर देना लिखा है ! क्या प्रातःकाल उठकर धोये हुए वस्त्र उसी वक्त सूख सकेंगे, या गोले पत्रों में है। संध्या करनी होगी ! खेद है महारकजी ने इन सत्र वालों को कुछ भी नहीं सोचा और न यही खयाल किया कि ऐसे नियम से सण्य का कितना दुरुपयोग होगा! सच है वहम की गति बड़ी ही विचित्र है-उसमें मनुष्य का विवेक बेकार सा शेजाता है। उसी घहम का यह भी एक परिणाम है जो महारकजी ने प्रधौत के लक्षण में शुदधीत आदि को शामिल करते हुये भी यहाँ कारबीत' का एक तीसरा भेद अलग वर्णन किया है। अन्यथा, शवधीत और चेटकौत से गिन कारधीत' कुछ भी नहीं रहता । अधौत के लक्षण की मौजूदगी में उसका प्रयोग विनफुल व्यर्थ और खालिस वहम जान पड़ता है। इस प्रकार के यहां से यह गंध बहुत कुछ भरा पड़ा है।
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[ ११२] पति के विलक्षण धर्म ।
· ( १२ ) आठवें अध्याय में, गर्मिणी स्त्री के पति धर्मों का वर्णन करते हुए, भट्टारकजी लिखते हैं---
पुंसो भार्या गर्मियी यस्य चासी सुनोचीलं क्षौरकर्मात्मना । गेद्दारंभ स्तंभसंस्थापनं च वृद्धिस्थानं दूरयात्रां न कुर्यात् ॥८६॥ शवस्य वाहनं तस्य दहनं सिन्धुदर्शनम् । पर्वतारोहणं चैव न कुर्याद्रर्मिणीपतिः ॥ ८७ ॥
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अर्थात् — जिस पुरुष की स्त्री गर्भवती हो उसे (उस स्त्री से उत्पन्न ) पुत्र का चौलकर्म नहीं करना चाहिये, स्वयं हजामत नहीं बनवानी चाहिये, नये मकान की तामीर न करनी चाहिये, कोई खंभा खड़ा न करना चाहिये, म वृद्धिस्थान बनाना चाहिये और न कहीं दूर यात्रा को ही जाना चाहिये । इसके सिवाय, वह मुर्दे को न उठाए, न उसे जलाए, न समुद्र को देखे और न पर्वत पर चढ़े।
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पाठकगण ! देखा कैसे विलक्षण धर्म है !! इनमें से दूरयात्रा को न जाने भैंसी बात तो कुछ समझ में भा भी सकती है परन्तु गर्मावस्था पर्यंत पति का हजामत न बनवाना, कहीं पर भी किसी नये मकान की रचना अथवा वृद्धिस्थान की स्थापना न करना, समुद्र को न देखना और पर्वत पर न चढ़ना जैसे धर्मों का गर्भ से क्या सम्बन्ध है और उनका पालन न करने से गर्म, गर्भिणी अथवा गर्भिणी के पति को क्या हानि पहुँचती है, यह सब कुछ भी समझ में नहीं आता । इन धर्मों के अनुसार गर्भिणी के पति को भाठ नौ महीने तक नख-केश बढ़ाकर रहना होगा, किसी कुटुम्बी अथवा निकट सम्बन्धी के मरजाने पर आवश्यकता होते हुए भी उसकी रथी को कन्धा तक न लगाना होगा, वह यदि, बम्बई जैसे शहर में समुद्र के किनारे तट पर रहता है तो उसे वहाँ का अपना वासस्थान छोड़ कर अन्यत्र जाना होगा अथवा
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[१२३]
श्रीखों पर पट्टी बाँध कर रहना होगा जिससे समुद्र दिखाई न पले, वह निकट की ऐसी तीर्थयात्रा भी नहीं कर सकेगा जिसका पर्वत-कूटों से सम्बंध हो, और अगर वह मंसूरी - शिमक्षा जैसे पार्षतथि प्रदेशों का रहने माता है तो उसे उस वक्त उन पर्वतों से नीचे उत्तर आभा होगा, क्योंकि वहाँ रहते तथा कारोबार करते वह पर्वतारोहण के दोष से बच नहीं सकता । परन्तु ऐसा करना कराना, श्रथवा इस रूप से प्रवर्तना कुछ भी इष्ट तथा युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । जैनसिद्धान्तों तथा जैनों के भाचार-विचार से इन धर्मों की कोई संगति ठीक नहीं बैठती और न ये सब धर्म, जैनदृष्टि से, गर्मिणोपत्ति के कर्तव्य का कोई आवश्यक भग जान पड़ते हैं । इन्हें भी महारकत्नी ने प्रायः हिन्दू-धर्म से लिया है। हिन्दुओं के यहाँ इस प्रकार के कितने ही कोक पाये जाते हैं, जिनमें से दो श्लोक शब्दकल्पद्रुमकोश से नीचे उद्घृत किये जाते हैं" क्षीरं शषानुगममं मचतनं च युद्धादिवास्तुकरणं त्यतिदूरधानं । बज्राहमीपनयनं जलधेय गाहमायुः क्षषार्थमिति यर्मिणिकापतीसाम् ॥” - मुहसंदीपिका ।
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"दहनं वपनं चैष चौखं वै गिरिरोहसम् ।
नाव बारोहणं चैव पयेर्निकीपतिः ॥"
रखडे, मालवः । इनमें से पहले श्लोक में चोर (हथामत) आदि कमों को जो गर्भिणी के पति की आयु के क्षय का कारण बतलाया है वह चैनसिद्धांत के विरुद्ध है। और इसलिये हिंदू-धर्म के ऐसे कृत्यों का अनुकरण करना जैनियों के लिये श्रेयस्कर नहीं हो सकता जिनका उद्देश्य तथा शिक्षा बैन-सत्यज्ञान के विरुद्ध है। उसी उद्देश्य तथा शिक्षा को लेकर उनका अनुष्ठान करना, निःसंदेह, मिध्यात्व का वर्धक है । खेद है महारकमी मे इन सब बातों पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया और वैसे ही बिना सोचे समझे अपना हानि-नाम का विचार किये दूसरों को न कर बैठे !!
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[ १२४] प्रासन की अनोखी फलकल्पना।' • (१३) तीसरे अध्याय में, संध्योपासन के समय चारों ही आश्रम वालों के लिये पंचपरमेष्ठी के जप का विधान करते हुए, महारकजी ने कुछ पासनों का जो फज वर्णन किया है उसका एक श्लोक इस प्रकार है:
शासने परिवः स्यात्पाषाणे ब्याधिपीडितः । धरणां दुबसंभूतिर्भािग्य दारुकासने ॥ १०७ ॥ इस श्लोक में यह बताया गया है कि (नप के समय) बॉस के आसन पर बैठने से मनुष्य दरिद्री, पाषाण के आसन पर बैठने में व्याधि से पीड़ित, पृथ्वी पर ही आसन बगाने से दुःखों का उत्पन्न-कर्ता और काष्ठ के आसन पर बैठने से दुर्भाग्य से युक्त होता है। · भासन की यह फलकल्पना बड़ी ही अनोखी जान पड़ती है ।मालूम नहीं, महारकजी ने इसका कहाँ से अवतार किया है । प्राचीन ऋषिप्रणीत किसी मी जैनागम में तो ऐसी फल-व्यवस्था देखने में भाती नहीं । प्रत्युत इसके, ज्ञानार्णव में योगिराज श्रीशुमचंद्राचार्य ने यह स्पष्ट विधान किया है कि 'समाधि (उत्तम मान) की सिद्धि के लिये काष्ठ के पद पर, शिलापट्ट पर, भूमि पर अथवा रेत के स्थल पर मुद्ध आसन लगाना चाहिये। यथाः
, दारुप शिलापहे भूमौ वा सिंकतास्थले। • समाधिसिद्धये धीरो विवध्यात्मुस्थिरासनम् ॥ २८॥
पाठकगण | देखा, निन काष्ठ, पाषाण तथा भूमि के श्रासनों को योगीश्वर महोदय ने समाधि जैसे महान कार्य के लिये अत्यंत उपयोगी-- 'उसकी सिद्धि में खास तौर से सहायक बताया है उन्हें ही महारकली क्रमशः दौर्माग्य, व्याधि और दुःख के कारण ठहराते हैं ! यह कितना विपर्यास भय भागम के विरुद्ध कथन है। उन्हें ऐसा प्रतिपादन करते हुए इतना मी स्मरण न हुआ कि इन भासनों पर बैठकर असंख्य योगीजन सद्गति
पवा कल्याण-परम्परा को प्राप्त हुए हैं। प्रस्तु; हिन्दूधर्म में भी इन बासनों
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[१२]
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को बुरा अपना इस प्रकार के दुष्परिक्षामों का कारण नहीं बतलाया है बल्कि 'उत्तम' तथा 'प्रशस्त' 'मासन लिखा है। और इसलिये भासन की वक फल-कल्पना अधिकांश में भट्टारकजी की प्रायः अपनी ही कल्पना जान पड़ती है, जो निराधार तथा निःसार होने से कदापि मान्य किये जाने के योग्य नहीं । और भी कुछ भासनों का फल भहारकली की निजी कल्पना द्वारा प्रसूत हुया जान पड़ता है, जिसके विचार को यहाँ छोड़ा जाता है। जूठन न छोड़ने का भयंकर परिणाम ।
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(१४) बहुत से लोग, जिनमें त्यागी और ब्रह्मचारी भी शामिल है, यह समझे हुए हैं कि जूठन नहीं छोड़ना चाहिये - फुसे को भी अपना झूठा भोजन नहीं देना चाहिये और इसलिये वे कभी जूठन नहीं छोदते। उन्हें यह जानकर आश्चर्य होगा कि महारकली ने ऐसे लोगों के लिये जो खा पीकर भरवन खाली छोड़ देते हैं उनमें कुछ नूठा भोजन तथा पानी रहने नहीं देते --- यह व्यवस्था दी है कि ' वे जन्म जन्म में भूख प्यास से पीड़ित होंगे; जैसा कि उनके निक्ष व्यवस्था पथ से प्रकट है—
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भुक्त्वा पीत्वा तु वत्पावं किं व्यजति यो नरा । सुत्पिपासात मखन्मनि जन्मनि ॥६-२२५ ॥
मालूम नहीं महारकबी ने सूठन म छोने का यह भयंकर परिणाम कहाँ से निकाशा है | अथवा किस आधार पर उसके लिये ऐसी दवडव्यवस्था की घोषणा की है !! जैन सिद्धान्तों से उनकी इस व्यवस्था का कोई समर्थन नहीं होता कोई भी ऐसा व्यापक नियम नहीं पाया जाता बो ऐसे निरपराधियों को जन्म जन्म में भूख प्यास की वेदना से पीक्षित रखने के लिये समर्थ हो सके। हाँ, हिन्दू धर्म की ऐसी कुछ कल्पना चर है और उक्त पण भी प्रायः हिन्दू धर्म की ही सम्पति जान पड़ता है। वह साधारण से पाठ -मेद के साथ उनके स्मृतिरत्नाकर में उद्धृत मिलता है। वहीं इस पथ का पूर्वार्ध 'भुक्त्वा पीत्वा च यो मर्त्यः शून्यं
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[१२६ पात्रं परित्यजेत् ऐसा दिया है और उत्तरार्ष ज्यों का त्यों पाया जाता है-सिर्फ 'नर' के स्थान पर 'भूय पद का उसमें भेद है। और इस सब पाठ-भेद से कोई वास्तविक अर्थ-भेद उत्पन्न नहीं होता। मालूम होता है भट्टारकजी ने हिन्दुओं के प्रायः उक्त पथ पर से ही अपना यह पत्र बनाया है अथवा किसी दूसरे ही हिंदू ग्रंथ पर से उसे ज्यों को उठाकर रखा है।
और इसतरह पर दूसरों द्वारा कल्पित हुई एक व्यवस्था का अन्धाऽनुसरण किया है । मोननप्रकरण का और भी बहुतसा कपन अथवा क्रियाकांड इस अभ्याय में हिन्दू प्रथों से उठाकर रखा गया है और उसमें कितनी ही बातें निरर्थक तथा खाली वहम को लिये हुए हैं।
देवताओं की रोकथाम (१५) हिन्दुओं का विश्वास है कि घर उधर विचरते हुये राक्षसादिक देवता भोजन के सत्व अथवा अन्नबल को हर चेते हैं-खा जाते हैं और इसलिये उनके इस उपद्रव की रोकथाम के वास्ते उन्होंने मंडल बनाकर भोजन करने की व्यवस्या की है। वे समझते हैं कि इस तरह गोल, त्रिकोण अथवा चतुष्कोणादि मंडलों के भीतर भोजन रख कर खाने से उन देवताओं की प्रहण-शक्ति रुक जाती है और उससे मोजन की पूर्णशक्ति बनी रहती है । महारकबी ने उनकी इस व्यवस्था को भी उन्हीं के विश्वास अथवा उद्देश्य के साथ अपनाया है। इसी से माप छठे अध्याय में लिखते हैं
चतुरखं त्रिकोण च चतुलं चान्द्रकम् । फर्तव्यानुपूयेय मंडल प्रामादिषु ॥ १६४ ॥
* गोमयं मंडलं त्या मोकन्यमिति निशितम्। पिशाचा यातुधानाचा प्रभावाः स्युरमंडो ।
-स्मृतिरक्षाकर)
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[१२७ यातुधानाः पिशाचाश्च त्वसुरा राबवास्तथा ।
मन्ति ते [] पक्षमनस्य मण्डलन विवर्जितम् ॥ १६५ ॥ अर्थात् बामणादिक को क्रमशः चतुष्कोण, त्रिकोण, गोल और अर्धचन्द्राकार मंडल बनाने चाहिये । मंडल के बिना भोवन की शक्ति को यातुधान, पिशाच, अमर और राक्षस देवता नष्ट कर डालते हैं।
ये दोनों श्लोक भी हिन्दू-धर्म से लिये गये हैं। पहले श्लोक को आन्हिकसूत्रावलि में 'ब्रह्मपुराण' का वाक्य लिखा है और दूसरे को 'स्मृतिरनाकर' में 'श्रात्रेय' ऋषि का वचन सूचित किया है और उसका दूसरा चरण 'ससुराधाथ राक्षसाः' दिया है, जो बहुत ही साधारण पाठभेद को लिये हुए है |
इस तरह भट्टारकजी ने हिन्दू-धर्म की एक व्यवस्था को उन्हीं के शब्दों में अपनाया है और उसे जैमन्यवस्था प्रकट किया है, यह बड़े हा खेद का विषय है । जैनसिद्धान्तों से उनकी इस व्यवस्था का भी कोई समर्थन नहीं होता । प्रत्युत इसके, नैनष्टि से, इस प्रकार के कथन देवताओं का अवर्णवाद करने वाले हैं-उन पर झूठा दोषारोपण करते हैं। जैनमतानुसार व्यन्तरादिक देवों का भोजन भी मानसिक है, वे इस तरह पर दूसरों के भोजन को चुराकर खाते नहीं फिरते और न उनकी शक्ति ही ऐसे निःसत्व काल्पनिक मंडलों के द्वारा रोकी जा सकती है। अतः ऐसे मिथ्यात्वषर्षक कथन दूर से ही त्याग किये जाने के योग्य है।
x दूसरे श्लोक का एक रूपान्तर भी 'मार्कराशेयपुराण' में पाया जाता है और यह इस प्रकार है
यातुधानाः पिथाचाच कायेव तु राक्षसार हरस्ति रखमचं च मंडलेन विवर्जितम् ।।
--मान्दिकस्त्रावलि ।
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[ १२८ ]
एक वन में भोजन - भजनादिक पर आपत्ति ।
(१६) एक स्थान पर महारकदी लिखते हैं कि 'एक वल पहन कर भोजन, देवपूजन, पितृकर्म, दाम, होम, और जप आदिक (स्नान, खाध्यायादिक) कार्य नहीं करने चाहिये । खंड वन पहन कर तथा 1 या पहन कर मी ये सब कान न करने चाहियें । यया
एकवस्त्रो न भुंजीत न कुर्याद्देवपूड [ तार्थ ] नम् ॥ ३२३॥ म कुर्यात्पिढकर्मा [ कार्या ] णि दानं होमं जपादिकम् [ तथा ]
सण्डवसातच बनाता ॥ ३७ ॥
धरन्तु क्यों नहीं करने चाहियें करने से क्या हानि होती है अपना कौनसा अनिष्ट संघटित होता है ? ऐसा कुछ भी नहीं लिखा ! क्या एक वन में भोजन करने से वह भोजन पचता नहीं ? पूजन या भजन करने से वोक्रा भगवान भी रुष्ट हो जाते हैं यत्रा मक्तिरस उत्पन्न नहीं हो सकता ? आहारादिक का दान करने से पात्र को तृप्ति नहीं होती या उसकी क्षुषा आदि को शांति नहीं मिल सकती ! खाध्याय करने से ज्ञान की संप्राप्ति नहीं होती ? और परमात्मा का ध्यान करने से कुशल परिणामों का उद्भत्र तथा श्रालानुभवन का लाभ नहीं हो सकता है यदि ऐसा कुछ नहीं है तो फिर एक वस में इन भोजनभजनादिक पर भापति कैसी ? यह कुछ समझ में नहीं धाता !! नैनमत में उत्कृष्ट श्रावक का रूप एक वस्त्रकारी माना गया है-इसीसे 'चेलखण्डधरः' 'adhur :', 'एकशाटकघरः', 'कौपीनमात्रतंत्रः' यादि नामों या पदों से उसका उल्लेख किया जाता है और वह अपने उस एक वस्त्र
#झादिक शब्द का यह आशय अंथ के अगले 'लानं दानं जपं होमं नाम के पद्म पर से ग्रहण किया गया है जो 'वतंत्र रूप से दिया है और संभवतः किसी हिन्दू-ग्रंथ का ही पद्म मालूम होता है।
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[१६] में ही मोमन के अतिरिक्त देवपूजन, खाध्याय, दान और जप ध्यानादिक सम्पूर्ण धार्मिक स्यों का अनुष्ठान करता है। यदि एक वस्त्र में इन सब कृलों का किया बाना निषिद्ध हो तो श्रावक का उत्कृष्ट सिंग ही नहीं बन सकता, अथवा यों कहना शेगा कि उसका जीवन धार्मिक नहीं हो सकता । इससे जैनशासन के साथ इस सब कयन का कोई संबंध ठीक नहीं बैठता--वह जैनियों को सैद्धान्तिक दृष्टि से निरा सारहीन प्रतीत होता है । वास्तव में यह कथन भी हिन्दू-धर्म से लिया गया है। इसके प्रतिपादक वे दोनों पाक्य-गी जो ३६ वे पथ का उत्तरार्ध और ३७ वे पथ का पूर्वार्ध बनाते हैं हिन्दू-धर्म की चीब है-हिन्दुओं के 'चंद्रिका ग्रंथ का एक रखोक हैं--और स्मृतिरनाकर में भी, मैकिटों में दिये हुए साधारण से पाठमंद के साथ, उद्धृत पाये जाते हैं।
सुपारी खाने की सजा। (१७) मोजनाध्याय * में, साम्बूसविधि का वर्णन करते हुए, मधारकजी लिखते हैं
अनिधाय मुझे पणे पूर्ण जाति यो ना अमजन्मदरिधः स्यादन्ते नैव स्मरेखिनम् ॥ २३३ ।
छठे भध्याय का नाम 'भोजन' अध्याय है परन्तु इसके शुरू के १४६ कोकों में जिनमंदिर के निर्माण तथा पूजनादि-सम्बन्धी कितना ही कथन एसा दिया हुआ है जो अध्याय के नाम साथसंगत माग नहीं होता और भी कुछ अध्यायों में ऐसी गहगही पाई जाती हैऔर इससे पह पर है कि मध्यायों के विषय-दिमाग में भी विचार ठीक काम नहीं लिया गया।
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[१३० अर्थात्-जो मनुष्य मुख में पान न रखकर-बिना पान के हीमुपारी खाता है वह सात जन्म तक दरिद्री होता है और अन्त में-- मरते समय-उसे जिनेन्द्र भगवान का कारण नहीं होता। ____पाठकगण ! देखा, कैसी विचित्र व्यवस्था और कैसा अद्भुत न्याय है ! कहाँ तो अपराध और कहाँ इतनी सख्त सजा !! इस धार्मिक दण्डविधान ने तो बड़े बड़े अन्यायी राजाओं के भी कान काट लिये !!! क्या जैनियों की कर्म फिलॉसॉफी और जैनधर्म से इसका कुछ सम्बन्ध हो सकता है ? कदापि नहीं । सुपारी के साप दरिद्र की इस विलक्षण व्याप्ति को मालूम करने के लिये जैनधर्म के बहुत से सिद्धान्त-मन्यों को टटोला गया परंतु कहीं से भी ऐसा कई नियम उपलब्ध नहीं हुआ जिससे यह लाजिमी माता हो कि सुपारी पान की संगति में रहकर तो दद्धि नहीं करेगी परंतु अलग सेवन किये जाने पर बह सात जन्म तक दरिद्र को खींच साने अथवा वन काने में अनिवार्य रूप से प्रवृत्त होगी, और अन्त को भगवान का सारण नहीं होने देगी सो जुदा रहा। कितने ही जैनी, जिन्हें पान में साधारण वनस्पति का दोष मालूम होता है, पान नहीं खाते किन्तु सुपारी खाते हैं; अनेक पण्डितों और पंडितों के गुरु माननीय पं० गोपालदासजी वरैया को भी पान से अलग सुपारी खाते हुये देखा गया परंतु उनकी वायत यह नहीं सुना गया कि उन्हें मरते समय नगवान का स्मरण नहीं हुआ । इससे इस कपन का वह अंश जो प्रत्यक्ष से सम्बंध रखता है प्रत्यक्ष के विरुद्ध भी है। और यदि उसी जन्म में भी दरिद्र का विधान इस पथ के द्वारा इष्ट है तो वह मी प्रत्यक्ष के विरुद्ध है; क्योंकि बहुत से सेठमाहूकार भी बिना पान के सुपरी खाते हैं और उनके पास दरिद्र नहीं फटकता ।
मालूग होता है यह कथन भी हिन्दू धर्म के किसी ग्रंथ से लिया
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[११] गया है। हिंदुओं के 'स्मृतिरनाकर' ग्रंथ में यह लोक बिलकुल ज्यों का त्यों पाया जाता है, जि अन्तिम चरण का मेद है। चंतिमवरण यहाँ 'नरकेषु निमजति' (मरकों में पड़ता है) दिया है। बहुत सम्भव है महारानी ने इसी प्रतिमचरण को बदल कर उसके स्थान में 'अन्ते नैव स्मरोबिनम्' बनाया हो। यदि ऐसा है सब तो इस परिवर्तन से इतमा पर पुआ है कि कुछ सथा कम हो गई है। मही तो बेचारे को, सात बम तक दरिदी रहने के सिवाय, नरकों में और भाना सता !! परंतु इस पद्य का एक दूसरा रूप भी है जो महत चिंतामणि की पीयपधारा टीका में पाया जाता है। उसमें और सब बातें खो ज्यों की त्यों है, सिर्फ अनिघाय मुखे' की जगह 'अशा.
साविधिना' (शासविधि का अधन करके) पद का प्रयोग किया गया है और पतिम चरण का रूप अन्ते विष्णुं न संस्मरे (अंत में उसे विष्णु भगवान् का स्मरण नहीं होता ) ऐसा दिया है। इस अंतिमयरस पर से मशरकनी के उक्त चरण का रचा जाना और भी ज्यादा स्वाभाविक तथा संभावित है। हो सकता है महारानी के सामने हिन्दू-मंथों के ये दोनों के पथ रहे हों और उनोंने उन्हीं पर से अपने पद का रूप गढ़ा हो। परंतु कुछ भी हो, इसमें संदेह नही कि नासिद्धान्तों के विरुद्ध होने से उनका यह सब कपन नियों के द्वारा मान्य किये जाने के योग्य नहीं है।
जनेऊ की अजीव करामात ।
(10) 'यज्ञोपवीत ' नामक अध्याय में, महारानी में बनेऊ की करामात का जो वर्णन दिया है उससे मालूम होता है कि यदि किसी को अपनी आयु बढ़ाने की अधिक होने की बया हो तो उसे दो या तीन जनेऊ अपने गले में गल देने चाहिये-पायु मह जायगी
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१३२
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( अकाल मृत्यु तो तब शायद पास भी न फटकेगी 1), पुत्रप्राप्ति की
इच्छा हो तो पाँच जनेऊ डाल लेने चाहियें - पुत्र की प्राप्ति हो जायगीऔर धर्म लाम की इच्छा हो तोमी पाँच ही जनेऊ कण्ठ में धारण करने चाहियें, तभी धर्म का नाम हो सकेगा अथवा उसका होना अनिवार्य होगा | एक जनेऊ पहन कर यदि कोई धर्म कार्य - जप, तप, होम, दान, पूजा, स्वाध्याय, स्तुति पाठादिक किया जायगा तो वह सब निष्फल होगा, एक जनेऊ में किसी भी धर्म कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती ।' यथा:---.
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आयुःकामः सदा कुर्यात् द्वित्रियशेोपवीतकम् । पंचमिः पुत्रकामः स्याद् धर्मकामस्तथैव च ॥ २७ ॥ यशोपवीतेनैकेन अपहोमादिकं छतम् । तत्व विलयं याति धर्मकार्य न सिद्धयति ॥ १८ ॥
"
पाठकनन ! देखा, जनेऊ की कैसी धानीव करामात का उल्लेख किया गया है और उसकी संख्यावृद्धि के द्वारा आयु की वृद्धि आदि का कैसा सुगम तथा सस्ता उपाय बतलाया गया है !! * मुझे इस
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* और भी कुछ स्थानों पर ऐसे ही विलक्षण उपायों का करा. माती नुसत्रों का विधान किया गया है; जैसे ( १ ) पूर्व की ओर मुँह करके भोजन करने से आयु के बढ़ने का, पश्चिम की तरफ़ मुँह करके खाने से धन की प्राप्ति होने का और ( २ ) काँसी के चरतन मैं भोजन करने से श्रायुर्बलादिक की वृद्धि का विधान ! इसी तरह (३) दीपक का सुख पूर्व की ओर कर देने से आयु के बढ़ने का, उत्तर की ओर कर देने से धन की बढ़वारी का, पश्चिम की ओर कर देने से दुःखों की उत्पत्ति का तथा दक्षिण की ओर कर देने से हानि के पहुँचने का और सूर्यास्त से सूर्योदय पर्यन्त घर में दीपक के जलते रहने
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[१३३] उपाय की विलक्षणता अथवा निःसारता आदि के विषय में कुछ विशेष, कहने की जरूरत नहीं है, सहदप पाठक सहन ही में अपने अनुभव, से उसे जान सकते हैं अथवा उसकी जाँच कर सकते हैं। मैं यहाँ पर सिर्फ इतना ही पतला देना चाहता हूँ कि महारानी ने जो यह प्रति, पादन किया है कि 'एक जनेऊ पहन कर कोई भी धर्मकार्य। सिद्ध नहीं हो सकता-उसका करनाही निष्फल होता है।
से दरिद्र के भाग जाने अथवा पास न फटकने का विधान ! यथा:(१) आयुष्यं प्राङ्मुखा मुंके.. .श्रीकामा पश्चिमे धियं प्रत्यमुखो]
मुंके ॥६-१६३ ॥ (२) एक पत्र तु यो मुंह विमले [गृहस्था] कांस्यमाअने।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुः प्रज्ञा यशोषतम् ॥६-१६७ ॥ (३) आयुष्ये [६] प्रामुखो दीपो धनायोदमुजोमतः
[धनदः स्यातुदरमुखः]। प्रत्यङ्मुखोऽपिदुःखाय[दुमदोऽसौहानये निदो दक्षिणामुः। रवेरस्त समारम्प यावत्सूर्योदयो भवेत् । यस्य तिगृहे वीपस्तस्य नास्ति परिदता।
-अन्याय, ७ौं। और ये सब कपन हिन्दू धर्म के प्रन्या से लिये गये है-हिन्दुओं के (१) मनु (२) ग्यास तथा (३) मरीचि नामक ऋषियों के क्रमशः वचन है, जो प्रायः ज्यों के त्यो अथवा कहीं कहीं साधारण से परिवर्तन के साथ उठा कर रपये गये हैं। मान्दिफस्चापति में भी ये पाय, प्रैकिटों में दिये हुए पाठभेद के साथ ही ऋषियों के 'नाम से उल्लेखित मिलते हैं। जैनधर्म की शिक्षा अथवा उसके सत्य. मान से इन कथनों का कोई खास सम्बन्ध नहीं है।
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[१३४ यह चैनसिद्धान्त तथा बननीति के विकुन विरुद्ध है और किसी भी माननीय प्राचीन जैनाचार्य के वाक्य से उसका समर्थन नहीं होता। एक बनेऊ पहन कर नो क्या, यदि कोई बिना जनेऊ पहने भी सच्चे हृदय से भगवान की पूजा-मक्ति में लीन हो जाय, मन लगाकर स्वाध्याय करे, किसी के प्राण बचा कर उसे अभयदान देवे, सगुपदेश देकर दूसरों को सन्मार्ग में लगाए अथवा सत्संयम का अभ्यास करे तो यह नहीं हो सकता कि उसे सत्फल की प्राप्ति न हो। ऐसान मानना जैनियों की कर्माफिलॉसॉफी अथवा जैनधर्म से ही इनकार करना है। जैनधर्मानुसार मन-वचन-काय की शुभ प्रवृत्ति पुण्य का और अशुभ प्रवृत्ति पाप का कारण होती है-वह अपने उस फल के लिये यत्रोपीत के धागों की साप में कुछ अपेक्षा नहीं रखती किन्तु परिणामों से खास सम्बन्ध रखती है। सैकड़ों यज्ञोपवीत (ननेज)धारी महापातकी देखे जाते हैं और बिना यज्ञोपवीत के भी हबारों व्यक्ति उत्तर भारतादिक में धर्मकृत्यों का अच्छा अनुष्ठान करते हुए पाये जाते हैं-त्रियाँ तो बिना यज्ञोपवीत के ही बहुत कुछ धर्मसाधन करती हैं। अतः धर्म का यज्ञोपवीत के साथ अषया उसकी पंचसंख्या के साथ कोई अविनाभावी सम्बन्ध नहीं है। और इस लिये भारकनी का उक्त कथन मान्य किये जाने के योग्य नहीं। .
तिखक और दर्भ के बंधुए। (१९) चौथे अध्याय में, 'तिलक' का विस्तृत विधान और उसकी अपूर्व महिमा का गान करते हुए, भधारकजी लिखते हैं:
अपोहोमस्तथा वानं स्वाध्यायः पितृतर्पणम् ।
जिनपूजा श्रुताल्यानं न कुत्तिलक विना ॥५॥ . अर्थात्-तिलक के बिना जप, होम, 'दान, स्वाध्याय, पितृतर्पण निनपूजा भोर शास्त्र का व्याख्यान नहीं करना चाहिये ।
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[१३५/
परन्तु क्यों नहीं करना चाहिये १ करने से क्या खराबी पैदा हो जाती है अथवा कौनसा उपद्रव खड़ा हो जाता है ? ऐसा कुछ भी नहीं लिखा। क्या तिलक छाप लगाए बिना इनको करने से ये कार्य चधरे रह जाते हैं ? इनका उद्देश्य सिद्ध नहीं होता ? अथवा इनका करना ही निष्फल होता है। कुछ समझ में नहीं आता !! हाँ, इतना स्पष्ठ है कि भट्टारकजी ने जप-तप, दान, स्वाध्याय, पूजा-भक्ति और शास्त्रोपदेश तक को तिलक के साथ बँधे हुए समझा है, तिलक के अनुचर माना है और उनकी दृष्टि में इनकी स्वतंत्र सत्ता नहीं इनका स्वतंत्रता पूर्वक अनुष्ठान नहीं हो सकता यथा वैसा करना हितकर नहीं हो सकना । और यह सब जैन शासन के विरुद्ध है। एक वन में तथा एक जनेऊ पहन कर इन कार्यों के किये जाने का विरोध जैसे युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता उसी तरह पर तिलक के बिना भी इन कार्यों का किया जाना, जैन सिद्धांतों की दृष्टि से कोई खास आपत्ति के योग्य नहीं जँचता । इस विषय में ऊपर ( नं० १६ तथा १८ में ) जो तर्कणा की गई है उसे यथायोग्य यहाँ भी समझ लेना चाहिये ।
इसी तरह पर तीसरे अध्याय में दर्भ * का माहात्म्य गाया गया है और उसके बिना भी पूजन, होम' तथा जप आदिक के करने का निषेध किया है और लिखा है कि पूजन, जप तथा होम के अवसर पर दर्म में गाँठ लगानी होती है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि नित्य कर्म करते हुए हमेशा दो दमों को दक्षिण हाथ में धारण करना चाहिये
"
* कुश, काँस, दूब और मूँज परीरह घास, जिसमें गेहूँ, जौ तथा are ft after भी शामिल हैं और जिसके इन भा का प्रति• ures लोक " अजैन ग्रन्थों से संग्रह " नामक प्रकरण में उधृत किया जा चुका है।
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(१३६] और स्नान, दान, जप, यज्ञ तथा स्वाध्याय करते हुए "दोनों हाथों में था तो दर्भ के नाल रखने चाहिये और या पवित्रकादर्भ के वने छो) पहनने चाहिये । यथा
बौधौ पक्षिणे हस्ते सर्वदा नित्यकर्मणिERI
खाने दाने जपे यह स्वाध्याये नित्यकर्मणि । 'सपविधी सदमौ वा करो कुर्षात नान्यथा ॥ ३५॥
दर्भ विना न कुषर्षात चा त्रमं जिनपूजनम् । शिनयाच जपे होम ब्रह्मपन्थिविधीयते ॥ १७ ॥ इससे जाहिर है कि महारकजी ने जिनपूजनादिक को तिलक के ही नहीं किन्तु दर्भ के भी बधुए माना है।
आपकी यह मान्यता भी, तिनक सम्बंधी उक्त मान्यता की तरह, जैन शासन के विरुद्ध है । जैनों का प्राचार विचार भी श्राम तौर पर इसके अनुकूल नहीं पाया जाता अथवा या कहिये कि वर्म हाथ में लेकर ही पूजनादिक धर्मकृत्य किये जाय अन्यथा न किये जायें " ऐसी जैनानाय नहीं है । शाखों जैनी बिना दर्भ के ही पूजनादिक धर्मकल्स करते पाए हैं और करते हैं । नित्य की देवपूजा' तथा यशोनन्दि आचार्य कृत 'पंचपरमेष्ठि पूजापाठ' आदिक ग्रंथों में भी दर्म की इस भावश्यकता का कोई उख नहीं है। हाँ, हिन्दुओं के यहाँ दर्मादिक के माहास्य का ऐसा वर्णन जरूर है-वे तिलक और दर्म के बिना खान, पूजन सपा सभ्योपासनादि धर्मकृत्यों का करना ही निष्फल सममने है। जैसा कि उनके पापुराण (उत्तर खण्ड ) के निम्न वाक्य से प्रकट है
मान संध्या पंच ज्ञान पैत्रं होगादिकर्म यः। विना तिखकदीभ्यां कुर्यातधिष्का भवेत् ।।
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[ १३७]
इसी तरह उनके ब्रह्माण्डपुराण में तिलक को वैष्णव का रूप बतलाया है और उसके बिना दान, जप, होम तथा स्वाध्यायादिक का करना निरर्थक ठहराया हैं । यथा---
कर्मादौ तितकं कुर्याद्वपंतवैष्णवं परं ॥ गोप्रदानं जपो होमः स्वाध्यायः पितृतर्पणम् । भस्मीभवति तत्सर्व मूर्ध्वपुराहूं बिना कृतम् ॥
- शब्दकल्पद्रुम । हिन्दूमंपों के ऐसे वाक्यों पर से ही महारकजी ने अपने कथन की सृष्टि की है जो जैनियों के लिये उपादेय नहीं है।
यहाँ पर मैं अपने पाठकों को इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि महारकजी ने तिलक करने का विधान किया है वह उसी * चंदन से किया है जो भगवान के चरणों को लगाया जाने अर्थात्, भगवान के चरणों पर लेप किये हुए चंदन को उतार कर उससे तिलक करने की व्यवस्था की है। साथ ही, यह भी लिखा है किं 'अँगूठे से किया हुआ कि पुष्टि को देता है, मध्यमा अँगुली से किया दुर्भा यश को फैलाता है, अनामिका ( कनिष्ठा के पास की अँगुली ) से किया गया तिलक धन का देने वाला है और वही प्रदेशिनी ( अँगूठे के पास की छाँयुली ) से किये जाने पर मुक्ति का दाता है II. * यह सब व्यवस्था भी कैसी विलक्षण है, इसे पाठक स्वयं समझ
* यथा!
'जिनां त्रिचन्दनैः स्वस्थ शरीरं लेपमा धरेत् । ..६१शा " ललाटे सिर्फ कार्य तेनैच चन्दनेन च ॥ ६३ ॥ x यथा:---
अंगुष्ठः पुष्टिः प्रोक्तो यशसे मध्यमा [मध्यमायुकरी] भवेत् । अनामिका श्रियं [s] दद्यात् [ नित्यं ] सुविद्याद [ मुक्तिदा च ] प्रवेशिनी ॥
१८
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[१३] सकते हैं। इसमें और सब बातें तो हैं ही परतुं 'मुक्ति द्वारा अच्छी सस्ती बनादी गई है ! मुक्ति के इच्छुओं को चाहिये कि वे इसे अच्छी तरह से नोट कर लेवें !!
सूतक की विडम्बना । (२०) जन्म-मरण के समय अशुचिता का कुछ सम्बंध होने से लोक में जननाशोच तथा मरणाशौच (सूतक पातक) की कल्पना की गई है, और इन दोनों को शास्त्रीय भाषा में एक नाम से 'सूतक कहते हैं । त्रियों का रजस्वलाशौच भी इसी के अन्तर्गत है। इस सूतक के मूल में लोकन्यवहार की शुद्धि का जो तत्व अपवा नो सदश्य जिस हद तक संनिहित था, भद्वारकानी के इस ग्रंथ में उसकी बहुत कुछ गिट्टी पसीद पाई जाती है। वह कितने ही अंशों में लक्ष्यभ्रष्ट होकर अपनी सीमा से निकल गया है कहीं ऊपर चढा दिया गया तो कहीं नीचे गिरा दिया गया-उसकी कोई एक स्थिर तथा निदोष नीति नहीं, और इससे सूतक को एक अच्छी खासी बिडम्बना का रूप प्राप्त होगया है । इसी विडम्बना का कुछ दिग्दर्शन कराने के लिये पाठकों के सामने उसके दो चार नमूने रक्खे जाते हैं:
(क) वर्णक्रम से सूतक (जननाशौच) को मर्यादा को विधान करते हुए, आठवें अध्याय में, प्रामखों के लिये १०, क्षत्रियों के लिये १२, और वैश्यों को लिये १४ दिनकी मर्यादा वतलाई गई है। परंतु तेरहवें अध्याय में क्षत्रियों तथा शूद्रों को छोड़कर, जिनके लिये क्रमशः १२ तपा १५ दिन की मर्यादा दी है, और के लिये
यह पथ, त्रैकिटों में दिये हुए पाठ में के साथ, हिन्दुओं के ब्रह्मपुराण में पाया जाता है (शक) और सम्भवतः वहीं डे लिया गया बान पड़ता है।
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[१६] १० दिनको मर्यादा का बख किया है और इस तरह पर मामण. वैश्य दोनों ही के लिये १० दिनकी मर्यादा बताई गई है । इसके सिवाय, एक श्लोक में वर्गों की मर्यादा-विषयक पारस्परिक अपेक्षा, (निस्वत, Ratio) का नियम भी दिया है और उसमें बताया है कि नहीं प्राणों के लिये तीन दिन का सूतक, वहाँ पैश्यों के लिये चार दिन का, क्षत्रियों के लिये पाँच दिन का और शकों के लिये पाठ दिन का समझना चाहिये । यथा:। प्रस्तेर्दशमे चादि बादशे वा चतुर्दश। । लकाशीवाद्धिः स्थानिभादीनां यथाक्रमम् ॥ १-१०॥
प्रसूनौ चैव निदोष शाई सूतकं भवेत् ।। क्षत्रस्य द्वादशाई सच्द्रस्य पक्षमायकम् ॥ १३-४६ ॥ * त्रिदिन यत्र विषाणां वेश्यानां स्यावतुर्दिनम् । क्षत्रियाणां पंचदिन गन्द्राणां च विनाटकम् ॥-७७ ॥
'इन तीनों कोकों का कथन, एक विषय से सम्बन्ध रखते हुए भी, परसर में कितना विरुद्ध है इसे बतखाने की जरूरत नहीं, और यह तो स्पष्ट ही है कि सासरे लोक में दिये हुए अपेक्षा नियम का पहने दो लोकों में कोई पालन नहीं किया गया। उसके अनुसार
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इस लोक का अर्थ देने के बाद सोनीजी ने जो माषार्थ विया है वह उनका निजी कल्पित जान पड़ता है-मूख से ससका अर्थ सम्बन्ध नहीं है। सूत के अनुसार इस लोक का सम्बन्ध प्रागे पीछे दोनों भोर के कथनों से है। आगे भी घर में लोक में अननाशांच की मर्यादा का उल्लेख किया गया है। उस परंभी इस लोक की व्यवस्था लगाने से वही पिडमाना बड़ी हो जाती है। इसी तरह ४६ लोक के अनुवाद में जो उन्होंने लिखा है कि 'पना के लिये सूतक नहीं पह मी मूल से बाहर की चीज़ है।
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[१४० ब्राह्मणों के लिये यदि दस दिन,का सूतक या तो धेश्यों के लिये प्राय: १३ दिन का, क्षत्रियों के लिये १६ दिन का और शूद्रों के लिये २६ दिन का सूतक-विधान होना चाहिये था। परन्तु पैसा नहीं किया गया। इससे सूतक-विषयक मर्यादा की अच्छी खासी विडम्बना पाई जाती है, और वह पूर्वाचायों के कथन के भी विरुद्ध है, क्योंकि प्रायचितसमुच्चय और छेदशाबादि गन्यों में क्षत्रियों के लिये ५ दिन की, बामणों के लिये १० दिन की, वैश्यों के लिये १२ दिन की और शूद्रों के लिये १५ दिन की सूतक-व्यवसा की गई है और उसमें जन्म तथा मरण के सूतक का कोई अलग भेद न होने से पह, आर तौर पर, दोनों के ही लिये समान जान पड़ती है। यथा:--- '
पात्रनामसाविटावा दिन शुक्रवन्ति पंचमिः। दशवादशामिः पक्षायथासंख्यप्रयोगतः ॥ १५ ॥
-प्रायश्चित्तल, चूलिका। पण दस वारस खियमा परागरसहि तत्य दिबसेहि। ' बसियभासा सुदाह कमेण सुमेति ॥७॥
छेवशाला (ख)माठ भध्याय में महारकजी लिखते है कि 'पुत्र पैदा होने पर पिता को चाहिये कि वह पूना की सामग्री तथा मंगल कलश को लेकर गाने बाजे के साथ श्रीनिगमंदिर में जाये और वहा,पञ्चे की नाल कटने तक प्रति दिन पूजा के लिये ब्राह्मणों की योजना करे तया दान से संपूर्ण भट्ट-मिनुकादिकों को राप्त करे । और फिर तेरहवें अध्याय में यह व्यवस्था करते हैं कि ' नाक कटने तक और सबको तो सूतक छगता है परन्तु पिता और भाई को नहीं लगता। इसीसे के दान देते है और उस दान को लेने वाले अपवित्र नहीं होते हैं। यदि उन्हें भी उसी वक से सूतकी मान लिया जाय तो दान ही नहीं बन सकता था:
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[ १४१ ]
" पुत्र जाते पिता तस्य कुर्यादाचमनं मुदा । प्राणायामं विधायोचैराचमं पुनराचरेत् ॥ १३ ॥ पूजावस्तूनि श्वादाय मंगलं कलशं तथा । महावाद्यस्य निर्घोषं प्रज्ञेखजिनालये ॥ ६४ ॥ ततः प्रारभ्य सद्विमान् जिनालये नियोजयेत् । प्रतिदिनं स पूजार्थ यावशालं प्रच्छेदयेत् ॥ ६४ ॥ दानेन तर्पयेत् सर्वान् महान् भिक्षुमान् पिता । " " जननेऽप्येवमेवाऽयं मात्रादीनां तु सूनकम् ॥ तदामाऽयं पितुर्भ्रातुर्नामिकर्तनतः पुरा ॥ ६२ ॥ पिता दद्यात्तदा स्वर्णताम्बुलषसनादिकम् । अशुचिनस्तु नैव स्युर्जनास्तत्र परिग्रहे ॥ ६३ ॥ तदास्य एष दानस्यानुत्पत्तिर्भवेद्यदि । "
पाठक जन ! देखा, सूतक की यह कैसी विडम्बना है !! घर में मल, दुर्गन्धि तथा रुधिर का प्रवाह वह जाय और उसके प्रभाव से कई कई पीढ़ी तक के कुटुम्बी जन भी अपवित्र हो जाय उन्हें सूतक का पाप लग जाय परन्तु पिता और माई जैसे निकट सम्बन्धी दोनों उस पाप से अछूते ही रहें !!! वे खुशी से पूजन की सामग्री लेकर मंदिर जा सकें और पूजनादिक धर्मकृत्यों का अनुष्ठान कर सकें परन्तु दूसरे कुटुम्बी जन नहीं !! और दो एक दिन के बाद जब यथारुचि माल काट दी जाय तो वह पाप फिर उन्हें भी आ पितचे—वे भी अपवित्र हो जायें और तब से पूजन दानादि जैसे किसी भी अच्छे काग को करने के वे योग्य न रहें ।1! इससे अधिक और क्या बिडम्बना हो सकती है !!! मालूम नहीं भट्टारकजी ने नैन धर्म के कौन से गूढ तत्व के आधार पर यह सब व्यवस्था की है !! जैन सिद्धान्तों से तो ऐसी हास्यास्पद बातों का कोई समर्थन नहीं होता। इस व्यवस्था के
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[१४२] अनुसार पिता माई के लिये सूतक की वह कोई मर्यादा मी कायम नही रहती जो ऊपर बतलाई गई है । युक्तिवाद भी मरकजी का बड़ा ही विजण जान पड़ता है ! समझ में नहीं आता एक सूतकी मनुष्य दान क्यों नहीं कर सकता ? उसमें क्या दोष है ? और उसके द्वारा दान किये हुए द्रव्य तथा सूखे भन्नादिक से भी उनका लेने वाला कोई कैसे अपवित्र हो जाता है ? यदि अपवित्र हो ही जाता है तो फिर इस कल्पना मात्र से उसका उद्धार अपवा रक्षा कैसे हो सकती है कि दातार दो दिन के लिये सूनकी नहीं रहा तब तो सूतक के बाद ही दानारिक किया जाना चाहिये । और यदि जरूरत के वात ऐसी कल्पनाएँ कर. लेना भी जायज (विधेय) है तो फिर एक श्रावक के लिये, निसे नित्य पूजन-दान तथा खापायादिक का नियम है, यही कल्पना क्यों न करली जाय कि उसे अपनी उन निल्यावश्यक क्रियाओं के करने में कोई सूतक नहीं लगता ? इस कल्पना का उस कल्पना के साथ मेश भी है जो व्रतियों, दीक्षितों तथा ब्रह्मचारियों ऑदि को पिता के मरण के सिवाय और किसी का सूतक न लगने की बाबत की गई है। अतः महारानी का उक्त हेतुवाद कुछ मी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता । वास्तव में उनका यह सब कथन प्रायः माणिक मन्तयों को निये हुए है और कहीं कहीं हिन्दू धर्म से मी एक कदम आगे बढ़ा हुमा जान पड़ता है + । जैन धर्म से उसका कोई खास * यथा:
प्रतिना वीक्षितानां च याक्षिकब्रह्मचारिणाम् । ..
नैषाशाचं मवेत्तेषां पितुश्च मरणं विना ॥ १२ ॥ __ +हिन्दू धर्म में नाल कटने के बाद जन्म लें पाँचत्रे छठे दिन भी पिता कोवान देने तथा पूजन करने का अधिकारी बतलाया है और साथ ही यह प्रतिपादन किया है कि ब्राह्मणों को उस दान के लेने में कोई दोष नहीं । यथा
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[१४]
सम्बन्धमा है और न बैनियों में, आमतौर पर, नाम का काटना को एक दिन के लिये रोका हो जाता है, कि यह उसी दिन, नितमा शाम होता है, काटदी जाती है और उसको काट देने के बाद ही दानादिका पुरुष कर्म किया जाता है।
(ग)तरह अण्णाय में गहारकानी एक व्यवल्या यह गी करते है कि यदि कोई पुन दूर देशान्तर में स्थित हो और उसे अपने पिता या गाता के गरम पा समाचार मिल तो उस समाचार को सुनने के दिन से ही उसे दस दिन का मूनक ( पातक) al-चाहे यह समाचार उसने कई वर्ष बाद ही पयों न सुना हो । यथाशिमग चमूनो स्थानमा दूरस्थापि हि पुषकः। शुस्यातदिनमार पुत्राणाशाप्रक[दशासूनकीमवेत ]॥७॥
या भी सूतक की बुध का विडम्बना नहीं है। उस पुत्र में विक्षा का दाह-मग किया गही, शष को पर्या नहीं, सब के पीछे रगशान भूमि का यह गया नहीं और न पिता के मृत शरीर को पित घायु ही उस पहुँचमा पन्तु तिने असे के बाद तया हमारी मांस की दूरी पर बैन हुआ गी-वह अपवित्र हो जाता है और शान पूजगारिक धर्मकृत्यों के योग्य नहीं रहता । यह कितनी हास्यास्पद व्यवस्था है इसे पाठक खप सोच सकते हैं !!! क्या यह । "बासमलि पाने व मालदेवमापूर्ण पितुरधिकार एवं पंचम पदयादिम जम्मदाधिएमाषु पाने चाधिकार तत्र विषय प्रति. प्रदेषि योयो ।
-मापौधनिर्णय । . इसी तरह पर मापने पति पत्नी को भी एक दूसरे का मूल्यु. समाचार सुनने पर इस दिन का सुनक तवाया है। यथा- . माताप्रियाशीच इसाई क्रियते सुवैः। अनेक इमायोस्प वापरलरम् ॥ ७० ॥
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[१४४] भी जैन धर्म की व्यवस्था है ? छेदपिण्डादि शास्त्रों में तो जामखप्रवेशादिद्वारा मरे हुओं की तरह परदेश में मरे हुओं का भी सूतक नहीं माना है। यथा:- . . . धानत्तासूरक्षणजसणादिपसदिपहि। अनासपपरदेखेनुय मुदाण खलु सूनगं सात्थि ॥ ३van
-वपिण्ड। .. . सोइयसूचविही जनाइपरदेसवालसणाले । भारदे खरे व सोही पदसहिदे चेष सांगारे ॥८६॥
.. -वेद शाख। . ' इससे उक्त व्यवस्था को जैनधर्म की व्यवस्था वतज्ञाना और भी मापत्ति के योग्य हो जाता है। महारकनी ने इस व्यवस्था को हिन्दू धर्म से लिया है, और वह उसके 'मरीचि ऋषि की व्यवस्था है । उक्त श्लोक मी. मरीचि ऋषि का वाक्य है और उसका अन्तिम चरण हैं 'दशाह सूतकी भवेत् । भट्टारकबी ने इस चरण को बदल कर उसकी जगह पुत्राणां दशरात्रक बनाया है और उनका यह परिवर्तन बहुत कुछ बेढंगा जान पड़ता है, जैसा कि पहिले ('मनेनअन्यों से संग्रह प्रकरण में ) बतलाया जा चुका है।
(घ) इसी तेरहवें अध्याय में महारकजी एक और भी अनोखी व्यवस्था करते हैं। अर्थात्, लिखते हैं कि यदि कोई अपना कुटुम्बी • मनु मावि पिषों की व्यवस्था इससे मित्र है और उसको सामने के लिये मनुस्मृति' प्राधि को देखना चाहिये। यहाँ पर एक पाया पराशरस्थति का उद्धृत किया जाता है जिसमें ऐसे अवसर पर अयः शौच को तुरत शुद्धि कर लेने की व्यवस्था की गई है। यहा:देशाम्वरमृतः काश्रित्सगोत्रः भूयते यदि । न त्रिरात्रमहोपत्रं षया स्नात्वा शुचिर्भवेत् ॥३-१२॥
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बन र देणान्तर को गया हो, और उसका कोई समाचार पूर्वादि अवस्या-क्रम से २८, १५ या १२ वर्ष तक सुनाई न पड़े तो इसके 'बाद उसका विधिपूर्वक प्रेतकर्म (मृतक संस्कार ) करना चाहिये-- सूतक (पास) मनाना चाहिये और श्राद्ध करके वर्ष तक का प्रायश्चित सेना चाहिये। यदि प्रेतकार्य चुकने के बाद वह पापाय तो सो पी के घरे तया सर्व पौषधियों के रस से नहलाना चाहिये, उसके सब सरकार फिर से करके उसे फोपनीत देना चाहिये और यदि उसकी पूर्वपाली मौजूद थे तो उसके साथ उसका रिसे विवाह करना चाहिये । :--
प्रदेई गते वासी हरता श्रूयते रचना यदि पूर्वधषकस्य यावरणाविशति: BR ज्या मध्यवयस्कस्य भन्दा पंचदौर चन् । ध्याइवयस्कस्य स्थाइ मायापलरम् ॥ भवभय प्रेतकर्म कार्य सस्प विधानतः । पावं छत्वा पहन्दं तु माया सारक्षित-1181 प्रेक्षकाय सते तस्य यदि आत्मागतः। भूतकम्मेन परताव्य सर्वोपविमिरप्यथ ।। ८३ ॥ संस्कारान्सकसान कृत्या मौसीधाममावरन् । पूर्वपल्या सहवास्थ विवाह काये एहि ।।
पाठकगया ! दोखिये, इस विडम्बना का मी कुछ ठिकाना है । विना मेरे ही मला मना लिया गया और उसके मनाने की भी भारत समोर मई ।।। यह विडम्बना पूर्व की विडम्बनाओं से भी बढ़ गई है। इस पर अधिक शिधने की बात नहीं। जैन धर्म से ऐसी बिना सिर पैर को बिडम्बनामक म्यबस्याओं का कोई सम्बन्ध नहीं है। (क)सकमनाने के इसने पनी महारफला भाग चलकर मिडते :
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[१४६] व्याधितस्य कर्यप ऋणमस्तस्य सर्वदा । क्रियाहीनस्य मूर्खस्य स्त्रीवितस्य विशेषतः ॥११॥ व्यसनासत्कचित्तस्य पराधीनस्य नित्यशः। श्राद्धत्यागविहीनस्य पण्डपापण्डपापिनाम् ॥ १२० ॥ पतितस च दुष्टस्य भस्मांत सूनकं भवेत् । यदि दग्धं शरीरं चेत्सूतकं तु दिनत्रयम् ॥ ११ ॥
अर्थात्-जो खोग व्याधि से पीड़ित हों, कृपण हो, हमेशा कर्जधार रहते हों, क्रिया-हीन हों, मूर्ख हों, सविशेष रूप से स्त्री के वशवर्ती हों, व्यसनासक्तचित्त हो, सदा पराधीन रहने वाले हो, श्राद्ध न करते हो, दान न देते हों, नधुंसक हो, पापण्डी हो, पापी हो. पतित हो अथवा दुष्ट हों, उन सब का सूतक मस्मान्त होता है-अर्थात्, शरीर के भस्म हो जाने पर फिर सूतक नहीं रहता । सिर्फ उस मनुष्य को तीन दिन का सूतक लगता है जिसने दग्पक्रिया की हो। ___ इस कथन से सूतक का मामला कितना उलट पलट हो जाता है उसे बतलाने की जरूरत नहीं, सहृदय पाठक सहज ही में उसका अनुभव कर सकते हैं । मालूम नहीं भट्टरकनी का इस में क्या रहस्य था। उनके अनुयायी सोनीनी मी उसे खोल नहीं सके और वैसे ही दूसरों पर अश्रद्धा का श्राप करने बैठ गये ।। हमारी राय में तो इस कपन से सूतक की विडम्बना और भी बढ़ जाती है और उसकी कोई एक निर्दिष्ट अयथा स्पष्ट नीति नहीं रहती । लोक व्यवहार भी इस व्यवस्था के अनुकूल नहीं है । वस्तुत: यह कपन भी प्रायः हिन्दू धर्म का कपन है । इसके पहले दो पद्य 'प्रात्रि ऋषि के वचन है और ये 'अत्रिस्मृति में क्रमश: नं० १०० तथा १०१ पर दर्ज है, सिर्फ इतना भेद है कि वहां दूसरे पद्य का अन्तिम चरण 'भस्मान्तं सूतकं भवेत् दिया है, जिसे मरकजी ने अपने तीसरे पक्ष का दूसरा
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' [१] धरण बनाया है और उसकी जगह पर 'पसहपापण्डपापिनाम्'' नाम का घर रख दिया है।
इसी साह पर और भी कितने ही कपन अषका विधि-विधान ऐसे पाये जाते है, जो स्तक-मर्यादा की निसार विषमतादि-विषयक बिडम्बनाओं को चिये हुए हैं और जिन से सूतक की मौति निरापद् नहीं सती जैसे विवाहिता पुत्री के पिता के घर पर मर जाने अपना उसके वा बच्चा पैदा होने पर सिर्फ तीन दिन के सूतक की व्यवस्थ का दिया जाना ! इत्यादि । मोर ये सब कथन मी अधिकांश में हिन्दू धर्म से किये गये अपना उसकी नीति का अनुसरण करके लिखे गये हैं।
पड़ों पर मैं अपने पाठकों में सिर्फ इतना और वतचा देना चाहता हूँ कि भारकसी ने उस हालत में भी सनक अपया किसी प्रकार के अशौच को न मानने की व्यवस्था की है जब कि यह (पूजन हवनादिक) Aषा महान्यासादि कार्यों का प्रारम्भ कर दिया गया हो और पांच में कोई सूतक श्रापरे अथवा सूतक मानने से अपने बहुत से इम्प की हानि का प्रसंग उपस्थित हो। ऐसे सब अवसरों पर कौल हदि कर की जाती है भयवा मान डी जाती है, ऐसा मारकमी का कहना है । यथाः
समारपेषु भायमान्यायाविकर्मा पाहण्यविमाणे तु सपा विधीयत ॥ १४ ॥
परन्तु विवाह-प्रभास के अवसर पर आप अपने इस व्यवस्थानियम को मुला गये हैं। वहाँ विवाहमा का होम मरम्म माने पर अब यह मालूम होता है कि क्या रखरखता है तो थाप चीन दिन के लिये विवाह को से मुलतवी (स्थगित कर देते हैं और चौप दिन उसी पनि में फिर से होम करके कन्यादानादि ष कार्यों को
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[१४] पूरा करने की व्यवस्था देते हैं ! * आपको यह भी बयान नहीं रहा कि तीन दिन तक चाराव के वहाँ और पड़े रहने पर बेटी वाचे का कितना खर्च बढ़ जायगा और साथ ही बासतियों को भी अपनी आर्थिक हानि के साथ साथ कितना कष्ट उठाना पड़ेगा !!-यह भी जो बहुदन्यविनाश का ही प्रसंग था और साथ ही यह भी प्रारम्भ हो गया था जिसका कोई खयाब नहीं रखा गया और न माप को यही ध्यान भाया कि जिस ब्रह्मसूरि-त्रिवर्णाचार से हम पह पद्य उठा कर रख रहे हैं उसमें इसके ठीक पूर्व ही ऐसे अवसरों के लिये भी सवाशौच की व्यवस्था की है-अर्थाद, लिखा है कि उस पर तथा कन्या के लिये बिसका विवाहकार्य प्रारम्भ हो गया हो, उन लोगों के लिये जो होम श्राद्ध, महादान तथा तीर्थयात्रा के कार्यों में प्रवत रहे हों और उन ब्रह्मचारियों के लिये जो प्रायश्चिचादि नियमों का पालन कर रहे हों, अपने अपने कार्यों को करते हुए किसी सूतक के उपस्थित हो जाने पर सधः शौच की व्यवस्था है + | अस्तु महारफनी को इस विषय का ध्यान अथवा खयाल रहा हो या न रहा हो और वे भूल गये हों या मुखा गये हों परंतु
यथा:विवाहहोमे प्रकान्ते कन्या यदि एजखना। . नियत्रं कम्पनी स्माता पृथक्शय्यासनाशगौ ॥ १०६ ।। चतुर्थेऽभनि संस्खाता तस्मिभनौ यथाविधि । विवादहोमं कुर्यातु कन्यापानाधिक वया ॥ १० ॥ *यंथा:
अपक्रान्तविवाहस्य परस्थापि त्रियस्तथा। होमनाथमहावानतीर्थयात्रामवर्तिनाम् ॥ - प्रायविवाहिनियमवादिनी ब्रह्मचारियाम् ! इस्लेषां खखकत्येषु सपा गौच लिपितम् ॥१०॥
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[१४] इसमें सन्देह नही कि पंथ में उनके इस विधान से सतक को नोति
और भी ज्यादा अस्थिर हो जाती है और उससे स्तर की बिडम्बना बढ़ जाती है अषया यों कहिये कि उसकी गिट्टी खराब हो जाती है
और मूल्य नहीं रहता । साथ ही, यह मालूम होने लगता है कि 'यह अपनी वर्तमान स्थिति में महन काल्पनिक है। इसका मानना न सामना समय की बहरत, जोकस्थिति अपना अपनी परिस्थिति पर अपतन्धित है—ोक का वातावरण बदल जाने अषया अपनी किसी खास नारत के खड़े हो जाने पर उसमें यथेच्छ परिवर्तन ही नहीं किया था सकता पक्कि उसे सात पता मी पतचाया जा सकता है; वास्तविक धर्म अथवा धार्मिक तत्वों के साथ उसका कोई खास सम्बध नहीं है-उसको उस रूप में न मानते हुए भी पूजा, दान, तथा खाध्यापादिक धर्मकृत्यों का अनुशान किया जा सकता है और उससे किसी अनिष्ट फल की सम्भावना नहीं हो सकती।चुनाच भरत चार पता ने. पुनोत्पति के कारण घर में सूतक होते हुए भी, भगवान् ऋषभदेव को फेववाहान उत्पन्न होने का शुभ समाचार पाकर उनके समवसरण में जाकर उनका साक्षात् पूजन किया था, और वह भजन मी अकेले भषषा चुपचाप नहीं किन्तु बड़ी धूमधाम के साथ अपने माइयों, नियों तथा पुरजनों को साथ लेकर किया था। उन्हें ऐसा करने से कोई पाप नहीं लगा और न उसके कारण कोई भनिष्ट ही संघटित हुमा । प्रत्युत इसके, शास में-भगवबिनसेनाप्रणीत आदिपुरम में उनके इस सदिचार सपा पुण्योपार्जन के कार्य की प्रशंसा ही की गई है जो बन्न पुत्रोत्पत्ति के उत्सव को मी गौण करके पहले मगपाल का पूजन किया । मरतबी के मस्तक में उस वक्त इस प्रकार की किसी कल्पना का उदय तक भी नहीं मा कि 'पुत्रजन्म के योग मात्र से हम सब कुटुम्बीनन, सूतक गृह में प्रवेश न करते हुए है,
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[१०] अपवित्र हो गये हैं। कुछ दिन तक बनात् अपवित्र ही रहेंगे और इस लिये हमें भगवान् का पूजन न करना चाहिये, बल्कि वे कुछ देर तक सिर्फ इतना ही सोचत रहे कि एक साथ उपस्थित हुए इन कार्यों में से पहले कौनसा कार्य करना चाहिये और अन्त को उन्होंने यही निश्चय किया कि यह सब पुत्रोपाधि भादि शुभ फल धर्म का ही फल है, इस लिये सब से पहिले देवपूजा रूप धर्म कार्य ही करना चाहिये जो श्रेयो- ' नुबन्धी ( कल्याणकारी ) तथा महाफल का दाता है | और तदनुसार ही उन्होंने, सूतकावस्था में, पहले भगवान का पूजन किया । भरतजी यह भी जानते थे कि उनके भगवान् वीतराग हैं, परम पवित्र और पतितपावन है। यदि कोई, शरीर से अपवित्र मनुष्य उनकी उपासना करता है तो वे उससे नाखुश (अप्रसन्न ) नहीं होते और न उसके शरीर की छाया पड़ माने अथवा वायु लग जाने से अपवित्र ही हो जाते हैं, बल्कि वह मनुष्य ही उनके पवित्र गुणों की स्मृति के योग से स्वयं पवित्र हो जाता है । इससे भरतनी को अपनी सूतकापस्या की कुछ चिंता भी नहीं थी।
मालूम होता है ऐसे ही कुछ कारणों से जैन धर्म में सूतकाचरण को कोई विशेष महत्व नहीं दिया गया । उसका प्रावकों की न ५३ क्रियाओं में नाम तक भी नहीं है जिनका श्रादिपुराण में विस्तार के साथ वर्णन किया गया है और जिन्हें 'सम्यक् क्रियाएँ' लिखा है,
* देखो एक आदिपुराण का २४ वा पर्व । • नित्य की 'देवपूजा' में भी ऐसा ही माव व्यक किया गया है और उस अपवित्र मनुष्य को तब बाधाम्यन्तर दोनों प्रकार से पवित्र माना है। यथा-
अपवित्रा पवित्रों का सर्वावस्थांगतोऽपि वा। या स्मरेत्परमात्मान, पायाभ्यन्तरे अधिक।
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[११] बल्कि भगवजिनसेन न 'आधानादिश्मशानान्त' नाम से प्रसिद्ध होने घासी दूसरे लोगों की उन विभिन्न क्रियाओं को जिनमें ' सूतक ' भी शामिल हैं ' मिथ्या क्रियाएँ' बतलाया है । इससे नियों के लिये सूतक का कितना महत्व है यह और भी स्पष्ट हो जाता है। इसके सिवाय, प्राचीन साहित्य का महाँ तक मी अनुशीवान किया जाता है उससे यही पता चलता है कि बहुत प्राचीन समय अथवा नियों के अभ्युदय काल में सतक को कभी इतनी महता प्रास नहीं पी और न वह ऐसी विडम्बना को ही लिये हुए पा जैसी कि मट्टारकनी के इस ग्रंथ में पाई जाती है। महारकनी ने किसी देश, काम अयमा सम्प्रदाय में प्रचलित सूतक के नियमों का जो यह वेदगा सग्रह करके उसे शाम का रूप दिया है और सब नैनियों पर उसके अनुकूल पाचरण की जिम्मेदारी का मार जादा है वह किसी तरह पर भी समुचित प्रतीत नहीं होता । जैनियों को इस विषय में अपनी बुद्धि से काम लेना चाहिये और केवल प्रवाह में नहीं बहना चाहियेउन्हें, जैनट से सूतक के तत्व को सममते हुए, उसके किसी नियम उपनियम का पालन उस हद तक ही करना चाहिये जहाँ तक कि खोक-व्यवहार में हानि मेटने अथवा शुचिता * सम्पादन करने के साथ उसका सम्बंध है और अपने सिवान्तों तथा व्रताचरण में कोई
देखो इसी परीक्षा शेख का प्रतिक्षादिविरोध'माम का प्रकरण। * यह राधिता प्रायः भोजनपान की शुचिता है अथवा मोजन. पान की शुद्धि को सिद्ध करना ही सूतक-पातक-सम्बन्धी वर्जन का मुख्य उद्देश्य है, ऐसा खाटीलंहिता के निन पाय वनित होता है:
उनकं पातकं चापि यथोकं जैनशासने। . एपणाशुद्धिसिद्धचर्य वर्षदेच्यावकामयी ५-२५६ ॥
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बाधा नहीं पाती । बहुधा परस्पर के खान पान तथा विरादरी के लेन देन तक ही उसे सीमित रखना चाहिये । धर्म पर उसका आतंक न जमना चाहिये, किन्तु ऐसे अवसरों पर, भरतनी की तरह, अपने योग्य धर्माचरण को बराबर करते रहना चाहिये । और यदि कहीं का वाताधरण, प्रज्ञान अथवा संसर्गदोष से या ऐसे अंगों के उपदेश से दूक्ति हो रहा हो-सूतक पातक की पद्धति बिगड़ी हुई है तो उसे शक्ति पूर्वक सुधारने का पत्ल करना चाहिये ।। ___तेरहवें अध्याय में मृतकसंस्कारादि-विषयक और भी कितना ही कायन ऐसा है बो दूसरों से उधार लेकर रखा गया है और जैनदृष्टि से उचित प्रतीत नहीं होता । वह सब भी मान्य किये जाने के योग्य नहीं है । यहाँ पर विस्तारमय से उसके विचार को छोड़ा जाता है। ___ मैं समझता हूँ प्रथा पर से सूतक की विडम्बना का दिग्दर्शन कराने के लिये उसका इतना ही परिचय तया विवेचन काफी है। सहृदय. पाठक इस पर से बहुत कुछ अनुमत्र कर सकते हैं।
पिप्पलादि-पूजन। (२१) नवा अध्याय में, यज्ञोपवीत संस्कार का वर्णन करते हुए। महारकजी ने पीपच ष के पूजने का भी विधान किया है। आपके इस विधानानुसार 'सस्कार से चौथे दिन पीपल पूजने के लिये जाना चाहिये। पीपल का वह वृक्ष पवित्र स्थान में खया हो, ऊँचा हो, छेददाहादि से रहित हो तथा मनोक हो और उसकी पूना इस तरह पर की बाय कि उसके स्कन्ध देश को दर्भ तथा पुष्पादिक की मालाओं और हनदी में हुए सूत के धार्गो से अलकृत किया जाय-सपटा अथवा सनाया बाय-, मूल को जल से सींचा नाय और वृक्ष के पूर्व की ओर एक चयूनरे पर अमिकुंड बनाकर उसमें नौ नौ समिधामों तथा घृतादिक से होम किया बाप, इसके बाद उस पक्ष से, निसे.सर्व मंगलों का हेतु पतलाया है,
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यह माना श्रीमाय कि हे विपक्ष ! मुमापकी तरह पवित्रता, यायोग्यता और बौपित्यादिगुणों की प्राति होवे और भाप मेरे बसे चिन्हों के (मनुष्याचार क) धारक हो, प्रार्थना के मनंतर उसपर तथा अनि की बीन प्रदक्षिणाएँ देकर खुशी खुशी भपने घर को जाना चाहिये और वहीं, मोसन के पश्चात् सबको संतुष्ट करके, रहना चाहिये । साथ ही, इस संस्कारित व्यक्ति को पीपक पूलने की यह क्रिया हर महीने इसी तरह पर होमादिक के साथ करते रहना चाहिये और खासकर माक्स के महीने में तो उसका किया जाना बहुत ही आवश्यक है। मयाः
चतुर्थवावरे चापि संस्मात पिवसनियो संचितमपूजादि कर्म कुर्याधयोषितम् ॥ ५५॥ अविस्थानस्थित तुक छेववाहाविवक्षितम्। ममोह पूनितुं गच्छानुयुक्यावत्थमूलम् Neeg धर्मपुगादिमाशामिईदिनुपन्तुमित स्कन्धदशमलव सूखं अनेक विषयेत् 190 अवस्य पूर्वदिमाये स्वपिस्यापमंड। भवन समिदिम होमं कुर्याद अनादि । एतत्वयायोग्यत्वबोधिताया मकन्तु में। स्वरतोधितुम त्वं च महविनाधरी म
पुतमिति संपाय सर्वमगमोदकम् । पर पम्हि विपरील दो. पच्छेद एवं झुवा ॥१०॥ पर्वको म मिथ्यात्वं सौकिकाचारात्। . मोबनानन्तरं साल्वाष्प निवोद रहे । • प्रतिमास किया कुर्यायोमपूज्यपुरस्परम् ।
भावनेतु विशेष हा क्रियावियत्री मता ॥
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[१५४] पीपल की यह पूजा जैनमत-सम्मत नहीं है। जैनदृष्टि से पीपल न कोई देवता है, न कोई दूसरी पूज्य वस्तु, और न उसके पूजन से किसी पुण्य फल प्रयवा शुमफल की प्राति ही होती है, उसमें पवित्रता, पूजनपात्रता (यायोग्यता) और विज्ञता (बोधित्व)आदि के वे विशिष्ट गुण भी नहीं है जिनकी उससे प्रार्थना की गई है । इसके सिवाय, बगह जगह जैन शाखों में पिप्पलादि वृक्षों के पूजन का निषेध किया गया है और उसे देवमूढता अथवा लोकमूढता बतलाया है; जैसा कि नीचे के कुछ अवतरयों से प्रकट है।
मुखलं देहली चुल्ली पिप्पलश्चम्पकोजसम् । देवाथैरभिधीयन्टे वन्यन्त है. परेऽत्र के ma-21
अमितगति उपासकाचार पृथ्वी ज्वलनं सोय देहली पिप्पलादिवान् । देवतात्वेन मन्यन्ते ये ते चिन्या विपश्चितः ॥१-ven
-सिझन्ससार। क्षेत्रपाल शिवो मागोक्षुताश्च पिप्पलादयः । ...... यत्राच्यन्ते शटैरेते देवमूढः स उच्य ।।
पारचतुर्विशतिका। ...तरस्तूपास मकानां चन्दनं सृगुसंश्रयः ।... ..एवमादिषिमूढाना शेयं मूहमनेकधा ||
-यशस्विलका ...वृत्तपूजादीनि पुण्यकारणानि भवन्तीति यहन्ति वल्लोकमूढत्व विक्षयं ।
__ . .-व्यसंग्रहटीका ब्रह्मदेवकना। .वृक्षाविपूजनम् । ..... लोकमूद प्रवक्ष्यते ।
बमोपदेशंपीयूषवभावकाचार।
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इससे महाकवी की क पिपलपूया देवडता या चोकमूढ़ता में परिगचित होती है। उन्होंने हिन्दुओं के विश्वासानुसार पीपल को यदि देवता समझ कर उसकी पूजा की यह व्यवस्था की है तो यह देवडता है और यदि लोगों की देखादेखा पुण्यफल समझ कर या उससे किसी दूसरे अनोखे फल की माया रखकर ऐसा किया है तो वह लोकमदता है अथवा इसे दोनों ही समझना चाहिये । परन्तु कुछ भी हो, इसमें सन्देह नहीं कि उनकी यह पूबन-व्यवस्था मिथ्यात्व को बियर है और मच्छी खासी मिध्याय की पोषक है। मारकवी को भी अपनी इस पूना पर प्रकट मिथ्याल के भावंप का आयात पाया है। परन्तु चूकि स पने मय में इसका विधान करना था इसलिये उन्नानि शिष्ठ दिया-एवं कृतेन मिथ्यात्व-ऐसा करने से कोई मिष्याल नहीं होता । क्यों नहीं होता। 'बौकिकाचारवर्तनात्-इस बिरे कि यह ने लोकाचार का बना है। अर्थात लोगों की देखा देखी जो काम किया जाय उसमें मिथ्यात्व का दोष नहीं खगता ! महारानी का यह हेतु भी बड़ा हा विषय तथा उनके अदभुत पापिल कपोतक है। उनके इस हेतु के अनुसार लोगों को देखादेखी पदि कुदेवों का पूजन किया माय, उन्हें पशुओं की बलि चवाई वाय, साँसी-होई तमा पारी को करें पूजी बाय, मदी समुद्रादिक की पन्दमा-मति के साथ उनमें लान से धर्म मामा जाय, प्राइस के समय मान का विशेष माहाल्य सममा नाय और हिंसा के पाचरस तपा मघमासादि के सेवन में कोई दोष न मामा बाप अश्या यो कहिये कि मन को तब समझ कर प्रवर्ता बाप तो इसमें भी कोई मिष्याब नहीं होगा। तब मियाल अचवा मिथ्याचार ग्रेगा पया, यह कुछ समझ में नहीं पता !!! सोमदेवसरि खो, 'पाक्षिक' में महाबों का पर्थन करते हुए, साफ दिखते हैं कि इन पनाविकों
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का पूजन चाहे घर के लिये किया जाय, चाहे लोकाचार की दृष्टि से किया जाय और चाहे किसी के अनुः रोष से किया जाय, वह सबसम्यग्दर्शन की हानि करने चाला है--अथवा यों काहिये कि निध्यात्व को बढ़ाने वाला है। यथा:
घराय लोकवार्तामुपरोधार्थमेव यां।
उपासनममीषां स्यात्सम्यग्दर्शनहानये ॥ . पंचाध्यायी में भी लौकिक सुखसम्पचि के लिये क्रुदेवाराधन को 'लोकमूढता बतलाते हुए, उसे 'मिथ्यालोकाचार' बताया है और इसीलिये त्याज्य ठहराया है-यह नहीं कहा कि लौकिका. चार होने की वजह से वह मिथ्यात्व ही नहीं रहा। यथा:--
जुदेवायधनं कुर्यादकिय से कधीः ।
सपालोकोपचारत्वादश्रेया नाकमूहता। ___इससे यह स्पष्ट है कि कोई मिथ्याक्रिया महज लोक में प्रचलित अथवा लोकाचार होने की वजह से मिथ्यात्व की कोटि से नहीं निकल जाती और न सम्पक्रिया ही कहला सकती है । जैनियों के द्वारा, पास्तव ने, बौकिक विधि अपना लोकांचार वहीं तक मान्य किये जाने के योग्य हो सकता है वहाँ तक कि उसैसें उनके सम्यक्त्व में बाधा न भाती हो और में व्रतों में ही कोई दूषण लगता हो; जैसा कि सोमवार के निम्न वाक्य में भी प्रकट है।
सर्व पंव बिनोनों प्रमाण लौकिको विधिः। या सम्यक्त्वामिने पत्र में प्रदूषणंम् ॥
यशस्तिक्षक ऐसी हालत में मारकबी को उक्त हेतुवाद किसी तरह भी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता और न सम्पूर्ण लोकाचार हो, बिना किसी विशेषता के, महज़ लोकाचार होने की वजह से मान्य किये जाने के योग्य ठहरता
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[१५७].
है। श्रीपद्मनन्दिप्राचार्य ने भी अपने प्रावकाचार में उन सब कों से दूर रहने का प्रयवा उनके त्याग का उपदेश दिया है. निनस सम्यादर्शन मेला, तपा व्रत खंडित होता हो । यथा.
पेशं तं नरं तत्स्वं तत्कमाणि च नाभयेत्। ,
मशिन वर्शनं येन येन च तवरडलम् ।। २६ ॥ जोक में, हिन्दूधर्म के अनुसार, पीपल को विष्णु भगवान का रूप माना जाता है। विष्णु भगवान ने किसी तरह पर पीपल की मति धारण की है, वे पीपल के रूप में भूतल पर अवतरित हुए हैं, और उनके आश्रय में सब देव भाकर रहे हैं। इसलिये गो पीपल की पूजा करता है वह विष्णु भगवान की पूजा करता है इतना ही नहीं, किन्तु सर्व देवों की पूजा करता है--ऐसाहिन्दुओं के पापाचरखएडादि क्तिने ही ग्रंथों में विस्तार के साथ विधान पाया जाता है । इससे उनके यहाँ पीपल के पूजन का बड़ा माहाल्य है और उसका सर्व पापों का नाश कारने प्रादि रूप से बहुत कुछ पंख वर्णन किया गया है और यही
रस विषय के कुछयोसवाक्य नमूने के तौर परास प्रकार :
"अश्वत्य पो भगवान विष्णुरेव न संशयः।" "अश्वत्थपूनको यस्तु स एष हरिपूजकः।
अश्वत्थमूर्तिमंगवान्स्वपमेष यतो विज" "दाम्यवस्थमाब सर्वपासनम् ।
साक्षादेव स्वयं विष्णुरस्वत्योऽविनाविश्वरा ।" "अश्वत्यपूजितो येन पूजिताः सर्वदेवताः।
अश्वत्यच्छदिवो येन छदिताः सर्व देवताः॥" "प्रलय सेचयेविसंप्रदक्षिणमाविशन् । पापोपावमयानां पापनायो मत भूषम् "
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[ ११८ ]
वजह है जो वे पीपल में पवित्रता, यज्ञयोग्यता और बोधित्वादि गुणों की कल्पना किये हुए हैं। पीपल में पूतत्व गुण अथवा पवित्रता के हेतु का उल्लेख करने वाला उनका एक वाक्य नमूने के तौर पर इस प्रकार है:अश्वरथ यस्मात्वयि वृक्षराज | मारावयस्तिष्ठति सर्वकारणम् । अतः शुचिस्त्वं सततं तरूणाम् विशेषताऽरिएविनाशनोऽसि इस वाक्य में पीपल को सम्बोधन करके कहा गया है कि 'हे वृक्षराज ! चूँकि सब का कारण नारायण (विष्णु भगवान ) तुम्हारे में तिष्ठता है, इसलिये तुम सविशेष रूप से पवित्र हो और अरिष्ट का नाश करने वाले हो ' |
ऐसी हालत में अपने सिद्धान्तों के विरुद्ध, दूसरे लोगों की देखादेखी पीपल पूजने अथवा इस रूप में लोकानुवर्तन करने से सम्यग्दर्शन मैला होता है— सम्पवस्त्र में वाधा आती है—यह बहुत कुछ स्पष्ट है । खेद है भट्टारकनी, जैन दृष्टि से, यह नहीं बतला सके कि पीपल में किस सम्बन्ध से पूज्यपना है अथवा किस आधार पर उसमें योषित्व तथा पूतत्वादि गुणों की कल्पना बन सकती है ! प्रत्यक्ष में वह
(अथर्वण उवाच ) पुरा ब्रह्मादयो देवाः सर्वे विष्णुं समाशिनः । प्रध्वं देवदेवेशं राक्षसैः पीडिताः स्वयम् । कथं पीडोगशमनमस्माकं ब्रूहि मे प्रभो ॥
" (श्रीविष्णुरुवाच श्रमश्वत्थरूपेण संभवामि च भूतले । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन कुरुध्वं वयसेवनम् ॥
अनेन सर्वमद्राणि भविष्यन्ति न संशयः ।
- जयसिंहकल्पहम | * भट्टारकजी के कथन को ब्रह्मवाक्य समझने वाले से नाजी भी, अपने अनुवाद में डेढ़ पेज का लम्बा भावार्थ लगाने पर भी, इस विषय को स्पष्ट नहीं कर सके और न महारकजी के हेतु को ही निर्दोष
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[ १५e ]
नद भाव को लिये हुए है और उसके फलों तथा लाख में असंख्याते सजीवों के मृत कलेवर शामिल रहने से मच्छी खासी अपवित्रता से
सिद्ध कर सके है। उन्होंने यह तो स्वीकार किया है कि आगम में वृक्ष पूजा को बुरा तथा लोकसूदता बतलाया है और उसके अनु लार इस पीपल पूजा का खाकमूढता में अन्तर्माद होना चाहिये। परन्तु प्रम्यकार भट्टारकजी ने चूँकि यह लिख दिया है कि ऐसा करमे में मिध्यात्व का दोष नहीं लगता' इससे आपकी बुद्धि चकरा यई है और आप उसमें किसी रहस्य की कल्पना करने में प्रवृत्त दुष है--यह कहने लगे हैं कि "इसमें कुछ घोड़ासा रहस्य है"। लेकिन यह रहस्य क्या है, उसे बहुत कुछ प्रयक्ष करने अथवा इधर उबर की बहुत सी निरर्थक बातें बनाने पर भी आप जो नहीं सके और अन्त में आपको अनिश्चित रूप से यही लिखना पढ़ा- "संभव है कि जिस तरह क्षेत्र को निमित्त लेकर ज्ञान का क्षयोपहम हो जाता है वैसे ही ऐसा करने से भी ज्ञान का क्षयोपशम हो जाय ".."संभव है कि उस वृक्ष के निमित्त से भी आत्मा पर ऐसा असर पड़ आय जिससे उसकी आत्मा में चिक्षता भाजाय ।" इससे सोमीजी की जैवधर्म-विषयक अद्धा का भी कितना ही पता चलनाता है। अस्तु आपकी सबसे बड़ी युक्ति इस विषय में यह मालूम होती है कि जिस तरह वर की इच्छा से गंपादिक नदियों में स्नान करना लोकसूरवा होते हुए भी ऐसे ही विना उस इच्छा के महज़ शरीर की मदि के लिये उनमें स्नान करना लोकमुड़ता नहीं है, उसी तरह - पवीत की विशेष विधि में बोधि (धान) की इच्छा से बोधि (पीप वृक्षकी पूजा करने में मी लोकसूद्रता अथवा मिध्यात्व का पन होना चाहिये। यद्यपि आपके इस युति-विधान में घर की इच्छा दोनों जगह समान है और इस क्रिये उस बोधि पर की इच्छा से
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भी घिरा हुआ है। साथ ही, जैनागम में उसे वैसी कोई प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं है। अतः उसमें पूतत्व आदि गुणों की कल्पना करना, उससे उन गुणों की प्रार्थना करना और हिन्दुओं की तरह से उसकी पूजा
पीपल का पूजना लोक मूड़ता की कोटि से नहीं निकल सकता, फिर भी यहाँ पर इतना और पतला देना चाहता है कि गंगादिक मापियों के जिस स्लान की यहाँ तुलना की गई है वह संगत मालूम नहीं होता, क्योंकि महल शारीरिक मनशुद्धि के लिये जो गंगादिक में स्नान करना है यह उन नदियों का पूजन करना नहीं है और यहाँ स्परूप से पूजितुं गच्छेत् आदि पदों के द्वारा पीपन की पूजा का विधान किया गया है और उसकी तीन प्रदक्षिणा देना तथा उससे'प्रार्थना करना न लिखा है-यह नहीं लिखा कि पीपल की 'छाया में बैठना अच्छा है अथवा उसके नीचे बैठकर अमुक कार्य करना चाहिये, इत्यादि । और इसलिये नदियों की पूजा-वन्दनादि करना निष तख मिथ्यावासी तरह पूज्य बुद्धि को लेकर पीपल की यह उपासना करना भी मिथ्यात्व है। हाँ; एक दूसरी जगह (१० अध्याय में); लोकमूहमा कार्वन करते हुए सोनीजी लिखते है- सर्वसाधारण अमि, पुषः पर्वत मादि पूल्य क्यों नहीं और विशेष विशेष कोई 'कोई पूज्य भयो । इसका उत्तर यह कि जिनसे दिन भगवान का सम्बन्ध पूज्य है। अन्य नहीं।" परन्तु • पीपल की पावत मापने यह भी नहीं पतलाया कि इससे जिन भग'वान का क्या खास सम्बन्ध है, जिससे हिन्दुओं को चरा इसकी कुछ पूजा बना सकती, बल्कि वहाँ पोधिका अर्थ 'पई करके 'मापने अपने पूर्व कपन के विरुद्ध पोपवीत संस्कार के समय । पापा की जगहड़पन की पूजाका विधान करदिया है! और या
आपके अनुवाद की और मी विनवणा!! .
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[१६]
करना यह सब हिन्दू धर्म का अनुकरण है, जिसे महारकबी ने लोकानुवर्तन के निःसत्र पर्दे के नीचे छिपाना चाहा है। सहम लोकानुवर्तन के आधार पर ऐसे प्रकट मिध्यात्व को मनिध्यात कह देना, निःसन्देह, बड़े ही दु.साइस का कार्य है 11 और वह इन महारक जैसे व्यक्तियों से ही बन सकता है जिन्हें धर्म के मर्म की कुछ मी खायर नहीं अपना धर्म की आड़ में जो कुछ दूसरा ही प्रयोगम सिद्ध करना चाहते हैं।
इसी तरह पर महारकजी ने, एक दूसरे स्थान पर, 'शक', इस के पूजने का भी विधान किया है, जिसके विधिवाक्य का उल्लेख नमी मा 'अर्कविवाह' की भालोचना करते हुए किया जायगा ।
'वैधव्य योग और अर्क विवाह ।
.(२२) ग्यारहवें अध्याय में, पुरुषों के तीसरे विवाह का विधान करते हुए, महारती लिखते हैं कि 'मर्क (आक) वृक्ष के साथ विवाह न करके यदि तीसरा विवाह किया जाता है तो वह तृतीय विवाहिता श्री विषषा हो जाती है। अतः विचक्षण पुरुषों को चाहिये कि वे तीसरे विवाह से पहल अर्क विवाद किया करें। उसके लिये उन्हें वृद्ध के पास जाना चाहिये, वहाँ बाकर खस्ति वाचनादि कुक्ष्म करना चाहिये, अर्क वृक्ष की पूजा करनी चाहिये, उससे प्रार्थना करनी चाहिये, और फिर उसके साथ विवाह करना चाहिये ' । यृथाः
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* 'सूर्य सस्मार्थ्य' वाक्य म 'सूर्य' शभ्य धर्कख का बालक और उसका पर्याय नाम है, उसी वृक्ष से पूजा के अनन्सर प्रार्थना .का लेख है। सोनीजी ने अपने अनुवाद में सूर्य से प्रार्थना करने की जो बात लिखी है वह उनकी कथनशैली से सूर्य क्षेत्रता से प्रार्थना को सूचित करती है और इसलिये ठीक नहीं है।
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[ १६२]
+ कृत्वाविवाहं तु तृतीयां यदि चोदे। विधवा सा भवेत्कन्या तस्मात्कार्य विचक्षणा (खैः) ॥२०४॥ अर्कसनिश्विमागत्य कुर्यात्वस्यादिवाचनाम् । अर्कस्यारातनां कृत्वा सूर्य सम्मा बोद्धदेत् ॥ २०५ ॥
भट्टारकजी का यह सब कथन भी जैनशासन के विरुद्ध है । और उनका उक्त वैधव्ययोग जैन- तत्वज्ञान के विरुद्ध ही नहीं किन्तु प्रत्यक्ष के मी विरुद्ध है - प्रत्यक्ष में सैकड़ों उदाहरण ऐसे उपस्थित किये जा सकते हैं जिनमें तीसरे विवाह से पहले ध्पर्कविवाह नहीं किया गया, और फिर भी वैधव्य योग संघटित नहीं हुआ। साथ ही, ऐसे उदाहरणों की भी कमी नहीं है जिनमें अर्क विवाह किये जान पर भी स्त्री विधवा हो गई है और वह श्रर्कविवाह उसके वैधव्ययोग का टाल नहीं सका | ऐसी हालत में यह कोई खाजिमी नियम नहीं ठहरता कि मर्कविवाह न किये जाने पर कोई स्त्री उत्वादमख्वाह भी विधवा हो जाती है और किये जाने पर उसका वैधव्ययोग भी टह जाता है। तब महारकमी का उक्त विधान कोरा वहम, भ्रम और शोकमूढ़ता की शिक्षा के सिवाय और कुछ भी मालूम नहीं होता
"
I
+
|
+ इस पद्मं के अनुवाद में सोनीजी ने पहली स्त्री का 'धर्मपत्नी' और दूसरी को 'भोगपत्नी' बतलाकर जो यह लिखा है कि "इन दो लियां के होते हुए तीसरा विवाह न करे" वह सब उनकी निजी कल्पना जान पड़ता है। मूल पद्य के श्राशय के साथ उसका कुछ सम्बन्ध नहीं है। मूल से यह लाज़िमी नहीं आता कि वह दो खियों के मौजूद होते हुए ही तीसरे विवाह की व्यवस्था बनाता है। बल्कि अधिकांश में, अपने पूर्वपद्य-सम्बन्ध से दो त्रियों के मरजाने पर तीसरी स्त्रीको विवाहने की व्यवस्था करता हुआ मालूम होता है। कसी तरह की दाल भंडारकजी के उस घूमरे वैधव्य योग का
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हिन्दुओं के यहाँ विवाह का पिता के साप विधान पाया नाता है, उनके कितने ही ऋषियों की यह धारणा है कि मनुष्य की साली की मानुस म होनी चाहिये, कदि मानुषी हो तो यह विषय हो जायगी, इससे तीसरे विवाह से पहस उन्होंने विवाह की योचना की है--पर्क वृक्ष के पास बार स्वस्तिवाचनादि कस्य करने, अर्क की पूजा करने, मर्क से प्रार्थना करने और फिर भई-कन्या के साथ विवाह करने मादि की सम्पूर्ण व्यवस्था बताई है । इस विषय का कान हिन्दुओं के कितने ही प्रन्यों में पाया जाता है। 'भवाल. विवाहपति' में भी मठ पूष्य में उसका छ साह किया गया है। उसी पर स यहाँ व पाय नमूने के तौर पर उधृत किये जाते है:
"पद्रसिसिवर्ष तृतीयां न कदापन। मोहावधानको प्रापि पनि गठवेत मानुपाम् । मापासंघ न सवंडो गर्गस्य पवन यथा। "तनीयां यदि चोचाई मा वि मवेद । चतुष्पादि विधाता बनायेऽ समुद्रोत् ।" "नाये श्रीविवाहेतु समाप्त पुरुषस्य तु। आफै विषाई पश्यामि शौनको विधानतः ।
सानिषिमामय तक खस्लादि वापयेत् ।
मोई जिसका विधान उन्होंने सी अध्यापक मिस पत्र में किया:
को वाग्मिय सम्मन्ये मामृत्युल योनिम्। । खदान पर कार्य मावैधव्यवंशवम् ॥१८॥
इस पथ में यह बताया गया है कि पासम्बन्ध (गाई) . कंपमादयदि अपना कोई सगांधी (इटम्बी) मर आप वो फिरवर विवाहसवाय करना चाहिये। यदि किया जाएगा माली मियम से विप्रथा हो जायगी ।
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नान्दीबाई प्रधीत स्थण्डितं च प्रकल्पयेत् ।
कमन्यय खोयाँ च गंधपुष्पातादिमि" (प्रार्थना) नमस्ते मेगळे देवि नमः सवितुंरात्मज । श्राहिमा छपया देवि पली त्वं मे इहागता । अ व ब्राह्मणो सुधः सर्वप्राणिहिताय । वायो आदिमूतस्त्वं देवांना प्रतिवर्धन वतीयोडाईज पोप मृत्यु चाशु विनाशयेत् ।
ततंच कन्यावरण त्रिपुरुष कुखमुखरत ।" हिन्दू ग्रन्थों के ऐसे पाक्यों पर से ही महारकों ने वैधव्य योग और अविवाह को उक्त व्यवस्खा अपने प्रन्थों में की है। परन्तु खेद है कि आपने उसे मी धायक धर्म की व्यवस्था लिखा है और इस तरह पर अपने पाठकों को धोखा दिया है ।
संकीर्ण हृदयींद्वारं। (२३) यह त्रिवर्णाचार, यपि, हृदय के संकीर्ण उद्गारों से बहुत कुछ भरा हुआ है और मेरी इच्छा भी थी कि मैं इस शीर्षक के नांचे उनका कुछ विशेष दिग्दर्शन कराता परन्तु लेख बहुत बढ़ गया है, इससे सिर्फ दो नमूनों पर ही यहाँ सन्तोष किया जाता है। इन्हीं पर से पाठकों की यह मालूम हो सकेगा कि महारानी की हृदयसंकीर्णता किस हद तक बढ़ी हुई थी और पे बैनसंमान को जैनधर्म की उदार नीति के विरुद्ध किस ओर से जाना चाहते थे:(क) अन्य समितीकूपा पापी पुष्करिणी संसा
तेषों जन्ले नै तु प्राहा खानपानाय च कवित् ॥३-५॥ इस पद में कहा गया है कि 'जो कुएँ, बापड़ी, पुष्करिणी और ताचा भन्यजों के-शद्रों अथवा चमारों आदि के खौदै हुए हो उनका जड़ न तो कमी पीना चाहिये औरन खान के लिये ही ग्रहण करना चाहिये।
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[ १६५ ]
भट्टारकजी का यह उदार बड़ा ही विलक्षण तथा हद दर्जे का संकीर्ण है और इससे शूद्रों के प्रति असीम घृणा तथा द्वेप का भाव व्यक्त होता है। इसमें यह नहीं कहा गया कि जिन कूप बावड़ी आदि के जल को अन्त्यजों ने किसी तरह पर बुधा हो उन्हीं को जल खानपान के प्रयोग्य हो जाता है बल्कि यह स्पष्ट घोषणा की गई है कि जिन कूप बावड़ी आदि को अगयनों ने खोदा होमले ही उनके वर्तमान जल को उन्होंने कभी स्पर्श मी न किया होउन सब का जल हमेशा के लिये खानपान के योग्य होता है । और इस लिये यदि यह कहा जाय तो वह नाकाफी होगा कि 'महारकजी ने अपने इस वाक्य के द्वारा अन्त्यज मनुष्यों को जलचर जीवों तथा नल को छूने पीने वाले दूसरे तिथंचों से ही नहीं किन्तु उस मल, गंदगी तथा कूड़े कर्कटे से भी बुरा धीर गया बीता समझा है जो कुछ, बावड़ियों तथा तालाबों में यहकर या उसंकर चला जाता है अथवा ध्पनेक त्रस जीवों के मरने - नीने - गलने सड़ने आदि के कारण भीतर ही भीतर पैदा होता रहता है और जिसकी वजह से उनका जल खान पान के अयोग्य नहीं माना जाता । भट्टारकजी की घृणा का मान इससे भी कहीं बढ़ा चदा था, और इसी लिये मैं उसे हद दर्जे की या असीम घृणा कहता हूँ। मोलूम होता हे भट्टारकी अन्त्यओं के संसर्ग को ही नहीं किन्तु उनकी छापामा को पवित्र, अपशकुन और अनिष्टकारक समझते थे । इसीलिए उन्होंने, एक दुसरे स्थान पर, अन्त्य का दर्शन हो जाने कथयो उसका शब्द सुनाई पड़ने पर माँ को ही छोड़ देने का या यो कहिये कि सामायिक जैसे सदनुष्ठान का स्थान कर उठ जाने का विधान किया है * यह कितने खेद का विषय है !!
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व्रतच्युतान्त्यजादीनां दर्शने भाषणे श्रुतौ । 'ते' घोवावगमने जुम्मने जपमुत्सृजत् ॥ ३-१२५॥
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[१६६] यदि भट्टारकनी की सम के अनुसार अन्त्यनों का संसर्ग-दोष यहा तक बढ़ा हुआ है इतना अधिक प्रभावशाली और बलवान है कि उनका किसी कूप बावड़ी आदि की भूमि को प्रारम्भ में स्पर्श करना भी उस भूमि के संसर्ग में आने वाले जल को हमेशा के लिये दूषित तथा अपवित्र कर देता है तब तो यह कहना होगा कि जिस जिस भूमि को अन्त्यज लोगों ने कभी किसी तरह पर स्पर्श किया है अथवा थे, स्पर्श करते हैं वह सब भूमि और उसके ससर्ग में आने वाले संपूर्ण अन्नादिक पदार्थ हमेशा के लिये दूषित तथा अपवित्र हो जाते है और इसलिये त्रैवर्णिकों को चाहिये कि उस भूमि पर कभी न चलें और न नक्ष की तरह उन संसर्गी पदार्थों का कमी व्यवहार ही करें। इसके सिवाय, निन कूष धापड़ी आदि की बावत सुनिश्चित रूप से यह मालूम न हो सके कि किन लोगों के खोदे हुए हैं उनका नच मी, संदिग्धावस्था के कारण, कमी काम में नहीं लाना चाहिये । ऐसी हालत में कैसी विकट स्पिति उत्पन्न होगी और लोकव्यवहार कितना बन्द तथा संकटापन्न हो जायगा उसकी कल्पना तक मी भट्टारकजी के दिमाग में आई मालूम नहीं होती । मालूम नहीं भधारकजी उन खेतों की पैदावार--मना, फल तथा शाकादिक-को भी ग्राह्य समझते थे या कि नहीं निनमें मनमत्रादिक महादुर्गधमय अपवित्र पदार्थों से मरे हुए खाद का संयोग होता है। अथवा अन्त्यमों का वह भूमि-स्पर्श ही, उनकी दृष्टि में खाद के उस सयोग से गया बीता था । परंतु कुछ भी हो-महारानी ऐसा वैसा कुछ समझते हों या न सममने हो और उन्होंने वैसी कोई कल्पना की हो या न की हो-, इसमें संदेह नहीं कि उनका उक्त कपन जैनशासन के अत्यन्त विरुद्ध है। .
जो नशासम सार्वजनिक प्रेम तथा वात्सल्य भाव की शिक्षा देता है, घृणा तथा देष के भाव को हर कर मैत्रीभाव सिखलाता है और
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[१६] अन्यनों को भी धर्म का अधिकारी बतला कर उन्हें श्रावकों को कोटि में रखता है उसका, अथवा उन तसर्थकों का कदापि ऐसा अनुदार शासन नहीं हो सकता, जिनकी 'समवसरण' नामकी समुदार समा में ऊँच नीच के भेद भाव को भुला कर मनुष्य ही नहीं किन्तु पशु-पक्षी तक भी शामिल होते थे और वहाँ पहुँचते ही आपस में ऐसे हिलमिल आते थे कि आपने अपने जातिविरोध तकयो भुला देते थे-सर्प निर्मप होकर नकुल के पास खेलता था और विझी प्रेम से चूह का भालिंगन करती थी । कितना ऊंचा आदर्श और मितना विश्वप्रेम-मय भाव है! कहाँ यह आदर्श ? और कहाँ भहारकनी का उक्त प्रकार का घृणात्मक विधान ! इससे स्पष्ट है कि भट्टारकजी का यह सब कपन चैनधर्म की शिक्षा न होकर उससे गहर को चीन है । और वह हिन्दू-धर्म से उधार लेकर रखा गया मालूम होता है। हिन्दुषों के यहाँ सक्त वाक्य से मिलता जुलता 'यम' ऋषि का एक वाक्य * निम्न प्रकार से पाया जाता है:
अन्स्यजेः बानिता कुपातड़ागानि तथैव च। । एषु मात्वा च पीत्वा च पंचगन्येन शुद्धयति । इसमें यह बताया गया है कि अन्त्यमों के खेदि हुए कुओं तथा तालाबों में लान करने वाला तथा उनका पानी पीने वाला मनुष्य अपवित्र हो जाता है और उसकी शुद्धि पंचगव्य से होती है जिसमें गोबर और गोमूत्र भी शामिल होते हैं। सम्भवतः इसी वाक्य पर से भहारकजी ने अपने मास्य की रचना की है। परन्तु यह मालूम नहीं होता कि पंचगव्य से शुद्धि की बात को घटाकर उन्होंने अपने पत्र के उत्तरार्ध को एक दूसरा ही रूप क्यों दिया है ! पंचगव्य से शुद्धि की इस हिन्दू व्यवस्था को तो आपने कई जगह पर अपने प्रथ में अपनाया
देखो नारायण बिट्ठल-संग्रहीत 'प्राधिक सावलि
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१६८ है। शायद आपको इस प्रसंग पर बह इष्ट न रही हो। और यह भी हो सकता है कि हिन्दू-धर्म के किसी दूसरे वाक्य पर से ही आपने अपने वाक्य की रचना की हो अथवा तसे ही ज्यों का त्यों उठाकर रख दिया हो । परंतु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि यह व्यवस्था हिन्दुओं से ली गई है-जैनियों के किसी भी माननीय प्राचीन ग्रंथ में मह नहीं पाई जाती-हिंदुओं की ऐसी व्यवस्थाओं के कारण ही दक्षिणा भारत में, नहाँ ऐसी व्यवस्थाओं का खास प्रचार हुआ है, अन्त्यज छोगों पर घोर अत्याचार होता है-वे कितनी ही सड़कों पर चल नहीं सकते अषषा मंदिरों के पास से गुजर नहीं सकते..उनकी छाया पड जाने पर सचेन-लानाकी, बरूरत होती है और इसीलिये अब इस अत्याचार के विरुद्ध सहृदय तमा विवेकशील उदार पब्लिक की आवाज उठी हुई है। ( जानगालमत्स्यन्ताः फलानाधर्मकारका
पापधिकासुरापापी एतैर्वस्तुंन युज्यते ॥ २० ॥ एताकिमपि नो-देय स्पर्शनीय कदापिन ! न तेपांवस्तुकं प्राय जनवादबायकम् ।। १३१ ॥
. .- अध्याय। इन पद्यों में कहा गया है कि जो लोग बकरा बकरी का घात करने थाले.( कसाई आदिक.) हों, गोकुशी करने वाले ( मुसलमान आदि
च) हो, माली मारने वाले (ईसाई.ला धीवरादिक) हो, शराव का ब्यापार करने वाले (-कलाज.) हो, चमड़े का काम करने वाले (समार)हो, कोई विशेष.पाप का काम करने वाले पातिकी (पापर्षिक) हो, अथवा शूराव श्रीन वाले हों, उनमें से किसी के भी साथ बोलना
ले रजस्वलानी की बीयो दिन पंचगव्य से-गोषस्यामूत्रा विकासे स्नान करने पर पुद्धि-मानी है। यथा
चतुर्थे वासरे मंचगव्यैः संस्तापयोग वाम 4-14 .
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मही चाहिये । और इन लोगों को न तो कमी कुछ देना चाहिये, म इनकी कोई चीन लेना चाहिये और न इनको कमी छूना ही चाहिये; क्योंकि ऐसा करना बोकापवाद का-बदनामी का कारण है। ' पाठकलन ! देखा, कैसे सकोर्ण, शुद्र और मनुष्यत्व से गिरे र उदगार है । व्यक्तिगत घृणा तपा देष के माों से कितने प्रयास मेरे हुए हैं। और बगत् का उद्धार अथवा उसका शासन, रक्षण तथा पालन करने के लिये कितने अनुपयोगी, प्रतिकूल भोर विरोधी हैं। ज्या ऐसे उदगार भी धार्मिक उपदेश कहे जा सकते हैं अपना यह कहा जा सकता है कि वे जैनधर्म की उस नदारनीति से कुछ सम्बक रखते हैं जिसका चित्र, बैनयों में, बैन तीर्थकों को 'समवसरण सभा का नशा खींच कर दिखाया जाता है। कदापि नहीं ऐसे उपदेश विश्वप्रेम के विघातक और संसारी जीचों की उमति तथा प्रगति के याधक है। जैनधर्म की शिक्षा से इनका कुछ भी सम्बंध नहीं है। जरा गहरा उतरने पर ही यह मालूम हो जाता है कि वे कितने धोये और निःसार हैं। मला भब उन गनुष्यों के साथ बिन्हें हम सममते हो कि के बुरे है-बुरा माचरण करते हैं-समाषण भी न किया जाय, उन्हें सदुपदेशन दिया चाय अपमा उमकी भूल न बताई जाय तो उनका सुधार कैसे हो सकता है ! और कैसे चे सन्मार्ग पर लगाए जा सकते हैं। क्या ऐसे
in को बार से सपा पेक्षा पार करना सनो हितमा RAP को चिन्ता न रखना, और उन्हें सदुपदेश देकर सन्मार्ग पर न लगाना जैनधर्म की कोई नीति भया जैन समाज के लिये कुछ हट कहा ना सकता है ? और क्या सधे बैनियों को दया-परिणति के साथ उसका कुछ सबन्ध हो सकता है। कदापि नहीं बैनधर्म के सोपोर नेता भावार्यों तथा महान पुलों ने भगपिन पापियों, भील पांडालों
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तथा म्लेच्छों तक को धर्म का उपदेश दिया है, उनके दुख मुख को सुना है, उनका हर तरह से समाधान किया है और उन्हें जैन धर्म में दीक्षित करके सन्मार्ग पर लगाया है। अतः 'ऐसे लोगों से चोचना योग्य नहीं यह सिद्धान्त बिलकुल जैनधर्म की शिक्षा के विरुद्ध है।
इसी तरह पर उन लोगों को कभी कुछ देना नहीं और न कमी उनकी कोई चीन लेना' यह सिद्धांत भी दूषित तथा बाधित है और जैनधर्म की शिक्षा से बहिर्भूत है । क्या ऐसे लोगों के भूख-प्यास क्री, बेदना से व्याकुल होते हुए भी उन्हें अन्न, जल न देना और रोग से पीडित होने पर प्रोषध न देना जैनधर्म की दया का कोई अंग छ सकता है ? कदापि नहीं । जैनधर्म तो कुपात्र और अपात्र कहे जाने वालों को भी दया का पात्र मानता है और उन सब के लिये करुणा बुद्धि से- योचित दान की व्यवस्था करता है । जैसाकि पंचाध्यायी के निम्न पाक्यों से भी प्रकट है:: कुपात्रायाऽप्यपात्राय दान देयं यथोचितम् । , पात्रबुद्धया निषिद्ध स्यामिपिद्धं न छपाधिया॥
शेषेभ्यः, जुलिपाखाविपीडितेभ्योऽशुमोदयात् ।
दीनेभ्योऽभयदानावि दातव्यं करुणार्णवैः॥ - . वह असमर्थ भूख प्यासों के लिये भाहार दान की, व्याधि-पीडितों के लिये औषधि-वितरण की, मज्ञानियों के लिये किया तथा बानोपकरण-प्रदान की और भयास्तों के लिये अमयदान की व्यवस्था परता है। उसकी दृष्टि में पात्र, कुपात्र और अपात्र सभी अपनी अपनी योग्यवानुसार हुन चारों प्रकार के दान के अधिकारी हैं। इससे महारानी का उन लोगों को कुछ भी न देने का उद्गार निकालना कोरी अपनी
पचाध्यायीकी छपी हुई प्रतियों में ऽभय' की जगह 'ऽवया' तथा दया' पाठ ग्रंशतं दिये हैं।..
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[१७] छप-संकीर्णता व्यक्त करना है और पाखण्ड का का उपदेश देना है। ऐसी ही शसत उन लोगों से कभी कोई चीच न लेने के उद्वार की है। उनसे अच्छी, उपयोगी तथा उत्तम चीनों का न्यायमार्ग से लेना कमी दूषित नहीं कहा जा सकता । ऐसे लोगों में से कितने ही व्यक्ति बंगलों, पहायों, समुद्रों तथा भूगर्भ में से अच्छी उतम उत्तम चीने निकालते हैं। क्या उनसे वे बोलें कर लाम न उठाना चाहिये ! स्या ऐसे लोगों द्वारा वन-पर्वतों से छाई हुई उसम भोषों का भी व्यवहार न करना चाहिये ! और क्या चमारों से उनके घनाये हुए मृत धर्म के जूते भी खेने चाहिये । इसके सिवाय एक मुसलमान, ईसाई अथवा वैसा (उपर्युक्त प्रकार का) कोई हानाचरण करने वाला हिन्दू भाई पदि किसी भीषघालय, विद्यालय अथवा दूसरी धोकोपकारिणी सेवा संस्था को न्यादि की कोई भी सहायता प्रदान करे तो क्या उसकी यह सहायता संख्या के अनुरूप होते हुए भी स्वीकार न करनी चाहिये ! और क्या इस प्रकार का सब व्यवहार कोई बुद्धिमानी कहला सकता है ! कदापि नहीं। ऐसा करना अनुभवशून्यता का घोतक और अपना ही नाशक है। संसार का सब काम परस्पर के लेनदेन और एक दूसरे की सहायता से धनता है। एक मनीमार सीप में से मोती निकाल कर देता है और बदले में कुछ द्रव्य पाता है अथवा एक चमार से बूता या चमड़ा लिया जाता है तो मूल्यादि के तौर पर उसे कुछ दिया जाता है। इसी तरह पर शोक व्यवहार प्रवर्तता है । क्या यह मोती जो मास में ही पैदा होता तथा प्रद्धि पाता है उस मालीमार का छाप लगने से अपवित्र या विकृत हो जाता है ! अथवा वह धमका चमार के कर-स्पर्श से विगुणित और दूषित बन जाता है। यदि ऐसा कुछ नहीं है तो फिर उन लोगों से कोई भी चीस न लेने के लिये कहना क्या .अर्ष रखता है। यह निग्री सीता और हिमाकत नही
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[१७] तो और क्या है ! भरत चक्रवर्ती जैसे धार्मिक नेता पुरुषों ने तो ऐसे छोगों से मेट में चमरी और कस्वती ( मुंरक नाके) जैसी चीजें ही नहीं कित कन्याएँ तक भी ली थीं, जिनका उल्लेख आदिपुराण थादि ग्रंथों में पाया जाता है। राना लोग ऐसे व्यक्तियों से कर और जमादार लोग अपनी जमीन का महसूल तथा मकान का किराया भी लेते हैं । उनके खेतों की पैदावार भी ली जाती है । अतः महारकजी का उक्त उद्गार किसी तरह मी युक्तियुक्त प्रतीत नहीं होता।
अब रही उन लोगों को कभी न छुने की बात, यह उद्वार मी युक्ति-संगत मालूम नहीं होता । नव हम लोग उन लोगों के उपकार तथा उधार में प्रवृत्त होंगे, जो जैनमत का खास उद्देश्य है, तब उन्हें कमी अथवा सर्वथा कुएं नहीं यह बात तो बन ही नहीं सकती। फिर भट्टारकनी अपने इस उद्गार के द्वारा हमें क्या सिखलाना चाहते हैं वह कुछ समझ में नहीं पाता! क्या एक शराबी को शराब के नशे में कूपादिक में गिरता हुआ देख कर हमें चुप बैठे रहना चाहिये और छू जाने के भय से उसका हायपकड कर निवारण न करना चाहिये ? अथवा एक चमार को डूबता हुआ देखकर जाने के डर से उसका उहार न करना चाहिये ? क्या एक गोघाती मुसलमान, मच्छीमार, ईसाई या शराब बेचनेपासे हिन्द के घर में आग लग जाने पर, स्पर्शमय से, हमें उसको तथा उसके बालबच्चों को पकड़ पकड़ कर बाहर न निकालना चाहिये । और क्या हमारा कोई पातिकी भाई यदि अचानक चोट खाकर लहूलुहान हुआ बेहोश पड़ा हो तो हमें उसको उठा कर और उसके पापों को धो पंछ कर उसकी महम पट्टी न करना चाहिये, इसलिये कि वह पातिकी है और हमें उसको छूना नहीं चाहिये ? अथवा एक वैद्य या डाक्टर को अपने कर्तव्य से च्युत होकर ऐसे लोगों की चिकित्सा ही नहीं करनी चाहिये । यदि ऐसी ही शिक्षा है तब तो कहना होगा
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कि महारानी हमें मनुष्यत्व से मिकर पशुओं से में गया बीता बनाना चाहते थे और उन्होंने हमारे उदार दयाधर्म को कलंकित ताप विडम्बित करने में कोई कसर नहीं रखी। और यदि ऐसा नहीं है तो उनके उक्त हार का भिर कुछ मी मूल्य नहीं रहता-वह निरर्षक और निमार बान पड़ता है। मालूम होता है महरकणी ने स्पृरणा अश्रय की समीचीन नीति को ही नहीं सममा पोर इसीलिये उन्होंने बिना सोचे समझे ऐसा उटपटांग विष मारा कि 'इन लोगों को कभी भीनना चाहिये । मानो ये मनुष्य स्थायी अछूत हो चौर बस मन से मी गये बीते में बिसे हम प्रतिदिन छूत है ॥ मनुष्यों से चोर इतनी घृणा धन्य है ऐसी समसमा धार्मिक मुद्धि को l
मत में, भारकाची ने बिस लोकापवाद का मय प्रदर्शित किया है बह इस संपूर्ण निषेचन पर से मूखों की मूर्खता के सिवाय और कुछ भी नहीं रह जाता, इससे उस पर कुछ विधमा व्यर्थ है । निःसंदेह, जब से इन मटारकनी से महात्माओं की कृपा से जैनधर्म के साहिल में इस प्रकार के मनुदार विचारों का प्रवेश होकर विकार प्रारम्भ हुआहै तब से जैनधर्म को बहुत बचा धक्का पहुँचा है और उसकी सारी प्रगति रुक गई। वास्तव में, एसे सकोर्स तथा मनुवार विचारों के अनुकूल पखने वाले ससार में कमी कोई उन्नति मही कर सकते और न च तथा महान् बन सकते हैं।
भूतकाल में भोग न करने वालों की गति ।
(२९) मा अध्याय में महारकची में यह को लिखा हो। कि कार में भोग करने पाना मनुष्य परमगति (मोक्ष) को प्रक होता है और उसके ऐसा सवीन पुत्र पैदा होता है बो पितों के वर्ग प्राप्त कर देता है। परन्तु अनुसार में भोग न करने वाले
* अनाप शामिगमी तु प्राति परम गतिम् ।
जकुमा समवेरपुना पितवां स्वर्गको मत । सापू मसावि के धर्म १०० कासरा है।
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[108]
स्त्री-पुरुषों की जिस गति का उल्लेख किया है यह और भी विचित्र है । - आप लिखते हैं:--~
* ऋतुखा तु यो भायां सनिधो नोपय [ग] च्हति । घोरायां भ्रूणहत्यायां पितृभिः सह मन्वति ॥ ४६ ॥ ऋतुखाता तु या नारी पर्ति नैवोपचिन्दति ।
शुनी बुकी शृगाली स्याच्छूकरी गर्दमी च सा ॥ ५० ॥
"
अर्थात् जो पुरुष अपनी मुखाता ऋतुकाल में खान की हुईश्री के पास नहीं जाता है-उससे भोग नहीं करता है - वह अपने 'पितरों सहित भ्रूणहत्या के घोर पाप में डूबता है--- खयं दुर्गति को प्राप्त होता है और साथ में अपने पितरों, ( माता पितादिकं ) को भी 'ले मरता है। 'और नो श्रृतुखाता जी अपने पति के साथ भोग नहीं 'करती है वह मर कर कुती, भेदिनी, गीदड़ी सूभरी और गंधी होती है।
* इस पद्य का कार्य देने के बाद सोनीओ ने एक बड़ा ही पिल्ल'क्षण' भावार्थ' दिया है ओ इस प्रकार है:
"माचार्थ - कितने ई लोग ऐसी बातों में आपति करते हैं। इसका कारण यही है कि वे श्राजकल स्वराज्य के नसे में चूर हो रहे है | अतः हरएक को समानता देने के आवेश में आकर उस क्रिया के चाहने वाले लोगों को भड़का कर अपनी स्याति-पूजा आदि चाहते हैं । उन्होंने धार्मिक विषयों पर आघात करना ही अपना सुख्य कर्तव्य समझ लिया है ।"
इस भावार्थ का मूल पद्य अथना उसके अर्थ से ज़रा भी सम्बंध नहीं है। ऐसा मालूम होता है कि इसे लिखने हुए सोनजी खुद ही किसी गहरे- नशे में चूर थे । अन्यथा, ऐसा बिना सिर पैर का महाकापजनक 'भावार्थ' कभी भी नहीं लिखा जा सकता था ।
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पाठकानन ! देखा, मैसी विभिन्न व्यवस्था है । 1 से ही में दिन पर्व के दिन हो, पापुरुषों में से कोई एक अथमा होना होता हो, बीमार हो, भनिछुक हों, तीर्थयात्रादि धर्भ त्रयों में लगे हों या परदेश में स्थित हो परतु उसे सपा मोग करना ही चाहिये !! यदि नहीं करते है तो ये उस पार से घोर पाप के मागी अथवा दुर्गति के पात्र होते है। इस प्रयापक व्यवस्था का भी यही कुरा ठिकाना है ।। स्वरुषि की प्रविष्य, समयम के अनुष्ठान, मार्य के पासन और योगाभ्यासादि के द्वारा अपने बम्पुदय के पत्र का तो इसके मागे कुछ मूल्य ही नहीं रखता !! समझ में नहीं पाता धूम (गर्मस्य नक) के विमान न होते तरमी उसकी हा कायम से हम माता है यदि জীগ বি অগ্ন্য কী গাই বলা প্রশব স্ম, শ্যবল স্মঘাৰ पर है। यदि मोग न करने से सूबहत्या का पाप लग जाता है तब तो का भी त्यागी, जो अपनी जी को छोड़कर ब्रह्मचारी वा मुनिजमा हो, इस पाप से . नहीं बच सकता और समाज के मत से पूम्प पुरुषों अथवा महान मामाओं को चोर पासिको तपा दुर्गति का पात्र मार देना होगा। परन्त देख मानधर्म में जल कीची माविका और उसके प्रापसे भनय मस्ति ऋतुकात में भोग न करते हुए भी पाप से मामिल रहे हैं, और सदति को माम हुए है। बनारठि से यह कई चाहिनी नहीं कि शुद्ध काम में भोग किया ही बाप । हो, मोग बो किया जाय तो वह संतान के জি ষ্টিয়া আর গীয় অহয় ইনক্স লিখা গান খইল, বুৰী অহয়। যদি নাকি রিয়ীपेक्षा मी लगी हुई है अर्थात् प सी एम यदि बस संगय रोगादिक के कारण या और तौर पर वैसा करने के लिये असमर्थन हो, और पा समय भी कोई पांदिवर्य कास न हो तो वे परस्सा कामबन कर सकते
इसी भवसा कोरियऐसा नियम मा गहा है। और पहा
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[१७६] भगवजिनसेन-प्रणीत आदिपुगण के निम्न वाक्य से भी ध्वनित होती है:--
संतानामुनाचेच कामसेवां मिथ्या मजेत् ।
शक्तिकामध्यपेक्षोऽयक्रमोऽशकवतोऽन्यथा ॥ ३८-१३५ ॥
इससे भहारकजी का धक्त सब कथन जैनधर्म के बिलकुल विरुद्ध है और उसने जैनियों की सारी कर्म फिलॉसॉफी को ही उठा कर ताक में रख दिया है। भला यह कहा का न्याय और सिद्धान्त है जो पुत्र के भोग न करने पर बेचारे मरे जीते पितर भी भूणहत्या के पाप में घसीटे जाते हैं। मालूम होता है यह महारकली के अपने ही मस्तिष्क की उपज है, क्योंकि उन्होंने पहले पत्र में, जो 'पराशर ऋषि का पचन है और 'पराशरस्मृति के चौयं अध्याय में नं०१५ पर दर्ज है तथा 'मिताक्षरा' में भी उद्धृत मिलता है, इतना ही फेरफार किया है.अर्थात्, उसके अन्तिम चरण 'युज्यते नात्र संशयः' को 'पितृभिः सह मज्जति में बदला हैं। दूसरे शब्दों में यों काहिये कि परांशरजी ने पितरों को उस हत्या के पाप में नहीं हुबोया था, परन्तु महारकजी ने उन्हें भी दुबोना उचित समझा है !!!* ऐसा निराधार कपन कदापि किसी माननीय जैनाचार्य का वचन नहीं हो सकता। 'दूसरा पच भी, जिसमें रतुकाल में मोग न करने वाली स्त्री की गति
* एक बात और भी नोट किये जाने के योग्य है और वह यह कि हिन्धु ग्रंथों में इस विषय से सम्बन्ध रखने वाले देवल 'श्रादि ऋषियों के कितने ही पचन ऐसे भी पाये जाते हैं जिनमें स्वस्थ सनोपगच्छनि' आदि पदों के द्वारा उस पुरुष को ही प्रणहत्या के पाप का मागी ठहराया है जो खस्य होते हुए भी ऋतुकाल में मोग नहीं करता है। और 'पर्ववज्य तथा पर्वाणि वर्जयेता मांदि 1 पदों के द्वारा ऋतुकाल में भी मोग के लिये पर्व दिनों की छुट्टी
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[१७७] का उझेख है, हिन्दू-धर्म के किसी प्रथ से लिया गया अथवा कुछ परिवर्तन करके रखा गया मालूम होता है, क्योंकि हिन्दू-मयों में ही इस प्रकार की थाहार प्रचुरता के साथ पाई जाती है। पराशरजी में तो ऐसी बी को सीषा नरक में भेजा है और फिर मनुष्ययोनि में जाकर उसे बार बार विधवा होने का भी फतवा (धर्मादेश) दिया है। यथा:
अतुलाना तु या भारी मतार नोपलपति।। घा सूता नरकं पाति विधधा व पुना पुनः ॥४-१४॥
पराशरस्थति। इस पद का पूर्वार्ध और महारानी के दूसरे पक्षका पूर्वार्ध दोनों एकार्यवाचक हैं । संभव है इस पथ पर से ही महारकजी ने अपने पक्ष की रचना की हो। उन्हें उस श्री को क्रमशः नरक तथा मनुष्य गति में न भेन पर खालिस तिथंच गति में ही धुमाना सचित जचा हो और इसीलिये उन्होंने इस पद के उपराध को अपनी इच्छानुसार बदला हो । परंतु कक्ष भी हो, इसमें संदेह नहीं कि मारकानी ने कुछ दूसरों की नकल करके और कुछ अपनी कला को बांचों दखल देकर नो ये बेदगी व्यवस्थाएं प्रस्तुत की है उनश्च जैनशासन से कुछ भी सम्बंध नहीं है। ऐसी नामाकृत व्यवस्थाएं कदापि नियों के द्वारा मान्य किये जाने के योग्य नहीं ।
अश्लीलता और अशिष्टाचार। (२५) व्रत, नियम, पर्व, स्वास्थ्य, अनिच्छा और असमर्थता मादि की कुछ पर्वाह न करते हुए, ऋतुकाश में भवश्य भोग करने को ब्यबस्ला देने वाले अश्या मोग न करने पर दुर्गति का फर्मान भारी
-
की गई है। परन्तु मारकनी ने उन पयों को यहाँ संग्रह नहीं किया और म उनका प्राशय ही अपने शब्दों में प्रकट किया। इससे पह और भी साल हो जाता है कि ना तुकाल में भाग न करने धानों को हर हालत में समाहस्सा का अपराधी ठहराया है।
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करने वाले भट्टारकजी ने, उसी अध्याय में, भोग की कुछ विधि भी बत.. लाई है। उसमें, अन्य बातों को छांद कर, आप लिखते हैं 'प्रदीपे मैथुन चरेत् -दीपप्रकाश में मैथुन करना चाहिये और उसकी बाबत यहाँ तक जोर देते हैं कि
दीपे नष्टे तु यः सङ्गं करोति मनुजो यदि ।
यावजन्मदरिद्रत्वं समते नात्र संशय ॥ ३७॥ । अर्थात्-दीपप्रकाश के न होते हुए, अंधेरे में, यदि कोई मनुष्य श्रीप्रसङ्ग करता है तो वह जन्म भर के लिये दरिनी हो जाता है इस में सन्दह नहीं है । इसके सिवाय, आप भोग के समय परस्पर क्रोध, रोष, मर्सना और ताड़ना करने तथा एक दूसरे की उच्छिष्ट (ज्छन ) खाने में कोई दोष नहीं बतलाते है। साथ ही, पान चबान को भोग का आवश्यक अंग ठहराते हैं-भोग के समय दोनों का मुख ताम्बून से पूर्ण होना चाहिये ऐसी व्यवस्था देते हैं. और यहाँ मक लिखते हैं कि वह श्री भोग के लिये त्याज्य है निसके मुख में पान नहीं और इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि महारकजी ने उन श्री-पुरुषों भयवा श्रावक-श्राविकाओं को परस्पर कामसेवन का अधिकारी ही नहीं समझा
सन्देह की बात तो पूर रही, यह तो प्रत्यक्ष के भी विरुद्ध मालूम होता है, क्योंकि कितने ही व्यक्ति सज्जा प्रादि के वश होकर । या वैसे ही सोसे से लाग कर अन्धेरे में कम सेवन करते हैं परन्तु वे परिदी नहीं देखे जाते । कितनों ही की घन-सम्पन्नता वो उसके बाद प्रारम्भ होती है।
* पाइननं तनुश्चैत्र धच्छिष्ट वाडनं तथा। - कोपो रोषाश्च निर्भस संयोगे न प दोष मा १३८ ।
ताम्बूलेन मुचं पूर्ण...कृत्वा योगं समाचरेत् ॥ विना वाम्बूलबदनां...संयोगेच परित्यजेद ।।४।।
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[१७] जो रात्रि को भोजनपान न करते हों अथवा जिन्हनि संयमादिक की किसी दृष्टि से णन का खाना ही छोड़ रखा हो । परन्तु इन सब बातों को भी बोलिये, इस विधि में चार लोक खासतौर से उल्लेखनीय है--महारकनी ने उन्हें देने की खास नखरत सममी है और वे इस प्रकार हैं:
शुक्लषानुपषिएस्तु शम्यायाममित्तम्मनः।
स्मृत्य परमात्मानं पत्न्या जंधे प्रसारयेत् ॥४१॥ अलोमश व पहचामनाही सुमनोहराम् । । योनि स्पृष्ट्या अपेन्मत्र पवित्र पुत्रदायकम् ॥२॥ ओशवाकर्षयदोहरन्योन्यमावलोकयेत् ।। स्तनौ घृत्वा तु पापियामन्योन्यं चुम्बयेन्मुखम् ॥ ४॥ पत्नं देहीति मंत्रणा योन्पा शिनं प्रवेशयेत् । घोस्तु किंचिदधिकं भवेशिक पक्षाधितम् ॥ ४५ ॥ इन लोकों के बिना महारकजी की मोग-विधि शायद मधी ही छ जाती । और बोग समझ ही न पाते कि भोग कैसे किया करते हैं !! अस्तु इन सब लोकों में क्या निखा है उसे बतलाने की हिन्दी और मराठी के दोनों अनुवादकताओं में से किसी ने भी कृपा नहीं की-सिर्फ पहले दो पयों में प्रयुक्त हुए 'मुक्तवान', 'उपविष्टस्तु शय्याया', 'सस्स्स्य परमात्मानं', 'जपेन्मत्रं पुत्रदायक पदों में से सबका अथवा कुछ का भर्ष दे दिया है और बाकी सब छोड़कर सिख दिया है कि इन लोकों में बतलाई विधि अपवा क्रिया का अनुष्ठान किया जाना चाहिये। पं० पलाचाबाची सोनों की अनुवाद-पुस्तक में एक नोट भी लगा हुआ है, जिसमें लिखा है कि
"प्रन्सीलता और शिवाचार कांदोष माने के समय लोक
* ४१ लोक में कही गई 'पदन्याचे प्रसारयेत जैसी किया कामी यो भाषाबुराइन किया गया ।
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[१८०] में काही गई क्रियाओं का माषानुपाद नहीं किया गया है। इसी प्रकार ४४ वें और वे लोक का अर्थ भी नहीं लिखा गया है" ____ मराठी अनुवादकर्ता पं० पल्लाप्पा भरमाया निट ने भी ऐसा ही प्राशय व्यक्त किया है-आप इन श्लोकों का अर्थ देना मराठी शिष्टाचार की दृष्टि से अयोग्य बतलाते हैं और किसी संस्कृत विद्वान से उनका अर्थ मालूम कर लेने की जिज्ञासुओं को प्रेरणा करते हैं। इस तरह पर दोनों ही अनुवादकों ने अपने अपने पाठकों को उस धार्मिक ( विधि के ज्ञान से कोरा रक्खा है जिसकी महारानी ने शापद बड़ी है। कृपा करके अपने ग्रंथ में योजना की थी और अपने इस व्यवहार से यह स्पष्ट घोषणा की है कि मधारकजी को ये लोक अपने इस पंप में नहीं देने चाहिये थे।
यद्यपिउन अनुवादकों ने ऐसा लिखकर अपना पिंड छुड़ा लिया है परंतु एक समालोचक का पिंड वैसा लिनकर नहीं छूट सकता-उसका कर्तव्य भिन्न है-बच्चा न होते हुए भी कर्तव्यानुरोध से उसे अपने पाठकों को पोड़ा बहुत कुछ परिचय देना ही होगा जिससे उन्हें यह मालूम हो सके कि 'इन श्लोकों का कथन क्या कुछ अलीलता और अशिष्टता को शिप हुए है। साथ ही, इस पर से महारकाची की रुचि तथा परिणति आदि का भी वे कुछ बोध प्राप्त कर सकें । अत' नीचे उसीका यन किया आता है
पहले लोक में महारकजी ने यह नतलाया है कि 'भोग करने धाला मनुष्य भोचन किये हुए हो, वह शय्या पर श्री के सामने है
और परमात्मा का स्मरण करके श्री की दोनों जा पसारे । फिर दूसरे लोक में यह व्यवस्था दी है कि यह मनुष्य उस स्त्री की योनि को सुप
और वह योनि वालों से रहित हो, अच्छी देदीप्यमान हो, गीली न हो 'तथा भने प्रकार से मन को हरने वाली हो, और उसे छूकर पुत्र के देने वाले पवित्र मंत्र का जाप करे। इसके अणे ग्रंप में योनिस्थ
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[११)
देवता की अभिषेक-परस्सर पूना पाला यह मंत्र दिया है जो प्रतिक्षादि विरोध' नामक प्रकरण के (अ) भाग में चक्षुत किया जा चुका है,
और शिखा है कि इस मंत्र को पढ़कर गोबर, गोमुत्र, दूध, दही, घी, कुश और मन से योनि का मच्छी तरह प्रक्षालन करना चाहिये और फिर उसके उपर चंदन, केसर तथा कस्तरी आदि का शेप कर देना चाहिये । इसके बाद 'योनि परयन जपेन्मंत्रात् नाम का १३ वा पप दिया है, जिसमें उस चंदनादि से चर्चित योनि को देखते हुए + पंच परमेष्टिबाधक कुछ मंत्रों के अपने का विधान किया है और फिर उन मंत्रों तथा एक आलिंगन मंत्र को देवर सक्त दोनों लोक नं.
४४, ४५ दिये हैं। इन ओको तारा महारानी ने यह माना की है किसी पुरुष दोनों परस्पर मुंह मिला कर एक दूसरे के होठों को अपने
होठों से खींचें, एक दूसरे को देखें और हाथों से कातियाँ पकड़ कर एक दूसरे का मुखचुम्मान करें। फिर 'पलं देहि इत्यादि मंत्र को पढ़ कर योनि में लिंग को दाखिल किया जाय और वह लिंग योनि से कुछ बड़ा तया बनवान होना चाहिये।
* यथा-"इति मंत्रष गोमय-गोमूत्र-चीर-वधि-सर्पित कुशोदकोनि संम्प्रचाप भीगन्धकुंकुमकस्तूरिकायन
लेपनं कुर्यात् । __+'योनि पश्यन् पदों का यह भय मी अनुवादकों में नही दिया।
सके बाद दोनों की संतुष्टि तथा व्यापून पर योनि में वीर्य के सींचने की बात कही गई है, और यह कयन दोपयों में है, जिनमें पहला 'संतुष्टो भार्यया भाता नाम का एक मनुस्मृति कापाय है और दूसरा पथ निम्न प्रकार है
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पाठकजन देखा, कितनी सभ्यता और शिष्टता को लिये हुए कपन है। एक 'धर्मरसिक' नाम घगन वाले ग्रंथ के लिये कितना उपयुक्त है । और अपने को 'मुनि' 'गणी' तथा 'मुनीन्द्र' तक लिखने घाले महाकाली को कहाँ तक शोमा देता है खेद है महारकली को विषय-सेवन का इस वख पर खुला उपदेश देते और खी-सभोग की स्पष्ट विधि बतलाते हुए जरा भी लब्बा तथा शरम नहीं भाई ॥ निन बातों की चर्चा करने अपवा कहने सुनने में गृहस्यों तक को संकोच होता है उन्हें वैराग्य तथा ब्रह्मचर्य की मूर्ति बने हुए मुनिमहाराजजी बड़े चाव से लिखते हैं यह सब शायद कलियुग का ही माहात्म्य है !!मुझे तो महारकनी की इस रचनामय लीला को देखकर कविवर भूधरदासजी का यह वाक्य याद आजाता है
रागडदै जग अंध भयो, सहजै सत्र कोगन लाज गवाई। । सीख बिना मर सीसन है, विषयादिक सेवन की सुधराई ।। ता पर और रचे रसकाव्य, कहा कहिये निनकी निठुराई।
अंध असूझन की जियान में झांकन है रज रामदुहाई !! . सचमुच ही ऐसे कुकषियों, - धर्माचार्यों अपवा गोमुखल्याों से राम बचाव ! ये खयं तो पतित होते ही हैं किन्तु दूसरों को भी पतन की ओर ले जाने हैं। उनकी निष्ठुरता, नि:मन्देह, अनिर्वचनीय है । भट्टारकनी के इन उद्गारों से उनके हृदय का भाव मानता हैकुरुचि तथा लम्पटता पाई जाती है-और उनके ब्रह्मचर्य की पाह का
इच्छापूर्ण भवेचाच भयोः कामयुक्तयोः ।
लामिचेतना योन्या चेन गर्ने विति सा ॥४॥ ४१ का उत्तगर्घ और इस पद्य का उत्तरार्ध दोनों मिल कर हिन्दुओं के प्राचारार्क ग्रंथ का पक गय होता है, जिसे संभवतः यहाँ विमक करके रक्खा मशहै।
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[११]
किनमा ही पता चल जाता है। जो लोग विवाह विषय पर सम्मति दे देने से ही ब्रह्मचर्य में दक्षेप या छातीचार का बगना बतलाने हैं ये.
मालूम नहीं, ऐसी भोगप्रेरणा को लिये हुए मरतील उद्गार निकालने वाल इन मट्टारकमी के माचर्य विषय में क्या कहेंगे और उन्हें ग्रामको की दूसरी प्रतिमा में भी स्थान प्रदान करेंगे या कि नहीं ? अस्तु मे लोग कुछ ही कहें अथवा करें, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि महारकर्मी का यह सब विधि-विधान, जिसे वे 'कामयज्ञ' बतलाते हैं और बिसके अनुष्ठान मे 'संसार समुद्र से पार तारने वाला पुत्र' पैदा होगा एसा लालच दिखलाते है, जैन शिलाधार के बिलकुल विरुद्ध है और जैन साहित्य को कमकित करने वाला है। जान पड़ता है, बट्टारकनी ने उसे देने में प्रायः बागमार्गियों अपना शक्तिकों का अनु करण किया है और उनकी 'यांनिपूजा' 'जसी घृणित शिक्षाओं को जैन समाज में फैलाना चाहा है। अतः प्रापका यह सब प्रयत्न किसी तरह भी प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता ।
यहां पर एक बान और भी बतला देने की है और वह यह कि ४५ में पथ में जो 'बलं देहीति मंत्रेण' पाठ दिया है उससे यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि उसमें जिस मंत्र का उल्लेख किया गया है यह 'बलं देहि' शब्दों से प्रारंभ होना है। परन्तु महारकजी ने उक्त पद्म के अनन्तर जो मंत्र दिया है वह 'बलं देखि' अथवा 'ॐ बलं देहि' जैसे शब्दों से प्रारंभ नहीं हाता, किंतु 'ॐ ह्रीं शरीरस्थायिनो देवता पर्छ तु स्वाहा' इस रूप को लिये हुए है, और इससे यह स्पष्ट जाना जाता है कि महारकमी ने उस मंत्र को बदल
यथा
S
काम यक्षमिति प्राहुहियां सर्वदेव च ।
समते पुत्रं संसाधवतारकम् ॥ ५१
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[१८४] कर रखा है जिसकी बाबत यह बहुत कुछ संभव है कि वह वाममागियों अथवा शाक्तिकों का मंत्र हो और खोज करने पर उनके किसी ग्रंथ में मिल जाय । ऐसी हालत में उक्त पञ्च भी-अकेला भया दूसरे पछ के साथ में-उसी ग्रंथ से लिया गया होना चाहिये । मालूम होता है, उसे देते हुए, मटारकनी को यह खयाल नहीं रहा कि जब हम पद्य में उल्लेखित मंत्र को नहीं दे रहे हैं तब हमें इसके पलं देहाति शब्दों को भी बदल देना चाहिये । परन्तु महारकनी को इतनी सूझ बूम कहाँ थी? और इसलिये उन्होंने पद्य के उस पाठ को न बदत्त कर मंत्र को ही बदल दिया है ।
स्याग या तलाक (२६ ) ग्यारहवें अध्याय में, विवाहविधि को समात करते हुए, भहारकजी लिखते है:
क्यप्रा दशमे वर्षे ब्रीम द्वादशे यत्।
मृतप्रजा पंचदशे सघस्त्याप्रियवादिनीम् ॥ १७ ॥ अर्षाद--जिस खी के लगातार कोई संतान न हुई हो उसे दसवें वर्ष, जिसके कन्याएँ ही उत्पन्न होती रही हों उसे बारहवें वर्ष, जिसके
• यह पद्य किसी हिन्दू ग्रंथ का जान पड़ता है। हिन्दुओं की 'नवरत्न विवाह पद्धति' में भी वह संगृहीत मिलता है । अस्तु: इस पच के अनुवाद में सोनीजी ने त्यजेत् ' पद का अर्थ दिया है'दसरा विवाह करे' और । अप्रियवादिनी के पहले एक विशेषण अपनी तरफ से जोड़ा है 'अपुत्रवती' ! साथही अप्रियवादिनी का अर्थ व्यभिचारिणी' बतलाया है और ये सब बातें आपके अनुवाद की विलक्षणता को सूचित करती है। इसके सिवाय अपने त्यागावधि के वर्षों की गणना प्रथम रजोदर्शन के समय से की है। यह भी कुछ कम विलक्षणता नहीं है।
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[१८]
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बधे मर जाते हों उसे पंद्रहवें वर्ष और जो अप्रियशदिनी (बटु गावया करने वाली ) हो व फैन ( तत्काल ही ) त्याग देना चाहिये | भट्टारकभी के इस 'त्याग' के दो अर्थ किये जा सकते हैं एक 'समोगस्याग' और दूसरा वैवाहिक सम्बंधस्था'। 'संभागन्याग' अर्थ भट्टारकञ्ची के पूर्वकथन की दृष्टि से कुछ संगत मालूम नहीं होता; क्योंकि ऐसी खियाँ गी तथा खाता तो होती ही है और ऋतुकाल में ऋतुजाताओं से भोग न करने पर महार कबी ने पुरुषों का भ्रूणहत्या के घोर पाप का अपराधी ठहराया है और साथ में उनके पितरों को भी घसीटा है; ऐसी हालत में उनक इस वाक्य से 'संभोगत्याग' का ध्याशय नहीं लिया जासकता वह भापति के योग्य ठहरता
है तब दूसरा 'वैवाहिक सम्बन्ध त्याग' धर्म ही यहाँ ठीक बैठता
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,जिसे 'तलाक' Divorce करते है और ना उक्त पाप से मुक्ति दिखा सकता अपना सुरक्षित रख सकता है। इस दूसरे धर्म की पुष्टि इससे भी होती है कि महारकजी मे संभोगस्याग की बात को मतान्तर रूप से दूसरों के गत के तौर पर (अपने सत के तौर पर नहीं)-- अगले पक्ष में दिया है। और वह पथ इस प्रकार है: --
व्याधिना समजा चन्पा उन्मत्ता विगतार्तया । अदुष्टा समते त्यायं तीर्थतो न तु धर्मतः ॥१६८॥
इस पथ में बताया है कि 'को श्री (चिरकाल से) रोगपीडित हो, जिसके कन्याएँ ही पैदा होती रही हो, जो पन्ध्या हो, त हो, अथवा रजोधर्म से रहित हो (रजस्वलाम होती हो ) ऐसी श्री यदि दुष्ट स्वभाष पासी न हो तो उसका मदन कामतीर्थ से स्वाग होता है - यह संभोग के लिये स्याज्य ठहरती हैपरतु धर्म से नहीं वर्ग से उसका पतीसम्बंध बना रहता है।
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1
+ मराठी अनुवाद-पुस्तक में पद्म के ऊपर मतान्तरं ' की अनुवाद " दुसरं मतं " दिया है परन्तु सोमीजी अपनी अनुवाद पुस्तक में उसे बिलकुल ही बड़ा गये है !
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[१८] - इस पद्य से यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि इसमें ऐसी स्त्री कों धर्म से न त्यागने की अथवा उसके साथ इतनी रिभायत करने की बों बात कही गई है उसका मूल कारण उस स्त्री का दुष्टा न होना है
और इसलिये यदि वह दुष्टाहो अप्रियवादिनी हो अथवा भट्टारकजी कएक दूसरे पद्यानुसार अति प्रचण्डा, प्रयाग, कपालिनी, विवादकत्री, अर्थचोरिणी, आनन्दिनी और सप्तगृहप्रवेशिनी जैसी कोई हो, जिसे भी भापने त्याग देने को लिखा है तो वह धर्म से भी त्याग किये जाने को अथवा यो कहिये कि तलाक की अधिकारिणी है, इतनी बात इस . पंच से मी साफ सूचित होती है । चाहे वह किसी का भी मत क्यों न हो।
*वह पद्य इस प्रकार हैअंतिप्रचण्ड प्रबल कपालिनी, विवादक स्वयमथचरिणीम् । भाक्रन्टिनी लगृहप्रवेशिनी, त्यजेच भायां दशपुत्रपुषिणीम् ॥३३॥ ।
इस पद्य में यह कहा गया है कि जो विवाहिता स्त्री अति प्रचण्ड हो, अधिक बलवती हो, कपालिनी (दुर्गा) हो, विवाद करने वाली हो. धनाविक वस्तुएं चुराने वाली हो, ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने प्रथा रोन बासी हो. और सात घरों में घरघर में डोलने वाली हो. वह यदि दस पुत्रों की माता भी हो तो भी उसे त्याग देना चाहिये।
इस पत्र के अनुवाद में लोनीजी ने 'भार्यो' का अर्थ 'कन्या' गलत किया है और इसलिये आपको फिर 'दशपुत्रपत्रिणीम् का अर्थ 'भागे चलकर दशपुत्रपुत्रीवाली भी क्यों न हो' पंसा कर पाजो ठीक नहीं है मायाँ विवाहिताली को कहते हैं। इलब में यह पद्य ही नहीं असंगत जान पड़ता है। इसे त्याग विषयफ उमा दोनों पक्षों के साथ में देना चाहिये था। परन्तु 'कहीं कीट कहीं का रोडा मानमती ने कुनया जोटा 'पाली कहावत को धरिः तार्थ करने वाले महारकजी इधर उधर से उठाकर रपन हुए पद्यों की तरलीव देने में इतने कुशल, सावधान अथवा विवेकी नहीं थे। इसी से उनके ग्रंथ में जगह जगह ऐसी त्रुटियाँ पाई जाती है और यह बात पसि भी जादिन की जा चुकी है।
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[१८७]
इस तरह पर महारकबी ने स्त्रियों को त्याग या तनाक देने की यह व्यवस्था की है। दक्षिण देश की कितनी ही हिन्दू जातियों में तलाक़ की प्रथा प्रचलित है और कुछ पुनर्विवाह वाली मैनजातियों में भी उसका रिवाज है; जैसा कि १ की फरवरी सन् १९२८ के 'जैनजगत्' अंक नं० ११ से प्रकट है। मालूम होता है महारकबी ने उसी को यहाँ अपनाया है और अपनी इस योजनाद्वारा सपूर्ण नैनसमाज में उसे प्रचारित करना चाहा है। मट्टारकजी का यह प्रयत्न कितना निन्दित है और उनकी उक्त व्यवस्था कितनी दोषपूर्ण, एकांगी सधा न्याय - नियमों के विरुद्ध है उसे बतलाने की जरूरत नहीं । सहृदय पाठक सहज ही में उसका अनुभव कर सकते हैं। हाँ, इतना बरूर बतलाना होगा कि जिस श्री को स्याग या तलाक दिया जाता है यह वैवाहिक सम्बन्ध के विच्छेद होने से, अपना पुनर्विवाह करने के लिये स्वतंत्र होती है। और इसलिये यह भी कहना चाहिये कि महारकजी ने अपनी इस व्यवस्था के द्वारा ऐसी ' त्यक्ता' स्त्रियों को अपने पक्षि की जीवितावस्था में पुनर्विवाह करने की भी स्वतंत्रता या परवानगी दी है || अस्तु पुनर्विवाह के सम्बन्ध में महारकनी ने और भी कुछ भालाएँ जारी की हैं जिनका प्रदर्शन अभी आगे 'स्त्री-पुन'विवाह' नाम के एक स्वतंत्र शीर्षक के नीचे किंवा जायगा । स्त्री- पुनर्विवाह |
(२७) 'तलाक' की व्यवस्था देकर उसके फलस्वरूप परित्यक्ता खियको पुनविवाह की स्वतन्त्रता देने वाले मट्टारकजी ने कुछ हासतों में, अपरित्यक्तासियों के लिये भी पुनर्विवाहको व्यवस्थाकी है, जिसका खुलासा इस प्रकार है
० यद्यपि इस विषय में भट्टारकजी के व्यवस्था चाक्य बहुत कुछ स्पष्ट है फिर भी चूंकि इस विचार के अंडियों में, उन्हें अपनी मनोवृति के अनुकूल न पाकर अथवा प्रथ के प्रचार में विशेष बाधक समझकर उन पर पर्दा डालने की अघन्य चरा की- श्रयः यहाँ
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[१८]
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ग्यारहवें अध्याय में भट्टारकजी ने, वाग्दान प्रदान, वरण, पाणिग्रहण और सप्तपदी को विवाह के पाँच मंग बतलाकर उनकी क्रमशः सामान्यविधि बतलाई है और फिर 'विशेषविधि' दी है, जो अंकुरारोपय से प्रारम्भ होकर 'मनोरथाः सन्तु' नामक उस आशीर्वाद पर समाप्त होती है जो सप्तपदी के बाद पूर्णाहुति आदि के भी अनन्तर- दिया हुआ है । इसके पश्चात् उन्होंने हिन्दुओं के 'चतुर्थी कर्म' को अपनाने का उपक्रम किया है और उसे कुछ जैन का रूप दिया है। चतुर्थी-कर्म विवाह की चतुर्थ रात्रि के कृत्य को कहते है । हिन्दुओं के यहाँ वह 'विवाह का एक देश अथवा अंग माना जाता है । चतुर्थी - कर्म से पहले वे स्त्री को 'भार्या' संज्ञा ही नहीं देते। उनके मतानुसार दान के समय तक 'कन्या', दान के अनन्तर 'बघू', पाणिग्रहण हो जाने पर 'पत्नी' और चतुर्थी - कर्म के पश्चात् 'भार्या' संज्ञा की प्रवृत्ति होती है। इसी सेवे मार्या को 'चातुर्थ कर्मणी' कहते हैं, जैसा कि मिश्र निबाहूराम विरचित उनके विवाहपद्धति के निम्न वाक्यों से प्रकट है।
चतुर्थी कर्मणः प्रान् तस्या भार्यत्वमेव न संप्रवृत्तम् । विवादेकदेशत्वाचतुर्थी कर्मणः । इति सूत्रार्थः । तस्माद्भार्यां चातुर्थ कर्मणीति सुनि• वचनात् । "आप्रदानात् भवेत्कन्या प्रदानानन्तरं वधूः ॥ पाणिग्रहे तु पक्षी स्याद्भार्या चातुर्यफर्मणीति ॥"
और इसीलिये उनकी विश्राइपुस्तकों में 'चतुर्थीकर्म' का पाठ लगा रहता है जो 'ततञ्चतुर्थ्यामपररात्रे चतुर्थीकर्म' इस प्रकार के
पर उनका कुछ विशेष खुलासा अथवा स्पष्टीकरण कर देना ही उचित तथा ज़रूरी मालूम हुवा है। इसीसे यह उसका प्रयज्ञ किया जाता है। * वामन शिवराम ऐगटे के कोश में भी ऐसा ही लिखा है । यथा:
t
The Ceremonies to be performed on the fourth
night of the marriage " और इससे 'चतुर्थी' का अर्थ होता है The fourth might of the marriage विवाह की चतुर्थ रात्रि ।।
F
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[१८] वाक्य के साथ प्रारम्भ होता है। महारकबी ने विवाह रात्रि के बाद से उस रात्रि के बाद से जिस रात्रि को पंचाङ्गविवाह की सम्पूर्ण विधि सगात हो नाती है-चतुर्थीकर्म का उपक्रम करते हुए, प्रति दिन सुबह के वक्त पौष्टिक कर्म और रात्रि के समय शतिहोम, करने की व्यवस्था की है,
और फिर चौथे दिन के प्रमातादि समयों का कृत्य बतलाया है, जिसमें विवाहमंडप के भीतर पूजनादि सामग्री से युक्त तथा अनेक चित्रादिका से चित्रित एक महामडन की नवीन रचना वधू का नूतन कलश स्थापन, संध्या के समय वधू-वर का षहाँ गीत वादिन के साथ स्नान और उन्हें गंधावतप्रदान भी शामिल है। इसके बाद सक्षेप में चतुर्थानि का सन्म दिया है और उसमें मुख्यतया नीचे शिखी क्रियाओं का उल्लेख किया है
(१)ध्रुवतारा निरीक्षण के अनन्तर समा की पूजा (२) भगवान का अभिषेक-पुरस्सर पूजन तथा होम (३) होम के बाद पक्षों के गले में घर की दी हुई सोने की तामी का मंत्रपूर्वक बाधा नाना (१) मंत्र पढ़कर दोनों के गले में सम्बंधमाला का डाला जाना (५) मागों का तर्पण अथवा उन्हें पनि का दिया नाना (६) भमि पूजनादि के अनंतर वर का पान बीड़ा कर बधूमाहित मगर को देखन नाना (७) ताश्चात् होम के शेष कार्य को पूरा करके पूर्णाहुति का दिया जाना (E) होम की मस्म का वर वधू को वितरण
*स कथन के कुछ वाक्य नीचे दिये जाने है"तता प्रसूति नित्यं च प्रमाने पौपिकं मतम् । निशीथे शान्ति होमेद चतुणे नागार्पणम् ॥ १८ ॥ तक्ष्म बचप्रमाने व गुस्माबायो: पुण्कासम्मान" ॥१४॥ "मवीन घट."संस्थापंपचार पक्षी ॥ १५३ ॥ "सावित्येवमेतन्महामण्डलं चशपूजाचनायोग्य सहन्यपूर्णम् ॥१५॥ "सरागेविसंम्यामिधानेहशील परस्थापि धायाःशुमस्नानकंधा वढंचालन युज्यते वावरेण सुमांगल्य पावित्रगानादिपर्वम्॥१६॥ "दिव्यगावस्य गंधापाविच सुगधं वा मवीति...
संधारितातता मन्येवं भवन्तु ।
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[११०] (1) सुवर्णदान (१०) तदनंतर ककण खोचकर ग्राम की प्रदक्षिणा करना (११) प्रदक्षिणा से निवृत्त होकर सुखपूर्वक दुग्धपान तथा संमोगादिक करना और फिर अपने ग्राम को चशे माना। चतुर्ष रात्रि की इन क्रियाओं से सम्बध रखने वाले कुछ पदवाक्य इसप्रकार हैं:___ "रात्रौ भुवतारादर्शनानन्तरे विविशिए बन्धुजन समापूना । चतुर्थ(यों) दिनेफ्धूवरयोरपि महास्नानानि च स्नपनाचर्चा होमादिकं छत्वा तालीबंधनं कुर्यात् । तद्यथा-परेण दचासौवर्णी तासी ॥१६॥
"ॐ पतस्याः पाणिगृहीत्यास्तानी बध्नामि इयंनियमघटसमक्ष्मी विदयात् । ___ "ऊँमायर्यापत्यारेतयोः परिणीति प्राप्तयोस्तुरीये घनेनवेलायां चैतालपर्यायाश्च सौ सम्बध्येते सम्बन्धमाला अतोलब्धिपत्यानां द्राधीयं श्रायुश्चापि भूयात् ।
"सुहोमाषसोकर पुन्मंगखीय ससूत्र क्रमाद बन्धयेत्कएटवेशे। स्वसम्बन्धमानापरिवेष्टनं च, सुगशायोलेपनं च ॥१३॥
धूमिहापातापात्राभिराभिः, प्रवेशो परस्यैव तवषयध्वाः।। शुमे मण्डप दक्षिणीकत्सन,प्रदायाशुनागस्य सानानि च१६॥ "समित्समारोपमा पूर्वक तथा, हुताशपूजावसरार्चनं मुदा। पहासमीटीच रोषधूयुतो, विनोकनास्थ (च) पुरं प्रवेत्।
प्रमोः॥ १६७ ॥ • ततः शेषहोम कृत्वा पूर्णाहुति कुर्यात् । "ॐ रक्षत्रयार्चनमयोत्सम शेम भूतिः ॥ १६ ॥ इतिमस्ममहानमंत्र। "हिरण्यगर्मस्य:॥ १६९-११ ॥ इति स्वर्णदानमंत्रः॥ "तदनन्तरं कंकसमोचनं कृत्वामहायोमया प्राम प्रदक्षिणीकृत्य पयःपाचन निघुवनादिकं सुखेन कुर्यात् । स्वमा गच्छेद। .
तदनंतरं' नाम के अन्तिम पाक्य के साथ ही चतुर्थी (चतुर्य'रात्रि ) का विवक्षित सामान्य घृत्य समास हो जाता है। इसके बाद भट्टारकनी के हृदय में इस चतुर्षीकृत्य के सम्बन्ध में कुछ विशेष सूचनाएँ कर देने की भी इच्छा पैदा हुई और इसलिये उन्होंने 'स्वग्राम
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[ १६ ]
गच्छेत् ' के अनंतर ही 'अथविशेषः' लिखकर उसे पाँच पचों
में व्यक्त किया है, जो इस प्रकार हैं:
विवाहे दम्पतीस्यातां त्रिरात्रं ब्रह्मचारियो । अलंकृता वधूवैव सहय्यासनाशिनी ॥ १७२ ॥ पध्वासहैव कुर्वीत निवासं सुराखये चतुर्थ दिनमत्रैव केचिदेवं वदन्ति द्वि ॥ १७३ ।। चतुर्थीमध्ये प्रायन्ते दोषा यदि वरस्य चेत् । दन्तामपि पुनद्यापिताऽन्यस्मै विदुर्बुधाः ॥ १७४॥ प्रघरेक्यादिदोषाः स्युः पतिसंगादधो यदि । वतामपि हरेद्दद्यादन्यस्मा इति केचन ॥ १७५ ॥ कलौ तु घुमरुद्वाहं वर्जयेदिति याज्ञवः । कस्मिन्देिश टि न तु सर्वण केचन ॥ १७६ ॥
इन पर्यो द्वारा भट्टारकजी ने यह प्रतिपादन किया है कि- 'विवाह होजाने पर दम्पती कोपर मधू दोनों को तीन रात तक (विवाह रात्रि को शामिल करके) ब्रह्मचारी रहना चाहिये - परस्पर संभोग अथवा काम श्रीवादिक न करना चाहिये इसके बाद वधू को असंकृत किया जाय और फिर दोनों का शयन, मासन तथा मोनन एक साथ होये ॥ १७२ ॥ घर को वधू के साथ ससुराक्ष में ही निवास करना चाहिये, परंतु कुछ विद्वानों का यह कहना है (जिस पर
* एक झूठा पद्य और भी है जिसका चतुर्थीकिया के साथ कुछ सम्बंध नहीं है और जो प्रायः प्रसंगतता जान पड़ता है। उसके बाद 'विवाहानन्तरं गच्छेत्सभार्यः स्वस्थ मदिरम्' नामक पद्म से और फिर घर में वधू प्रवेश के कथन से 'स्वग्रामं गच्छेत्' कथन का सिलसिला ठीक बैठ जाता है और यह मालूम होने लगता है कि ये मध्य के पच ही विशेष कथन के पथ है और वे अपने पूर्वकथन-चतुर्थी कृत्यपर्सन के साथ सम्बंध रखते हैं।
"I
+ कुछ स्थानों पर काथवा खातियों में ऐसा रिवाज़ पाया जाता है कि वर्ष के परिवार पर आने की जगह प्रतिदी वधू के घर पर जाक
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[१९ महारकजी का कोई आपत्ति नहीं ) कि समुगल में चौथे दिन तक ही रहना चाहिये ।। १७३ ।। चौथी रात को-चतुर्थीकादिक के समययदि वरके दोष (पतितल-नपुंसकत्वादिक) मालूम हो जाये तो पिता को चाहिये कि घर को दी हुई-विवाही हुई-अपनी पुत्र को फिर से किटी दुसर निर्दोष पर को दे देव-उसका पुनर्विवाह कर देव-ऐसा बुद्धिमानों ने कहा है ॥२७॥ कुछ विद्वानों का ऐसा भी मत है (जिस पर भी महारकजी को कोई आपत्ति नहीं कि पुत्री का पति के साथ संगम-संमोग-हो जाने के पश्चात् यदि यह मालून पड़े कि इस सम्बंध द्वारा प्रबरों की-गोत्र शाखाओं अथवा मुनि शादिकों की एकतादि जैसे दोष संटित हुए हैं तो ( भागे को उन दोषों की जान बूझ कर पुनरावृत्ति न होने देने धादि के लिये ) पिता को चाहिये कि वह अपनी उस दान की हुई (विवाहिता और पुनः तनयानि ) पुत्री का हरण करे और उस किसी दूसरे के साथ विवाह देवे ॥१७॥ 'कलियुग में लियों का पुनर्विवाह न किया जाय' यह गालव ऋषि का मत है (जिससे भारकजी प्रायः सहगत मालूम नहीं होते ) परंतु दूसर कुछ पात्रयों का मत इमसे मित्र है। उनकी दृष्टि में वैसा निषेध सर्व स्थानों के लिय इष्ट नहीं है, वे किमी क्रिमी देश के लिये ही उसे अच्छा समझते हैं बाकी देशों के लिये पुनर्विवाह की उनको अनुमान है। रहना है और प्रायः वहीं का हो जाता है। सभत्र है इसी रिवाज को इस उहंब बागाइए किया गया हो और यह भी संमत्र है कि चार दिन से अधिक का निवास ही पद्य के पूर्व का अमाए हो। परंतु कुछ भी हो इसमें संदेह नहीं कि सोनीजी ने इस पद्य का जो निम्न अनुवाद दिया है वह यथोचित नहीं है-उसे देने हुए उन्हें इस बान का ध्यान ही नहीं रहा कि पद्य के पात्र में एक धान कही गारे तष उत्तरार्ध में दूसरी चान का अन्य किया गया है
"को कोई प्राचार्य एसा कहने हैं कि पद पपू के साथ चौथे दिन भी इउपक में ही निवास कर!"
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[२९३] • ' इससे साफ जाहिर है-और पूर्व कथनसम्बन्ध से यह पोर मी स्पष्ट हो जाता है कि महारकी ने यह विवाहिता लियों के लिये पुनविवाह की व्यवस्था की है। तीसरे और चौथे पथ में उन हालतों का उल्लेख है जिनमें पिता को अपनी पुत्री के पुनामाह का अधिकार दिया गया है, और वे ऋगश: वर के दोष तथा सम्बन्ध-दोष को लिये हुए हैं। पाँचौ पद्य में किसी हालत विशेष का उन्न्ह नहीं है. वह पुनर्विवाह पर एक साधारण वाक्य है और इसी से कुछ विद्वान उस पर से विधवा के पुनर्विवाह का भी प्राशय निकालते हैं । परन्तु यह बात अधिकतर 'गालव' नामक हिन्दु ऋषि के उस भूख वाक्य पर अवलम्बित है जिसका इस पथ में उल्लेख किया गया है। वह वाक्य यदि खाली विधवाविवाह का निषेधक है तब तो मारकली के इस वाक्य से विधवाविवाह को प्राय: पोषण बसर मिलता है और उससे विधवाविवाह का माशय निकाला जा सकता है, क्योंकि वे गाय से मिन मत रखने वाले दूसरे पाचार्यों के मत की ओर झुके हुए हैं । और यदि वह विधवाविवाह का निषेधक नहीं किन्तु जीवित भर्तृका एवं अपरित्यक्ता नियों के पुनर्विवाह का ही निषेधक है, तब भधारकजी के इस वास्य से पैसा प्राशय नहीं निकाला जा सकता और न इस वाक्य का पूर्वार्ध विधवाविवाह के विरोध में ही पेश किया जा सकता है। तलाश करने पर भी अभी तक मुझे मालव ऋषि का कोई ग्रंथ नहीं मिला और न दूसरा कोई ऐसा संमहान्य ही उपलब्ध हुआ है जिसमें गालय के प्रकृत विषय से सम्बन्ध रखने वाले वाक्यों .का भी संग्रह हो । यदि इस परीक्षाक्षेत्र की समाप्ति तक भी ना कोई प्रेम मिल गया जिसके लिये खोज जारी है तो उसका एक परिशिष्ट में जरूर उन्लेख कर दिया पाया। फिर भी इस बात की संभावना बहुत-ही.काम.बबन पड़ती है कि गालवं अपि.ने ऐसी सबो
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[ १६४ ]
विवाहिता ( तुरत की ब्याही हुई) और सदोपभर्तृका अथवा सम्बन्धदूषित स्त्रियों के पुनर्विवाह का तो निषेध किया हो, जिनका पद्म नं० १७४, १७५ में उल्लेख है, और विधवाओं के पुनर्विवाह का निषेध न किया हो। मैं तो समझता हूँ गालवजी ने दोनों ही प्रकार के पुनर्विवाहों का निषेध किया है और इसीसे उनके मत का ऐसे सामान्य बच्चन द्वारा उल्लेख किया गया है। हिन्दुओं में, जिनके यहाँ 'नियोग' भी विधिविहित माना गया है, 'पराशर' जैसे कुछ ऋषि ऐसे भी हो गये हैं जिन्होंने विधवा और सपा दोनों के लिये पुनर्विवाह की व्यबस्था की है * । गालव ऋषि वन से भिन्न दोनों प्रकार के पुनर्विवाहों
* जैसा कि पाराशर स्मृति के जिसे 'कली पाराशराः स्मृता: चाय के द्वारा कलियुग के लिये खास तौर से उपयोगी बताया गया है-निवाक्य से प्रकट है:
Pante
न सृते ममजिते पसीने च पतिले पती ।
पंचखापत्सु नारीणां पतिरन्यो विषयते ॥। ४-३० ॥
इसमें लिखा है कि पति के जो जाने-- देशान्तरादिक में आकर सापता हो जाने-मर, जाने, सन्यासी बन जाने, नपुंसक तथा पतिस हो जाने रूप पाँच भापतियों के अवसर पर स्त्रियों के लिये दूसरा पति कर लेने की व्यवस्था है - वे अपना दूसरा विवाह कर सकती है।' इसी बात को 'अमितगति ' नाम के जैनाचार्य ने अपनी 'धर्मपरीक्षा ' में निम्न वाक्य द्वारा उल्लेखित किया है:
पत्थौ प्रवजिते क्लीवें प्रनले पहिले मृते ।
पंचप्राण नारीहां पतिरम्यो विधीयते ॥ ११-१२ ॥
'धर्म परीक्षा के इस वाक्य पर से उन लोगों का कितना ही सम्माधान हो जायगा जो भ्रमवश पाराशरस्मृति के उक्त वाक्य का चलत अर्थ करने के लिये फोरा व्याकरण छोकते हैं-- कहते हैं 'पति' शब्द का सप्तमी में ' पत्यौ ' रूप होता है, पती' नहीं। इसलिये यहाँ समासान्त ' अपति ' शब्द का सप्तम्यन्त पद ' अपतौ ' पड़ा 'हुआ है, जिसके ''कार का 'पलिते' के बाद लोप हो गया है, उस पविभिन्न पति का बोधक है, जिसके साथ मज
I
और
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[१५] के निषेधक रहे होंगे और इसलिये अब तक गायव अषि के किसी वाक्य से यह सिद्ध न कर दिया जाय कि विधवाविवाह के निषेधक नहीं थे तबतक भारवानी ने का सामान्य व्यवस्था माक्य में०१७६ पर से बोबोग विधवा विवाह का माशय निकालते हैं उसपर माई खास आपति नहीं की जा सकती। सगाई (मैगमी) हुई हो किन्तु विवादमा हो। पेस गों को मालूम होना चाहिये किसक के असरा में जो ' पतिरन्यो' (दुसरा पति) पाठ पहा माया पूषार्थ में 'पती' की ही स्थिति कोषाहता--'तो' की मी-अर्णत किसके मरने वगैरह पर इसरे पनि की व्यवस्था की गई है या पनि होगा चाहिये 'भपति 'मही । और 'पति' का सीको दी जाती है जो विधिपूर्वक पाणियाण संस्कार संस्कारित होकर सतपदी को मासमा हो पाक पादान यह की पमह से किसी को, पतित्व' की प्रालिमही होती; जैसा कि जवाहतस्व' में दिये हुए ''ऋषि केमिन पाय से प्रकट
गोधेग मया बाया कन्याया पतिरिष्यने ।
पाक्षिणायसंस्कार पनि सतमे पद ॥ (शब्दकल्पदुम) प्रसक सिवाय इतमा और भी जान लेना चाहिये कि प्रथम at पहा प्रयोग, और शार्प प्रयोग कमी कमी व्याकरण से मित्र भी है। दूसरे, अन्य की दृष्टि से कवि योग अनेक पारव्याकरण के नियमों का उल्लंघन कर जाम है, जिसके प्राचीन साहित्य में भी कितने ही बाहरण मिलते हैं। बस संभव है 'पत्यो की जगह 'पी' हा प्रयोग न की टिकिया गया हो प्रत्यक्षा पराशरजीसम्मके पस्यो कप सभी अमिक थे औरचन्होंने अपनी, स्मृति में 'पत्या' पथ का भी प्रयोग किया है, जिसका एक उदाहरण 'पत्यो जीवति कुपवस्तुस्त मतरिगोलका (५-२३) है। तोरपा पक्षका प्रयोग शक स्मृति में मन्या भी पाया जाना, जिसका प्रपती'वनीमडी सकता। और उस पणेगवाक्य, से यह साफ जाहिर है कि जोखा पति के मरने, खो आये, अथवा उसके त्याग देने पर पुनर्विवादम करके जार से गर्म पार करती है उसे परारजी ने 'पविता' और 'पापकारिती लिखा है-उन
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[१६] . इसके सिवाय नो भारकामी पति के दोष मालूम होजाने पर पूर्व विवाहकों ही रह कर देते हैं, संमोग होजाने पर भी स्त्री के लिये दूसरे विवाह की योजना करते हैं. तलाक की विधि बताकर परित्यक्ता त्रियों के लिये पुनर्विवाह का मार्ग खोजते अषया उन्हें उसकी स्वतंत्रता देते हैं, कागयज्ञ रचाने के बदेही पक्षपाती मान पड़ते हैं, योनिपूना तक का उपदेश देते हैं, ऋतुकास में मोग करने को बहुत ही आवश्यक समाने हैं, और ऋतुकाल में भोग न करने वाली त्रियों को तिथंच गति का पात्र ठहराते हैं-इतना अधिक जिनके सामने उस भोग का महत्व है-उनसे ऐसी पाशा भी नहीं की जा सकती कि उन्होंन विधवाओं के पुनर्विवाह का--उन नन्ही नन्हीं बातविधयानों के पुनर्विवाह का मी जो माल फेरों की गुनहगार हों और यह भी न जानती. की दृष्टि में 'बार' इमरा पति (पतिरम्या) नहीं हो सकता दूसरा पति प्रहण करने का पुनर्विवाह को विधिविधि और बारसे रमणको निन्ध तथा पयनीय हाराते हैं । यथाः
जारेण जनयेम सुने त्यके गते पनो। मात्प र राष्ट्रे पतितां पापकारिणीम् ॥ १०-३१॥
और चौथे यह बात भी नहीं कि व्याकरण से इस 'पती' कर की सया सिद्धिहीन होती हो, सिद्धि भी होती है, जैसाकि अशा ध्यायी के 'पतिः समास एवं सूत्र पर की 'तत्वबोधिनी टीका के मिस अंश से प्रकट है, जिसमें उदाहरण मी देवयांग से पराशरजी का उक लोक दिया है:
अथ कथ" सीतायाः पतये नमः" इति " नष्टे सूते प्रबजिते क्लीवे च पतिते पतो। पंच स्वापन्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते " इति पराशरण मन्त्राः। पतिरित्याख्याता पनि:-तस्करोति तदाब' इति णिचि टिका 'अचपसाणाविक प्रत्यये परमिट' इति शिवोपे च निष्पोऽयं पति पति समासव' इत्यत्रम गृह्मवे साक्षलिकत्वादिति ।
श्रता 'पती'का अर्थ 'पत्यौ'ही है। भोरखलिये जो होग उसके इस समाधान अर्थ को बदलने का निखार प्रयक्ष करते हैं घामको भूल है।
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[१७]] हो कि विवाह किम पिड़िया का नाम है-सर्वथा निषध किया हो कि स्थान पर सो गारकामी, कुच नियम विधान करते हुए, लिखते हैं।
यस्यायनामिका हरवा तां विदुः कलहप्रियाम् ।। भूमि न मयते यस्याः खादते सा पतिद्वयम् ।। ११-१४
भाद-जिस सी को मनामिका अगुखी छोटी हो यह कलहकारखी होती है, और जिसकी वह भंगुनी भूमि पर न टिकती हो वह अपने * दो पतियों को खाती है उसके कम से कम हो विवाह पर होते हैं और वे दोनों ही विवाहित पति मर जाते हैं।
मारमनी के इस नियम-विधान से यह सब शाहिर है कि बैन समान में ऐसी भी कन्याएं पैदा होती हैं जो अपने शारीरिक लक्षणों के कारण एक पति के मरने पर दूसरा विवाह करने के लिये मजबूर होती है-तमी थे दो पतियों को साकार इस नियम को सार्थक कर सकती है और एक पति के मरने पर श्री का बो दूसरा विवाह किया माता है वही विधवाविवाह कसाता है । इसलिये समाज में नहीं नहीं समान की प्रत्येक नाति में-विधवाविवाह का होना अनिवार्य ठहरता है, क्योंकि शारीरिक अक्षयों पर किसी का यश नहीं और यह नियम समाज में पुनविवाह की व्यवस्था को माँगता है। अन्यथा महारानी का यह नियम ही चरितार्थ नहीं हो सकता ह निरर्थक हो बाला है।
और दूसरे स्थान पर मट्टारकनी में श्रद्धा पुनर्विवाहमराहने श्रादि धाक्य के बारा यह स्पष्ट घोषणा की किसान पाति
महाएफसीका यह को पतियों को खासी है पाक्य-प्रयोग कितमा अशिष्ट और मसंयत भाषा कोहिये हुए है उसे पतलाने की तारत महीं। अब 'मुनीन्द्र' कामाने पावे की ऐसी मर्मविदारक मिन्य भाषा का प्रयोग करते हैं तप किसी लड़की के विषा होने पर उसकी सावं पदि यह करती है कि'ने मेगावाविया को इसमें प्राय
क्या है" बदर विषयामों के प्रति सिम्यक्तार।
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[१ ] की जैन श्री के पुनर्विवाह के समय सी को पति के दाहिनी मोर बिठं-- शाना चाहिये, जिससे यह भी धनि निकलनी है कि प्रशदा अर्थात् प्रामण, इत्रिय और वैश्य जाति की मैन लियों के पुनर्विवाह के समय पैसा नहीं होना चाहिये-वे बाई और बिठलाई जानी चाहिये । अतः पापका बह पूरा वाक्य इस प्रकार है'गर्भाधाने पुंसवने सीमन्तोषयने तथा।।
धू मवेशने शवा पुनर्विवाहमण्डने। पूजने सदेच्याच कन्यादाने वर्षय छ। की खेतेपु माया दक्षिणे रुष पेशयेत् ।।
-घा अभ्याप ॥ १९६-१७ ॥ इस पाक्य के 'शूद्रा पुनर्विवाहमण्डने पद को देख कर, सोनाली कुछ बहुत ही चकित तथा विचलित हुए मालूम होते हैं, उन्हें इसमें मूर्तिमान विधवाविवाह अपना मुंह बाए हुए मार पाया है और इसलिये उन्होंने उसके निषेव में अपनी सारी शक्ति खर्च कर डाली है। वे चाहते तो इतना कहकर छुट्टी पा सकने ये कि इसमें विधवा के पुनर्विवाह का उल्लेख नहीं किन्तु महक शक्षा के पुनर्विवाह का उल्लेख है, जो सधवा हो सकती है । परंतु किसी तरह का समापुनर्विवाह भी आपको इष्ट नहीं था, आप दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं देखते
और सायद यह भी समान से सिफारिका के रखीकार कर लेने पर विधवाविवाह के निषेध में फिर कुछ बचा ही नहीं रह जाता। और विधवाविवाह का निषेध करना आपको खास तौर से इष्ट था, इसलिये उक्त पद में प्रयुक्त हुए 'पुनर्विवाह' को 'विधवाविवाह मान कर हो मापने प्रकारान्तर से उसके निषेध की चेष्टा की है। इस चेष्टा में मापको शद्रों के सत् , असत् भेदादि रूप से कितनी ही इधर उधर की कल्पना करनी और निरर्षक बातें शिखनी पड़ी-मूत्र मेप से बाहर
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का पाश्रय सेना पहा-परंतु फिर भी आप यह सिद्ध नहीं कर सके कि महारकनी ने विधवाविवाह का सर्वषा निषेध किया है। आपको अपनी कम्पना के अनुसार इतना तो स्वीकार करना ही पड़ा कि इस पद में असत् गदा की विधवाविवाह-विषि का अनोखा है-खाकि मूल में 'अमर' शब्द के साथ प्रसाद विशेषण नग्न हुमा नहीं है, वह सदा मात्र का पापक है । अत: आपने 'सोमदेवनीति' (नीति-वाक्यामृत ) के बिस वाक्य के आधार पर अपनी कल्पना गदी है वह इस प्रकार है
सत्परिसयनव्या माना। इस वाक्य पर संस्कृत की बो टीका मिलती है और उसमें समर्थन के तौर पर जो वाक्य उद्धृत किया गया है उससे तो इस वाक्यं का भाशय यह मालूम होता है कि 'नोमवेशद्ध होते हैं वे एक बार विवाह करते हैं-विवाह के ऊपर या पश्चात दूसरा विवाह नहीं करते-कोर इससे पह नान पड़ता है कि इस वाक्य द्वारा ग्रहों के बहुविवाह का नियंत्रण किया गया है। अथवा यो कहिये कि वर्णिक पुरुषों को गहविवाह का जो स्वयंभू अधिकार प्राप्त है उस बेचारे या पुरुषों को बंधित रक्खा गया है। यथा, "टीका शोमन अक्षा भवन्ति के सरपरिणयमा एक धार सविधाका द्वितीयं च कुन्ठीवर्षः । तथा च sitaria मायाँ योऽत्र थवः स्याद् वृषमा पनि विधुत महत्त्वं तस्य नो माधि मनमाविषमुना
इसके सिवाय, सोनीजी ने खुद पच नं० १७६ में प्रयुक्त र 'पुनरुदाई का वर्ष खी का पुनर्विवाह न करके पुरुष का पुनर्विवाह सूचित किया है, यहाँ कि यह बनता ही नहीं। ऐसी हालत में मासूम मही फिर किस भाषार मापने सोमदेवनीति के जात बाक्य का भाशय सीक एक बार विवाह से निकाला है ! मला बिना किसी प्राधार के
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[२०० ]
जहाँ जैसा मत निकालना हुआ वहाँ वैसा अर्थ कर देना ही आपको रहा है? यदि सोमदेवजी की नीति का है। प्रमायण देखना था तो een तो साफ़ लिखा है
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"
विपापि पुनर्विवाहमईतीति स्मृतिकारा ।'
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अर्थात् जिस विवाहिता स्त्री का पति विकारी हों या जो सदोष पति के साथ विवाही गई हो -- वह भी पुनर्विवाह करने की अधिकारिणी है--- अपने उस विकृत पंति को छोड़कर या तलाक देकर दूसरा विवाह कर सकती है ऐसी स्मृतिकारों का -- धर्मशास्त्र के रचयितार्थी का मत है (जिससे सोमदेवजी मी सहमत हैं----सभी उसका निषेध नहीं किया) ।
"
यहाँ 'अप' ( भी ) शब्द के प्रयोग से यह भी साफ़ ध्वनित हो रहा है कि यह वाक्य महक सभा के पुनर्विवाह की ही नहीं किन्तु
4
'विधवा के पुनर्विवाह की' भी विधि को लिये हुए है ।' स्मृतिकारों ने दोनों का ही विधान किया है।
·
इस सूत्र की मौजूदगी में 'सकृत्परिणयन व्यवहाराः सच्छद्र " 'सूत्र' पर से यह नतीजा नहीं निकाला जा सकता कि शूद्रों के सद् शूद्र नि का हेतु उनके यहाँ त्रियों के पुनर्विवाह का न होना है और इसलिये परियों * के लिये पुनर्विवाह की विधि नहीं बनती-जो करते हैं वे सच्छूद्रों से भी गये बीते है । इतने पर भी सोनीजी पैसा नतीजा निकालने की चेष्टा करते हैं, यह आश्चर्य है ! और फिर यहाँ तक लिखते हैं कि "जैनागम में ही नहीं, बल्कि ब्राह्मण सम्प्रदाय के श्रागस में भी विधवाविवाह की विधि नहीं कही गई है।" इससे सोनीजी' का ब्राह्मणग्रंथों से ही नहीं किंतु जैनों से भी खासा अज्ञान पाया जाता है - उन्हें ब्राह्मण सम्प्रदाय के ग्रंथों का ठोक 'पता नहीं, नाना मुनियों के नाना मत मालूम नहीं और न अपने घर की ही पूरी ख़बर हैं। उन्होंने विधवा विवाह के निषेध में मनु का जो 'वाक्यं 'न'विषाहविषा विधवावेदन पुनः उदूत किंवा
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'यह उनकी मासमी का मोतक है। इस उपराध में, जिसका
पूर्वाध है 'नोहादिक मंत्रेषु नियोगा कीयते क्वचित 'विषयावेदन पर अपने पूर्वापरसम्बंध से 'नियोग' का बाधक है-संतानोत्पत्ति के लिय विधया के अस्थायी महा का सूपको-कोर इसीये खत वाय का माराप सिर्फ इतना ही है कि विवाह-विवि में नियोग नहीं होता--नियोग विधि में नियोग होता है। दोनों की नीति और पति मिन मिला है। अन्यथा, मनुजी ने उसी अध्याय में परित्यक्षा {AR )और विधवा दोनों के लिये पुनर्विवाहसरकार की व्यवस्था की है, जैसाकि मनुस्मृति के निम्नवाक्यों से प्रकट है
पापा परित्या विषयाचा उत्पादयत्पुरत्यास पौन उच्यते ॥ १७५० जापानवानि स्वातप्रत्यागठापि वा । पौनयन मर्धा सा पुन: संस्कारमहति । १७६ ॥ 'पशिष्ठस्मृति में भी विखा है कि नो को अपने नपुसक, पतित या उन्मच मार को कोबार भया पति के मामाने पर इमरे पति के साथ विवाह करती है वह 'पुनर्मू कहलाती है। साथ ही, यह भी बतलाया है कि पाश्चिमास सरकार हो जाने के बाद पति के मर जाने पर यदि वह मनसंखया जी माजतयोनि हो पति के साथ उसका समोग मनमा हो-तो उसका फिर से विवाह होना योग्य है । था.
"या पलीव पवितभुन्म वा मासुलण्याय पति विदो सवेशासानभूमपति। "पापियो मुवे वाला केवावं मेहता। सादवयोनिः स्थानासंसार महति ॥
-१७ वा अध्याय । इसी तरह पर नारद स्थति आदि के और कोटिशीय प्रयास के भी कितने ही प्रमाणा नदात किये जा सकते है। परामर स्मृति
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[२०२]
धास्य पहले उधृत किया ही जा चुका है। सोनीनी को यदि अपने घर की ही खबर होती तो वे सोमवनीति से नहीं तो प्राचार्य अमितयतिका धर्मपरीक्षा परसे ब्राह्मणों का हाल मालूम कर सकते थे और यह जानसकते थे कि उनके पागम में विधवाविवाह का विधान है। धर्मपरीक्षा काचह'पत्यौमत्रजिते'वाक्य ब्राह्मणोंकी विधवाविवाह-विधिको प्रदर्शित करनेके लिये ही लिखा गया है, जैसाकि उससे पूर्वक निम्नवाक्य से प्रकट है:
तैयतं विधवां शापि त्वं संगृह्य मुखी भव । नोमयोर्षियते दोप इत्युक्तस्तापसागमे ॥ ११-११॥ धर्मपरीक्षा के चौदह परिच्छेद में भी हिंदुओं के खी-पुनर्विवाह का उल्लेख है और उसे स्पष्टरूप से व्यासादीनामिदं वचः' के साथ उल्लेखित किया गया है, जिसमें से विधवाविवाह का पोषक एक वाक्य इस प्रकार है:
एकवा परिणीताऽपि विपन्ने दैवयोगतः । भयक्षतयोनिः स्त्री पुनःसंस्कारमईति ॥ ३ ॥
अतः सोनीबी का उक्त लिखना उनकी कोरी नासमझी तथा प्रज्ञता को प्रकट करता है | और इसी तरह उनका यह लिखना गी मिथ्या ठहरता हकि "विवाहविधि में सर्वत्र कन्याविवाहही बतलाया गया है"। बल्कि यह महारकजी के 'शूद्रापुनर्विवाहमएडने वाक्य के भी विरुद्ध पड़ता है, क्योंकि इस वाक्य में जिस शुद्धा के पुनर्विवाह का उल्लेख है उसे सोनीजी ने 'विधवा' स्वीकृत किया है-~-मने ही उनकी दृष्टि में वह असत् सदा ही क्यों न हों, विधवा और विवाह का योग तो हुआ। __ यहाँ पर मुझे विधवाविवाह के औचित्य या अनौचित्य पर विचार करना नहीं है और न उस दृष्टि को लेकर मेरा यह विवेचन है मेरा उद्देश्य इसमें प्रायः इतना ही है कि भट्टारकनी के पुनर्विवाहविषयक कथन को
भौषित्यानौविस्य-विचारको रिले एक जुकाहीद नियन्ध तिक्षा नाने फीजमरत है, जिसके लिये मेरे पास अभी समय नहीं है।
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[२०३] अपने अनुकूल न पाकर अपवा कुछ लोकविरुद्ध समझकर उस पर पदी डाचने और भ्रम फैलाने की नो जघन्य बेष्टा की गई है उसका नाम दृश्य सबके सामने उपस्थित कर दिया जाय, जिससे वह पर्दा उठ जाय और भोले भाइयों को भी मारकजी का कथन अपने प्रसन्नी रूप में दधिगोचर होने लगे-फिर भले ही वह उनके अनुकूल हो या प्रतिकूल ।
और इसलिए मुझे इतना और भी बतखा देना चाहिये कि सोनीजी ने नो यह प्रतिपादन किया है कि 'ग्रंथकार ने विधवा के लिये तेरहवें अध्याय में दोही मार्ग बतलाये हैं -एक जिनदीक्षाग्रहण करना और दूसरा धन्यदीक्षा लेना---तीसरा विधवाविवाह नाम का मार्ग नहीं बतलाया', और उस पर से यह नतीजा निकाला है कि ग्रंथकार का माशय विधवाविवाह के अनुकूल नहीं है-होता तो थे वहीं पर विधवाविवाह नाम का एक तीसरा मार्ग और पतला देते, उसमें भी कुछ सार नहीं है वह भी असलियत पर पर्दा डालने की हा एक चेष्टा है। तेरहवें अध्याय में जिस पदद्वारा निनदीक्षा अथवा वैधव्यदीक्षा के विकल्प रूप से प्रहण करने की व्यवस्था की गई है उसमें उत्त, स्वित् और वा अव्ययों के साथ श्रेयान' पद पड़ा हुआ है और वह इस बात को स्पष्ट बतला रहा है कि दोनों प्रकार की दीक्षा में से किसी एक का प्रक्षण उसके लिये श्रेष्ठ हैअति उत्तम है। यह नहीं कहा गया कि इनमें से किसी एक का प्रय उसके लिये लाजिमी है अथवा इस प्रकार के दीक्षामहण से मिन दूसरा या तीसरा कोई मध्यममार्ग इसके लिये है ही नहीं। मध्यम मार्ग बलर है और उसे भहारकनी में आठवें तथा ग्यारहवें अध्याय में 'पुनर्विवाह' के रूप में सूचित किया है। और इसलिये उसे दुबारा यहाँ लिखने की शरूरत नहीं थी। यहाँ परचो उत्कृष्ट मार्ग रह गया था उसी का समुच्चय किया गया
पथाःविधायास्ततो नार्या जिनदीमासमाश्रयः। अंगानुतस्विषन्यदीक्षा वा गृह्यते तदा ॥ १५ ॥
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[ २०४]
खाट
है। और इसलिये यदि कोई विधवा निनदीक्षा धारना न कर सकें और वैधव्यदीक्षा के योग्य देशजत का ग्रहण, कण्ठसूत्र और कर्णभूषण आदि सम्पूर्ण आभूषणों का त्याग, शरीर पर सिर्फ दो वनों का धारण, पर शयन तथा अंजन और लेप का त्याग, शोक तथा रुदन और चिकथाश्रवण की निवृत्ति, प्रातः स्नान, आचमन आणायाम और तर्पण की नित्य प्रवृत्ति, तीनों समय देवता का स्तोत्रपाठ, द्वादशानुप्रेक्षा का चिन्तयन, साम्बूसवर्जन और लोलुपतारहित एक बार भोजन, ऐसे उन सब नियमों का पालन करने के लिये समर्थ न होवे जिन्हें भट्टारकजी ने, 'सर्वमेतद्विषीयते' जैसे वाक्य के साथ, वैधव्यदीक्षा - प्राप्त स्त्री के लिये आवश्यक बतलाया है, तो यह विधवा भट्टारकजी के उस पुनर्विवाह-मार्गका अवलम्बन लेकर यथाशक्ति श्रावकधर्म का पालन कर सकती है; ऐसा भट्टारकनी के इस उत्कृष्ट कथन का पूर्व कथन के साथ आशय और सम्बन्ध जान पड़ता है । 'पाराशरस्मृति' में भी विधवा के लिये पुनर्विवाह की उस व्यवस्था के बाद, उसके ब्रह्मचारिणी रहने आदि को सराहा हैलिखा है कि 'जो स्त्री पति के मर जाने पर ब्रह्मचर्यव्रत में स्थिर रहती हैवैधव्यदीक्षा को धारण करके दृढ़ता के साथ उसका पालन करती है वह मर कर ब्रह्मचारियों की तरह स्वर्ग में जाती है। और जो पति के साथ ही सती हो जाती है वह मनुष्य के शरीर में जो साढ़े तीन करोड़ बाल है उतने वर्ष तक स्वर्ग में वास करती है। यथा: ---
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मृते मटेरिया नारी ब्रह्मचर्यवते स्थिता ।
सामृता क्षमते स्वगं यथा ते ब्रह्मचारिणः ॥ ३१ ॥ विनः कोटपोर्यकोटी व यानि लोमानि मानवे । सावत्कालं वसेत्खर्गे भर्तारं वाऽनुगच्छति ॥ ३२ ॥ पाराशरस्मृति के इन वाक्यों को पूर्ववाक्यों के साथ पढ़नेवाला कोई
मी सहृदय विज्ञान जैसे इन वाक्यों पर से यह नतीजा नहीं निकाल सकता
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[२०५] कि पराशरनी ने विधवाविवाह का निषेध किया है उसी तरह महारानी के उक्त वाक्य पर से भी कोई समझदार यह नतीजा नहीं निकाल सकता कि महारफनी ने विधवाविवाह का सर्वथा निषेध किया है । उस वाक्य का पूर्वकथनसम्बन्ध से इतना ही भाशय जान पड़ता है कि जो विधवा बिनदीक्षा अथवा वैधव्यदीक्षा धारण कर सके तो यह बहुरा अच्छा हैअभिनन्दनीय है-अन्यथा, विधुरों की तरह साधारण गृहस्थ का मार्ग उसके लिये भी खुला हुभा है ही।
अब मैं उस भावरण को भी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ जो पुनविवाइ-विषयक पच नं० १७४, १७५ और १७६ पर डाला गया है
और जिसके नीचे उस सत्य को छिपाने की चेष्टा की गई है जिसका उल्लेख ऊपर उन पदों के साथ किया जा चुका है.--मले ही लेखक कितने ही अंशों में भधारकत्री के उस कथन से सहमत न हो अथवा अनेक दृष्टियों से उसे आपत्ति के योग्य सगमता हो ।
इस विषय में, सबसे पहले मैं यह बतला देना चाहता है कि इन पद्यों को, मागे पीछे के तीन और पर्चा सक्षित, 'मन्यम' के लोक बतलाया गया है और उसकी एक पहचान इन पदों के शुरू में श्रष विशेष' शब्दों का होना बताई गई है, जैसा कि परिक्षत पनामालनी सोनी के एक दूसरे लेख के निम्न वाक्य से प्रकट है, जो ' सत्यवादी' के छठे भाग के अंक नम्बर २-३ में प्रकाशित हुआ है:
" महारक महारान अपने अन्य में जैन मत का वर्णन करते हुए अन्य गतों का भी वर्णन करते गये हैं, निसकी पहचान के लिये अप विशेषः, अन्यमतं, परमतं, स्मृतिवचनं और इति परमत
स्मृतिषचनं इत्यादि शब्दों का उल्लेख किया है।" • यद्यपि मूल अन्य को पढ़ने से ऐसा मालूम नहीं होता-उसके 'अन्यमत' परमत' जैसे शब्द दूसरे जैनाचार्यों के मत की भोर इशारा
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[२०६] करते हुए जान पड़ते हैं--और न अब इस परीक्षालेख को पढ़ जाने के बाद कोई यह कहने की हिम्मत कर सकता है कि इस ग्रंथ में निन वाक्यों के साथ 'अथ विशेषा' 'अन्यमतं' अथवा 'परमत' जैसे शब्द लगे हुए हैं वेही जैनमत से बाहर के श्लोक हैं, बाकी और सब जैन-' मत के ही श्लोकों का इसमें संग्रह है, क्योंकि ऐसे चिन्हों से रहित दूसरे पचासों लोकों को अनैनमत के सिद्ध किया जा चुका है और सैकड़ों को और भी सिद्ध किया जा सकता है। फिर भी यदि यह मान लिया नाय कि ये श्लोक अजैनमत के ही हैं तो उससे नतीबा ? दूसरे मत के लोकों का उद्धरण प्रायः दो घटियों से किया जाता है अपने मत को पुष्ट करने अथवा दूसरों के मत का खण्डन करने के लिये । यहाँ पर उक्त श्लोक दोनों में से एक भी दृष्टि को लिये हुए नहीं है वैसे ही (स्वयं रच कर या अपना कर ) प्रथ का अंग बनाये गये हैं। और इसलिये उनके अनेन होने पर भी महारकजी की जिम्मेदारी तथा उनके प्रतिपाच विषय का मूल्य कुछ कम नहीं हो जाता। अतः उन पर अन्य मत का प्रावरण डालने की चेष्टा करना निरर्थक है। इसके सिवाय, सोनीजी ने अपने इस लेख में कई जगह बड़े दर्प के साथ इन सब श्लोकों को 'मनुस्मृति' का बतलाया है, और यह उनका सरासर झूठ है। सारी मनुस्मृति को टटोल जाने पर भी उसमें इनका कहीं पता नहीं चलता। जो लोग अपनी बात को ऊपर रखने
और दूसरों की आँखों में धूल डालने की धुन में इतना मोटा और साक्षात् झूट लिख जाने तक की धृष्टता करते हैं के अपने विरुद्ध सत्य पर पर्दा डालने के लिये जो भी चेष्टा न करें सो थोड़ा है। ऐसे अटकलपच्यूऔर गैरजिम्मेदाराना तरीके से लिखने वालों के वचन का मूल्य 'मीक्याहोसकता है। इसे पाठक स्वयं समझसकते हैं।
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[२०७] नही सोमीनी ने, चतुकर्म-विषयक मारे पूर्वकथन पर पानी फेर कर १७४ वै पध में प्रयुक्त हए 'चतुर्थीमध्ये पद का अर्थ अपने उस लेख में, बोधी पदी किया है और उस पर यहाँ तक जोर दिया है कि इसका अर्थ " चौथी पदी ही करना पड़ेगा", "चौथी पदी ही होना चाहिये ", " मराठी टीकाकार ने भी भूल की है । परंतु अपनी मनुवादपुस्तक में जो अर्थ दिया है या इससे मिल है। मालूम होता है बाद में भापको पंचागविवाह के चौथे अग (पाणिग्रहण ) का कुछ बयान माया और वही चतुर्थी के सत्यार्थ पर पर्दा डालने के लिये अधिक उपयोगी बैंचा है । इसलिये आपने अपने उक्त पाक्यों और उनमें प्रयुक्त हुए 'ही' शब्द के महत्व को मुनाकर, उसे ही चतुर्ण का याव्य बना भाषा है ! बाकी 'बत्तास् ' पद का पहा यवत अर्थ 'वाग्दान में दी हुई कायम रखा है, जैसा कि पूरे पथ के पापके निम्न अनुवाद से प्रकट है:
पाणिपीडम नाम की चौपी क्रिया में अपना सतपदी से पहले पर में जातिधुतरूप, होननातिरूप या दुराधरणाप दोष मालूम हो बायें तो वाग्दान में दी हुई कन्या को उस पिता किसी दूसरे श्रेष्ठ जाति अादि गुणयुक्त बर को देवे, ऐसा बुद्धिमानों का मत है। '
पूर्वकपनसम्बन्ध को सामने रखते हुए, को ऊपर दिया गया है, इस अनुवाद पर से यह गाम महीं होता कि सोनीजी को 'चतुर्षाकर्म' का परिचय नहीं था और इसलिये 'चतुर्थीमध्ये तथा 'दत्ता' पदों का अर्थ उनके द्वारा भूल से पत प्रस्तुत किया गया है। परिक यह साफ माना जाता है कि उन्होंने बान बुखार, विवाहिता नियों के
मराठी काकार पं. कमाया मरमाया निधे से "वषया विषशी छत्य होण्याच्या भूचि "अर्थ दिया है।
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[२०८] पुनर्विवाह पर पर्दा डालने के लिए, उस पदों के प्रकृत और प्रकरणसंगत अर्थ को बदबने की चेष्टा की है । अन्यथा, 'दत्ताम्' का 'पाग्द्रान में दी हुई अर्थ तो किसी तरह भी नहीं बन सकता था, क्योंकि चतुर्थी के सोनीजी द्वारा आविष्कृत अर्थानुसार भी जब विवाहकार्य पाणिग्रहण की अवस्या तक पहुंच जाता है तब कन्यादान हो 'प्रदान' नाम की दूसरी क्रिया में ही हो जाता है और उस वक्त वह कन्या 'कन्या' न रहकर 'वधू' तथा पाणिग्रहण के अवसर पर पत्नी' बन जाती है। फिर भी सोनीली का उसे 'वाग्दान में दी हुई कन्या' लिखना और अन्यत्र यह प्रतिपादन करना कि विवाह कन्या का ही होता है' छुल नहीं तो
और क्या है ? आपका यह छत याबवल्क्यस्मृति के एक टीकायाक्य के अनुवाद में भी जारी रहा है और उसमें भी आपने 'वाग्दान में दी हुई कन्या' जैसे भयों को अपनी तरफ से लाकर घुसेडा है । इसके सिवाय उक्त स्मृति के 'दत्वाकन्याहरन दरख्यो व्ययं दधाच सोदयं' को उसी । विवाह) प्रकरण का बतलाया है, निसका कि 'दत्तामपि हरेत्पूर्वोच्छेयांश्चदर भावजेत् वाक्य है. हालांकि यह वाक्य भिन्न अध्याय के मिन्न प्रकरण (दाय माग) का है तथा वाग्दत्ताविषयक स्त्रीधन के प्रसंग को लिये हुए है, और इसलिये उसे उधृत करना ही निरर्षक पा।दूसरा वाक्य जो उद्धृत किया गया है उससे मी कोई समर्थन नहीं होना-न उसमें 'चतुर्थीमध्ये पद पड़ा हुआ है और न 'दत्ताम्' का अर्थ ठीका में ही 'वाग्दत्ता' किया गया है। बाकी टीका के अन्त में
साकि 'प्रामामात् भवेत्कम्या' नाम के उस माश्य से प्रकट है जो इस प्रकरण के शुरू में उन किया जा चुका है। हाँसोनीजी ने अपने उस लेख में लिखा है कि "तीमपली तक कन्या संशा रखती है, पश्चात् चौथीपदी में उसकी कन्या संज्ञा दूर होजाती है। यह लिखना मी प्रापका शायद वैसा ही अटकलपच्चू और बिना सिर पैर का मान पड़ता है जैसा कि सनसोकों को मनुस्मृति के बतलाना। .
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[२०] जो एताच सामपंदात्मादृष्टव्यम् वास्य दिया है यह मुख से भाहर की पीक है-एसके किसी शब्द में सम्बंध नहीं रखती-उसे टोका को अपनी राय अपना साकार की खींचतानी कहना चाहिये। अन्यथा, थाइवल्क्यस्मृति में खुद उसके बाद अवता चचता 3र्ष पुन संस्कृता पुन' आदि वाक्य के द्वारा बन्यपूर्वा स्त्री के मेदी में 'पुनर्मूली का उल्लेख किया है और उसे पुनः संस्कृता सिवं कर पुनर्विवाह की अधिकारिणी प्रतिपादन किया है। साथ ही, सके क्षतयोनि (पूर्व पति के साथ साम को प्रसा ) मोर बचतयोनि (संस्कार मात्र को प्राप्त हुई) ऐसे दो मैद किये हैं। पुन विशेषतरूप 'मनुस्मृति और वशिष्ठस्मृति के उन वाक्यों से भी जाना शासकता है जो उपर उद्धृत किये जा चुके हैं। ऐसी हालत में सोनी जीका अपने अंधको (ग्राम) सम्मदाय के प्रवियत. खाना और दूसरों के अर्थ को विरुद्ध ठहरानाकुछ मी मूल्य नहीं रखतावह भलापमान जान पडता है।
पा सम्मान के वशिष्ठ ऋपिशासि किन्या किसी से पुरुष को दाम करी मां हो जोखीमसेनि हो, वसका पतित दो,रोगी हो,विधी हो या पेशवारी हो, अथवा सपोनी के साथ विवाह गई हो तो उसका हरण करना चाहियेऔर बस पर उस एवं विवाह को बहारमा चाहिये । मया"कुशीन पिहोमस्य पासादि पतितस्य च।
अपमारि विधर्मस्य रोगिय पेशवारिसम् ।
श्यामपि कन्या सगोत्रोडो " g) इस धाप में प्रयुक'सगोत्रोडा(ममान गोषी मेषियाही हुरीपद 'दत्ता पद पर प्रधामका सामना है और उसे 'विषादिवा सचिव करता है। सोमवावे मी अपने इस विकृतपत्यूढा' नामक शाक्य में स्मृधिकाका मन उदधृत किया है ससमसमा पुनर्विचारयोग्य ती को जहा' ही पता का अर्थ होता विवाहिता ।
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[ २९ ]
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इसी तरह पर ९७५ में पब में प्रयुक्त हुए 'दत्त' पद का भ भी 'वारसा कन्या' गत किया गया है, जो पूर्वोक्त हेतु से किसी तरह भी वहाँ नहीं बनता । इसके सिवाय, 'पतिसंगादधः' का कार्य आपने, 'पति के साथ संगम-सभोग हो जाने के पश्चात् ' न करके,
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'पाणिपीडन से पहले' किया है- 'प्रतिसंग' को 'पाणिग्रहण' बतलाया है और 'छावः' का अर्थ 'पहले' किया है। साथ ही, 'प्रवरे: क्यादिदोषाः ' के अर्थ में 'दोषा' का अर्थ छोड़ दिया है और 'आदि' को 'ऐक्य' के बाद न रखकर उसके पहले रक्खा है, जिससे कितना ही अर्थदोप उत्पन्न हो गया है। इस तरह से सोनीजी ने इन पदों के
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उस समुचित अर्थ तथा भाशय को बदल कर, जो शुरू में दिया गया है, एक छतयोनि स्त्री के पुनर्विवाह पर पर्दा डालने की श्रेष्ठा की है। परन्तु इस ष्ट से उस पर पर्दा नहीं पड़ सकता । 'पतिसंग' का अर्थ यहाँ 'पाणिपीडन' करना विडम्बना मात्र है और उसका कहीं से भी समर्थन नहीं हो सकता । 'संग' और 'संगम' दोनों एकार्थवाचक शब्द हैं और वे स्त्री-पुरुष के मिथुनीभाष 'को सूचित करते हैं' (.संगमः, संग श्रीपुंसेोर्निथुनी मावः ) जिसे,
संभोग और Sexual intercourse भी कहते हैं। शब्दकल्पद्रुमं में.
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इसी भाशय को पुष्ट करने वाला प्रयोग का एक अच्छा उदाहरण भी. दिया है जो इस प्रकार है:
अम्बिका व यदा स्नाता नारी ऋतुमती तदा । संग प्राप्य मुनेः पुत्रमताम्बं महाबलम् ॥
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'अप' शब्द 'पूर्व' या 'पहले' अर्थ में कभी व्यवहत नहीं होता परंतु 'पञ्चात्' अर्थ में वह व्यवहन करूर होता है; जैसाकि 'अ' पद से जाना जाता है जिसका अर्थ है 'भोजनान्तं पाथ'मान' नलादिक' - मोजन के पश्चात पीये जाने वाश्च जनादिक (a dose
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ofrater, modicine ste. to be taken after meals.V.S. Apto) 1 और इमलिये सोनीजी में पतिसंगादधामा भर्ष 'पाणिपीडन से पहल' किया वह किसी तरह भी नहीं बन सफता | पाणिपाटन नामक संस्कार से पहले तो 'पति' संज्ञा की प्राशि भी नहीं होती-यह समपदी के सातवें पद में आकर होती है, जैसाकि पूर्व में उधृत 'नोदकेन' पद्य के 'पतित्वंसप्तमे पदें वाक्य से प्रकट है। मब पतिहा नहीं तो फिर पतिसंग' कै परंतु यहाँ पतिसंगात्' पद साफ पहा तुपा है। इसलिये सह सापढी के बाद की संभोगावस्या बोहा सूचित करता है। उस पर पर्दा नहीं जाना जा सकता। .
पर रखा गालव के उलेख वामा १७६ को पथ, इसके अनुवाद में सोनीबी ने भोर मी गजब दाया है और सत्य का बिलकुल ही निर्दयता के साथ गला मरोड़ डाला है। भाप जानते थे कि मी के पुनर्षियाह का प्रसंग पल रहा है और पहले दोनों पों में उसीको
ख है । साथ ही, यह समझते थे कि इन वर्षों में प्रयुक्त हुए 'दता 'पुनर्दद्यात्' जैसे सामान्य पदों का अर्थ तो जैसे तैसे पादान में दाह श्रादि करके, उनके प्रकृत भई पर कुछ पर्दा डाला जा सकता है और उसके नीचे पुनर्विवाह को किसी तरह लिपाया जा सकता है परंतु इस पच में तो साफ तौर पर 'पुनद्वाई' पद पड़ा हुआ है, जिसका अर्थ पुनर्विवाह के सिवाय और कुछ होता नहीं और यह कथन-क्रम से त्रियों के पुनर्विवाह का ही बाधक है, इसचिये सस पर पर्दा नहीं डासा ना सकता । चुनाचे मापने अपने उसी लेख में, जो 'जातिप्रबोधक' में प्रकाशित बाबू सूरनमानजी के खख की समीक्षार से शिखा गया था, बाबू सूरजमाननी-प्रतिपादित इस पत्र के अनुवाद पर
और उसके इस निष्कर्ष पर कि यह लोक नियों के पुनर्विवाह विषय को लिये हुए है कोई भापदि नहीं की थी। प्रत्युत इसके लिए दिया था।
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[ ५१३]
"लागे चलकर गाव महाशय के विषय में जो मापने लिखा है वह भी ठीक नहीं है क्योंकि वे महाशय जैन नहीं हैं। किसी दि० जैन ऋषि का प्रमाण देकर पुनर्विवाह सिद्ध करते तो अच्छा होता । ........ यह कहा जा चुका है कि १७१ से १७६ तक के श्लोक दि० जैन ऋषि प्रणीत नहीं हैं, मनुस्मृति के हैं ।"
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इससे बाहर है कि खोनीजी इस श्लोक पर से स्त्रियों के पुनर्विवाह की सिद्धि जरूर मानते थे परन्तु उन्होंने उसे अमन श्लोक चतथा कर उसका तिरस्कार कर दिया था । इस मनुवाद के समय आपको अपने उस तिरस्कार की निःसारता मालूम पड़ी और यह जान पड़ा कि वह कुछ भी कार्यकारी नहीं है। इसलिये ध्यापने और भी अधिक निष्ठुरता धारण करके, एक दूसरी नई तथा विलक्षया चाल चली और उसके द्वारा बिलकुल ही अकल्पित म कर डाला । अर्थात् इस पद्म को स्त्रियों के पुनर्विवाह की जगह पुरुषों के पुनर्विवाह का बना डाला ! इस कपट कक्षा कूटलेखकता और समर्थ, का, भी, कहीं कुछ, ठिकाना है 111 भज़ा कोई सोनीनी से पूछे कि 'कलौ तु पुनरुद्वाहं वर्जयेत्' का अर्थ जो आपने " कलियुग में एक धर्मपत्नी के होते हुए दूसरा विवाह न करे " दिया है उसमें ' एक धर्मपत्नी के होते हुए ' यह अर्थ मूल के कौन से शब्दों का है अथवा पूर्व प किन शब्दों पर से निकाला गया है तो इसका भाप, क्या, उधर देंगे ? क्या ' हमारी इच्छा ' श्रपवा] यह कहना समुचित होगा कि पुरुषों के अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिये-त्री के सर माने पर भी, वे कहीं इस मतानुसार पुनर्विवाह के अधिकार से वंचित न हो, जय इसलिये - हमने अपनी ओर से ऐसा कर दिया है ? कदापि नहीं । वास्तव में, आपका, यह, अर्थ, किसी तरह भी नहीं बनता, सौर-न कहीं से उसका
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समर्थन ही होता है। मापने एक ' भावार्थ सगाकर उसे गले दतारने की चेष्टा की है और उसमें बालवधर्म के अनुसार धर्मपी, भोगपती, प्रथम विवाह क्ष विवाह, दूसरा विवाह काम्य विवाह,साय खी के होते हुए अपर्णा घी से धर्म कृत्य न कराये जायें, बादि कितनी ही बातें लिखी और कितने ही निरर्थक तथा अपने विरुद्ध वारस मी उदयुत किये परन्तु बहुत कुछ सर पटकने पर भी भाप गावष ऋषि का तो क्या दूसरे भी किसी हिन्दू ऋषि का कोई ऐसा वाक्य उधृत नहीं कर सके जिससे पुरुषों के पुनविवाहविषयक स्वयंभू अधिकार का विरोष पाया जाय। और इसलिये भापको यह कल्पना करते ही बना कि "कोई बामण ऋषि दो विवाहों को भी धर्प विवाह स्वीकार करते हैं और तृतीय विवाह का निक्ध करते हैं । वन संभव है किगालव ऋषि दूसरे विवाह का.मी निषेध करते हों।" इतने पर भी भाप पक्ष में लिखते हैं"जो लोग इस खोक से वियों का पुनर्विवाहमर्ष निकालते हैं या विकृत अयुहै। क्योंकि यह वर्ष स्वयं मामयसम्प्रदाय के विकर पड़ता है।" यह धमाकी पराकाष्ठा नहीं तो और क्या है। यह ग्रामणसम्प्रदाय के क्याविरुद्ध पड़ता है उसे आप दिसबा नहीं सके और न दिखला सकते हैं। आपकाइस विषय में ब्रामण सम्प्रदाय की दुहाई देना उसके साहिल की कोरी अनभिज्ञता को प्रकट करना अथवा मोचे भाइयों को फंसाने के लिये व्यर्थ का जाल रचना है । मन्तु ।
इस सब विवेचन पर से हदय पाठक सहन है। में इस बात पर अनुभव कर सकते हैं कि महारानी ने मपरिपाका लियों के लिये मी-- मिनमें पिवार भी शामिल जान पड़ती है-ममविवाह की साफ व्यवस्था की और सेनीवी बैसे पंडितों ने उसे अपनी चित्रपिके
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[nj अनुकूलन पीकर अथवा कुछ लोकविरुद्ध समझ कर जो उस पर पर्दा डालने की चेष्टा की है वह कितनी नीच, निःसार तथा जघन्य है और साथ ही विद्वचा को कलंकित करने वाली है। ।
जो लोग इस त्रिवर्णाचार पर अपनी 'अटल श्रद्धा का ढोग पीटते हुए उसको प्रामाणिक ग्रंथ बतलाते हैं और फिर नियों के पुनर्विवाह का निषेध करते हैं उनकी स्थिति नि:संदेह बड़ी ही विचित्र और करुणाजनक है। वे खुद अपने को ठगते हैं और दूसरों को उगते फिरते हैं !! उन्हें यदि सचमुच ही इस ग्रंप को प्रमाण मानना था तो सियों के पुनर्विवाहनिषेध का साहस नहीं करना था क्योंकि बियों के पुनर्विवाह का विधान तो इसमय में है ही, यह किसी का मिटाया मिट नहीं सकता।
तर्पण, पाद और पिण्डदान। (२८) हिन्दुओं के यहाँ, बान को अंग वरूप, तर्पया नाम का एक नित्य कर्म वर्णन किया है । पितरादिका को पानी या विनोदक (तिलों के साथ पानी ) आदि देकर उनकी कृति की जाती है, इसीका नाम तर्पण है । तर्पण के जस की देव और पितरगण इच्छा करते हैं, 'उसको ग्रहण करते हैं और उससे तुम होते हैं, ऐसा उनका सिद्धान्त है। यदि कोई मनुष्य नास्तिक्य भाव से पर्याद , यह,समा कर कि 'देव पितरों को नचादिक नही पहुंच सकता, तर्पण नहीं करता है तो मन के इच्छुक पितर उसके देह का कपिर पीते है, ऐसा उनके यहाँ योगि याज्ञवल्क्य का वचन है । यथा:
* मामाजी कासलीवाल ने मी १० वर्ष हुए 'सत्यवादी' में प्रकाशित अपने के द्वारा यह घोषणा की थी कि-"मेरा जोमलेगा कृत त्रिवाधार प्रथ पर, कोट अमान है और में उसे प्रमावीक
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, मास्तिस्यभाषा पवाशिम तर्पति बसु ।
विषन्ति वाषिर पिनरो मानिः ।
भारकजी में भी, इस विवर्णाचार में, तर्पण को मान का एक पग बताया है। इतना ही नहीं, बल्कि हिन्दुओं के यहां मान के मो पांच भग-संकल्प, सूक्तपठन मार्नन, अघमर्षण और तर्पणमाने जाते हैं उन सबको ही अपनाया है। यथा:संकली [ ] [क] पठनं मार्बने बाबमर्पणम् ।। देवादि पिउपचषपंचांग स्नानमाचरेत सानपंचांगमिष्यते]
-१०५॥ यह लोक मी किसी हिन्दू पंथ से लिया गया है। हिन्दुषों के
'मममस पापमशन को कहते हैं। तुओं के यहां यह स्मानांगको पापनाशन कियाकाएक विशेष अंग मामा माता है। में
श्रुतं च सत्य मामकाएक मसिद एक है, जिसे 'भवमर्षस एक कहने है और जिसका पिभी असमर्पक है। इस सूक को पानी में निमम होकर खीव पार पड़ने से सब पापों का नाश हो जाता है और थानको भवमेध या कोरस पापों का नाश करने वाला माना गया है, ताकि शंखस्थति निम्नवायों से प्रकट:
aar निममस्तु त्रिपठेदधमपंचम् ॥ १-१२॥ - ययामेघा तुराष्ट्र सर्वयापागमोदनः। ..
तथाऽवमर्षण पूर्व पापप्रसाशनम् ॥६-३ वामन शिवराम ऐपठे में भी अपने कोश में इसकी क मान्यताका नव किया है, और शिक्षा कि गुरुपती, माता, सथा भगिनी भादि के साथ सम्मोग से घोरतम पाप मीस मुकको तीन बार पानी में पड़ने से नाश को प्राप्त हो जाते है, पेसा कहा माता है'यश
i thcice in water.
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[२६]
'स्मृतिरनाक' ' में यह ब्रैकटों में दिये हुए साधारण पाठभेद के साथ पाया जाता है और इसे 'अत्रि ऋषि का वाक्य लिखा है। हिंदुओं
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भट्टारकजी ने ईस अघमर्षण को स्थान को अय बनेलाकर हिन्दुओं के एक ऐसे सिद्धान्त को अपनाया है जिसका जनसिद्धातों के साथ कोई मेल नहीं । जैन सिद्धान्तों की दृष्टि से पापों को इस तरह पर स्नान के द्वारा नहीं धोया जा सकता। स्नान से शरीर का सिर्फ बाह्यमन दूर होता है, शरीर तक की शुद्धि नहीं हो सकती, फिर पापों का दूर होना तो बहुत ही दूर की बात है वह कोई खेल नहीं है । पाप जिने मिध्यात्व असंयमादि कारणों से उत्पन्न होते हैं उनके विपरीत कारणों को मिलाने से ही दूर किये जा सकते हैं-अज्ञादिक से नहीं। जैसाकि श्री अमितगति आचार्य के निम्नवाक्यों से भी प्रकट है
मनो विशोष्पते बाह्य असेनेति निगद्यताम् । पापं निहन्यते तेन कस्येदं हृदि वर्तते ||२६|| मिथ्यात्वा संयमाऽज्ञाने. कल्मषं प्राणिनार्जितम् । सम्यक्त्व संयमज्ञानर्हन्यये नान्यथा स्फुटम् ||३७|| कपाथैरजितं पापं सलिलेन निवार्यते । एतज्जवात्मनो ब्रूते नान्पे मीमांसका एवम् ॥३५॥ यदि शोधयितुं शक्रं शरीरमपि जो जलम् ।
अन्तः स्थितं ममो दुष्टं कथं तेन विंशोध्यते ॥ २६ -- धर्मपरीक्षा, १७ वाँ परिच्छेद । महारकजी के इस विधान से यह मालूम होता है कि वे जानसे पापों का घुलना मानते थे । और शायद यही वजह हो जो उन्होंन प्रन्ध में स्नान की इतनी अरमार की है कि उससे एक अच्छे मंत्रे आदमी का नाक में दम भा सकता है और वह उसीमें उसका रहकर अपने जीवन के समुचित ध्येय से वंचित रह सकता है और छीपना कुछ भी उत्कर्ष साधन नहीं कर सकती। मेरी इच्छा थी कि मैं स्नान की उस भरमार का और उसकी निःसारता तथा जैन सिद्धान्तों के साथ उसके विरोध का एक स्वतन्त्र शीर्षक के नीचे
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पाठकों को दिग्दर्शन कराऊँ परन्तु बैंक बहुत बढ़ गया है इसखिय मजबूरन अपनी उस इच्छा को दमाना ही पड़ा ।
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[२७] ने देष, ऋषि और पितर भेद से तीन प्रकार का तर्पण माना है (सर्प पशुचिः कुर्यात्यलाई स्नातको हिजा देवेच ऋषिभ्यश्च पितम्पक्ष यथा क्रमम् ॥ इति शातातपः) | मरकजी ने भी तीसरे अन्याय के परम७, ८, ९ में इन तीनों भेदों का इसी क्रम से विधान किया है। साप दी, हिन्दुओं की उस विधि को भी प्राय: अपनाया है जो प्रत्येक प्रकार के तपख को किस दिशा की ओर मुंह करके करने तथा भवतादिक किस किस द्रव्य द्वारा उसे कैसे सम्पादन करने से सम्बन्ध रखती है। परन्तु मध्याय के अन्त में भो तपसमंत्र मापने दिये हैं उनमें पहले अपियों काफिर पितरों का और मत में देवताओं का तर्पण मिला है।देवतामों के तर्पण, बईम्सादिक देषों को स्थान नहीं दिया गया किन्तु उन्हें ऋषियोंकी श्रेणी में रखा गया है. हालांकि पचने में गोतमादिमहर्षीयां (4) तपेये शापितीता' ऐसा व्यवस्थावाक्य था-भौर यह आपस नोशन अथवा बनावैचित्र्य है। परंत इन सब बातों ने भी छोड़िये, सबसे बड़ी बात यह है कि महारानी ने सर्पण का सब भाशप और अभिप्राय प्रायः वही रहा है जो हिंदुओं का सिद्धान्त है। वर्षात् , यह प्रकट किया है कि पितरादिक को पानी या तिखोदकादि देकर उनकी वत्ति करना चाहिये, तर्पण के बात की देव पितरायाचा रखते हैं, उसको माया करते है और उससे दम होते हैं। जैसाकि नीचे दिपायों से प्रकट :--
मका ये विनमाया पिता सुरः। तप सोपलस्यर्थ दीपसे सिर मया ॥१९॥
मर्याद-बो को पितर संस्कारविहीन भरे हो. बस की का रखते हो, और नो कोई देव नत की कारखवेहों, उन सब के सन्तोष तपातुति के लिये में पानी देता है-जल से तर्पण करता है।
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[२१८ केचिदमत्कुल जाता पुत्रा व्यन्त सुरः।
ते गृहन्तु मया दचं वसानिष्पीडनावकम् ॥ १३ ॥ अर्थात्-हमारे कुशमें जो कोई पुत्रहीन मनुष्य मरकर व्यन्तर जातिके देव हुए हो, उन्हें मैं धोती आदि क्ससे निचोड़ा हुआ पानी देता हूँ,उसे वे ग्रहण करें।
यह तर्पणके बाद धोती निचोदने का मंत्र है। इसके बाद 'शरीरके अंगों परसे हाथ या बससे पानी नहीं पोछना चाहिये, नहीं तो शरीर कुत्ता चाटेको समान अपवित्र होजायगा और पुनः मान करनेसे शुद्धि होगी। ऐसा अद्भुत विधान करके उसके कारणों को बतलाते हुए लिखा है
यहाँ छपी पुस्तकों में खो'श्रपूर्व पाठ दिया है यह गलत है, वही पाठ पुत्रा है और बही जिनसेन त्रिवर्णाचार में भी पाया जाता है, जहाँ वह इसी अंथ परसे उन है।
यह मत्र हिन्दुओं के नित्र मंत्र पर ले, जिस मंत्रश्च इति मंत्रेष' शम्यों द्वारा खास तौर पर मंत्र रूप से उडेविश किया है, जरासा फेर बदल करके बनाया गया मालूम होता है
ये के चामत्कुल आता अपुत्रा गोत्रजा सृताः। ते गृहन्तु मया संघनिष्पीडनोदकम् - स्मृतिरनाकर। यथा:तस्मात्कार्य म मुजीत घम्बरेश करेण वा।
सानोम साम्यं च पुनः सामेन शुष्यति ॥ १६॥ । हिन्दुओं के यहाँ इस पत्र के आशयले मिलताखताएकवाक्य इस प्रकार है
तसालानो माक्सृज्यानानशाट्याम पागिमा । सानपण हस्तेन यो विजोऽहं प्रमार्जति ।
वृथा मवति तसान पुनः लागेन शुध्यति । 'स्मृतिरस्नाकर' में यह पाक्य 'शिरोवारि शरीराम्बु घल. सोयं यथाक्रमम् । पिबन्ति देवा मुनयः पितरो ब्राम पस्य तु ।। के अनन्तर दिया है और इससे तस्मात् पद का सम्बन्ध बहुत स्परहोजाता है। इसपिमालीका क१५ वाँ पयापितिशिरसन्निामक पयगावगा चाहिये था।
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[ ९१६]
तिस्रः कोट्यो ऽघंकोटी व पावोमाणि मानुषे । बसन्ति तावतीर्थानि तस्माथ परिमार्जयेत् ॥ १७ ॥ पिवन्ति शिरसो देवाः पिवन्ति पितरो मुखात् । मध्याच पक्षगन्धर्वा अधस्तात्सर्वजन्तवः ॥ १८ ॥
धर्षात् मनुष्य के शरीर में जो साढे तीनकरोड़ रोम हैं, उतनेही उसमें तीर्थ हैं। दूसरे, शरीर पर जो स्नान जब रहता है उसे मस्तक परसे देव, मुख परसे पिसर, शरीरके मध्य माग परसे यक्ष गंधर्व और नीचेके भाग परसे अन्य सब जन्तु पीते हैं। इसलिये शरीर के अंगों को पोंछना नहीं चाहिये (पौने से उन तीथोंका शायद अपमान या उत्थापन होनायगा, और देवादिकों के जल ग्रहण कार्य में विघ्न उपस्थित होगा !! ) |
जैन सिद्धान्तसे जिन पाठकों का कुछ भी परिचय दे वे ऊपर के इस कथनसे भने प्रकार समझ सकते हैं कि महारकजी का यह तर्पणविषयक कथन किसना जैनधर्म के विरुद्ध है। जैनसिद्धांत के अनुसार न तो देवपितरगण पानी के लिये भटकते या मारे मारे फिरते हैं और न सर्पण के जबकी इच्छा रखते या उसको पाकर तृप्त और संतुष्ट होते हैं । इसीप्रकार न वे किसी की धोती आदिका निचोड़ा हुआ पानी ग्रहण करते हैं और न किसी के शरीर परसे स्नानजलको पीते हैं। ये सब हिंदूधर्म की क्रियाएँ और कल्पनाएँ हैं। हिन्दुओं के यहाँ साफ लिखा है कि 'जब कोई मनुष्य स्नान के लिये जाता है तब प्यास से विद्दल हुए देव और पितरगण, पानी की इच्छा से वायु का रूप धारण करके, उसके पीछे पीछे जाते हैं । और यदि वह मनुष्य यही स्नान करके वक्ष (धोती ध्यादि) निचोड़ देता है तो वे देवपितर निराश होकर लौट भाते हैं । इसलिये तर्पण के पश्चात् वस्त्र निचोदना चाहिये पहले नहीं | जैसा कि उनके निम्नलिखित वचन से प्रकट है:--
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[२०] स्तानार्थमभिगच्छन्तं देवाः पितृगणैः सह । वायुभूतास्तु गच्छन्ति कृपााः सलिलार्थिनः॥ निराशास्ते निवर्तन्ते पननिष्पीडने कते । अतस्वर्पणानन्तरमेव पलं निप्पीडयेत् ॥
-स्मृतिरत्नाकरे, वृद्धवसिष्ठः। परन्तु नियों का ऐसा सिद्धान्त नहीं है । जैनियों के यहाँ मरने के पश्चात् समस्त संसारी जीव अपने अपने शुभाशुभ कर्मों के मनुसार देव, मनुप्य, नरक, और तिर्यच, इन चार गतियों में से किसी न किसी गति में अवश्य चले जाते हैं | और अधिक से अधिक तीन समय तक निराहार रहकर तुरत दूसरा शरीर धारण करते हैं। इन चारों गतियों से अलग पितरों की कोई निराची गति नहीं होती, जहाँ वे विलकुल ही परावलम्बी हुए असंख्यात या अनन्तकाल तक पड़े रहते हो । मनुष्यगति में निस तरह पर वर्तमान मनुष्य-जो अपने पूर्वजन्मों की अपेक्षा बहुतों के पितर है-किसी के तर्पण जलको पोते नहीं फिरते उसी तरह पर कोई भी पितर किसी भी गति में जाकर तर्पण के जलकी इच्छा से विहत्त हुआ उसके पीछे पीछे मारा मारा नहीं फिरता। प्रत्येक गति में जीवों का माहारविहार उनकी इस गति, स्थिति तथा देशकाल के अनुसार होता है और उसका यह रूप नहीं है जो ऊपर घतलाया गया है । इस तरह पर महारकजी का यह सब कथन जैनधर्मके विरुद्ध है, जीवोंकी गतिस्थित्यादि-विषयक अजानकारी तथा अश्रद्धाकोलिये हुए है और कदापि जैनियों के द्वारा मान्य किये जाने के योग्य नहीं हो सकता।
यहाँ पर में इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि हिन्दुओं के कुछ प्रसिद्ध ग्रन्थों में भी इस बातका उल्लेख मिलता है कि जैनधर्म में इस सर्पल को स्थान नहीं है जैसाकि उनके पद्मपुराण के निम्न
+देखो 'आनन्दा मासिरीज़ पूना' की छपी हुई भावति। .
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[२१] वाक्यों से प्रकट है जो कि ३६ अध्याय में एक दिगम्बर साधुलारा, राजा 'वन को जैनधर्म का कुछ खास बताते हुए, कहे गये हैं। पित नास्ति नानिश्चिदेविकम् । कृष्णस्य तथा पूजा ईन्द्रध्यानमुचमम् १५ एष धर्मसमाचारों जैनमार्ग प्रशते । पास सर्वमान्या जैनधर्मस्य बजाम् ॥२०॥
और मैनियों के 'यशस्तिक' प्रब से भी इस विषय का सम. न होता है। जैसाकि उसके पौष मास के निम्न धारूप से प्रकट है, बोकि राजा यशोधर की वैनधर्म-विषयक श्रद्धा को हटाने के लिये उनकी माता द्वारा, एक वैदिकधर्मावलम्बी की धष्टि से बैनधर्म की त्रुटियों को बताते हुए, कहा गया है।
मतपय देवरितविमानालागस होमस्य न चास्ति पाता। भुने मतदातरे व धास्ते में कथं पुत्र ! दिगभराणम् ॥
भाद-विस धर्म में देषों, पितरों तथा दिना (ऋषियों) का तर्पण नहीं, (श्रुतिस्मृतिविहित । सान की--उसी पाग लान -
और होमको वार्ता नहीं, और नो श्रुति-स्मृति से अत्यन्त बाम है इस दिगम्बर जैनधर्म पर है पुत्र! तेरो बुद्धि कैसे ठहरती है। तुम कैसे उसपर भवा होती है।
इतने पर भी सोनामी, मपने अनुवाद में, महाकवी कास सहाविषयक कान को बैनधर्म का कथन बतखाने का साहस करते हैंबिखते हैं "यह तर्पण आदि का विधान देगर्भ से बाहर का नहीं है किन्तु मेमधर्म का ही "मापने, कुछ मनुवादों के साथ में बचे बन्ने भावार्थ जोड़कर, महारकबी के कथन को निस तिस प्रकार से बेमधर्म का पन सिद्ध करने की बहुतेरी चेष्टा की, परन्तु भाप इसमें - कार्य महा छ सके। और इस पेष्य में पाप कितनी ही खटपग बातें
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[२२२] बिल गये हैं जिनसे आपकी श्रद्धा, योग्यता और गुणज्ञता का खासा दृश्य सामने उपस्थित हो जाता है और उसे देखकर भापकी हालत पर बड़ा ही तसे आता है | भाप लिखते हैं-"यन्तरों का अनेक प्रकार का खमात्र होता है। अतः किसी किसी का खभाव जलप्रहण करने का है। किसी किसी का वन निचोदा हुमा जन लेने का है। ये सब उनकी स्वभाविकी क्रियायें हैं।" परन्तु कौन से नशाखों में व्यन्तरों के इस स्वभावविशेष का उल्लेख है या इन क्रियाओं को उनकी स्वभाविकी क्रियाएँ लिखा है, इसे पाप बतबा महीं सके माप यहाँ तक तो निखगये कि " जैनशाखों में साफ लिखा है कि व्यन्तरों का ऐसा स्वभाव है और ये क्रीडानिमित्त ऐसा करते हैं-ऐसी क्रियायें करा कर वे शान्त होते हैं। परन्तु फिर भी किसी माननीय मशाख का एक भी वाक्य प्रमाण में अद्भुत करते हुए भाप से बन नहीं पदा तब आपका यह सब कपन थोथावारजाल ही रह जाता है। मालूम होता है अनेक प्रकार के स्वभाव पर से पाप सब प्रकार के स्वभाष का नतीजा निकायते हैं, और यह आपका विनक्षण तर्क है || ध्यन्तरों का सब प्रकार का स्वभाव मानकर और उनकी सब कामों को पूरा करना अपना कर्तव्य समझ कर तो सोनीनी बहुत ही प्रापचि में पर बायेंगे और उन्हें व्यन्तरों के पीछे नाचते नाचते दम लेने की मी फुर्सत नहीं मिलेगी । खेद है सोनीबीने यह नहीं सोचा कि अपम तो व्यन्सर देव क्रीडा के निमित बिन बिन चीजों की इच्छाएं में उनको पूरा करना प्रावकों का कोई कर्तव्य नहीं है-श्रावकाचार में ऐसी कोई विधि नहीं है. व्यन्तरदेव यदि मांसभक्षण की कौड़ा करने सगे तो कोई भी श्रावक पशुओं को मारकर उन्हें पति नहीं चढ़ाएगा, मोरम श्रीसेवन को काला करने पर अपनी बी या पुत्री पद संभोग के 'चिये देगा । दूसरे, यदि किसी तरह पर उनकी कला को पूरा भी किया
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[२३] माय तो वह तभी तो किया जा सकता है जब येसी कोई या व्यता हो-कोई व्यन्तर कांदा करता हुआ किसी तरह पर प्रकट करे कि मुझे इस बात धोती निचोड़ का पानी चाहिये तो यह उसे दिया जा सकता हैपरंतु जब पैसो कोई इच्छा या क्रौदाव्यात हीन हो अथवा उसका अस्तित्व
न हो सब भी उसका पूर्ति की चेष्टा करना--बिना इच्छा भी किसी को जल पीने के लिये मजबूर करना अथवा पीने वाले के गौन्द न होते हुए मी पिलाने का दौंग करना क्या अर्थ रखता है। यह निरा पागलपन नहीं तो और क्या है? क्या व्यन्तरदेवों को ऐसा असहाय या महानतीसमझ लिया है जो वेबिना दूसरों के दिये स्वयं जल भी कही से ग्रहण न कर सकें? वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । भट्टारकजी का प्राशय यदि इस तर्पण से ध्यन्तरों के कीड़ा उद्देश्य की सिद्धि मात्र होता तो वे बैसी कौम के समय हो या इस प्रकार की सूचना मिलने पर ही सर्पण का विधान करते क्योंकि कोई क्रीड़ा या इच्छा सार्वकालिक और स्थायी नहीं होती। परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया, बल्कि प्रतिदिन और प्रत्येक लान के साप में तर्पण का विधान किया है और उनकी व्यवस्थानुसार एक दिन में बीसियों बार स्लान की नौबत था सकती है। मस: महारानी का यह तर्पणविधान म्पन्सरों के क्रीड़ा उद्देश्य को लेकर नहीं है किन्तु सीधा और साफ तौर पर हिन्दुओं के सिद्धान्त का अनुसरण गात्र है। और इसलिए यह सोनीनी की अपनी ही कल्पना और अपनी हा ईनाद है जो वे इस तर्पण को व्यन्तरी की क्रीड़ा के साथ बाँधते हैं और उसे किसी तरह पर खींचतांचकर नैनधर्म को कोटि में शानेका निष्फल प्रयत्न करते हैं । ११३ श्लोक के भावार्य में तो सोनीनी यह भी लिख गये हैं कि "व्यातरी को जन किसी उद्देश्य से नहीं दिया जाता है क्योंकि यह बात लोक हा साफ कह रहा है कि कोई
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बिना संस्कार किये हुए मर गये हों, मरकर व्यंतर * हुए हो और मेरे हाथ से जल लेने की वांछा रखने हों तो उनको में सहन ( यह जल ) देता हूँ। इसमें कहीं भी किसी विषय का उद्देश्य नहीं है।" परंतु लोक में तो जलदान का उद्देश्य साफ़ लिखा है 'तेषां संतोषतृप्त्यर्थं - उनके सन्तोष और तृप्ति के लिये और आपने भी अनुवाद के समय इसका
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अर्थ "उनके संतोष के लिये " दिया है । यह उद्देश्य नहीं तो और क्या है? इसके सिवाय पूर्ववर्ती श्लोक नं० १० में एक दूसरा उद्देश्य भीर भी दिया है और वह है 'उस पाप की विशुद्धि जो शारीरिक मल के द्वारा जल को मैला अपवादूपिन करने से उत्पन्न होता है ' । यथा:* यन्मया दुष्कृतं पाएं [दूषितं तोयं ] शारीरमलसंमत्रम् [चात् ] तत्पापस्य विशुद्ध्यर्थं देवानां सर्पयाम्यहम् ॥१०॥
ऐसी हालत में सोनी जी का यह तर्पण के उद्देश्य से इनकार करना, उसे भागे चलकर श्लोक के दूसरे अधूरे धर्म के नीचे छिपाना और इस तरह स्वपरप्रयोजन के बिना ही + तर्पण करने की बात कहना कितना हास्यास्पद जान पड़ता है, उसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। क्या यही गुरुमुह से शास्त्रों का सुनना, उनका मनन करना और मापा की ठीक योग्यता का रखना कहलाता है, जिसके लिये आप अपना अहंकार प्रकट करते और दूसरों पर आक्षेप करते हैं ? मालूम होता 'है सोनीजी उस समय कुछ बहुत ही विचलित और अस्थिरचित थे ।
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* 'स्यन्तर' का यह नामनिर्देश मूल लोक में नहीं है। x यह हिन्दुओं का यक्ष्मतर्पण का लोक है और उनके यहाँ इसका चौथा चरण ' यक्ष्मैतत्ते तिलोदकम् ' दिया है । (देखो 'आन्हिकांचन')
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+ प्रयोजनमनुद्दिश्य न मंदोऽपि प्रवर्तते । -- बिना प्रयोजन उद्देश्य के तो सूर्ख की मी प्रवृत्ति नहीं होती । फिर सोमीजी ' ने क्या समझकर यह विना उद्देश्य की बात कही है ॥
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[३५] उन्हें इस तर्पण को बैनधर्म का सिद्धान्त सिद्ध करने के लिये कोई ठीक युक्ति सूझ नहीं पढ़ती थी, इसीसे वे वैसे ही यद्वा तसा कुछ महकी बहकी बातें लिखकर पंथ के कई पेनों को रंग गये हैं। और शायद यही वजह है नो वे दूसरों पर मूर्खनापूर्ण अनुचित कटाक्ष करने का भी दुस्साहस कर बैठे हैं, जिसकी चर्चा करना यहाँ निरर्षक भान पड़ता है।
१८ श्लोक के भावार्ष में, कितनी ही विचलित बातों के पतिरित, सोनीजी लिखते हैं:___ " यद्यपि देवों में मानसिक आहार है, पितृगण कितने ही मुक्ति स्थान को पहुँच गये हैं इसलिये इनका पानी पीना असम्भव जान पड़ता है। इसी तरह यक्ष, गंधों और सारे जीवों का भी शरीर के जल का पानी (पाना!) असम्भव है, पर फिर भी ऐसा बो लिखा गया है उसमें कुछ न कुक तात्पर्य अवश्य कुपा हुआ है (जो सोनीनी की समस के बाहर है और जिसके जानने का उनके कथनानुसार इस समय कोई साधन भी नहीं है।)।" ___"यपि इस लोक का विषय असम्भव सा जान पड़ता है परन्तु फिर भी वह पाया जाता है । अतः इसका कुछ न कुछ तात्पर्य अवश्य है। व्यर्प बाते भी कुछ न कुछ अपना तात्पर्य ज्ञापन कराकर सार्थक हो जाती हैं ( परन्तु इस श्लोक की व्यय बातें तो सोनीजी को अपना कुछ मी तात्पर्य न बतमा सी)।"
इन उदारों के समय सोनीजी के मस्तिष्क की हालत उस मनुष्य जैसी मालूम होती है जो घर से यह खबर पाने पर रो रहा था कि 'तुम्हारी श्री विधवा हो गई है और बब बोगों ने उसे समझाया कि तुम्हारे बीते तुम्हारी श्री विधवा कैसे हो सकती है तब उसने सिसकियाँ देते हुए कहा था कि 'यह तो मैं भी जनता हूं कि मेरे बीते मेरी खी विधवा कैसे हो सकती है परन्तु पर से नो भादमी खबर लाया है कह बड़ा ही विश्वासपात्र है, उसकी बात को मूठ कैसे कहा जा सकता
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है ? वह जरूर विधवा हो गई है, और यह कहकर और भी ज्यादा फट फूटकर रोने लगा था; और तब लोगों ने उसकी बहुत ही हँसी उड़ाई थी। सोनीजी की दृष्टि में भट्टारकजी का यह ग्रंथ घर के उस विश्वासपात्र आदमी की कोटि में स्थित है। इसीसे साक्षात् असम्भव जान पड़ने वाली बातों को भी, इसमें लिखी होने के कारण, धाप सत्य समझने और जैनधर्मसम्मत प्रतिपादन करने की मूर्खता कर बैठे हैं! यह है आपकी श्रद्धा और गुणज्ञता का एक नमूना !! अथवा गुरुमुख से शास्त्रों के अध्ययन और मनन को एक बानगी !!
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सोनीजी को इस बात की बड़ी ही चिन्ताने घेरा मालूम होता है कि कहीं ऐसी सम्भव बातों को भी यदि झूठ मान लिया गया तो शास्त्र की कोई मर्यादा ही न रहेगी, फिर हर कोई मनुष्य चाहे जिस शास्त्र की बात को, जो उसे अनिष्ट होगी, फौरन अधीक ( झूठ ) कह देगा, तब सर्वत्र विश्वास फैल जायगा और कोई भी क्रिया ठीक ठीक न वन सकेगी ! इस बिना सिर पैर की निःसार चिन्ता के कारण ही आपने शास्त्र की -- नहीं नहीं शात्र नाम की मर्यादाका उल्लंघन न करनेका जो परामर्श दिया है उसका यहीं श्राशय जान पड़ता है कि शास्त्र में लिखी उलटी सीधी, मली बुरी, विरुद्ध अविरुद्ध और सम्मन असम्भव सभी बातों को बिना चूँ चरा किये थोर काम हिलाए मान लेना चाहिये नहीं तो शास्त्र को मर्यादा विगड़ जायगी !! वाह ! क्या ही अच्छ सत्परामर्श है 11 अंधश्रद्धा का उपदेश इससे भिन्न और क्या होगा वह कुछ समझ में नहीं श्राता !!! मालूम होता है सोनीनी को सत्य शान के स्वरूप का ही ज्ञान नहीं । सचे शास्त्र ते ध्यात पुरुषों के कहे होते हैं उनमें कहीं उलटी, चुरी, विरुद्ध औ सम्भव बातें भी हुआ करती हैं ? वे तो वादी-प्रतिवादी के द्वारा अनु लव्य, युक्ति तथा भागम से विरोधरहित, यथावत् वस्तुस्वरूप के उप
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देशक, सर्व के हितकारी भोर कुमार्ग का मथन करने वासे होते हैं ऐसे शास्त्रों के विषय में उक्त प्रकार की चिंता करने के लिये कोई स्थान ही नहीं होता तो खुलेमैदान परीक्षा के लिये छोड़ दिये जाते हैंउनके विषय में भी उक्त प्रकार की चिन्ता व्यक्त करना अपनी श्रद्धा की कचाई और मानसिक दुर्पलता को प्रकट करना है। इसके सिवाय, सोनीनी को शायद यह भी मालूम नहीं कि 'कितने हो म्रष्टचारित्र पंडितों और वरसाबुओं (मूर्ख तथा धूर्त सुनियों) ने निनेन्द्रदेव के निर्मल शासन को मक्षिन कर दिया है कितनी ही स बातों को, इधर उधर से अपनी रचनादिकों के द्वारा, शासन में शामिल करके उसके स्वरूप को विकृत कर दिया है' (इससे परीक्षा की भोर भी खास अरूरत खड़ी हो गई है 1); जैसा कि अनगारधर्मामृत की टीका में पं०आशा धरणी के द्वारा उद्घृत किसी विद्वान् के निम्न वाक्य से प्रकट है:---- पण्डिते प्रचारिचैर्वठा तपोधनैः ।
शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मत मलिनीकृतम् ॥
सोमसेन भी तुम्ही बटर अथवा धूर्त सांघुष्यों में से एक थे, धौर यह बात ऊपरकी भाछोचना परसे बहुत कुछ स्पष्ट है। उनकी इस महा आपत्तिजनक रचना (त्रिपर्णाचार) को सत्यशांख का नाम देना वास्तव में सत्य शाखों का अपमान करना है | अतः सोनीबी की चिन्ता, इस विषय में,
जैसा कि स्वामी समन्तभद्र के मिस्र वाक्य से प्रकट है.--. सोपमनुष्यमाविशेधकम् ।
तत्वोपदेशकृत्सा शाखं कापयधनम् । (रत्नकरण्ड आ०)
+ इसी बानको लक्ष्य करके किसी कवि में यह वाक्य कहा हैजिनमद महल मनोश अति प्रतियुग छादित पंथ । समस के परक्षियो चर्चा निर्णय प्रेथ ॥
और बड़े बड़े आचार्यों ने तो पहले से ही परीक्षामधानी
होने का उपदेश दिया है- अन्यथा पाने का नहीं।
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विलकुल ही निर्मूल जान पड़ती है और उनकी अस्थिरचित्तता तथा दुचमुतयकीनी को और भी अधिकता के सांप साबित करती है।
यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि सोनीजी की यह स्थिरचित्तता बहुत दिनों तक उनका पियड पकड़े रही है सम्भवतः ग्रंथ के छप जाने तक भी आपका चित्त डाँवाडोल रहा है और तब कहीं जाकर आपको इन पद्यों पर कुछ संदेह होने लगा है। इसीसे शुद्धिपत्र - द्वारा, १३ और १७ लोकके अनुवाद पीछे एक एक नया भाषार्थ जोड़नेकी सूचना देते हुए, आपने उन भाषाओं में ११ से १३ और १७ से १९ नम्बर तक के छह लोकों पर 'क्षेपक' होने का संदेह प्रकट किया है निश्चय उसका भी नहीं और वह संदेह भी निर्मूल जान पड़ता है। इन पद्योंको क्षेपक मानन पर १० में नम्बर का पच निरर्थक हो जाता है, जिसमें उद्देशविशेष से देवों के तर्पण की प्रतिज्ञा की गई है और उस प्रतिज्ञा के अनुसार ही अगले श्लोकों में तर्पण का विधान किया गया है। १३ वाँ लोक खुद वस्रनिचोड़ने का मंत्र है और हिन्दुओं के यहाँ भी उसे मंत्र लिखा है; जैसा कि पहले बाहिर किया जा चुका है। सोनीनी ने उसे मंत्र ही नहीं समझा और वस्त्र निधोदनेका कोई मंत्र न होने के आधार पर इन श्लोकोंके क्षेपक होने की कल्पना कर डाली !! श्रतः ये छोक क्षेपक नहीं ग्रंथ में वैसे ही पीछे से शामिल होगये अथवा शामिल कर लिये गये नहीं - किंतु भट्टारकजी की रचना के अंगविशेष हैं। मिनसेनत्रिवर्गाचार में सोमसेनत्रिवर्णाचार की जो नकल की गई है उसमें भी वे उद्धृत पाये जाते हैं ।
यहाँ तक के इस सब कथन से यह स्पष्ट है कि महारकनी ने हिंदुओं के तर्पण सिद्धांत को अपनाया है और वह जैनधर्म के विरुद्ध है। सोनीनी ने उसे जैनधर्मसम्मत प्रतिपादन करने और इस तरह सत्य पर पर्दा डालने की जो अनुचित चेष्टा की है उसमें वे नरा भी सफल नहीं हो सके और अंत में उन्हें कुछ पद्यों पर थोया सदेह करते ही बना। साथ में आपकी श्रद्धा भोर गुणज्ञता आदि का जो प्रदर्शन हुआ सो जुदा रहा।
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[१६] अब रही श्राद्ध और पिण्डदान की बात | ये विषय भी मैन धर्म से बाहर की बीब हैं और हिंदूधर्म से खास सम्बंध रखते हैं। भहारकनी ने इन्हें भी अपनाया है और भनेक स्थानों पर इनके करने की प्रेरणा तथा व्यवस्था की है । पितरों का उद्देश्य करके दिया जिसके कुछ नमूने इस प्रकार :
चौधतट प्रकर्तव्यं प्राणायाम सथाचमम् ।
सध्या आई च पिण्डस्य दानं गेहेऽपपाशुधौ -७७॥ इसमें श्राद्ध तथा पिण्डदान को तीर्थतट पर या घर में किसी पवित्र स्थान पर करने की व्यवस्था की है। , नान्दीश्राद्धं च पूनांच"कुर्याच्च तस्याप्रेस-१८
इसमें 'नान्दीबाई' के करने की प्रेरणा की गई है, जो हिन्दुओं के श्राद्ध का एक विशेष है।
एकमेव पितुबाधं कुर्याईशे वशाहनि ।
ततो वे मात के बाद कुर्यादाचाविषोडश ॥१३-७८॥ इसमें अषस्थापिशेप को लेकर माता और पिता के थानों का विधान किया गया है।
वहमतिबिम्धार्थ मण्डपे सादिनापि वा। स्थापयेदेकमश्मानं वर पिण्डाविदचये ॥ १६ ॥ पिण्ड तिलोदकं चापि कर्ता पानाप्रतः। सर्वेपि धन्धवो बधुः नातास्तत्र निलोदकं ।। १७०॥ एवं शादपर्यन्तमेतत्कर्म विधीयते। पिण्ड विनोदकं चापि का वधाचदान्वहं . १७६ ॥ पिण्डवानतः पूर्वमन्ते च स्नानमिष्यते । पिएर कपित्यमात्रश्च सच शाल्यन्धसा तः १७७० तत्याचा पहिः कार्यस्तत्वा च शिक्षापिच । कर्तुः सख्यानकं चापि वहिः स्थाप्यानि गोपिते ॥१७॥
-१३ वा अध्याय। इन पदों में सूतक संस्कार के अनम्वर पाले पिण्डदान का विधान है और उसके विषय में लिखा है कि पिण्डादिक देने के लिये जलाशप के किनारे पर उस मृतक की पेह के प्रतिनिधिका
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[२३०] हुभा अन्नादिक पितरों के पास पहुंच जाता है और उनकी कृति प्रादि सम्पादन करता है, ऐसी श्रद्धा से शास्त्रोक्तविधि के साथ जो अनादिक से एक पत्थर की स्थापना करनी चाहिये, संस्कारकर्ता को उस पत्थर के आगे पिण्ड और तिलोदक देना चाहिये और लान किये हुए बन्धुओं को भी वहाँ पर तिनोदक चढ़ाना चाहिये। संस्कार कर्ता को बराबर दस दिन तक इसी तरह पर पिण्ड और सिखोदक देते रहना चाहिये, पिण्डदान से पहले और पीछे मी स्नान करना चाहिये और बह पिण्ड पके चावलों का कपित्थ (कैथ या वेल) के आकार जितना होना चाहिये । चावल भी घर से बाहर पकाये बायें और पकाने का पान, वह पत्थर, तथा पिण्डदान-समय पहनने के पत्र ये सब चीजें बाहर ही किसी गुप्त स्थान में रखनी चाहिये।
श्रद्धयात्रमदानं तु सपन्या भादमितीप्यते। मासे मासे मवेच्छाचं तहिने पसरावधि ॥ १३॥ श्रत भई मवेदना तु प्रतिवासरं । प्राबादशाब्दमेवैतक्रियते प्रेतगोचरम् ।। १६४ ।। इन पचों में प्रेत के मद्देश्य से किये गये श्राद्ध का स्वरूप और उसके मेवों का उल्लेख किया गया है। लिया है कि श्रद्धा से श्रद्धा विशेप खे-किये गये अचधान को पार कहते हैं और उसके दो मेव र मासिक और वार्षिक । जो मृतक तिथि के दिन हर महीने साल भर तक किया जाय यह मासिक श्राद्ध है और जो उसके बाद प्रतिवर्ष चारह वर्ष तक किया जाय उसे वार्षिक श्राद्ध जानना चाहिये । यहाँ श्राख का जो व्युत्पस्यात्मक स्वरूप दिया है वह प्रायः वही है जो हिन्दुओं के यहाँ पाया जाता है और जिसे उनके 'श्राव. तत्व' में 'वैदिकप्रयोगाधीनयौगिक लिखा है, जैसा कि अगले फुट नोट से प्रकट है। और इसमें जिस श्रद्धा का उल्लंस है यह भी वही 'पिद्देश्यक श्रद्धा' अथवा 'प्रेतोद्देश्यक श्रद्धा' है जिसे हिन्दुओं के पमपुराण में भी जैनियों की ओर से 'निरर्थिका' बताया है
और बो जैनष्टि से बहुत कुछ आपत्ति के योग्य है। श्रद्धा के इस सामान्य प्रयोग की वजह से कुछ लोगों को जो भ्रम होता था वह अब दूर हो सकेगा।
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[२३१]
दिया जाता है उसका नाम श्राद्ध है। हिंदुओं के यहाँ सर्पण और श्राद्ध ये दोनों विषय करीब करीब एक ही सिद्धांत पर अवस्थित है । दोनों को 'पितृयज्ञ' कहते हैं। मेद सिर्फ इतना है कि तर्पण में प्रि से जल छोड़ा जाता है, किसी ब्राह्मणादिक को पिलाया नहीं जाता । देव पितरगया उसे सीधा प्रहण करनेते हैं और तृप्त हो बाते हैं। परंतु श्राद्ध में प्रायः ब्राह्मणों को भोजन खिलाया जाता है अथवा सूखा नादिक दिया जाता है। और जिस प्रकार लेटरबॉक्स में डाली हुई चिट्टी दूर देशांतरों में पहुँच जाती है उसी प्रकार मानो ब्राह्मणों के पेट में से वह भोजन देव पितरों के पास पहुँच कर उनकी तृप्ति कर देता है । इसके सिवाय कुछ क्रियाकांड का भी भेद है। पिण्डदान भी श्राद्ध का ही एक रूपविशेष है, उसका भी उद्देश्य पितरों को तृप्त करना है और वह भी 'पितृयज्ञ' कहलाता है। इसमें पियब को पृथ्वी आादिक पर डाला जाता है --- किसी ब्राह्मणादिक के पेट में नहीं और उसे प्रकट रूप में कौए भादिक खानाते हैं। इस तरह पर श्राद्ध और पिण्डदान ये दोनों कर्म प्रक्रियादि के भेद से, पितृतर्पण के ही भेदविशेष हैं इन्हें प्रकारांतर से 'पितृतर्पण' कहा भी जाता है और इसलिये इनके विषय में मुझे अधिक कुछ भी लिखने की बरूरत नहीं है। सिर्फ इतना मौर बसला देना चाहता हूँ कि हिंदू ग्रंथों में 'श्राद्ध' नाम से भी इस विषयका स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि वह जैनधर्मसम्मत नहीं है, जैसाकि उनके पद्मपुराण' के नि वाक्यों से प्रकट है, जो कि ३६वें अध्याय में उसी दिगम्बरसाबु द्वारा श्राद्ध के निषेध में, राजा 'चेन' के प्रति कहे गये हैं:
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A
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० श्राद्धं - शास्त्रविधानेन विकर्मत्यमरः । पिनुद्देश्यकश्रद्धयाऽनादि दानम् । " श्रद्धया दीयते यसात् श्राद्धं तेन निगलते' इति पुलस्त्यवचनात् । 'श्रद्धया असावेदन आएं' इति वैदिकप्रयोगाधीनयोगिकम्' इति श्राद्धतस्त्रम् । अपिच सम्बोधनपदोपनीतान् पित्रादीन् चतुर्थ्यन्त पनोद्दिश्य हरेिस्लागः श्राद्धम् । -- शब्दकल्पद्रुम ।
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[२३] थाचं कुर्वन्ति मोहेन क्षयाहे पितृतर्पणम् । काऽऽस्ते मृतः समभाति कीशोऽसौ नरोत्तम ॥ २६ ॥ किशान कीदृशं कार्य फेन ए पदव नः । मिएम प्रभुक्का तु पक्षि यान्ति व प्रामणाः ॥ ३०॥
कल्य श्राद्ध प्रदीयेत सा तु श्रद्धा निरधिका । • अन्य प्रवक्ष्यामि घेवानां कर्मवाहणम् ॥ ३१ ॥
इन वाक्यों में श्राद्ध को साफ तौर पर 'पितृतर्पण' लिखा है, और उससे श्राद्ध का जोश्य भी कितना ही स्पष्ट हो जाता है। साथ ही यह बतलाया है कि जिस (पितृप्ति उद्देश्य को ) श्रद्धा से उसका विधान किया जाता है वह श्रद्धाही निरर्थक है-उसमें कुछ सार ही नहीं-इस श्राद्धसे पितरोफी कोई तृप्ति नहीं होती किन्तु ब्राह्मणों की वृप्ति होती है । इसी तरह पर गत पुराण के १३ वें अध्याय में भी दिगम्बर जैनों की ओर से श्राद्ध के निषेध का उल्लेख मिलता है। ।
ऐसी हालत में जैनमंथों से श्राद्धादि के निध-विषयक अवतरणों के देने की जो बहुत कुछ दिये जा सकते हैं यहाँ कोई जरूरत मालूम नहीं होती । जैनसिद्धांतों से वास्तव में इन विषयों का कोई मेल ही नहीं है। और अब तो बहुत से हिंदू भाइयों को भी श्रद्धा श्राद्ध पर से उठती जाती है और ये उसमें कुछ तत्व नहीं देखते । हाल में स्वर्गीय मगनलाल गाँधीबी के विषको धीरपुत्र केशव माई ने अपने पिता की मृत्यु के १० वें दिन को मार्मिक उद्गार महात्मा गांधीनी पर प्रकट किये हैं और जिन्हें महात्माजी ने बहुत पसंद किया तथा कुटुम्बीननों ने भी अपनाया वे इस विषय में बड़ा ही महत्व रखते हैं और उनसे कितनी ही उपयोगी शिक्षा मिलती है । वे उद्गार इस प्रकार हैं:___ "श्राद्ध करने में मुझे श्रद्धा नहीं है। और असत्य 'तथा मिथ्या का माचरण कर मैं अपने पिता का तर्पण
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[२३३] कैसे करूँ इसकी अपेक्षातोजोबस्तु पिताजीको प्रिय थी वही करूंगा। गीता का पारायण तीन दिन करूँगा और तीनों दिन १२ घण्टे रोज चार्वा चलाऊँगा"1-हि० नम
परंतु हमारे सोनीजी, बैन पंडित होकर मी, अमीतक' सकीर के सकार बने हुए हैं, 'बाबाबाक्यं प्रमाई की नीति का अनुसरण करना ही अपना धर्तन्य समझते हैं और लोगों को 'अन्धश्रद्धालु' बनने तथा बने रहने का उपदेश देते हैं, यह बड़ा है। आचर्य है। उन्हें कम से कम केशप माई के इस उदाहरण से ही कुछ शिक्षा सेनी चाहिये।
मेरा रिचार था कि मैं और भी कुछ विरुद्ध कथनों को दिखलाऊँ, विरुद्ध कथनों के कितने ही शीर्षक नोट किये हुए पड़े हैं-सासकर विषाचार के पूज्य देवता' शीर्षक के नीचे में कुदेवों की पूजा के दिखला कर उसकी विस्तृत माखोचना करना चाहता था परंतु उसके लिये चम्बा लिखने की बात की और सेन बहुत बढ़गया है इसलिये इस विचार को भी छोड़ना है। पड़ा। मैं समझता हूँ विरुद्ध कथनों का यह सब दिग्दर्शन काफी से भी ज्यादा छ गया है और इसलिये इतने पर है। सन्तोष किया जाता है।
इन सब विरुद्ध कथनों के गोन्द्र होते हुए और अनेन विषयों तथा वाक्यों के इतन मारी सग्रहको उपस्थिति --अपमा ग्रंथकी स्थिति के इस दिग्दर्शन के सामने-सोनाना के निम्न पापा का कुछ भी मुख्य नहीं रहता, मो उन्हनि ग्रंथ के अनुवाद की भूमिका में दिये है:
हमें तो प्रथ-परिशीलन से यही मालूम हुआ कि प्रधकर्ता की नैनधर्म पर असीम मलित थी, भबन विषयों सवे परहेज करते थे। जोग खामुखों अपनी स्वार्थसिद्धि के लिये उनपर भवर्षवाद लगाते हैं।"
(२) "प्रथ की मूल मिचि प्रदिपुराण पर से सपी है।" mm.."इस ग्रंथ के विषय अपिप्रमति मागम में कभी सप से मोर
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[२३४] कही विस्तार से पाये जाते हैं । अतएव हमें तो इस ग्रंथ में न अप्रमाणता ही प्रतीत होती है और न भागमविरुद्धता है।"
मालूम होता है ये वाक्य गहन लिखने के लिये ही लिखे गये हैं, अश्या ग्रंथ का रंग जमाना ही इनका एक उद्देश्य जान पड़ता है । अन्यथा, ग्रंप के परिशीलन, तुलनात्मक अध्ययन और विषय की गहरी जाँच के साथ इनका कुछ भी सम्बंध नहीं है । सौनीनी के हृदय में यदि किसी समय विवेक जागून हुमा तो उन्हें अपने इन वाक्यों और इसी प्रकार के दूसरे वाक्यों के लिये भी, निन में से कितने ही ऊपर यथास्थान उद्धृत किये जा चुके हैं, खरूर खेद होगा और भाश्चर्य अथवा अंसमव नहीं जो वे अपनी भूब को स्वीकार करें। यदि ऐसा हो सका और शैतान ने कान में फँकन मारी तो यह उनके लिये निःसन्देह बड़े ही गैरव का विषय होगा।मस्तु ।
, उपसंहार।। ' त्रिवर्णाचार की इस सम्पूर्ण परीक्षा और अनुवादादि-विषयक मालोचना पर से सहृदय पाठकों तथा विवेकशील विचारकों पर पंप की असलियत खुले विना नहीं रहेगी और वे सहन ही में यह नतीजा निकाल सकेंगे कि यह ग्रंथ निसे महारानी 'निनेन्द्रागम' तक लिखते हैं वास्तव में कोई जैनग्रंथ नहीं किंतु जैनग्रंथों का कलंक है। इसमें रत्नकाण्डश्रावकाचारादि जैसे कुछ पार्ष प्रषों के वाक्यों का जो संमा किया गया है वह ग्रंथकर्ता की एक प्रकार की चालाकी है, धोखा है, मुखम्मा है, अथवा विरुद्धकयनरूपी बाली सिकों को चलाने भादि का एक साधन है। महारानी ने उनके सहारे से अथवा उनकी मोट में उन मुसलमानों की तरह अपना उल्लू सीधा करना चाहा है जिन्होंने भारत पर माक्रमण करते समय गौओं के एक समूह को अपनी सेना के आगे कर दिया था । और जिस प्रकार गोहत्सा के मय से हिन्दुओं
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मे उनपर आक्रमण नहीं किया उसी प्रकार यायद आपकायों की अवहेचना कर कुछ बयान करके उन जैन विद्वानों ने मिलके परिवार में यह ग्रंथ अबतक माता रहा है इसका वैसा चाहिये पैस विरोष नहीं किया । परतु भार्षवाक्य और पार्षवाक्यों के मनुकूच करेगये इसरे प्रतिष्ठित विद्वानों के पाय अपने अपने स्थान पर माननीय तप पूचनीय है। महारानी ने उन्हें यहा मधर्म, मेनसिद्धान्त, नैनन्नति तपा नैशियर मावि से विरोध रखने वाले और बनाव से गिरे हुए कपनों के साथ में गुय कर अषया मिनाकर उनका दुपयोग किया है और इस तरह पर समूचे अंथ को विधमिमित भोजन के समान बना दिया है, को त्याग किये जाने के योग्य है। विपमिश्रित भोधन घार विरोध किस प्रकार मोचन का विरोध नहीं कहलाता उसी तरह पर इस त्रिवर्याचार के विरोध को भी पार्षयाश्यों अथवा नशाखों का विरोध या उनकी कोई अवहेलना नहीं का वा सकता जो योग अमवस अभीतक इस ग्रंथ को किसी और ही रूप में देख रहे थे जैन शाम के नाम की मुहर लगी होने से इसे साक्षात् बिनसायी अश्या बिनवासी के तुल्य समझ रहे थे और इसलिये इसकी प्रकट विरोधी पायों के लिये भी अपनी समझ में न भाने वाले विरोध की कल्पनाएँ करके सन्न होते थे---उन्हें अपने उस अज्ञान पर अब बलर खेद होगा, वे भविष्य में बहुत कुछ सतर्क तथा सावधान हो जायगे मोर बोबी इन त्रिवाधार से मारकीय ग्रंथों के मागे सिर नहीं मुकाणे। पालब में, यह सब ऐसे अंगों का ही प्रताप है जो जनसमाज अपने मादर्श से गिरकर विजकुछ ही अनुदार, अन्धश्रद्धालु तथा संकीर्णहृदय धनगया है, उसमें अनेक प्रकार के मिथ्यात्वादि कुसंस्कारों ने अपना घर बना लिया है और यह बुरी तरह से कुरीतियों के बार में
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फंसा हुआ है। साथ ही, उसके व्यक्तियों में भाम, तोर, पर, ढूंढने पर भी जैनत्व का कोई खास लक्षण दिखाई नहीं पड़ता। इन सब त्रुटियों को दूरकरके अपना उद्धार करने के शिय समाज को ऐसे विकृत तथा षित साहित्य से अपने व्यक्तियों को सुरक्षित रखना होगा और ऐसे बाची, टोंगी तथा कपटी अंघों का सबल विरोध करके उनके प्रचार को रोकना होगा। साथ ही, विचारस्वातंत्र्य को उत्तेजन देना होगा, जिससे सत्य असत्य, योग्य अयोग्य और हेयादेय की खुली जाँच हो सके और उसके द्वारा समाज के व्यलियों की साम्प्रदायिक मोहमुग्धता तथा अन्धी श्रद्धा दूर होकर उन्हें यथार्थ वस्तुस्थिति के परिज्ञान-द्वारा अपने विकाश का ठीक मार्ग सुझ पड़े और उसपर चलने का यथेष्ट साहस भी बन सके। इन्ही सदुद्देश्यों को लेकर इस परीक्षा के लिये इतना परिश्रम किया गया है। भाशा है इस परीक्षा से बातों का ज्ञान र होगा, महारकीय साहित्य के कितने ही विषयों परअच्छा प्रकाश पड़ेगा और उससे नैन अजैन सभी भाई लाभ उठाएंगे।
अन्त में सत्य के उपासक समी जैन विद्वानों से मेरा सादर निवेदन है कि वे लेखक के इस सम्पूर्ण कपन तथा विवेचन की यथेष्ट जाँच करें और साथ ही भारकजी के इस पंथ पर अब अपने खुले विचार प्रकट करने की कृपा करें। यदि परीक्षा से उन्हें भी यह ग्रंथ ऐसा ही निकृष्ठ तथा हीन बचे तो समाजहित की दृष्टि से उनका यह बरूर कर्तव्य होना चाहिये कि षे इसके विरुद्ध अपनी भावाब उठाएँ और समाज में इसके विरोध को उत्तेजित करें, जिससे पूतोंकी की हुई जनशासन की यह मलिनता दूर हो सके । इसवम् ।
व्येष्ठ १० १३, सं० १९८५
जुगलकिशोर मुख्तार :
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धर्मपरीक्षाको परीक्षा।
कृत्वा नी: पूर्वकृताः पुरस्तात्मत्यादर ताः पुनरीक्षमाणः । सथैव अल्पेश्य योन्यथा वा साध्योरोऽस्तु स पातकीच
-सोमदेवः। वेताम्बर जैनसम्प्रदायर्मे, श्रीधर्मसागर महोपाध्याय के शिष्य पद्मसागर मणीका बनाया हुधा 'धर्मपरीक्षा' नामका एक संस्कृन प्रय है, निसे, कुछ समय हुआ, सेठ देवचंदवासमाईक जैनपुस्तकोद्धार फंड बम्बई छपाकर प्रत्याशित भी किया है । यह ग्रंथ संवत् १६४५ का बना हुआ है। जैसा कि इसके अन्तमें दिये हुए निन्नपद्यसे प्रकट है:
तद्राज्ये विजयिन्यनन्यमवयः ग्रीवाचकाग्रेसरा पोतन्ते मुवि धर्मलागरमहोपाध्यायशुद्धा धिया । ते शिष्यकणेन पंचयुगपट्चंद्रांकित (१६४) वत्सरे बेलाकूमपुरे स्थिरोग रचितो अन्योऽयमानन्दनः ॥१४॥
दिगम्बर जैनसम्प्रदायमें मी धर्मपरीक्षा' नामका एक अंथ है जिसे श्रीमाधवसेनाचार्य के शिष्य भामिनगति नामके पाचार्यने विक्रमसवत् १०७० में बनाकर समाम किया है। यह ग्रंथ भी छपकर प्रकशित हो चुका है। इस प्रपका रचना-संवद सूचक अन्तिम पद इसप्रकार है:संवत्सरा विगते सहने, सतवी (१०७०) विक्रमपार्थिवस्य। छ निषिभ्याम्पम समाते, जिनेन्द्रधर्मामितयुनिशास्त्रम् ॥ २० ॥
इन दोनों प्रयोका प्रतिपाद विषय प्रायः एक है दोनों मनोधग' और पवनग' की प्रधान कथा और उसके अंतर्गत अन्य अनेक उपकामोंका समान रूपसे वर्णन पाया जाता है बल्कि एकका साहित्य दूस
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[२३८] के साहित्यसे यहाँतक गिलता जुलता है कि एकको दूसरेकी नका कहना कुछ मी अनुचित न होगा। चताम्बर 'धर्मपरीक्षा को इस लेखका परीक्षा विषय है, दिगम्बर 'धर्मपरीक्षा से ५७५ वर्ष बादचा बनी हुई है। इसलिए यह कहने में कुछ भी संकोच नहीं हो सकता कि पयसागर गणीने अपनी धर्मपरीक्षा अमितगतिको 'धर्मपरीक्षा' परसे ही बनाई है और वह प्रायः उसकी नकल मात्र है। इस नाउमें पनसागर गणीने अमितगतिके भाशय, ढंग (शैली ) और भावोंकी ही नकश नहीं की, बल्कि उसके अधिकांश पद्योंकी प्रायः अक्षरश: नात कर डाली है और उस सबको अपनी कृति बनाया है, जिसका खुलासा इस प्रकार है:
पद्मसागर गणीको धर्मपरीक्षामें पोंकी संख्या कुल १४८४ है। इनमें से चार पध प्रशस्तिके और छह पर मंगलाचरण तथा प्रतिज्ञाके निकालकर शेप १४७४ पयोमसे १२६० पथ ऐसे हैं, जो अमिक्षति की धर्मपरीक्षासे ज्योंके त्यों उठाकर रक्खे गये हैं। बाकी रहे २१४ पद्य, वे सब अमितगतिके पयों परसे कुछ परिवर्तन करके बनाये गये हैं। परिवर्तन प्रायः छदोभेदको विशेषताको लिये हुए है। अमितगति की धर्मपरीक्षा पहला परिच्छेद और शेष १६ परिच्छेदोंके अन्तके कुछ कुछ पद्य अनुष्टुप् छन्दमें न होकर दूसरेही छदम रचे गये हैं। पत्नसागर मणीनं उनमें से बिन जिन पोंको ठेना उचित समझा है, उन्हें अनुष्टुप् छन्दमें बदलकर रख दिया है, और इस तरहपर अपने ग्रंथमें अनुष्टुप् छंदोंकी एक लम्बी धारा बहाई है। इस धारामें आपने परिच्छेद-भेदको मी बहा दिया है । अर्थात् , अपने प्रयको परिच्छेदों या अभ्यायोंमें विभक्त न करके उसे बिना हॉलटिंग स्टेशन वाली एक लम्बी और सीधी सड़क के रूपमें बना दिया है । परन्तु अन्तमें पांच पयोंको, उनकी रचनापर मोहित होकर अपना उन्हें सहजमें अनुष्टुप् छदषच रूप न देसकने आदि किसी कारणविशेषसे, ज्योंका सो मिन
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[२३६]
मिन छुदोंमें भी रहने दिया है; जिससे अन्तमें जाकर प्रयका अनुष्टुप् छंदी नियम भंग हो गया है। वस्तु इन पाँचों पथमेसे पहला पच रामूने के तौरपर इस प्रकार है:
-
तं द्वादशमेदमिषं यः आवकीयं जिननाथरष्टम् । करोति संसारनिपातमीतः प्रयाति कल्याणमसी समलम् ॥१४७६ ॥
यह पद्य अमितगति - परीक्षाके ११ वें परिवृंद में नं० ६७ पर दर्ज है । इस पद्यके बाद एक पद्य और इसी परिच्छेदका देकर तीन पक्ष २० वें परिच्छेद से उठाकर रक्खे गये हैं, जिनके नम्बर उक्त परिच्छेद में क्रमशः ८७, ८८ और ८९ दिये हैं। इस २० में परिच्छेदके शेष सम्पूर्ण पथोंको, जिनमें धर्मके अनेक नियमों का निरूपण था, ग्रंथकर्तने छोड़ दिया है। इसी प्रकार दूसरे परिच्छेदोंसे भी कुछ कुछ पद्म छोड़े गये हैं, जिनमें किसी किसी विषयका विशेष वर्णन था | अमितगति धर्मपरीक्षा की पचसंख्या कुल १९४१ है जिनमें २० पर्योकी प्रशस्ति भी शामिल है, और पद्मसागर - धर्मपरीक्षाकी पद्मसंख्या प्रशस्तिसे अलग १४८० है; जैसा कि ऊपर जाहिर किया जाचुका है। इसलिए सम्पूर्ण छोड़े हुए पद्योंकी संख्या लगभग ४४० समझनी चाहिए। इस तरह लगभग ४४० पद्योंको निकालकर, २१४ पद्योंमें कुछ वृंदादिकका परि वर्तन करके और शेष १२६० पद्योंकी ज्योंकी त्यों नख उतारकर ग्रंथकर्त्ता श्रीपद्मसागर गणीने इस 'धर्मपरीक्षा' : को अपनी कृति बनानेका पुण्य सम्पादन किया है ! जो लोग दूसरों की कृति को अपनी कृति बनाने रूप पुरुष सम्पादन करते हैं उनसे यह भाशा रखना तो व्यर्थ है कि, वे उस कृति के मूल कर्ता का ध्यादरपूर्वक स्मरण करेंगे, प्रत्युत उनसे जहाँतक बन पड़ता है, वे उस कृतिके मूलकर्ताका नाम छिपाने या मिटाने की ही चेष्टा किया करते हैं ऐसा है। यहाँ पर पद्मसागर गणीने भी किया है। अमितगतिका कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करना तो दूर
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[२४०] रहा, आपने अपनी शक्तिमर यहाँ तक चेष्टाकी है कि ग्रंथममें अमितगतिका नाम तक न रहने पावे और न दूसरा कोई ऐसा शब्द ही रहने पावे जिससे यह ग्रंथ स्पष्ट रूपसे किसी दिगम्बर जैनकी कृति समझ लिया जाय । उदाहरण के तौरपर.यहाँ इसके कुछ नमूने दिखलाये जाते हैं। १-श्रुत्वा वाचमशेषकल्मषभुषां पायोमुखशंखिनी .. नस्वा केवक्षिपादपंकजयुग मामरेन्द्रार्चितम् । आत्मानं प्रतरतमूषितमसौ चके विशुद्धाशयो। मान्यः प्राप्य यतेगिरोऽमितगतेयाः कथं कुते ॥१०१३
यह पद्य अमितगतिकी धर्मपरीक्षाके १९ परिच्छेदका अन्तिम पप है। इसमें मुनिगहारानका उपदेश पुनकर पवनवंगके श्रावकात धारण करनेका उल्लेख करते हुए, चौथे चरणमें लिखा है कि 'मन्यपुरुष अपरिमित ज्ञानके धारक मुनिके उपदेशको पाकर उसे व्यर्थ कैसे कर सकते है। साथ ही, इस चरणमें अमितगतिने अन्यपरिच्छेदोंके अन्तिम पोंक समान युक्तिपूर्वक गुमरीतिस अपना नाम भी दिया है। पयसागर, गंगीको अमितगतिका यह गुप्त नाम मी असा हुभा और इसलिए उन्होंने अपनी धर्मपरीक्षा में, इस पचको नं. १४७७ पर ज्योका त्यों उद्धृत करते हुए, इसके अन्तिम चरणको निन्न प्रकारसे बदल दिया है। "मित्रासमतो न कि भुवि नर. प्रामोति सदस्वहो।"
इस तबदीलीसे प्रकट है कि यह केवल ममितगतिका नाम मिटानेकी गरवसे ही की गई है। अन्यथा, इस परिवर्तनको पहॉपर कुछ मी जरूरत न थी। २-खकालान्तरमंथो निकषायो विद्रियः।
परीपइसहः साधुआंतरूपधरो मतः ॥१८-७६॥ इस पथमें अमितगतिने साधुका भक्षण 'जातरूपधरः' अर्थात नादिगम्बर बताया है। साधुका अक्षण नादिगम्बर प्रतिपादन करनेसे कही दिगम्बर जैनधर्मको प्रधानता प्राप्त न हो माय, अपना यह प्रय
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[२४१] किसी दिगम्बर जेमकी कृति न समझ लिया नाय, इस मयसे गणीनी महाराजने इस पपकी नो कायापलट की है वह इस प्रकार है
स्यकाशान्तरो ग्रंथो निष्क्रियो विजितेत्रियः। परीपासहः साधुभषाम्भोनिधितारकः ॥१३७६॥
यहाँ 'जातरूपपरो मता' के स्थानमें 'भवाम्भोनिषि. तारका' (संसारसमुद्रसे पार करनेवाला ) ऐसा परिवर्तन किया गया है। साथ ही, 'निकषायः' की जगह 'निष्क्रियः' मी बनाया गया है, जिसका कोई दूसरा हो रहस्य होगा। ३-कन्ये नन्दासुनन्दाक्ये कच्छस्य नृपतेषण।
जिवन योजयामास नीति कीती वामले ॥१-१४ दिगम्बरसम्प्रदायमें, ऋषभदेवका विवाह राना कचकी नन्दा और पुनन्दा नामको दो अन्यानों के साथ होना माना जाता है। इसी बातको लेकर भगिगतिने उसका ऊपरके पबमें उल्लेख किया है । परन्तु सेताम्बर. सम्प्रदायमें, ऋषभदेवकी बियांक नामोंगे कुछ भेद करते हुए, दोनों ही बियोंको राजा कच्छको पुत्रियाँ नहीं माना है। बल्कि सुमंगलाको स्वयं, ऋषभदेषके साथ उत्पन्न हुई उनकी सगी बहन बतखाया और सुनन्दाको एक दूसरे युगलियेकी बहन पयाम किया है जो अपनी बहन के साथ खेलता हुआ अचानक बाल्यावस्थामें ही मर गया था। इसलिए पनसागरजी ने अमितगतिके उक्त पधको बदलकर उसे नीचेका रूप देदिया है, जिससे यह ग्रंथ दिगम्बर ग्रंथ न समझा जाकर खेताम्बर सम चिया बाय:--
सुमंगलानुमन्दाग्ये कम्ये सह पुरन्दः। । । जिनेन योजयामास नातिकीर्ती वामझे ॥ १३४७ ॥ इस प्रकार, यपि प्रयकता महाशयने अमितगतिकी कृतिपर अपना पार्वल और स्वामित्व स्थापित करने और उसे एक खेताम्बर ग्रंथ मनाने के लिए बहुत कुछ अनुचित ठाएं की है, परतु तो भी वे इस (धर्मपरीक्षा)
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[२४२] अंधे को पूर्णतया खेताम्बर ग्रंथ नहीं बना सके । बल्कि अनेक पयोंको निकाल डालने, परिवर्तित कर देने तथा ज्योंका त्यो कायम रखनेकी वजहसे उनकी यह रचना कुछ ऐसी विलक्षण और दोषपूर्ण होई है, जिससे ग्रंथकी चोरीका सारा भेद खुल जाता है। साथ ही प्रथकर्ताको योग्यता
और उनके दिगम्बर तया सेताम्बर धर्मसम्बन्धी परिज्ञान आदिकर भी अच्छा परिचय मिल जाता है। पाठकोंके सन्तोषार्थ यहाँ इन्हीं सब घातका कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है।
(१) अमितगति-धर्मपरीक्षा पाँच परिच्छेदमें, '' नागके दिष्ट पुरुपकी कथाका वर्णन करते हुए, एक स्थान पर लिखा है-बिस समय 'वा' मरणासन्न हुआ तब उसने, अपने 'स्कंद' नामक शत्रुका समूल नाश करनेके लिए, पुत्रपर अपनी प्रान्तरिक इच्छा प्रकटकी और उसे यह उपाय बताया कि जिस समय मैं मर जाऊँ उस समय तुम मुझे मेरे शत्रुके खेतमें ले जाकर लकड़ी के सहारे खड़ा कर देना । साथही, अपने समस्त गाय, भैस तथा घोड़ोंके समूहको उसके खेतमें छोड़ देना, बिससे वे उसके समस्त धान्यका नाश कर देखें । और तुम किसी वृक्ष या घासकी मोटमें मेरे पास बैठकर स्कंदके भागमनकी प्रतीक्षा करते रहना । जिस वक्त वह क्रोध, भाकर मुझपर प्रहार करे तब तुम सत्र जोगोंको भुनाने के लिए बोरसे चिल्ला उठना और कहना कि स्कंदने मेरे पिताको मार डाला है। ऐसा करनेपर राजा स्कंदद्वारा मुझे मरा जान कर स्कंदको दण्ड देगा, जिससे वह पुत्रसहित मर जायगा। इस प्रकरण के तीन पब इस प्रकार है:एष यया क्षयमेति समूळ कंचन कर्म तथा कुरु वत्स। येन धामि विरं मुरलोके धमनाः कमनीयशरीर ॥ ८ ॥ क्षेत्रभमुष्य विनीय मृतं मा यधिनिपध्यागर्नु सुत कृत्या। .गौमहिषीहर्षवृन्दमशेष शस्यसमूहविनाशि विमुंच ॥
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[२४३] .. वृक्षतणान्तरितो मम तीरे विष्ठ निरीक्षितुमागतिमस्य।
कोपपरेण कृते मम बाते पूकुरु सर्वजनश्रवणाय ॥ १० ॥
इन तीनों पोंके स्थान में पनागर गणीने अपनी धर्मपरीक्षामें निमाविखित दो पच मनुष्टुप् छन्दमें दिये हैं:
समूलं क्षयमेत्येष यथा कर्म तथा कुरु । वसामि यत्स्फुरहेहः स्वर्ग हुएमनाः सुभम् ॥ २३ ॥ वृक्षाद्यन्तरितस्तिष्ठ त्वमस्यागतिमीक्षितुम् । मायावेऽस्मिन्मृत हत्वा मां पूत्कुष जनश्रुनेः ॥ २४ ॥
इन पोंका भमितगतिक पर्कक साथ मिलान करनेपर पाठकोंको सहजमें है। यह मालूम हो जायगा कि दोनों पब ऋगशः अमितगतिके पथ नं. ८८ और १० परसे कुछ छीन शासकर बनाये गये हैं और इनमें अमितगतिके शब्दोंकी प्रायः नकल पाई जाती है । परन्तु सायही उन्हें यह जाननमें भी विचम्म न होगा कि अमितगतिके पच नं०८६ को पनसागरनीने बिलकुल ही छोड़ दिया है उसके स्थानमें कोई दूसरा पद्य मी बनाकर नहीं रक्खा । इसलिए उनका पच नं० २८४ बड़ा ही विचित्र मालूम होता है। उसमें उस उपायके सिर्फ उत्तरार्धका कथन है, जोवाने मरने समय अपने पुत्रको प्रतक्षाया था। उपायका पूर्वार्ष न होनेसे यह पथ इतना असम्बद्ध और बेढंगा होगया है कि प्रकृत कयनसे उसकी कुछ भी संगति नहीं बैठती । इसी प्रकारके पथ और भी अनेक स्थानोंपर पाये जाते हैं, जिनके पहले के कुछ पब छोड़ दिये गये हैं और इसलिये थे परफटे हुए कबूतरकी समान लबूरे मालूम होते हैं।
(२) अमितगतिने अपनी धर्मपरीक्षाके १५ वे परिछदमें, 'युक्तितो घटते यन्न इत्यादि पधनं० ४७ के बाद, जिसे पनसागरनीने भी अपने प्रथमें नं० १०८९ परज्योंका यों उद्धृत किया है, नीचे लिखे दो पदों. द्वारा एक बीके पंच मार होनेको प्रति निंध कर्म ठहराया है और इस तरह
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[२४४] पर द्रौपदी के पंचपति होने का निषेध किया है। दोनों पब इस प्रकार :
सम्बंधा भुवि विद्यन्ने सर्वे सर्वस्य भूरिशः। भर्तयां शापि पंचानां नैकया भार्यया पुनः || सर्व सपुर्वन्ति संविभाग महाधियः । महिलासविमागस्तु निन्यानामपि निन्दितः HER
पपसागरनीने यद्यपि इन पोंसे पहले और पीछे के बहुत से पोंकी एकदम ज्योंकी त्यों नकल कर डाली है, तो भी आपने इन दोनों पोंको अपनी धर्मपरीक्षामें स्थान नहीं दिया । क्योंकि अताम्बर सम्प्रदायों, हिन्दुओं की तरह, द्रौपदी के पंचमार ही माने जाते हैं । पाँचों पांडवोंके । गले में दोपदीने वरमाला डाली थी और उन्हें अपना पति बनाया था, ऐसा करन खेताम्बरीके 'त्रिशष्ठिशनाकापुरुषचरित' आदि अनेक ग्रंथोम पाया जाता है। उक्त दोनों पोंको स्थान देनेसे यह ग्रंथ कहीं श्वेताम्बरधर्मके महावेसे बाहर न निकल जाय, इसी मयसे शायद गणीनी महाराजने उन्हें स्थान देनेका साहस नहीं किया । परन्तु पाठकोंको यह मानकर भाषर्य होगा कि गणीनीने अपने प्रथमें उस श्लोकको ज्योका ला रहने । दिया है जो भाषेपके रूपमें ब्राह्मणों के सम्मुख उपस्थित किया गया था मौर जिसका प्रविषाद करने के लिए ही अमितगति प्राचार्यको उक्त दोनों पोंके बिखनेको नहरत पड़ी थी। वह लोक यह है:
द्रौपचा: पंच मार: कध्यन्ते पत्र पाएदशा।
जनन्यालय को दोषस्तत्र मर्दद्वये सति IEE | - इसकोको द्रौपदीके पंचगार होने की बात कटाक्ष रूपसे कही गई है। जिसका माग प्रतिवाद होनेकी मरत थी और जिसे गणीनीने नहीं किया 1 यदि गणीनीको एक खाके अनेक पति होना अनिष्ट न पा तब मापको अपने प्रथमें यह लोक भी रखना उचित न था और न इस विषयको कोई चर्चा हो पाने की जरूरत थी। परन्तु आपने ऐसा न करके अपनी
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धर्मपरीक्षामें एक्त कोक और उसके सम्बंधकी दूसरी चर्चाको, बिना किसी प्रतिपादके, ज्योंका त्यों लिवर स्खा है। इसलिए कहना पाता है कि आपने ऐसा करके निसन्देह मारी भूल की है। और इससे बापकी योग्यता तथा विचारशीयताका भी बहुत कुछ परिचय मिल जाता है। (३) श्वेताम्बरी धर्मपरीक्षामें, एक स्थानपर, ये तीन पथ दिये है
विलोक्य वेगतः खर्या क्रमस्योपरि मे क्रमः। मझो मुशलमादाय पत्तनिष्टरघातया ॥ ५१५॥ अर्थतयोमहाराटिः प्रवृत्ता दुर्निवारणा। लोकानां प्रेक्षणीभूता राक्षस्योरिष रुष्टयोः ॥ ५१६ ॥ अरे रक्षतु ते पादं त्वदीया जननी स्वयम् ।
रुटखा निगोति पादो मनो द्वितीयकः ॥ ५१७ ॥ इन पर्मिटे पहला पथ ज्योका लों वही है जो दिगम्बरी धर्मपरीक्षाके में परिच्छेदमें में० २७ पर दर्ज है। दूसरे पयमें सिर्फ 'इत्यं तयोः के स्थानमें अर्थतयोर' का और तीसरे पद्यमें 'बोडे के स्थानमें 'अरे' और 'रुष्टयक्ष्यों के स्वानमें 'कष्टलो' का परिवर्तन किया गया है। पिछले दोनों पञ्च दिगम्बरी धर्मपरीक्षाके उक परिच्छेदमें क्रमशः न. ३२ और ३३ पर दर्व है। इन दोनों पोंसे पहले अमितगतिने जो चार पच और दिये थे और जिनमें कशी तया'सरी' नामकी दोनों विशेक पायुखका वर्णन या उन्हें पयसागरचीने अपनी धर्मपरीक्षासे निकाल दिया है। मस्त मौर सबषातोंको छोड़कर, यहाँ पाठकों का ध्यान उस परिवर्तनको पोरणाकर्षित किया नाता है जो 'कश्यों के स्थानमें 'रुटखयों बनाकर किया गया है। यह परिधर्तन वास्तवमें बसा ही विलक्षण है। इसके द्वारा यह विचित्र अर्ष पटित किया गया है कि निस खरी नामकी त्रीने पहले सीके उपास्य चरणको तोल डाला था उसीने पक्षीको यह बैलेंज देते हुए कि ' मबहू और बेरी मा अपने चरणकी रक्षा कर' स्वयं अपने पास्य दूसरे परणको भी तोब डाला। परन्तु खरीको अपने उपास्य परण पर क्रोध माने और उसे तोड डालनेकी कोई पबहन पो। यदि ऐसा मान मी लिया जाय तो उक चैलेबमें जो कुछ कहा गया है वह सब व्यर्थ पड़ता है। क्योंकि नब खरी एकीके उपास्य चरणको पहले ही तोड़ चुकी थी, तब उसका साक्षीसे यह कहना कि है। भव बपने परणकी रक्षा कर मैं उस पर माफमण करती हूँ बिल्कुल ही भा और अधर्मजस मालम होता है। पास्तबमें, दूसरा चरण क्षीके द्वारा, अपना बदला चुकाने के लिए, खोदा गया था और उसीने जरीको उकार कर उपयुष पाक्य कहा था। प्रथकाने इसपर कुछ मी भान न देकर बिना सोचे समझे वैसे ही परिवर्सन कर मला है, जो बहुत ही महा मालम होता है।
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(४)अमितपति-धर्मपरीक्षा के छठे परिच्छेदमें, 'या' प्राम्हणी और उसके बारपति 'पटुक' का उल्लेख करते हुए, एक पब इस प्रकारसे दिया है
प्रपेदे स पचस्तस्या निम्शेष एमानसा।
जायन्ते नेहशे कार्य दुष्प्रबोधा हि कामिनः॥४॥ इस पछमें लिखा है कि 'उस कामी बटुकने बाकी मायाको (जो अपने निकल भागनेका उपाय करने के लिए दो मुर्दे छानेके विषयमें बी) बड़ी प्रसनताके साथ पालन किया, सच है कामी पुरुष ऐसे कामोंमें दुबोध नही शेते। अर्थाद, वे अपने कामको पातको कठिनतासे समझनेपाछे न होकर शीघ्र समझ लेते हैं। परसागरजीने वही पर अपनी धर्मपरीक्षामें न० ३१५ पर दिया है परन्तु साथ ही इसके उत्तरार्षको निम्न प्रकारसे बदलकर रखा है
“न जाता तस्य शंकापि दुष्प्रबोधा हि कामिनः ॥" इस परिवर्तनके द्वारा यह सूचित किया गया है कि उस बटुकको उक आलाके पाठनमें शंका मी नहीं हुई, सब है कामी गेग कठिनता से समझानेवाळे होते हैं परन्तु बद्धक्ने तो यहाकी आमाको पूरी तौरसे समझकर उसे बिना किसी काके प्रसनताके साथ श्रीध पालन किया है तब वह कठिनतासे समझनेवाला दुपयोध' क्यों ! यह बात बहुत ही खटकनेपाली है और इस लिए ऊपरका परिवर्तन पका ही वेढंगा मालम होता है। वहीं माम प्रयकर्ताने इस परिवर्तनको करके पथमें कौनसी खूबी पैदा की और क्या गम उठाया । इस प्रकार के व्यय परिवर्तन और मी अनेक स्थानॉपर पाए माते हैं जिनसे अंषकांकी योग्यता और व्यांचरणका बच्चा परिचय मिलता है।
. श्वेताम्बरशाख-विरुद्ध कथन।। (५) पद्मसागर गणीने, अमितगतिके पोंकी ज्योंकी त्यों नकल करते हुए, एक स्थान पर ये दो पद्य दिये -
।। क्षुधा दण्णा भयोषी रागो मोहो मदोगदा।। चिन्ता जन्म जप सूयुर्विषादो विस्मयो रतिः ।
खेदा स्वेदस्तथा निदा दोषाः साधारणा इमे ।
मधदशापि विचन्ते सर्वेषां दुःखहेतवः ॥ १३ ॥ इन पोम उन १८ दोषोंका नामोल्लेख है, जिनसे दिगम्बर लीम महन्तदेवीको रहित मानते हैं । उक दोषोंका, २१ पर्यो छ विवरण देकर फिर ये हो पथ और दिये है -
एतैयै पीडिता दोषस्तैर्मुच्यन्ते कयं परे। .. सिंहानां इतनागानां न खेदोस्ति मृगक्षये ॥ ९१५॥ सर्वेरामिण विद्यन्ते दोषानानास्ति संशयः। रुपिणीव सदा द्रव्ये गन्धस्पर्शरसादयः॥ १६ ॥
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इन पथम लिखा है कि ' जो देव इन क्षुधादिक दोषसि पीडित है, ने दूसरोंको दुःखोंसे मुक्त कैसे कर सकते हैं ? क्योंकि हाथियोंको मारनेवाले सिहाँको सुगोंके मारने में कुछ भी कष्ट नहीं होता । जिस प्रकार पुतुल द्रव्यमें स्पर्श, रस और गधादिक गुण हमेशा पाए जाते हैं, उसी प्रकार ये सब दोष भी रागी देवोंमें पाए जाते हैं।' इसके पाद एक पयमें ब्रह्मादिक देवताओं पर कुछ आक्षेप करके गनीमी लिखते है कि सूर्यसे अंधकार के समूहकी तरह जिस देवतासे ये संपूर्ण दोष नष्ट हो गये हैं वही सब देवोंका अधिपति अर्थात् देवाधिदेव है और संसारी जीवोंक पापका नाश करनेमें समर्थ है। ' यथा:--
एते नष्टा यतो दोषा भानोरिव वमञ्चयाः ।
स स्वामी सर्वदेवानां पापनिर्वलनक्षमः ॥ ९९८ ॥
इस प्रकार यगीजी महाराजने देवाधिदेव अर्हन्त भगवानका १८ दोषोंसे रहित वह स्वरूप प्रतिपादन किया है जो दिगम्बरसम्प्रदायमें माना जाता है। परंतु यह स्वरूम श्वेताम्बरसम्प्रदाय के स्वरूपसे विरूक्षण मालूम होता है, क्योंकि श्वेताम्बकि यहाँ प्रायः दूसरे ही प्रकारके १८ दोष माने गये हैं। जैसा कि सुनि आत्मारामजीके 'तस्वादर्श' में उल्लिखित नीचे लिये दो पद्योंसे प्रगट है:
अंतरायदान छामवीर्यभोगोपभोगगाः ।
हासो रत्परती भीतिर्जुगुप्सा शोक एव च ॥ १ ॥ कामो मिथ्यात्वमहानं निद्रा व विरतिस्तथा । रागो द्वेषा नो दोषास्तेषामष्टादशाऽप्यमी ॥ २ ॥
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इन पद्योंमें दिये हुए १८ दोषेक नामोंमेंसे रति, भीति ( मग ), निद्रा, राग और द्वेष ये पाँच दोष तो ऐसे हैं जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायों में समान रूपले माने गये हैं। शेष दानान्तराय, कामान्तराय, मीर्यान्तराय, भोगान्तराम, उपभोगान्तराय, हास्य, भरति, जुगुप्सा, शोक, काम, निम्यात्व, महान और विरति नामके १३ दोष दिगम्बरोंके माने हुए क्षुधा, सुषा, मोह, मद, रोग, चिन्ता, धन्म, अरा, मृत्यु, विषाद, विस्मय, खेद और स्वेद नामके दोषोंस मित्र है। इस लिए गणोजीका उपर्युक्त कथन श्वेताम्बरशालोंके विरुद्ध है। मालूम होता है कि अमितगति धर्मपरीक्षा के १३ में परिच्छेदसे इन सब पयोंको ज्योंका त्यों उठाकर रखनेकी पुनमें आपको इस विरुद्धताका कुछ भी भान नहीं हुआ ।
(६) एक स्थानपर, पद्मसागरजी लिखते हैं कि 'कुन्तीसे उत्पन्न हुए पुत्र तपवरण करके मोक्ष गये और महीके दोनों पुत्र मोक्षमें न जाकर सर्वार्थसिद्धिको गये । यथा:कुन्तीशरीरजा कृत्वा तपो जग्मुः शिवास्पदम् । मद्रीशरीरजी भन्यौ सर्वार्थसिद्धिमीयतुः ॥ १०९५ ॥
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यह कथन यद्यपि विगम्वरसम्प्रदायकी दृष्टि से सत्य है और इसी लिए अमितगतिने अपने अंधके १५३ परिच्छेदमें इसे मैं. ५५ पर दिया है। परन्तु श्वेताम्बरसम्प्रदायको इष्टिसे यह कथन मी विरुद्ध है। श्वेताम्बकि " पांडषचरित्र' मादि प्रथोंमें 'मनी के पुत्रोंका भी मोक्ष जाना लिखा है और इस तरह पर पाँचों ही पाण्डघोंक लिए मुकिका विधान किया है। (७) पनसागरजीने, अपनी धर्मपरीक्षामें, एक स्थान पर यह पत्र दिया है:
चाकदर्शनं कृत्वा भूपी शुक्रवृहस्पती।
प्रचुचौ स्वेच्छया कर्तुं वकीयेन्द्रियपोषणम् ॥ १३६५ ।। इसमें एक और मूहस्पति नामके दो राजाओंको चायाक' दर्शनका चलानेवाला शिक्षा है, परन्तु मुनि भात्मारामबीने, अपने 'तत्यादर्श' अंथके ४ थे परिच्छेदमें, 'शीलतरंगिणी' नामक किसी श्वेताम्बरसानके भाधार पर, चावांक मतको उत्पासिविषयक जो कथा दी है उससे यह मालम होता है कि चार्वाक मत किसी रावा.मा क्षत्रिय पुरुषके द्वारा न चलाया पाकर केवल हस्पति नामके एक प्राह्मणद्वारा प्रवर्तित हुआ है, जो अपनी बालविषषा पहनदै भोग करना चाहता था। भोर स लिए पहनके इससे पाप तथा लोकलवाका भय निकालकर अपनी इच्छा पूर्तिकी गरजसे ही उसने इस मतके सिद्धान्तोंकी रचना की थी। इस कथनसे पानसागरजीका उपर्युक कयन मी श्वेताम्बर शाओंके विरुद्ध पड़ता है।
(0) इस श्वेताम्बर 'धर्मपरीक्षा में, पच नं० ७८२ ५९ वक, गधेके शिरच्छेदका इतिहास बताते हुए, लिखा है कि
'ज्येष्ठाके गर्भसे उत्पन्न हुआ शंमु ( महादेष) सात्यकिका बेटा था। घोर तपश्चरण करके उसने बहुतसी विधाओंका खामिल प्राप्त किया था। विद्यामोंके पैमयको देखकर वह इस वर्ष अष्ट हो गया। उसने चारित्र (मुनिधर्म ) को छोड़कर विधाघरोंकी भाठ कन्याभोंसे विवाह किया। परन्तु वे विद्यापकी आठों ही पुत्रियों महादेषके साथ रतिकर्म करनेमें समर्थ न हो सकी मोर मर गई। तब महादेवने पार्वतीको रतिकर्ममें समर्व समासकर उसकी याचना की और उसके साथ विवाह किया। एक दिन पावंतीके साथ भोग करते हुए उसकी 'त्रिशूल' पिया नष्ट हो गई। उसके नष्ट होनेपर वह 'ब्राह्मणी ' नामकी इसरी वियाको सिद्ध करने लगा। जब वह 'प्रामणी' विद्याकी प्रतिमाको सामने रखकर बप कर रहा था तब उस विधाने अनेक प्रकारको विक्रिया करनी शुरू की । उस विक्रियाके समय जब महादेखने एक बार उस प्रतिमा पर दृष्टि शाली तो उसे प्रतिमा के स्थान पर एक चतुमुखी मनुष दिखलाई पड़ा, जिसके मस्तक पर गका सिर था। उस गधेके सिरको वढता हुमा देखकर उसने शीघ्रता के साथ उसे काट गम । परन्तु यह सिर महादेवके हायको चिपट गया, नीचे नहीं गिरा। तब ब्राह्मणी विद्या महादेवको साधनाको अर्थ करके बली गई। इसके बाद रात्रिको महादे
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पने श्रीवर्धमानस्वामीको श्मशानभूमिमें ध्यानात देखकर और उन्हें विद्याल्मी मनुष्य समझकर उन पर उपद्रव किया। प्रातःकाल जब उसे यह मालम हुमा कि वे धीवर्षमान चिनेंद्र थे सब उसे अपनी कृति पर बहुत पश्चात्ताप हुमा । उसने भगवानको खति की और उनके चरम ए। चरणोंको छुते ही उसके हाथसे चिपठा हुमा यह गर्वका सिर गिर पड़ा।
यह सब कथन श्वेताम्बर शाकि बिलकुल विरुद्ध है। श्वेताम्बरोंके आवश्यक सूबमें महादेवको जो फया लिखी है और जिसको मुनि वात्मारामजीने अपने तत्वावशी नामक प्रयके १२ परिच्छेदमें मद्धत किया है उससे यह सब कवन विस्कळ ही विलक्षण मालूम होता है। उसमें महादेव (महेयर) के पिताका नाम " सास्यकि 'न बताकर स्वयं महादेवका ही असली नाम 'सात्यक्ति प्रगट किया है और पिताका नाम 'पेढास' परिवाजका पतलाया है। लिखा है कि, पेडासने अपनी विद्यामका काम करने के लिए किसी प्रचारिणीसे एक पुत्र उत्पन्न करनेकी जरूरत समाप्तकर ज्यो' नामकी साध्वीसे ब्यमिवार किया और उससे सात्यकि नामके महादेव पुत्रको उत्सा करके उसे अपनी संपूर्ण विद्याभोंका दान कर दिया। साथ ही, यह भी लिखा है कि 'बह सात्यकि नामका महेकर महावीर भगवानका अविरतसम्यग्दृष्टि श्रापक या'। इस लिए उसने किसी चारित्रका पालन किया, मुनिदीक्षा की, घोर तपश्चरण किया और उससे प्रष्ट हुमा, इत्यादि पातोंका उसके साथ कोई सम्बंध ही नहीं है। महादेवने विद्याघरोंकी माठ कन्यामोंसे विवाह किया, वे मर गई, तव पार्वती विवाह किया, पार्वतीसे भोग करते समय त्रिशल विद्या नष्ट हो गई, उसके स्थान प्राणी विद्याको सिब करनेकी चेष्टा की गई, विषाकी विक्रिया, गधेके सिरका हायक चिपट जाना और फिर उसका वर्धमान स्वामी के चरण छूने पर छूटना, इन सब बातोंका भी वहां कोई बदेश नहीं है। इनके स्थानमें लिखा है कि 'महादेव बड़ा कामी और व्यभिचारी था, यह अपनी विद्या पळसे जिस किसीकी कन्या या सीखे पाहता या विषय सेवन करता था, लोग उसकी विधाके मयसे कुछ बोल नहीं सकते थे, जो कोई बोलता था उसे यह मार गलता था, इत्यादि । अन्तमें यह भी लिखा है कि 'धमा (पार्वती) एक पेशा थी, महादेव उस पर मोहित होकर उसीके पर रहने लगा था। और पायोत नामके रानाने, उमासे मिलकर और उसके द्वारा यह भेद मालम करके कि भोग करते समय महादेवकी समस्त विद्याएँ उससे अलग हो जाती है, महादेषको उमासहित भोगममावल्याने अपने सुभटों द्वारा मरवा डाला था और इस तरह पर नगरका उपद्रव किया था। इसके बाद महादेवकी उसी भोगावस्थाकी पूजा प्रचलित होने का कारण बतगया है। इससे पाठक भने प्रकार समक्षसकते है कि पनसागरजी गणीका सपर्यंजकपन वेताम्बर शाकि इस कयनसे कितना विलक्षण और विभिन्न है और ये कहाँ तक इस पर्मपरीक्षाको वेवाम्वरवका रूप देनेमें समर्थ हो सके हैं।गणीनीने विना सोचे समझे
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ही यह सब प्रकरण वियम्बर धर्मपरीक्षाके १२ में परिछेवसे क्योंका स्वों नकल कर डाला है। सिर्फ एक पत्र नं० ७८४ में ' पूर्वे' के स्थानमें ' वर्षे' का परिवर्तन किया है । अनितगतिने ' दशमे पूर्वे ' इस पदके द्वारा महादेवको दशपूर्वका पाठी सूचित किया था। परन्तु गणीजीको अमितगति के इस प्रकरणकी सिर्फ इतनी ही बात पसंद नहीं आई और इसलिए उन्होंने उसे बदल डाला है ।
(९) पद्मसागरबी, अपनी धर्मपरीक्षामें, जैनशाखानुसार 'कर्णराम ' की उत्प तिका वर्णन करते हुए, लिखते हैं कि
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'एक दिन ध्यास राजाके पुत्र पाण्टुको बनमें क्रीडा करते हुए किसी विद्याधरकी 'काममुद्रिका' नामकी एक अंगूठी मिली। थोड़ी बेरमै उस अंगूठीका स्वामी चित्रांगद नामका विद्याधर अपनी मगूठीको ईंडता हुआ वहाँ जा गया । पाण्डने उसे उसकी मह अंगूठी दे दी। विद्याधर पांडकी इस प्रकार निःसृहता देखकर बन्धुत्वमानको प्राप्त हो गया और पापको कुछ विषम्पचित्त जानकर उसका कारण पूछने लगा । इसपर पहिने कुन्तीसे विवाह करने की अपनी उत्कट इच्छा और उसके न मिलनेको अपने विवादका कारण बतलाया । यह सुनकर उस विद्याधरने पांङको अपनी वह काममुद्रिका देकर कहा कि इसके द्वारा तुम कामदेवका रूप बनाकर कुन्तीका सेवन करो, पीछे गर्म रह धानेपर कुन्तीका पिता तुम्हारे ही साथ उसका विवाह कर देगा । पाण्ड काममुद्रिकाको लेकर कुन्तीके घर गया और बराबर सात दिनतक कुन्तीके पास विषयसेवन करके उसने उसे गर्भवती कर दिया । कुन्तीकी माताको जब गर्मका हाल भारतम हुआ तब उसने गुप्त रूपसे प्रसूति कराई और प्रसव हो माने पर मारुकको एक मंजूषामै बन्द करके गंगामें बहा दिया । गंगामें बहता हुआ वह मंजूषा चंपापुरके राजा 'आदित्य' को मिला, जिसने उस मंजूषासे सच बालकको निकालकर उसका नाम 'कर्म' एक्च्खा, और अपने कोई पुत्र न होनेके कारण बड़े ही हर्ष और प्रेमके साथ उसका पालन पोषण किया । आदित्य के मरने पर वह पालक चम्पापुरका राजा हुआ। चूंकि 'आवित्व" नामके राजाने कर्मका पालनपोषण करके उसे पडिको प्राप्त किया था इसलिए कर्ण 'आदिस्य' कहलाता है, वह ज्योतिष्क जातिके सूर्यका पुत्र कदापि नहीं है ।'
पद्मसागरशीका यह कथन भी वेताम्बर ग्रामोंके प्रतिकूल है। श्वेताम्बरोके श्रीदेवनियमगनिनिरचित 'पांडवचरित्र 'में पांशुको राजा विचित्रवीर्य' का पुत्र लिखा है और उसे 'मुद्रिका' देनेवाले विद्याधरका नाम 'विशालाक्ष ' बताया है। साथ ही यह भी लिखा है कि 'वह विद्याधर अपने किसी शत्रुके द्वारा एक इक्षके नितम्बमें लोहेकी कीछोंसे कीलित था। पांडने उसे देखकर उसके शरीरसे वे * ग्रह सब कषम नं० १०५९ से १०९० तकके पद्योंमें वर्णित है और अमितगतिधर्मपरीक्षाके, १५ वें परिच्छेद लकर रक्खा गया है ।
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छोहेकी कीलें खींचकर निकाली; वदनादिकके छेपसे उसे सचेत किया और उसके घावोंको अपनी मुद्रिकाके रलजलसे धोकर अच्छा किया। इस उपकारके बदले में विद्याधरने पांडको, उसकी चिन्ता मालम करके, अपनी एक अंगूठी दी और कहा कि यह अंगूठी स्मरण मानसे सब मनोवांछित कायोंको सिद्ध करनेवाली है, इसमें मक्सीकरण आदि अनेक महान् गुण हैं। पाण्डने घरपर माफर उस अंगूठीसे प्रार्थना की कि 'हे अगूठी 1 मुझे कुन्तीके पास के चल, मंगूठीने उसे कुन्तीके पास पहुंचा दिया। इस समय कुन्ती, यह मालूम करके कि उसका विवाह पाटके साथ नहीं होता है, गमें फाँसी पालकर मरनेके लिए अपने उपवनमें एक अशोक के नीचे घटक रही थी। पाखने यहाँ पहुँचते ही गलेसे उसकी फांसी काट डाली और कुन्तीके सचेत तथा परिचित हो जानेपर उसके साथ मोग किया । उस एक ही दिनके भोगसे कुन्तीको गर्भ रह गया। पालकका जन्म होने पर धात्रीकी सम्मतिसे अन्तीने उसे मंजूषामें रखकर गगामें बहा दिया। कुन्तीकी माताको, कुन्तीकी मारुति मादि देखकर, पूडनेपर पीछेसे इस कृल्पकी खबर हुई। यह मंजूषा 'मतिरथि' नामके एक सारथिको मिला, जिसने बालकको उसमेंसे निकालकर उसका नाम 'कर्ण' खाक उस सारथिको श्रीको, मंजूषा मिलेनेके उसी दिन प्रातः काल, स्वप्नमें मार सूर्यने यह कहा था कि है वत्स! पान तुझे एक उत्तम पुरकी प्राप्ति होगी। इसलिए सूर्यका दिया मा होनेसे पाकका दूसरा नाम सूर्यपुत्र भी रखा गया।
श्वेताम्बरीय पांडवचरित्रके इस संपूर्ण कपनसे पयसागरजीके प्लाँक वनका कहाँतक मेल है और यह कितना सिरसे पैर तक विलक्षण है, से पाठकोंको बतानेकी अमरत नहीं है। वे एक नजर डालते ही दोनोंकी विभिन्नवा मालम कर सकते हैं। मत इसी प्रकारके और भी अनेक कथन इस धर्मपरीक्षामें पाए जाते है जो दिगम्बरशाक भतुफूल तथा श्वेताम्बर बालक प्रतिकूल है और बिनसे प्रवक्ताको साफ चोरी पकी जाती है।
परन सब विरुद्ध कवनोंसे पाठकोंक हदोंमें पावके साथ यह प्रश्न उत्तम हुए बिना नहीं रहेगा कि 'नब गणीजी महाराज एक विगम्बरथको श्वेताम्बरप्रव बनाने के लिए प्रस्तुत हुए थे तब मापने श्वेतावरणाबोंकि विश्व इतने अधिक कपनोंको उसमें क्यों रहने दिया ! क्यों उन्हें दूसरे कथनोंकी समान, जिनका दिग्दर्शन इस लेखक
में कराया गया है नहीं निकाल दिया या नहीं बदल दिया ! तर सप्रनकर पीया सादा यही हो सकता है कि या तो गणीनीको श्वेताम्बरसम्प्रदायके प्रन्यों पर पूरी पक्षा मही थी, षषवा उन्हें उस सम्बदायके प्रन्योंका अच्छा भान नहीं था। इन दोनों पावमिस पहली बात पहुत कुछ संदिग्ध मालम होती है और उसपर प्रानः विश्वास वहीं किया जा सकता । क्योंकि पपीजीकी यह कृति ही सनकी श्वेताम्बर-सम्प्रदाय-भकि
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ઉપર
और साम्प्रदायिक मोहमुग्धताका एक अच्छा नमूना जान पढ़ती है और इससे आपकी प्रक्षाका बहुत कुछ पता लग जाता है। इस लिये दूसरी बात ही प्रायः सत्य मालम होती है। खेताम्बरमन्यासे अच्छी जानकारी न होने के कारण ही आपको यह मालूम नहीं हो सका कि उपर्युक्त कथन या इन्हीक सदश और धूसरे अनेक कवन भी श्वेताम्बर सम्पदायके विरुद्ध बार इस लिए आप उनको निकाल नहीं सके । जहाँ तक मैं सममता हूँ पनसागरनीकी योग्यता और उनका शालीय ज्ञाव बहुत साधारण था। वे इवेताम्बर सम्प्रदायमें अपने आपको विज्ञान प्रसिद्ध करना चाहते थे और इस लिए उन्होंने एक दूसरे विद्वानको कृतिको अपनी कृति बनाकर उसे मोले समानमें प्रचलित किया है। नहीं सो, एक अच्छे विद्वान्की ऐसे जघन्याचरणमें कमी प्रवृत्ति नहीं हो सकती । उसके लिए ऐसा करना बड़े ही कलंक और शर्मकी बात होता है। पप्रसागरजीने, यद्यपि, यह पूरा ही अन्य चुरानेका साहस किया है और इस लिए भाप पर कमिकी यह सक्ति बहुत बेक घटित होती है कि "अखिलप्रबंध हो साहसकर्त्रे नमस्तुभ्यं परंतु तो भी आप, शर्मको उतारकर अपने मुंह पर हाथ फेरते हुए, वहे अमिमानके साथ लिखते हैं कि:
गणेशनिर्मितां धर्मपरीक्षां कर्तुमिच्छति । मादशोऽपि जनस्तत्र चित्रं वकुलसंभषात् ॥ ४॥ यस्तसमन्यते हस्तिवरेण स कथं पुनः। कलभेनेति नाशक्यं तत्कुलीनत्वशक्तितः॥५॥ चक्के श्रीमत्प्रवचनपरीक्षा धर्मखागरी।।
घाचकेन्द्रस्ततस्तेषां शिष्येणषा विधीयते ॥६॥ • अर्थात्-गणावरदेवकी निर्माण की हुई धर्मपरीक्षाको मुख जैशा मनुष्य भी यदि बनानेकी इच्छा करता है तो इसमें कोई साधर्मकी बात नहीं है क्योंकि मैं भी उसी कुलमै उत्सम हुआ है। जिस पक्षको एक गमरान वो बाता है उसे हाधीका पवा कैसे तो डालेगा, यह माशंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि उसकीय कुलाकिसे वह भी उसे तोद डाल सकता है। मेरे शुरु धर्मसागरची वायकेन्द्रने 'प्रवचनपरीक्षा' नामका अन्य बनाया है और मैं उनका शिष्य यह 'धर्मपरीक्षा' नामका प्रप रचता है। इस प्रकार पयसागरजीने बड़े अहंकार के साथ अपना प्रयकतल प्रगट किया है। परन्तु मापकी इस कतिको देखते हुए कहना पड़ता है कि आपका यह कोय और थोथा अहंकार विद्वानोंकी दृष्टिमे केवल हास्यास्पद होनेके सिवाय और कुछ भी नहीं है। यहाँ पाठकोंपर अभिवगतिका यह पथ भी प्रगट किया जाता है, जिसको बदलकर ही नगीनीने उपरके दो छोक (०.४-५) बनाए हैं
धर्मों गणेशेन परीक्षितो यः कथं पर्यक्षेतमहं जडात्मा।' शको हि य मक्कुमिमाधिराज भज्यते किं शशकेन वृक्षः ॥१५॥
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सपथमें अमितगत बाचार्य, अपनी सत्ता प्रकट करते हुए, सिख है'चोपर्य गावर देखके धारा परीक्षा दिना गया या सम पडरमासे से परीक्षा दिला पासकता है। जिसको गवराय नमसनेमें समर्थ है या इसे धषक मंगकर सकता है। इसके बाद सारे परमें लिया है परन्तु विज्ञान सुनीधरने विस धर्ममें प्रमेक करके उसके प्रवेशमार्गको सरल र दिया है उसमें मुमा मेसे मूर्खका प्रवेश हो सकता है क्योंकि पासूचीस लिने पाने पर पुकामपि का रस रोग मी प्रमेश करते देखा जाता है। पाकर देखा, सी बच्ची फि बोराना ममतामय भाष है। कहा मूलांका यह भाव, और कहां उसको दुधकर अपनी प्रतिमानेवालेका उपयुक महाजर में समक्षवा बदि परसागरजी इसी प्रकारका कोई वा भाष प्रमा करते वो उनकी शानमें शक भी फर्कममाता। परन्तु मालम होता है आपमें
बी भी उदारता नही थी और खमी वासने, धार होते हुए भी, लाँकी छविको अपनी कति बनाने मसाधु कार्य किया है!!
इसी बद पर बार मी कितने ही अन्य खेताम्बर सवार पाली वा मईपाली पाए पावे, बिन सकी आँच, परीक्षा उषा समायोचना होने की लत है। से. सत्रदायक निम्मका लिामाको बागे भाकर इसके लिये खास परिणम करवा चाहिये और पैडे प्रन्योंकि विषय वपापडस्वितिको प्रमाबके सामने रखना चाहिये। ऐसा किया पाने पर विचारला लिया, कि पाव होगा गौरमासाम्प्रदायिकता तथा मन्त्री प्रकार हो सकेगी बोन धमाकी प्रमाविको पके हुए है। लन्द ।
पपई। . मगत सन् १९१७)
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प्रकलंकप्रतिष्ठापाठकी जाँच । .
'अकलक- प्रतिष्ठापाठ ' या ' प्रतिष्ठाकल्प' नामका एक ग्रंथ है, जिसे ' अकखकसंहिता' भी कहते हैं और जो जैनसमाजमें प्रचलित है। कहा जाता है कि 'यह प्रन्थ वन भाकलंक देवका बनाया हुका है जो 'राजवार्तिक' और 'अष्टशती' आदि प्रन्थोंक कर्ता हैं और जिनका समय विक्रमकी ८ वीं शताब्दी माना जाता है। यद्यपि विद्वानोंको इस कथन पर संदेह भी है, परन्तु तो भी उक्त कथन वास्तवमें सत्य है या नहीं इसका अभीतक कोई निर्णय प्रगट नहीं हुआ । अतः यहाँ इसी विषयका निर्णय करनेके लिए यह लेख लिखा जाता है:
यह तो स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ में प्रन्धके बनने का कोई सन्-संवत् नहीं दिया। परन्तु प्रन्थकी संधियों प्रन्थकर्ताका नाम ' भट्टाकलंकदेव ' जरूर लिखा है । गथाः -- इत्याचे श्रीमद्भाङ्ग्राकसंकदेवसंगृहीते प्रतिहाकल्पनानि प्रये सूत्रस्थाने प्रतिष्ठादिचतुष्टयनिरूपणीयो नाम प्रथमः परिच्छेदः ॥ १ ॥
"संधियोंको छोड़कर पथमें भी प्रत्यकतने - अपना नाम ' महांकलंकटेस प्रकट" किया है। जैसा कि आदि अन्तके निम्न लिखित दो पद्मति जाहिर है -- 'प्रतिष्ठां कल्पनामासौ प्रयः सारसमुच्चयः ।
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भेडाकलंकदेवेन साधुसंगृहाते स्फुटम् ॥ ५ ॥" '"भट्टाकलंकदेवेन कृतो ग्रंथो यथागमम् । प्रतिष्ठा कल्पनामासी स्थेयादांचंद्रवारकम् ॥
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* राजवार्तिक' के कर्ताको छोक्कर, महाकलंकदेव नामके कोई दूसर विद्वान् आचार्य जैनसमागमें प्रसिद्ध नहीं हैं। इस लिए मालुम होता है कि, संघियों और पयोंमें ' महाकल्कदेव ' का नाम लगा होनेसे ही यह अन्य राजवार्तिकके कर्ताका बनाया हुमा समझ किया गया है। अन्यथा, ऐसा समझ लेने और कथन करनेकी कोई दूसरी वजह नहीं है। महाफलकदेवके बाद होनेवाले किसी मानवीय प्राचीन आचार्यकी कृतिमें भी इस प्रन्थका कोई उलेख नहीं मिलता। प्राचीन शिलालेख भी इस विषय में मौन हैउनसे कुछ पता नहीं चलता। ऐसी हालत में पाठक समझ सकते है कि एक कपन कहाँ तक विश्वास किये जानेके योग्य हो सकता है । अस्तु । जहाँतक मैने इस प्रन्थको देखा और इसके साहित्यकी जाँच की है उससे मालूम होता है कि यह अन्य वास्तनमें रानवार्तिक के कर्ता भक्काकलंकदेवका बनाया हुआ नहीं है; उनसे बहुत पीछेका बना हुआ है। भाकलंकदेवके साहित्य और उनकी कथनशैलीले इस प्रन्धके साहित्य और कपनशैलीका कोई मेल नहीं है। इसका अधिकांश साहित्य-शरीर ऐसे अन्योंके व्याधार पर बना हुआ है जिनका निर्माण महाकसंकदेवके अवतारसे बहुत पीछेके समय में हुआ
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है। वहाँ पाठकोंक संतोपाचे प्रमाण अस्तित किये जाने हैं, जिनसे पाठकोको इस पातका भी अनुभव हो पाया कि यह मन्य माना है जोर किसने बनाया है
(१) प्रतिमा के पांचवें परिच्छेदमें पानसे पय ऐसे पाए खाते हो भगवविवसेनानीत 'पानिपुरार' से ज्योंके लोमा परिवर्तनके साप उसार लवे गये हैं। ममून वीर पर बस ARE
चैत्ययालयावी मक्त्या निर्मापण व थत् ।
शासनहित्य दानं च प्रामादीनां सदार्चनम् ॥ २३ । यह पब मारिपुरामके ३४३ पका २० वो पल है और यहां ज्योपलो बिना किसी परिवर्तन लाया है।
वासर्वा मप्यहवाळ्यापूर्षिका यत इत्या।
विधिवास्तासुरान्तीयां वृत्ति प्राथमकल्पकाम् ॥ २० ॥ इस पथका मारा और मारिपुरणके उक पर्व सम्बन्धी १४ में पका उसाचं दोनों एक है। परन्त पूपा दोनों पकि मिा निम पाए जाते हैं। बाविपुराणके तक ३४ में पपका पूर्वार्थ है ' एवं विविधावेन या महेन्या जिनेशिनाम् ।। प्रन्यानि पूर्वको अपने स्वी पारियोदके ३.३ पला पूर्षि क्लाया है। और इस तरह पर मादिशामके एक पक्षको दो राम विभाजित करके बन्हें मन्य मग स्थानों पर सका है।
पलिखपवमन्यव मतमुवापनादिकम् ।
उन्वेव विकल्पेषु धमन्य तारसम् ॥ २९॥ यह पर पारिसपनो ३४३ पर्व, ०१ पर ही फारसे 'मित्यन्यत् मिसंन्यासेवया समम्' की जमकर 'मन्यच अनुयापनाविका ऐसा परिवर्तन पाया जाता है। इस परिवर्तनसे प्रन्धक्याने 'मिसंध्यालेवा' के साबमें 'प्रत' और 'उद्यापनादिको बस बोरसे पंच कारके पूछने शामिला है। मह स उपाहरणों प्रकार है पन्ध (प्रतिपाठ) भगवविनसेनके मापुराणसे पहलेएका हुआ नहीं है। परन्तु मालकदेव भवामिनसेक्स पहले से मुके हैं। मम्पलिनसेनवे, महाकाठक-श्रीपाल पात्रकेसरिणय गुणाः पत्यादि पक्के हारा, बाविश्राममें, उसका स्मरप मी बिना है। ऐसी मसमें मामय प्रापि माकाकादेवका पनाया हुमा नहीं हो सकता । और इस लिए पता होगा कि यह प्रतिपाठ भाविनसेनके माविबसे पीछे वात, मिकी यो मवादी पाक-सा है।
(२)वं मन्थके सासरे परिच्छेद में एक स्थान पर, प्राणायाम समयकाये हुए मिले हैं। उनमे एक पथ इस प्रकार है
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शवशान्तात्समाकृष्य या समीर प्रपूर्यते।
स पूरक इति शेयो वायुविज्ञानकोनिः ॥६६॥ यह पञ्च और इसके बाद दो पद्य और, को 'निरुणदि' और 'निसार्यते' शब्दांचे प्रारंभ होते हैं, सानार्णवके २९ ३ प्रकरणमें क्रमशः ०४,५ और पर पूर्व हैं। इससे प्रकट है कि यह अन्य मानार्णवके बादका बना हुमा है। मानाव प्रन्यके का श्रीमचंद्र भाचार्यका समय विक्रमकी ११ वी शताब्दीके लगभग माना जाता है। उन्होंने अपने इस प्रथम, समतम्र, देवनन्दि और बिनसेनका स्मरण करते हुए, 'श्रीमहाकठकस्य पातु पुण्या सरस्वती' इस पथके द्वारा भाकलंकदेवका भी ले गौरवके साथ स्मरण किया है। इस लिए यह प्रतिछापाठ, जिसमें मचना के पवनाफा गलेच पाया जाता है, मधकळकदेवका बनाया हुआ न होकर विक्रमकी ११ वी शताब्दीके बावका बना हुआ है, यह कहने में कोई संकोच नहीं होता।
(३) एसथि भघरकका बनाया हुमा, 'जिनसहिता' नामका एक प्रसिद्ध अन्य है। इस प्रन्यसे सकाों पच ज्योंकि त्यों का कुछ परिवर्तन के साथ उठाकर इस प्रतिष्ठापाठमें रक्ो गये हैं। कई स्थानों पर उस संहिताका नामोलेख भी किया है और उसके अनुसार किसी खास विषयके कपनकी प्रतिक्षा या सूचना की गई है। यथाः
द्वितीये मंडले लोकपालानामष्टकं भवेत् । इति पक्षान्तरं जैनसंहितायां निरूपितम् ॥ ७-१६॥ यदि ध्यासात्पृथकेषां बलिदानं विवक्षितम् ।
निरुप्यते व जैनसंहितामार्गतो यथा ॥ १०-६॥ पहले पथमें जैनसहिताके अनुसार भवनकी सूचना और मरेमें प्रतिज्ञा की गई है। दूसरे पद्यमें बिस बलिदान' के कपनकी प्रतिमा है उसका वर्णन करते हुए जो पुष दिये हैं सनसे पतसे पच ऐसे हैं जो रुक संहितासे ज्योकि लो उठाकर रखे गये है। जैसा किन०४७ के उत्तराधसे छेकर नं० ११ के पूर्वार्ष तक के १४ पथ विकल वही है जो उस संहिताके २४ ३ परिच्छेदमें न०३ से १६ सक दर्ज हैं। इन पद्यमिसे एक पच नमूनेके तौर पर इस प्रकार है
पाशिनो धान्यदुग्धा वायो संपिष्टशर्वरी।
यक्षस्य पायसं भकं साज्यं क्षीरसमीशिनः ॥ ५॥ यहाँ पाठकोंको यह बानकर और मी भाचर्य होगा कि इस प्रतिछापाठका मैयाचरण भी क संहितापरसे लिया गया है। वह मंगलाचरण इस प्रकार है
विज्ञानं विमर्छ यस्य विशद विश्वगोचरं । नमस्तस्मै जिनेन्द्राय सुरेखाम्यचिंतये ॥१॥ वदित्वा च गणाधीश श्रुतस्कंधमुपास्य च। पेवंयुगीनामाचार्यानपि भक्त्या नमाम्यहम् ॥२॥
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सालापरणके ये दोनों पपस्व संहिवाके ने काम और पर है। तिसरे पके उत्तपमें भेद है। महिलामें यह उता सारस साही
संहिच्यामि मैदानांवोधाय बिनसहिताम् ।। पाक समझ सकते हैं। विस अन्य मंचावरण मी प्रपन्नाकर अपनी बनाया हुब्बम हो, मह मन्द क्या मालकदेव वैसे महाकवियाँका पनाया ना हो
लता है ।कमी नहीं 1 पासपमें यह अन्य एकसमहामन्य है। इसमें समयोकर पल्कि दोन भी मह किया गया है। प्रवक्ताकी उपियाँ इसमें बहुत कम है। बेख सके एक निम लिखित पथसे भी प्रकार है- । ।
लोका पुपमा किश्चिमिष्यते छत्यबोषका
मायस्वबनुसारेण मधुलाम्य विद कचित् ॥ १० ॥ मारक एक्सपिका समय विकमको १३ को धताब्दी पाया जाता है। इसलिए प्रखपाल, जिसमें उछ मनकबीकी संदिवाको पहुच नकल की है कि मकी १३वी शताब्दी के माया लाहुमा है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
(४) प्रतिछापाको पीशवादी पारा वाया में एक प्रवल प्रभाव और भी है। और वह यह है कि इसमें मातापरवीके मनाए दूर 'बिनमाल' नामक प्रतिमा और 'सागरपामृत तसे पर, ज्याकलों गाम परिवर्तन साप, पाये नाते दिनका नमूना इस प्रकार है
किमिच्न पानेन जगवाया पूर्व का चकिमिः क्रियते सोईचहा कसामो मतः ॥२७॥ देशकालानुसारेण ज्यालतो वा समासता।
कुर्वनां कियां शको वानुषि मरूपयेत् ॥ . पला पय 'सागरपात के बारे बयाका २८ मां मार झा पत्र 'चिना के पहले बचापका १४० वा पप है। बिनगावलको, पति मालापरवावे, वि.सं. १२०५ में चोर पामारधामतको उसको बीकासहित कि० १९७ में बनाकर समाप्त किया है। इसे सह है कि वह माविलापाठ किमको १३वी मावादी पाबका पना हुआ है।
(५) अपके तीसरे परिच्छेदमें, एकसान पर यह दिवस एकदिनमारने निवासिनीके नायके लिए कर नापार (मुस्पषभी होना चाहिए, तपय बारसे दिया है:
नृत्यतिकालिनरम्यनत्यमंत्पडितम् ।
पुर पार्थये यक्षपक्षीमवनसंयुतम् । ११७॥ मन्त्रको प्रतिक्षा और सिवि भी एक ऐसा ही मार किया है।
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। यह प्रसूरि-त्रिवर्णाचारके चौथे पर्वका १९७ वौं पञ्च है। उप त्रिवर्णाचारके और भी बहुत से पप इस प्रथमें पाये जाते हैं। इसी तीसरे परिच्छेदमें उपमा २५ पच और है, वो उक त्रिवणाचारसे उठाकर रखे गये हैं। इससे प्रकट है कि यह ग्रंथ (प्रतिधापाठ) प्रमारित्रिवणीचारके वाहका बना हुआ है। ब्रह्मसूरिका समय विक्रमको प्रायः १५वीं शताब्दी पाया जाता है। इस लिए यह प्रतिपाठ विक्रमकी १५ थी खताब्दी के बादका बना हुआ है। ' () इस ग्रंथके शुरुमें मंगलाचरणके बाद प रववेकी की प्रतिज्ञा की गई है उसमें नेमिचंदप्रतिपाठ का भी एक उल्लेख है। यथा-
अथ भीनेमिचन्द्रीयविद्याशासमार्गतः।
प्रतिष्ठायास्तवाद्युतगंगानां स्वयमंगिनाम् ॥ ३॥ बेचिन्ना प्रतिष्ठापाठ गोम्मटसार' के कां नेमिचन्द सिद्धान्त चक्रवतीका पनामा हुनान होकर उन ग्रहस्प नेमिचंद्रसारिका बनाया हुआ है वो देवेन्द्र के पुत्र तथा महासरिके मानने थे और जिनके सादिकका विशेष परिचय पाने के लिए पाठकोंको सक प्रतिष्ठापाठ पर लिखे हुए उस नोटको देखना चाहिए जो अनहितांपाके १२३ भागके अंक नं.४-५ में प्रकाशित हुआ है। उक नोट में नेमिचद्र-प्रतिष्ठापाठके बननेका समय विक्रमकी १६वीं शताब्दी के समय बताया गया है। ऐसी हालतमें विवादस्य प्रतिष्ठापाठ मिन मकी १९ वी शताब्दीका या उससे भी पीछेका बना हुण्य मानम होता है। परन्तु इसमें तो कोई संदेह नहीं कि वह १६ को शाखाब्दीसे पहलेका बबा हुमा नहीं है। अाद, विक्रमकी १५ वी शताब्दीके यादका घना हुआ है। परन्तु कितने पादका धना हुमा है, तवा निश्चय करना ममी और बाकी है।
(.) सोमनभिषाचार के पहले अध्यायमें एक प्रतिक्षावाच स प्रकारसे
, यत्माकं जिनसेनयोग्यगणिमिः सामन्तभदैस्तथा . , सिद्धान्त गुणमनाममुनिमिमकलको परे।
श्रीसपिडिजनामधेयविबुधराशाघरैग्विर---
स्वव्हवा रचयामि धर्मसिकं शाशं विवर्णात्मकम् ॥ • इस वाक्यमें जिन आचायोंके अनुसार कथन करनेकी प्रतिज्ञाकी गई है उनमें 'मशफाक' का भी एक नाम है। इन महाकालको अकलंक-प्रविधपा के पतीको हो अभिप्राय जान पता है. राजवार्तिक के कर्ताका नहीं क्योंकि सोमसेवत्रिषाचारमें बिस प्रकार 'जिनसेन' आदि दूसरे भाषाओं के पाक्योंका सोख पाया जाता है उस प्रकार राजवातिकके की भाकलंकववके पनाये हुए किसी भी अन्यका प्रायः कोई
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उस नहीं मिलता। प्रत्युत, अकलंक-प्रतिष्ठापाठके बहुतसे यों और कथनका समावेश उसमें ककर पाया जाता है। ऐसी हस्तमें, सोमसेन त्रिवर्गाचार में 'अकलंक-प्रविष्ठापाठ' काउलेख किया गया है, यह कहना समुचित प्रतीत होता है। सोमसेनमियर्माचार वि सं० १६६५ में बनकर सम्प्रप्त हुआ है और कमतिपाठका उसमें खोया है। इस लिए कलंक प्रतिष्ठापाठ वि० सं० १६६५ से पहले चुका था, इस पहने में भी कोई संकोच नहीं होता ।
नतीना इस संपूर्ण कथनका यह है कि विधावस्थ प्रतिछापाठ राजवार्तिकके क भट्टाकलंकदेवका बनाया हुआ नहीं है और म विक्रमकी १६ वीं शताब्दी से पहलेका ही बना हुआ है। बल्कि उसकी रचना विक्रमकी १६ व शताब्दी या १७ वीं शताब्दी के प्रायः पूर्वार्धमें हुई है। अथवा यो कहिए कि यह वि० सं० १५०१ और १९६५ के मध्यवर्ती किसी धमयका बना हुआ है।
अब रही यह बात कि, अब यह प्रन्य राजवार्तिकके कर्ता भट्टाकर्तकदेनका मनाया हुआ नहीं है और न 'मलाकसंकदेव' नामका कोई दूसरा विद्वान् चैनसमाचने प्रसिद्ध है, तब इसे किसने बनाया है? इसका उत्तर इस समय सिर्फ इतना ही हो सकता है कि या तो नह प्रन्य 'अकलंक' या 'अकलंमदेव' नामके किसी ऐसे अप्रसिद्ध महारक या दूसरे विद्वान महाधनका बनाया हुआ है जो उपर्युक्त समयके भीतर हुए हैं और बिन्होंने अपने नामके साथ स्वयं ही 'मह' की महत्वसूचक उपाधिको ध्याना पसंद किया है । अमवा इसका निर्माण किसी ऐसे व्यकिने किया है ओ इस ग्रन्यके द्वारा अपने किसी किनाकांड या संतव्य के समर्थनाविरूम कोई एक प्रयोजन सिद्ध करना चाहता हो और एस लिए उसने स्वये ही इस अन्यको बनाकर उसे भधाकलंकदेवके बालसे प्रसिद्ध किया
*बादको 'हिस्ट्री ऑफ कनडी लिटरेचर' (कवडी साहित्यका इतिहास) से माम हुआ कि इस धमनके भीतर 'मतफलंकमेव ' नामके एक सारे विद्वान हुए हैं • धोके अधिपति महारकके शिष्य थे और जिन्होंने क
१७०० १६०५ ) फनडीसोपाका एक बडा व्याक
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लिखा है, जिसका नाम है 'मानस' और जिसपर संस्कृतकी ए विस्तृत डीकामी आपकी ही लिखी हुई है। हो सकता है कि यह प्रविष्ठापाठ आपकी ही रचना हो । परंतु फिर भी इसमें मनहागरचका दूसरे मन्यसे कर रक्खा जाना खटकता जरूर है क्योंकि पाप संत वच्छे विद्वान कहे जाते है। यदि आपका तक शब्दानुशासन मुझे देखनेके लिये मिल सकता तो इस विनयका कितना ही संदेह यह हो सकता था।.....
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हलक |
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हो और इस तरह पर यह प्रन्य मी एक बाली अन्य बना हो। परन्तु कुछ भी छ, इसमें संदेह नहीं कि, यह अन्य कोई महत्वका प्रन्थ नहीं है। इसमें बहुतसे करन ऐसे भी पाए जाते हैं जो जैनधर्मके विरुद्ध है, अथवा जैमसिद्धान्तोसे जिनका कोई मेल नहीं है। चूंकि यह लेख सिर्फ प्रन्यकी ऐतिहासिकता-अन्यकर्ता और प्रत्यके बननेका समयनिर्णय करनेके लिए ही लिखा गया है इस लिए यहाँ पर विरुण कथनोंक कोखको छोडा भाता है। इस प्रकार के विरुद्ध कथन और मी प्रतिष्ठापाठोंमें पाए जाते हैं। जिन सबकी विस्तृत मागेचना होने की ज़रूरत है। अवसर मिलने पर प्रतिछपाने के विषय पर एक स्वतंत्र लेख लिखा पायगा और उसमें यह मी दिखलाया जायगा कि उनका यह कपन कहाँ तक बेवधर्मके बनुकुल या प्रतिकूल है।
देषवन्द । सा. २६ मार्च, सन् १९१७
पूज्यपाद-उपासकाचारकी जाँच।
सन् १९०४ में, 'पूज्यपाद' पाचार्यका बनाया हुमा 'उपासकाचार' नामका एक संस्कृत अन्य प्रकाशित हुला था। उसे कोल्हापुरके पंडित श्रीयुत कालापा भरमापानी निठवेने, मराठी पयानुषाद और मराठी अर्थसहित, अपने 'जैनेंद्र' अपाखानेमें आपकर प्रकाशित किया था। जिस समय प्रन्यकी यह छपी हुई प्रति मेरे देखने आई वो मुझे इसके किसनेही पयापर संदेह हुआ और यह इच्छा पैदा हुई कि इसके पयोंकी पाँच की भाब, और बह'मालम किया जाय कि यह मन्प कौनसे पूज्यपाद भाचार्यका पनामा हुला है। मीसे मेरी इस विषयकी खोज जारी है। और उस खोबसे अबतक वो कुछ नतीजा निकला है उसे प्रकट करने के लिये ही यह लेख लिखा जाता है।
सबसे पहले मुझे देहलीके, 'क्या मंदिर के शास-भडारमें इस प्रन्यकी हस्तलिखित प्रविका पता चला। इस प्रतिके साथ छपी हुई प्रतिका को निकाल किया गया वो उससे, मालम हुआ कि उसमें छपी हुई प्रतिके निम्नलिखित छह लोक नहीं है
पूर्वापरविरोधादिपुर हिंसावपासनम् । प्रमाणस्यसंपादि शास्त्र पर्षबभाषितम् ॥ ७॥ गोपुच्छिकश्वेतवाला द्राविडो, यापनीयकः । निपिच्छति पंचते जैनामास प्रकीर्तिताः ॥१०॥ मास्यईता पये देवो धर्मो नास्ति इयां विना । सप परख नैन्थ्यमेतत्सम्यक्त्वलक्षणं n.
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मांसाशिष या नास्ति न सत्यं मद्यपायिषु ।
धर्मभावो न जीवेषु मधूदुम्बरलेविषु ॥ १५॥ विते म्रान्तिर्जायते मद्यपानात् मात्र चिन पापचर्यामुपैति । पापं छत्वा दुर्गति यान्ति मूढास्तस्मान्मय मैव देय न पेयं ॥ १६ ॥
भाववानि पंचव त्रिप्रकार गुणवतम्।।
शिक्षाप्रतानि चत्वारि इत्येतद्वादशात्मकम् ॥ २२॥ साथ ही, यह मी माखम हुआ कि बहीवाली प्रतिमें नीचे लिखे हुए बस होक छपी हुई प्रतिसे अधिक है
क्षेत्र वास्तु घनं धान्यं द्विपदश्च चतुःपदम् । मासनं शयनं कुर्य भांडं चेति पहिर्दश ॥ ७॥ मुछी च वसंपना मायोनिसमानिका । सुखानां सुखिनः प्रोक्ता तत्पुण्यप्रेरिता स्फुटम् ॥ ५३॥ सजातिः सद्गृहस्थत्वं पारिवाज्यं सुरेन्द्रता । साम्राज्यं परमाईन्त्यं निर्वाणं चेति सप्तधा ।। ५६॥ खजूर पिंडखजूर फावल्यं शर्करोपमान । सुविश्वाविक भोगांव झुंजते मात्र संशयः ॥ ६॥ वता कुत्सितदेषेषु जायन्ते पापपाकता। ततः संसारगासु पञ्चधा ब्रमणं सदा ॥ १ ॥ प्रतिमहोतस्थानं पादक्षालनमर्चनम् । नमसिविधयुकेन एषणा नव पुण्ययुक् ॥ ६ ॥ श्रुतिस्मृतिप्रसादेन तत्ववानं प्रजायते । ततो ध्यानं ततो भानं बंधमोक्षो मवेत्ततः ॥ ७० ॥ नामाविभिचतभेदजिनसंहितया पुनः । यंत्रमंत्रक्रमेणेष स्थापयित्वा जिनाकतिम् । ७६ ॥ उपवासो विधावन्यो गुरुपां स्वस्य साक्षिका सोपवासो जिनेरुको न च देहस्य दंडनम् ॥ ८॥ दिवसस्याएमे भागे मन्दीमूते दिवाकरे।
नक प्रादुराचायों न नकं रात्रिभोजनम् ॥ १९॥ कोकोंकी इस न्यूनाधिकताके अविरित दोनों प्रतियोम कही वही पोंच कममेद भी पाया गया, और वह इस प्रकार है
बेहलीवाली प्रतिमें, मी दुई प्रतिके ५५ ३ पबसे क पहले उसी प्रतिका ५५ पा पथ, नम्बर ७ कोकसे ठीक पहले न०६८ कोक, २०७३ वाले पक्के
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मनावर नं. १ का पय, न०७४ बाळे पयसे पहले नं. १ का पय और नं. ११ केलोकके अनन्तर उसी प्रतिका अन्तिम छोक नं. १६ दिया है। इसी तरह १. सम्बरके पथके अनन्तर उसी प्रतिके १४ और ९५ नम्बरवाले पब कमशः दिये हैं।
इस क्रमभेदके सिपाय, दोनों प्रतियों के किसी किसी कोकमें परस्सर कुछ पाठभेद भी उपलब्ध हुआ, परन्तु वह कुछ विशेष महत्व नहीं रखता, इसलिये उसे यहाँपर छोय जाता है।
देहलीको इस प्रतिसे संबहकी कोई विशेष निवृत्ति न हो सकी, बल्कि कितने ही अोम उसे और भी ज्यादा पुष्टि मिली और इसलिये प्रन्यकी दूसरी हस्तलिखित प्रतिगोके देखनेकी इच्छा बनी ही रही। कितने ही भंडारोंको देखनेका अवसर मिला
और कितनेही मडारोंकी सूचियाँ भी नगरसे गुजरी, परन्तु उनमें मुझे इस 'अन्यका दर्शन नहीं हुवा। अन्तको पिछले साल जब मैं 'बैनसिद्धान्तमवन'का निरीक्षण करनेके लिये मारा गया और वहाँ करीब दो महीनेके ठहरना हुमा, तो उस वक भवनसे मुझे इस प्रन्यकी दो पुरानी प्रतियाँ फनडी अक्षरों में लिखी हुई उपलब्ध हुई-एक ताडपत्रोंपर और बसरी कागजपर। इन प्रतियों के साथ छपी हुई प्रतिका जो मिगच किया गया तो उससे मालूम हुमा किन दोनों प्रतियोम छपी हुई प्रतिके वे श्योक नहीं है जो वेइलीपाली प्रतिमें भी नहीं है, और न वेदस श्योक ही है बो देहली की प्रतिमें छपी हुई प्रतिसे अधिक पाए गये हैं और जिन सवका असर उल्लेख किया जा चुका है। इसके सिवाय, इन प्रतिमि छपी हुई प्रतिके नीचे लिखे हुए पन्द्रह लोक भी नहीं है
क्षुधा शुषा भयं वषो पगो मोहश्च चिन्तनम् । अब रजा च मृत्युख स्वेदा खेदो मवोरतिः॥४॥ विस्मयो जननं निदा विषादोऽष्टादश शुषः।। त्रिजगत्सर्वभूतानां दोषार साधारणा इमे ॥५॥ एतेदोषैविनिर्मुको खोऽयमातो निरंजन।' विद्यन्ते येषु वे नित्यं तेऽत्र संसारिणः स्मृता॥६॥ स्वंतत्वपरवषेषु हेयोपावेयनिन्धयः। संशयादिविनिर्मुकास सम्यग्दृष्टिरुच्यते ॥९॥ रकमात्रप्रवाहेण स्त्री निन्या जायते स्फुटम् । विधातुजं पुनासं पवित्रं जायते कथम् ॥ १९॥ अक्षरैन विना शब्दास्तेऽपि ज्ञानप्रकाशकार। . तद्रक्षार्थ व पदस्थाने मौनं श्रीजिनभाषितम् ॥४१॥ दिन्यदेहप्रभावाः सवधातुविवर्जिताः। गोत्पत्तिने तत्रास्ति दिव्यदेवास्ततोमवाः ॥ १७॥
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ज्ञानवान् शानदानेन निर्मयोऽमयदानता। मनदानात्मुखी नित्यं नियोधिपजामवेद ॥ १९ ॥ येनाकारेण मुकात्मा शुक्लण्यानप्रमावतः । तेनार्य श्रीजिनोदेवो विम्वाकारेण पूज्यते ॥७२॥ आप्तस्यासविधानेऽपि पुण्यायाकृतिपूजनम् । ताक्षसुद्रा न कि कुयुविषसामयेसूदनम् ॥ ७ ॥ जन्मजन्म यदम्यस्त्र दानमध्ययनं तपः। वेनैवाभ्यासयोगेन तत्रैवान्यस्यते पुनः ॥ ४ ॥ अहमी चाटकर्माणि सिद्धिलामा चतुर्दशी। पंचमी केवलकानं तस्मात्तत्र यमाचरेत् ॥ ७९ ॥ कामक्षेपो नकर्तव्य आयुरक्षीणं दिने दिने । यमस्य करुणा नास्ति धर्मस्य त्वरिता गतिः ॥ ९ ॥ अनित्यानि शरीयणि विभवो नैव शाश्चतः। नित्यं सनिहितो मृत्यु कर्वव्यो धर्मसंग्रहाः ॥ १५॥ । जीवं मृतकं मन्ये देहिनं धर्मवर्जितम् ।
मृतो धर्मेण संयुको दीर्घजीवी भविष्यति ॥ १६॥ छमी हुई प्रतिसे इन प्रतियोम षषिक पय कोई नहीं है। क्रम-भेदका उदाहरण सिर्फ एक ही पाया जाता है और वह यह है कि, छपी हुई प्रतिम नो पत्र ५० पौर ५१ नम्बरों पर दिये है वे पथ इन प्रवियोंमें कमशः ३९ और ३८ नम्बरों परअर्याद, मागे पीछे-पाये जाते है। की पाठभेदकी बात, वह कुछ उपक मल होता है और कहीं कहीं इन दोनों प्रतिमि परसर मी पाया जाता है। पख वह भी कुछ विशेष महत्व नहीं रखता और उसमें ज्यादातर अपे की तवा लेखकों की भूलें शामिल है। तो मी दो एक खास सास पाठमेदोका यहाँ परिचय करा देना मुनासिब मालूम होता और वह इस प्रकार है
(1) बखरे पछमें 'निर्गन्धा स्यातपस्वी वएप्पली निर्मन्य होता है) के सानमें माराको प्रतियोंमें "निम्रन्येन भवेन्मोक्ष (निर्गय होनेसे मोक्ष होता है) ऐसा पाठ दिया है। देहीवाली प्रतिमें भी यही पाठ "निर्भय न भवेमोक्षा' ऐसे मद मसे पाया जाता है।
(३)छपी हुई प्रतिके ३० में पायमें 'न पापं च ममी देया' ऐसा जो एक चरण है पह ताडपत्रपाली प्रतिमें भी वैसा ही है। परंतु बायको झरी प्रतिमें उसका मन परेषामनीदेया।' ऐसा दिया है और बेहलीवाली प्रतिमें या नातव्या इमे नित्यं ' इस सो उपलध होता है।..
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(३) छपी हुई प्रतिमें एक पथ * इस प्रकार दिया हुआ हैवृक्षा दाषाग्निनालग्नास्तत्सव्यं कुर्वते घने । आत्मारुढतरोरग्निमागच्छन्तं न चेत्यसौ ॥ ९१ ॥
"
इस पचका पूर्वार्ध कुछ मशुद्ध जान पड़ता है और इसी से मराठीमें इस पथका जो यह अर्थ किया गया है कि 'जनमें दावाभिसे प्रसे हुए वृक्ष उस दादाभिसे मित्रता करते हैं, परन्तु जीव स्वयं जिस देहरूपी वृक्षपर चढा हुआ है उसके पास आती हुई अभिको नहीं जानता है' वह ठीक नहीं मालूम होता । आाराकी प्रतियोंमें उक्त पूर्वार्धका शुद्ध रूप 'वृक्षा दावाग्मिला ये तत्संख्या कुरुते चने' इस प्रकार दिया है और इससे अर्थकी संगति भी ठीक बैठ जाती है—यह भाष्ठय निकल आता है कि 'एक मनुष्य धनमें, यहाँ दाषाभि फैली हुई है, पक्षपर चढा हुआ, वन दूसरे पक्षोंकी मिनती कर रहा है जो दावाभिसे प्रस्त होते जाते हैं ( यह कह रहा है कि अमुक वृक्षको आग लगी, वह जला और वह गिरा । ) परन्तु स्वयं जिस वृक्षपर चढा हुआ है उसके पास आती हुई आपको नहीं देखता है। इस अलंकृत आशयका स्पष्टीकरण भी प्रथमें अगले पथ द्वारा किया गया है और इससे दोनों पद्योंका सम्बंध भी ठीक बैठ जाता है।
आराकी इन दोनों प्रतियों में प्रत्यकी श्रोकसंख्या कुल ७५ दी है, यद्यपि, अंत पर्यो पर लो नंबर पड़े हुए हैं उनसे वह ७६ मालूम होती है । परन्तु 'न वेत्तिमद्यपानतः इस एक पद्मपर लेखकोंकी गलतीसे दो नम्बर ८ और १ पर गये है जिससे आागेके संख्यांकों में बराबर एक एक नम्बरकी वृद्धि होती चली गई है। देहलीवाली प्रतिमें भी इस पश्चपर भूलसे दो नम्बर १३ और १४ डाले गये हैं और इसी लिये उसकी श्लोकसंख्या १०० होने पर भी वह १०१ भालुम होती है। छपी हुई प्रतिको छोकसंख्या ९६ है । इस तरह धाराकी प्रतियोंसे छपी हुई प्रतिमें २१ और देहलीवाली प्रतिमें २५ लोक बढे हुए हैं। ये सब चढे हुए कोक 'क्षेपक' है जो मूल अन्यकी मित्र मित्र प्रतियोंमें किसी तरह पर शामिल हो गये हैं और मूल प्रन्यके अगभूत नहीं है। इन श्लोकोंको निकालकर प्रन्थको पढनेसे उसका सिलसिला ठीक बैठ जाता है और वह बहुत कुछ सुनाम्बर, मालूम होने लगता है। एत एसके, इनको यागिक करके पढनेसे उसमें बहुत कुछ बेढंगापन आ जाता है और वह अनेक प्रकारकी गढ़बढी तथा आपत्तियों से पूर्ण जंचने लगता है। इस बातका अनुभव सहवय पाठक स्वर्ग अन्यपरसे कर सकते हैं।
इन सब अनुसंधानक साय अन्यको पढनेसे ऐसा मालूम होता है कि छपी हुई प्रति जिस हस्तलिखित प्रति परसे तप्यार की गई है उसमें तथा देहलीकी प्रतिमें जो
* देहलीको प्रतिमें भी यह पद्म प्रायः इसी प्रकारसे है, सिर्फ इतना भेद है कि उसमें पूर्वार्धको उत्तरा और उत्तरार्धको पूर्वार्ध बनाया गया है।
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पर पड़े हुए है उन्हें या तो किसी विद्वान्ने व्याख्या मादिके लिये अपनी प्रतिमें टिप्पपीके तौरपर लिख रक्खा था या अन्यकी किसी कानडी वादि टीकामें के विषयसमानादिके लिये 'सच' मावि ससे दिये हुए थे और ऐसी किसी प्रतिसे नकल करते हुए लेखकोंने उन्हें मूल प्रन्थका ही एक अंग समझकर नकल कर गला है। ऐसे ही किसी कारणसे ये सब छोक अनेक प्रवियोंमें प्रक्षित हुए जान पड़ते हैं। और इसलिये यह कहनेमें कोई संकोच नहीं हो सकता कि ये पड़े हुए पय झरे अनेक ग्रन्थोंक पथ है। नमूनेक तौर पर यहाँ पार पोको उपत करके पतलाया जाता है कि वे कौन कौनसे प्रन्यके पय ई
गोपुच्छिकावेतवासा द्राविडो यापनीयका।
निपिच्छेधाति पंचते जैनामासा प्रकीर्तिताः॥ १०॥ यह पथ इनानन्दिके 'नीतिसार" अन्यका पच है और उसमें भी,नं०१० पर दिया हुआ है।
सजाति साहस्थत्वं पारिवाज्ये सुखता ।
साम्राज्यं परमाईन्य निर्वाणं चेति सतधा ॥ ५६॥ .. यह पय, जो देहलीपाली प्रतिमें पाया जाता है, श्रीजिनसेनाचार्य मानिएरामका पथ है मौर इसका यहाँ पूर्वापरसोंक साथ कुछ मी मेल मादम नहीं होता।
मातस्यासनिधानेऽपि पुण्यायाकतिपूजनम् ।
तार्शमुद्रान किं कुर्यविषसामर्थ्य सूदनम् ॥ ७३ ॥ यह पीसोमदेवसरिक 'यसस्टिळक प्रषका पथ है और उसके माठवें भावासमें पाया जाता है।
अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शास्वतः।
नित्यं सनिहितोमृत्युः कर्वन्यो धर्मसंग्रहः ॥ १५॥ यह 'चाणक्य नीति का लोक है।
का-टिप्पणियाँक छोक किस प्रकारसे मुख प्रन्यमें शामिल हो पाते है. इसका विशेष परिचय पाठकोंको रत्नकरएकवावकाचारकी बाँच + मामके लेखद्वारा कराया पाया।
यहां तक के इस सब कमनसे यह मान विजुल साफ हो जाती है कि छपी हुई प्रतिको देखकर उसके पोंपर को कुछ संदेह उत्तम हुआ पा वह अनुचित नहीं था बल्कि यषा ही था, और उसका निरसन भाराकी प्रतियों परसे बहुत कुछ बाता है। साथ ही, यह पात पानमें या जाती है कि यह प्रन्य जिस रूपसे पी हुई प्रतिमें वषा पहलीबाली प्रतिमें पाया जाता है उस कामें यह पूज्यपादका 'उपासकाचार'
मानिकाचप्रथमाला में प्रकाशित रत्नकरण्डभावकाचार ' पर बो ४ छोकी विस्वत प्रस्तावना लिखी गई है उसीम रलकरण्यक श्रा० की यह सब जाँच शामिल है।
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नहीं है, बल्कि छमी हुई प्रतिमेस, कर दिये हुए, ११ श्लोक और वेहलीपाली प्रतिमेस । २५ छोक कम कर देनेपर वह पूज्यपादका उपासकाचार रहता है और उसका म प्रायः वही है जो भाराकी प्रतियों में पावा. पाता है। संभव है कि प्रन्धके अन्तमें कुछ पयोको प्रशस्ति और हो और वह किसी जगहकी दूसरी प्रतिमें पाई जाती थे। उसके लिये विद्वानोंको अन्य स्थानोंकी प्रतियाँ भी खोजनी चाहिएँ ।
अब देखना यह है कि, यह पंथ कौनसे पूज्यपाद आचार्यका बनाया हुआ है। 'पूज्यपाद ' नामके भाचार्य एकसे अधिक हो चुके हैं। उनमें सबसे ज्यादा प्रसिद्ध
और बहुमाननीय पाचार्य 'जैनेन्द्र ' व्याकरण तथा 'सर्वार्थसिद्धि' आदि प्रन्योंकि फर्ता हुए हैं। सबका दूसरा नाम देवबन्दी' मी थाऔर देवनन्दी नामके भी कितने ही वाचायोका पता पता है। इससे, पर्याय नामकी वजहसे यदि उनमेसे ही किसीका प्रण किया जाय तो किसका प्रहण किया जाय, यह शक समझ नहीं आता। अन्य मन्तमें अभी तक कोई प्रशस्ति उपलब्ध नहीं हुई और न थके शुरुमें- किसी भाचार्यका स्मरण किया गया है। हाँ भाराकी एक प्रतिके अन्तमें समातिसूचक को पाक्य दिया है वह इस प्रकार है• वि श्रीवासपज्यपादाचार्यविरचित उपासकाचार समायः॥"
इसमें पूज्यपाद से पहले 'बा' शब्द और जुड़ा हुमा है और उससे दो विकल्प सपना हो सकते हैं। एक तो यह कि यह अन्य 'पासपन्य' नामके वाचार्यका बनाया हुआ है और लेखकके किसी अभ्यासकी वजहसे-पून्यपावका नाम चित्तपर ज्यावा बाहुमा प्रथा अभ्यासमें अधिक पाया हुआ होनेके कारण-पाद' शब्द उसके साथमें गलतीसे और अधिक लिखा गया क्योंकि वारपल्य' नामकेमी भाचार्य
ए-एक पासपूत्य' श्रीधर भाचार्य के शिष्य थे, जिनका ख मापनंविधावकाचारकी प्रशस्तिमें पाया जाता है और 'दानशासन ' प्रेयके का भी एक 'वासुपूज्य' हुए है, जिन्होंने शक संवत् १३४३ में उछ अंगकी स्वना की है। दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि यह प्रन्य' पूज्यपाद'माचार्यका ही बनाया हुआ है
और उसके साथ में 'वासु' शब्द लेखकके वैसे ही किसी सम्बासके कारण, गलतीसे जुड गया है। व्यावातर सयाल वही होता है कि वह पिछला विकल्प ही ठीक है। क्योंकि भाराकी दूसरी प्रतिक मंतमें भी वही पाय दिया हुआ है और उसमें 'पास' शब्द नहीं है। इसके सिवाय, छपी हुई प्रति और बेहलीकी प्रतिमें भी यह अन्य पूज्यपादका
बनाया हुआ किया है। साथ ही, "दिगम्बर जैनप्रन्यकर्ता और उनके प्रन्य, नामकी सूचीम भी पूज्यपादके नाम के साथ एक श्रावकाचार प्रन्यका उगोख मिलता है।
एक देवनदी बिनयबाके बिष्य और विसंधान ' काव्य की 'पदकौमदी थोकरके कर्ता नेमिचंद्रके गुषधे, और एक देवनदी भाचार्य ब्रह्मलान्यकके गुरु थे जिसके पटने के लिये संवत् १६२७ में 'बिनयाकल्प' की यह प्रति लिखी गई थी जिसका खच सेठ माणिकचंद्रके प्रशस्तिसंग्रह' रविटरमें पाया जाता है।
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इन सब बातोंसे यह तो पाना चाता है कि यह अन्य पूज्यपादाचार्यका बनाया हुआ है परंतु कौनसे 'पूज्यपाद' आचानका बनाया हुआ है, यह कुछ मान नहीं होता।
ऊपर जिस परिस्थितिका उल्लेख किया गया है उसपरते, नद्यपि, यह कहना आसान नहीं है कि यह अन्य अमुक पूज्यपाद आचार्यका बनाया हुआ है, परंतु इस अन्य के साहित्यको सर्वार्थसिद्धि समापितन्त्र और टोपदेश नामक अन्योंकि साहित्यके साथ मिलान करने पर इतना ज़रूर कह सकते है कि यह अन्य उक प्रयोंकि कर्ता श्रीपूज्यपादाचार्यका बनाया हुआ तो नहीं है। इन अन्योंकी लेखनी मिस भोक्ताको किये हुए है, विषय-प्रतिपादनका इनमें वैसा कुछ ढंग है और जैसा कुछ इनका सन्दविन्यास पाया जाता है, उसका इस ग्रन्थके साथ कोई मेल नहीं है । सर्वार्थसिद्धिमें श्रावकधर्मका भी वर्णन है, परंतु वहाँ समादिस्मसे विषयके प्रतिपादन में जैसी कुछ विशेषता पाई जाती है वह वहीं दृष्टियोचर नहीं होती । यदि यह प्रन्थ सर्वार्थसिद्धिके कर्ताका ही बनाया हुआ होता तो, चूंकि यह श्रावकमका एक स्वतंत्र धन्य मा इसलिये, इसमें श्रावकधर्म-सम्बन्धी अन्य विशेषताओंके अतिरिक्त उन सब विशेषताओंका भी उल्लेख भर होना चाहिए था जो सर्वापसिद्धिमें पाई जाती है। परंतु ऐसा नहीं है, बल्कि कितनी ही जगह कुछ फवन परस्पर विभिन्न भी पाया जाता है, जिसका एक नमूना नीचे दिया जाता है-
सर्वार्थसिद्धिने 'अव दंडविरति भामके तीसरे गुणवतका स्वरूप इस प्रकार दिया है"असत्युपकारे पापादानहेतुरनर्थदण्डः । ततो विरतिरनर्थविरतिः ॥ अनर्थदण्डः पंचविधः । अपध्यानं, पापोपदेशः, प्रमादचरितम्, हिंसाप्रदानम्, मशुमधुतिरिति । तत्र परेषां जयपराजयवधन्धना छेदपरस्वहरणादि कथं स्यादिति मनसा चिन्तनमभ्यागम् । विर्यकेशवाणिज्यप्राणिवधकारं मादिषु पापसंयुक्तं धचमं पापोपदेशः । प्रयोजनमन्तरेण सुखादिच्छेदनममिकडून सलिलसेचनाद्यवद्यकार्य प्रमादाचरितं। विपकण्टकशास्त्राभिरनुकशादण्डादिहिंलीपकर मप्रदानं हिंसाप्रदानम् । हिंसागादिप्रवर्धनदु एकथामवपशिक्षणव्यापृविरशुभश्रुतिः । "
इस स्वरूपकथनमें अनर्थदंडविरतिकार प्रयाण, सरांचे पांच का नामनिर्देश और फिर प्रत्येक मेक्का स्वस्त बहुत ही मंचे तु शब्दनि बतलाया गया है। और यह एक कमन तत्वार्थसूत्रके उस मूल सूत्रमें नहीं है जिसकी व्याख्याने धावार्यमहोदवने यह सब कुछ किया है। इसलिये वह भी नहीं कहा जा सकता कि मूल ग्रन्थके अनुरोषते उन्हें वहीं पर ऐसा लिखना पड़ा है। वास्तवमें, उनके मतानुसार, जैन विकासका इस निषयमें ऐसा ही आधन धान पढता है और उसीको उन्होंने प्रदर्शित किया है। अब उपासकाचारनें दिये हुए इस के लक्ष्मको देखि
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पाशमण्डलमार्जाविषशमशानवान :
न पापं च अमी देयास्तृतीय स्थानगुणवतम् ॥ १९॥ इसमें मनदंडविरतिका सातिविषाला लक्षण नहीं है और न उसके पाँच मेदोंका कोई उलेख है। बल्कि यहाँ इस प्रतका ओ कुछ लक्षण अथवा स्वल बतलाया गया है यह मनदंडके पाँच भेदों से 'हिंसाप्रदान' नामके चौथे भेद की पिरतिसे ही सम्बन्ध रखता है। इसलिये, सर्वार्थसिद्धिकी दृष्टिसे, यह लक्षण लक्ष्यके एक देशमें न्यापनेके कारण अध्याति दोष दूषित है, और कदापि सायसिद्धिके कांका नहीं हो सकता।
इस प्रकारके विभिन्न कथनों भी यह प्रन्य सर्वार्थसिक्केि कर्ता श्रीपूज्यपाद स्वामीका बनाया हुमा मालन नहीं होता, तब यह अन्य दूसरे कौनसे पूज्यपाद भाचार्यका बनाया हुमा है और कब बना है, यह बात अवश्य जाननेके योग्य है और इसके लिये विद्वानोको कुछ विशेष अनुसंधान करना होगा। मेरे ख्याछमें यह अन्य पं० आशापरके बादका-१३वीं शताब्दीसे पीछेका बना हुआ मालूम होता है। परंतु ममी में इस बातको पूर्ण निश्चयके साथ कहने के लिये तयार नहीं है। विद्वानोको चाहिए कि वे स्वप इस विषयकी खोन करें, और इस बातको मालूम करें कि किन किन प्राचीन ग्रन्थों में इस ग्रन्थके पोका उनेल पाया जाता है। साथही, उन्हें इस अन्यकी दूसरी प्राचीन प्रतियोंकी मी खोन लगानी चाहिए। संभव है कि उनमेंसे किसी प्रतिमें इस प्रन्यकी प्रशस्ति उपलब्ध हो आय ।।
इस लेखपरसे पाठकोंको यह बतलानेकी जरूरत नहीं है कि मंडारोंमें कितने ही अन्य कैसी संदिग्धावस्थामें मौजूद हैं, उनमें कितने अधिक क्षेपक शामिल हो गये हैं और वे मूल प्रन्यकाकी कृतिको समझनेमें क्या कुछ प्रम उत्पन्न कर रहे हैं। ऐसी हालत में, प्राचीन प्रतियों परसे अन्योंकी जांच करके उमको यथार्य स्वाम प्रगट करनेकी मोर उसके लिये एक जुदाही विभाग स्थापित करनेकी कितनी अधिक जरूरत है, इसका अनुभव सादर पाठक स्वयं कर सकते हैं। प्राचीन प्रतियाँ दिनपर दिन नष्ट होती जाती है। उनसे शीघ्र स्थायी काम ले लेना चाहिए। नहीं तो उनके नष्ट हो मानेपर यथार्थ वस्तुस्थितिके मालम करनेमें फिर बड़ी कठिनता होगी और अनेक प्रकारकी दिक्कतें पैदा हो जायेगी । कमसे कम उन खास खास प्रन्योंकी पाँच तो जरूर हो नानी चाहिए जो बडे बडे प्राचीन भाचायोंके बनाये हुए मषा ऐले माघाकि नामसे वामांकित है और इसलिये उनमें नसी नामके प्राचीन भाचायोंके बनाए हुए होनेका प्रम उत्सम होता है। आशा है, हमारे दादी माई इस विषयको उपयोगिताको समझकर उसपर जरूर ध्यान देनेकी छमा-करेंगे।
सरसावा, जि. सहारनपुर। मा० २५ नवम्बर सन् १९२१ . जुगलकिशोर मुख्तार
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पढ़ने, योग्य धन्य ।
त्रैवर्णिकाचारेमा सोमन पचाललंबी सोनहत हिन्दी आपटीकासहित
जिसकी यह परीक्षा है।
नंe
10
- परीक्षा-प्रथम द्वितीय, मांग, प्रभाग के
'उमास्वामिभाषकांचार, इन्द
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5)
है। दूसरे भागमे
चार विस्तृत समस्येचना है। प्रचारार्थ इन एखा है, 'दोनों भागोंमें सवा सौ. वना सौ (--) : द्वितीय भागका । है'।
जैनाचा शासनद कराकर
Dictate
-नेपा
सन्न
अधक्त
है।
कादर्शन है।
M
भाग
विभाग पाण
०१)
जैन-न्याका कार्यालय, पी०ई।
DELEIAVEIEN JAISISTEN
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