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________________ [२३] माय तो वह तभी तो किया जा सकता है जब येसी कोई या व्यता हो-कोई व्यन्तर कांदा करता हुआ किसी तरह पर प्रकट करे कि मुझे इस बात धोती निचोड़ का पानी चाहिये तो यह उसे दिया जा सकता हैपरंतु जब पैसो कोई इच्छा या क्रौदाव्यात हीन हो अथवा उसका अस्तित्व न हो सब भी उसका पूर्ति की चेष्टा करना--बिना इच्छा भी किसी को जल पीने के लिये मजबूर करना अथवा पीने वाले के गौन्द न होते हुए मी पिलाने का दौंग करना क्या अर्थ रखता है। यह निरा पागलपन नहीं तो और क्या है? क्या व्यन्तरदेवों को ऐसा असहाय या महानतीसमझ लिया है जो वेबिना दूसरों के दिये स्वयं जल भी कही से ग्रहण न कर सकें? वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है । भट्टारकजी का प्राशय यदि इस तर्पण से ध्यन्तरों के कीड़ा उद्देश्य की सिद्धि मात्र होता तो वे बैसी कौम के समय हो या इस प्रकार की सूचना मिलने पर ही सर्पण का विधान करते क्योंकि कोई क्रीड़ा या इच्छा सार्वकालिक और स्थायी नहीं होती। परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया, बल्कि प्रतिदिन और प्रत्येक लान के साप में तर्पण का विधान किया है और उनकी व्यवस्थानुसार एक दिन में बीसियों बार स्लान की नौबत था सकती है। मस: महारानी का यह तर्पणविधान म्पन्सरों के क्रीड़ा उद्देश्य को लेकर नहीं है किन्तु सीधा और साफ तौर पर हिन्दुओं के सिद्धान्त का अनुसरण गात्र है। और इसलिए यह सोनीनी की अपनी ही कल्पना और अपनी हा ईनाद है जो वे इस तर्पण को व्यन्तरी की क्रीड़ा के साथ बाँधते हैं और उसे किसी तरह पर खींचतांचकर नैनधर्म को कोटि में शानेका निष्फल प्रयत्न करते हैं । ११३ श्लोक के भावार्य में तो सोनीनी यह भी लिख गये हैं कि "व्यातरी को जन किसी उद्देश्य से नहीं दिया जाता है क्योंकि यह बात लोक हा साफ कह रहा है कि कोई
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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