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[११] है। मालूम नहीं महारानी ने नग्न की यह परिभाषा कहाँ से की है। प्राचीन जैन शाखों में तो खोजने पर भी इसका कहीं कुछ पता चलता नहीं !! भाम तौर पर जैनियों में 'जातरूपधरो नना' की प्रसिद्धि है । भट्टाकलंकदेष ने मी रानवार्तिक में 'जातरूपधारणं नाग्न्य' ऐसा शिखा है। और यह अवस्था सर्व प्रकार के वनों से रहित होती है। इमीसे अमरकोश में भी 'नग्नोऽवासा दिगम्बरे वाक्य के द्वारा वक्षरहित, दिगम्बर और नग्न तीनों को एकार्थवाचक बताया है। इससे भट्टारकनी की उक्त दशमेदात्मक परिभाषा बड़ी ही विचित्र जान पड़ती है। उनके दस भेदों में से अर्धवचधारी और कौपीनवान्
आदि को तो किसी तरह पर 'एकदेशनग्न' कहा मी जासकता है परन्तु जो लोग बहुत से मैले कुचैखे या अपवित्र धा पहने हुए हों अथवा इससे भी बढ़कर सर से पैर तक पवित्र भगवे वन धारण किये हुए हों उन्हें किस तरह पर 'नग्न' कहा नाय, यह कुछ समझ में नहीं माता !! ज़रूर, इसमें कुछ रहस्य है । भट्टारक योग बन पहनते हैं, बहुधा भगवे (कषाय) पक्ष धारण करते हैं और अपने को 'दिगम्बर मुनि कहते हैं। सभव है, उन्हें नग्न दिगम्बर मुनियों की कोटि में खाने के लिये ही यह नग्न की परिभाषा गढ़ी गई हो। अन्यया, भगवे बस वालों को तो हिन्दू अन्थों में भी नग्न लिखा हुआ नहीं मिलता। हिन्दुओं के यहाँ पंच प्रकार के नग्न बतलाये गये हैं और वह पंच प्रकार की संख्या भी विभिन्न रूप से पाई जाती है । ययाः
"जिकच्छ कच्छशेषश्च मुक्तकणस्तथैव च । एकवाला अवासाय नमः पंचविधः स्मृतः ।
-आदिक तत्व। "मो मखिनवनः स्यानो नीलपटस्तथा। विकदयोंऽनुत्तरीयच नमश्चापन एवच ॥