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________________ [११] बल्कि भगवजिनसेन न 'आधानादिश्मशानान्त' नाम से प्रसिद्ध होने घासी दूसरे लोगों की उन विभिन्न क्रियाओं को जिनमें ' सूतक ' भी शामिल हैं ' मिथ्या क्रियाएँ' बतलाया है । इससे नियों के लिये सूतक का कितना महत्व है यह और भी स्पष्ट हो जाता है। इसके सिवाय, प्राचीन साहित्य का महाँ तक मी अनुशीवान किया जाता है उससे यही पता चलता है कि बहुत प्राचीन समय अथवा नियों के अभ्युदय काल में सतक को कभी इतनी महता प्रास नहीं पी और न वह ऐसी विडम्बना को ही लिये हुए पा जैसी कि मट्टारकनी के इस ग्रंथ में पाई जाती है। महारकनी ने किसी देश, काम अयमा सम्प्रदाय में प्रचलित सूतक के नियमों का जो यह वेदगा सग्रह करके उसे शाम का रूप दिया है और सब नैनियों पर उसके अनुकूल पाचरण की जिम्मेदारी का मार जादा है वह किसी तरह पर भी समुचित प्रतीत नहीं होता । जैनियों को इस विषय में अपनी बुद्धि से काम लेना चाहिये और केवल प्रवाह में नहीं बहना चाहियेउन्हें, जैनट से सूतक के तत्व को सममते हुए, उसके किसी नियम उपनियम का पालन उस हद तक ही करना चाहिये जहाँ तक कि खोक-व्यवहार में हानि मेटने अथवा शुचिता * सम्पादन करने के साथ उसका सम्बंध है और अपने सिवान्तों तथा व्रताचरण में कोई देखो इसी परीक्षा शेख का प्रतिक्षादिविरोध'माम का प्रकरण। * यह राधिता प्रायः भोजनपान की शुचिता है अथवा मोजन. पान की शुद्धि को सिद्ध करना ही सूतक-पातक-सम्बन्धी वर्जन का मुख्य उद्देश्य है, ऐसा खाटीलंहिता के निन पाय वनित होता है: उनकं पातकं चापि यथोकं जैनशासने। . एपणाशुद्धिसिद्धचर्य वर्षदेच्यावकामयी ५-२५६ ॥
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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