________________
[१६६] यदि भट्टारकनी की सम के अनुसार अन्त्यनों का संसर्ग-दोष यहा तक बढ़ा हुआ है इतना अधिक प्रभावशाली और बलवान है कि उनका किसी कूप बावड़ी आदि की भूमि को प्रारम्भ में स्पर्श करना भी उस भूमि के संसर्ग में आने वाले जल को हमेशा के लिये दूषित तथा अपवित्र कर देता है तब तो यह कहना होगा कि जिस जिस भूमि को अन्त्यज लोगों ने कभी किसी तरह पर स्पर्श किया है अथवा थे, स्पर्श करते हैं वह सब भूमि और उसके ससर्ग में आने वाले संपूर्ण अन्नादिक पदार्थ हमेशा के लिये दूषित तथा अपवित्र हो जाते है और इसलिये त्रैवर्णिकों को चाहिये कि उस भूमि पर कभी न चलें और न नक्ष की तरह उन संसर्गी पदार्थों का कमी व्यवहार ही करें। इसके सिवाय, निन कूष धापड़ी आदि की बावत सुनिश्चित रूप से यह मालूम न हो सके कि किन लोगों के खोदे हुए हैं उनका नच मी, संदिग्धावस्था के कारण, कमी काम में नहीं लाना चाहिये । ऐसी हालत में कैसी विकट स्पिति उत्पन्न होगी और लोकव्यवहार कितना बन्द तथा संकटापन्न हो जायगा उसकी कल्पना तक मी भट्टारकजी के दिमाग में आई मालूम नहीं होती । मालूम नहीं भधारकजी उन खेतों की पैदावार--मना, फल तथा शाकादिक-को भी ग्राह्य समझते थे या कि नहीं निनमें मनमत्रादिक महादुर्गधमय अपवित्र पदार्थों से मरे हुए खाद का संयोग होता है। अथवा अन्त्यमों का वह भूमि-स्पर्श ही, उनकी दृष्टि में खाद के उस सयोग से गया बीता था । परंतु कुछ भी हो-महारानी ऐसा वैसा कुछ समझते हों या न सममने हो और उन्होंने वैसी कोई कल्पना की हो या न की हो-, इसमें संदेह नहीं कि उनका उक्त कपन जैनशासन के अत्यन्त विरुद्ध है। .
जो नशासम सार्वजनिक प्रेम तथा वात्सल्य भाव की शिक्षा देता है, घृणा तथा देष के भाव को हर कर मैत्रीभाव सिखलाता है और