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भट्टारकजी का यह उदार बड़ा ही विलक्षण तथा हद दर्जे का संकीर्ण है और इससे शूद्रों के प्रति असीम घृणा तथा द्वेप का भाव व्यक्त होता है। इसमें यह नहीं कहा गया कि जिन कूप बावड़ी आदि के जल को अन्त्यजों ने किसी तरह पर बुधा हो उन्हीं को जल खानपान के प्रयोग्य हो जाता है बल्कि यह स्पष्ट घोषणा की गई है कि जिन कूप बावड़ी आदि को अगयनों ने खोदा होमले ही उनके वर्तमान जल को उन्होंने कभी स्पर्श मी न किया होउन सब का जल हमेशा के लिये खानपान के योग्य होता है । और इस लिये यदि यह कहा जाय तो वह नाकाफी होगा कि 'महारकजी ने अपने इस वाक्य के द्वारा अन्त्यज मनुष्यों को जलचर जीवों तथा नल को छूने पीने वाले दूसरे तिथंचों से ही नहीं किन्तु उस मल, गंदगी तथा कूड़े कर्कटे से भी बुरा धीर गया बीता समझा है जो कुछ, बावड़ियों तथा तालाबों में यहकर या उसंकर चला जाता है अथवा ध्पनेक त्रस जीवों के मरने - नीने - गलने सड़ने आदि के कारण भीतर ही भीतर पैदा होता रहता है और जिसकी वजह से उनका जल खान पान के अयोग्य नहीं माना जाता । भट्टारकजी की घृणा का मान इससे भी कहीं बढ़ा चदा था, और इसी लिये मैं उसे हद दर्जे की या असीम घृणा कहता हूँ। मोलूम होता हे भट्टारकी अन्त्यओं के संसर्ग को ही नहीं किन्तु उनकी छापामा को पवित्र, अपशकुन और अनिष्टकारक समझते थे । इसीलिए उन्होंने, एक दुसरे स्थान पर, अन्त्य का दर्शन हो जाने कथयो उसका शब्द सुनाई पड़ने पर माँ को ही छोड़ देने का या यो कहिये कि सामायिक जैसे सदनुष्ठान का स्थान कर उठ जाने का विधान किया है * यह कितने खेद का विषय है !!
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व्रतच्युतान्त्यजादीनां दर्शने भाषणे श्रुतौ । 'ते' घोवावगमने जुम्मने जपमुत्सृजत् ॥ ३-१२५॥