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________________ [ ८ ] अन्याय है । क्या ऐसे पाप मंत्रों का अपना भी 'सामायिक हो सकता है ? कदापि नहीं | ऐसे मारणादि विषयक मंत्रों का आराधन प्रायः हिंसानन्दी रौद्र ध्यान का विषय है और वह कभी 'सामायिक' नहीं कहला सकता | भगवजिनसेन ने भी ऐसे मंत्रों को 'दुमंत्र' वतलाया है जो प्राणियों के मारण में प्रयुक्त होते हैं भले ही उनके साथ में अर्हन्तादिक का नाम भी क्यों न लगा हो। और इसलिये यहाँ पर ऐसे मंत्रों का विधान करके सामायिक के प्रकरण का बहुत ही बड़ा दुरुपयोग किया गया है, इसमें जरा भी संदेह नहीं है। और इससे भट्टारकजी के विवेक का और भी अच्छा खासा पता चल जाता है अथवा यह मालूम हो जाता है कि उनमें पादेय के विचार अथवा समझ बूझ का माद्दा बहुत ही कम था। फिर वे बेचारे अपनी प्रतिज्ञाओं का पालन भी कहाँ तक कर सकने थे, कहाँ तक वैदिक तथा लौकिक म्यागोह को छोड़ सकते थे धौर उनमें चारित्रवल भी कितना हो सकता था, जिससे वे अपनी अशुम प्रवृत्तियों पर विजय पाते और मायाचार अथवा इलकपट न करते ! अस्तु । यह तो हुआ प्रतिज्ञादि के विरोधों का दिग्दर्शन । अब मैं दूसरे प्रकार के विरुद्ध कथनों की ओर अपने पाठकों का ध्यान आकृष्ट करता हूँ, जो इस विषय में और भी ज्यादा महत्व को लिये हुए हैं और ग्रंथ को विशेष रूप से श्रमान्य, अश्रद्धेय तथा त्याज्य ठहराने के लिये समर्थ हैं। दूसरे विरुद्ध कथन । लेख के इस विभाग में प्रायः उम कथनों का दिग्दर्शन कराया - जायगा जो जैनधर्म, अन सिद्धान्त, जैननीति, जैनध्यादर्श, जैन आचारविचार अथवा जैनशिष्टाचार आदि के विरुद्ध हैं और जैनशासन के * यथा दुर्मनास्तेऽत्र विशेषा ये युक्ताः प्राणिमारणे ॥ ३६- २६ ॥ - आदिपुराण ।
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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