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की हालत में थे, उन्मस थे अथवा उन्हें इतनी भी सूझ बूझ नहीं पी जो अपने सामने स्थित एक ही पत्र पर के पूर्वापर विरोधों को भी समझ सकें ! और क्या इसी बिरते अथवा बूते पर आप मंथरचना करने बैठ गये! संभव है भट्टारकजी को घर की ऐसी कुछ ज्यादा कल न हो और उन्होंने किराये के साधारण भादमियों से रचना का काम लिया हो और उसी की वजह से यह सब गड़बड़ी फैली हो । परन्तु कुछ भी हो, इसमें संदेह नहीं कि इस प्रथ का निर्माण किसी अच्छे हाथ से नहीं हुआ और इसीलिये वह पद पद पर अनेक प्रकार के विरोधों से भरा हुआ है तथा बहुत ही बेढंगेपन को लिये हुए है।
यहाँ पर पाठकों को यह जानकर बड़ा ही माश्रये तथा कोहल होगा कि महारकमी ने 'सामायिक' के इस अध्याय में विद्वेषण तथा मारण मंत्रों तक के जप का विधान किया है और ऐसे दुष्ट कार्यार्थी मंत्रों के जप का स्थान श्मशान भूमि + बतलाया है || खेद है जिस सामायिक की बाबत मापने स्वयं यह प्रतिपादन किया है कि "उसमें सब जीवों पर समता भाव रखा जाता है, सयम में शुभ भावना रहती है तथा धार्थ-रौद्र नाम के मशुम ध्यानों का त्याग होता है' और जिसके विषय में माप यहाँ तक शिक्षा दे पाए हैं कि उसके अम्यासी को जीवन-मरण, लाभ-प्रथाम, योग वियोग, बन्धु रात्रु तथा सुख-दुख में सदा समता माग रखना चाहिये - रागद्वेष नहीं करना चाहिये उसी सामायिक के प्रकरण में भाप विद्वेष फैलाने तथा किसी को मारने तक के मंत्रों का विधान करते हैं !! यह कितना भारी विरोध प्रा
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हूं फटू, के हीं सिद्धेभ्यो हूं फद
ॐ हां इत्यादि-विद्वेषमंत्रः । ॐ हांद्रो वेषे इति इत्यादि १) मारण मंत्रः । पचाः स्मशाने दुष्टकाप्रर्थं शान्त्या च जिनालये ॥ १११ ॥
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