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-सारस्त्रयके प्रसिद्ध टीकाकार श्री जयतेनसूरिके कथनानुसार सत्-श्रद्र भी मुनिदीक्षा ले सकते हैं। परन्तु वर्तमान जैनधन तो शवोंको इसके लिए सर्वया अयोग्य समझता है। शुद्र तो खर बहुत नीची रष्टिसे देखे जाते है, परन्तु उन दक्षिणी अनियोंकि भी मुनिदीक्षा देने पर कोलाहल मचाया बाता है जिनके यहाँ विधवाविवाह होता है । उदार जनधर्मपर इस प्रकारको विकृतियाँ क्या लाव्हनस्वरूप नहीं है।
जैसा कि प्रारमनें कहा जा चुका है, इन विकृतियोंको पहिचान करके असली धर्मको प्रकाधन बनेवाली विभूतियाँ समय समय पर होती रहती है। सारत्रयके कता भाषा कुन्दकुन्द ऐसी ही विमुनियों से एक थे। वर्तमान दिगम्बर संप्रदानके अषिअंश छोग अपनेो कुन्दकुन्दको आम्बायका बतलाते हैं। मालम नहीं, लोगोंका कुन्द कुन्दाम्नाय और फन्दकन्दान्वपके सम्बन्ध में क्या सपा है। परन्तु मैं तो हो जनधर्ममें उस समय तक मो विकृतियों हो गई थी उन सबको हटाकर उसके वास्तविक स्वरूपको
आविष्कृत करके सर्व साधारणके समक्ष उपस्थित करनेवाले एक महान् आचार्वक अनुबाथियोंका सम्प्रदाय समझता हूँ। मगवान् छन्दकुन्दके पहले और पीछे अनेक पड़े बड़े भाषाब हो गये हैं, उनकी भाम्नाय या मन्वय न कहलाकर इन्वान्दकी की मात्राय या मन्वय कहलानेका मन्चपा कोई पलपकारण दृष्टिगोर नहीं होता है। मेरा मनुमान है कि भगवाकुन्दकुन्दके समय तक जैनधर्म लगभग उतना ही विकृत होगमा या, जितना पर्वमान तेहपन्धके उदय होने के पहले भामरकोंके शासन-तमममें हो गया था और उन विकृतियाँस मुख करनेपाः सपा जैनधर्मके परम पोतराग शान्त मार्गको फिरसे प्रवर्तित करनेवाले भगवान् कोण्डकुण्ड ही थे। परन्तु समयका प्रमाब देखिए कि वह संशोधित शान्तमार्ग भी चिरकाल तक शुद्ध न रहा, भागे चलकर वही मधरकाका धर्म बन गया। कहाँ तो तिल-तष मात्र परिग्रह रखनेका मी निषेष भार कहाँ हाथी घोडे और पालकियों के गठबाट 1 घोर परिवर्तन हो गया।
सब कुन्वान्दान्वयी शुद्ध मार्ग धीरे धीरे खना विकृत हो गया-विकृतिकी पराकाष्ठापर पहुंच गवा, सब कुछ विवेकी और विश्ढेषक विद्वानों का वान फिर इस मोर पया और वैसा कि मैंने अपने 'बनवातियों और चैववातियोंकि सम्प्रदाय या तेरहपन्य और वीसपन्य' सीर्थक विस्तृत टेसमें बतलाया है, विक्रमकी सत्रहवीं शताब्दिमें स्वर्गीय ५० बनारसीदासनीने फिर एक संशोधित और परिष्कृत मार्गको नीष डाली, जो पहले 'पाणारसीय' वा 'बनारसी-पन्य' कहलाया और भागे चल कर तेहपन्यक
....एवं गुणविशिष्टपुरुपो बिनदीमामहणे योग्बो भवति । यथायोम्य स्वायपि प्रवनसारतात्पयंति, पृष्ठ ३०५॥
+देखो, जैनहितपी भाग १४, अंक ४।