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पसे और अपने पड़ोसी धमोंके प्रभावसे कुछ विकृतियाँ घुस गई हों, तो इसपर किसीको भावयं नहीं होना चाहिए । इन विकृतियों में कुछ विकृतियों इतनी स्थल है कि उन्हें साधारण शुद्धिके लोग भी समझ सकते हैं । यथा
१- जैनधर्मसम्मत वर्णव्यवस्था के अनुसार जिसका कि आधिपुराणमें प्रतिपादन किया गया है, प्रत्येक वर्णके पुस अपनेसे बाइके सभी क्योंकी कन्याभोंक साप निगाह कर सकते हैं बल्कि धर्मसंग्राहावकाचारके अनुसार तो पहळेके तीन पोंमें परसर अनुलोम और प्रवियोम दोनों ही क्रोस विवाह हो सकता है और पुराणान्योंकि उदाहरणोंसे इसकी पुष्टि भी होती है *, परन्तु वर्तमान चैनधर्म तो एक वर्णकी जो बैकों जातियाँ बन गई है और बैनधर्मका पालन कर रही है, उनमें भी परस्पर विवाह करना पाप बतलाता है और इसके लिए उसके को बड़े दिग्गव पण्डित शास्त्रोंसे खींच तानकर प्रमाण तक देनेकी रक्षा करते हैं। क्या यह विकृति नहीं है।
-भगवविनसेनके आदिपुराणकी 'वर्णकामक्रिया के अनुसार प्रत्येक मरीनको अवधमकी दीक्षा दी जा सकती है और फिर उसका नया वर्ण स्थापित किया जा सकता है, तथा उस नये मैं उसका विवाहसम्बन्ध किया जा सकता है। उसको उसके प्राचीन धर्मसे यहाँ तक खुदा कर डालनेकी विधि है कि उसका प्राचीन गोत्र मी बदल कर से बये पोत्रसे अभिहित करना चाहिए । परन्त पर्वमान नैनधर्मके के दानि मोली भाली जनताको सुधारकों के विरुद्ध मकाने के लिए इसी बातको एक हथि भार पना रक्खा हक देखिए, ये मुसम्मानों और ईसाइयोंको भी लेनी बनाकर उनके साब रोटी-बठी व्यवहार जारी कर देना चाहते हैं। मानो मुसलमान और ईसाई मनुष्य ही नहीं है। क्या यह विकृति नहीं है। क्या भगवान महावीरका विश्वधर्म इतबाही संकीर्ण था विसारकी १९५वी गापाकी टीका सष्ट मालम होता है कि मच्छ देशले माये हुएम् ममी अनिका के सखते रे और जिप्रतिके अधिकारी बनने थे।
इस विषयको अच्छी तरह समझनेके लिए पवित जुगलकिशोर तारकी लिखी हुई 'विवाहक्षेत्रप्रकाश' नामकी पुस्तक और मेरा किया हुआ विम और मासिमेद ' नामका निवन्ध देखिए । यह निबन्ध शीघ्र ही प्रकाशित होनेवाला है।
जम्भ मिअमनुष्याणां सकलसंयममहण कर संमतीति नाशंकितव्य । दिग्विजयाले चक्रवर्तिना सह आर्यखण्डमागवाना म्लेच्छानानां चक्रवत्यादिभिः सहभातवैवाहिकसम्बन्धानां संयमप्रतिपत्तेरनिरोधात् । अपवा तत्कन्यकानो चकवविपरिलीवानो गर्मलाल मातृपक्षापेक्षया व्यपदेशमाचा सैरमसमवार तयाजातीयकाना दीक्षाईवे प्रतिषेषाभावात् । १९५ ॥ २१