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________________ [१०] है। परंतु उसने पाप का कौनसा विशेष कार्य किया ! कैसे सर्व जीवों के प्रति उसका निर्दयत्व प्रमाणित हुना ? और शरीर में कौनसा विकार उपस्थित हो जाने से बह जल्दी मर नायगा ! इन सब बातों का उक्त पथ से कुछ मी बोध नहीं होता। आगे पीछे के पथ भी इस विषय में मौन हैं और कुछ उत्तर नहीं देते । लोकव्यवहार मी ऐसा नहीं पाया जाता और न प्रत्यक्षा में ही किसी को उस तरह से जल्दी मरता हुआ देखा जाता है। मालूम नहीं मारकमी ने कहाँ से ये निर्मूल मालाएं जारी की हैं, जिनका जननीति अथवा जैनागम से कोई समर्थन नहीं होता। प्राचीन बैनशारों में ऐसी कोई भी बात नहीं देखी जाती जिससे वेचारे प्रातःकाल उठ कर दन्तधावन करने वाले एक साधारण गृहस्थ को पापी ही नहीं किन्तु सर्व जीवों के प्रति निर्दयी तक ठहराया जाय । और न शरीरशाम का हो ऐसा कोई विधान जान पड़ता है जिससे उस वक्त का दन्तधावन करना मरण का साधन हो सके। वारमट जैसे शरीरशास के प्राचार्यों ने ब्राझ मुहूर्त में उठ कर शौच के अनंतर प्रात:काल ही दन्तधावन का साफ तौर से विधान किया है। वह स्वास्थ्य के लिये कोई हानिकर नहीं हो सकता । और इसलिये यह सव कपन भधारकनी की प्रायः अपनी शल्पना जान पड़ता है | जैनधर्म की शिक्षा से इसका कोई खास सम्बंध नहीं है । खेद है कि महारानी को इतनी भी खबर नहीं पड़ी कि क्या प्रातःसंध्या बिना दन्तधावन के ही हो जाती है * जिसको भाप स्वयं ही 'सूर्योदयाच मागेध मात संध्या समापयेत् ( ३-१३५) वाक्य के द्वारा सूर्योदय से पहले ही समाप्त कर देने को लिखते हैं। यदि खबर पड़ती तो आप व्यर्थ ही ऐसे नहीं होती। महारकजी ने खुद संध्या समय के स्नान को जरूरी बतलाते हुए उसे दन्तधावनपूर्वक करना लिखा है । यथा-. सन्ध्याकाले.. कुर्यात्स्नानत्रयं जिलावन्तधावनपूर्वकम् ॥१०७-१९९५
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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