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[५] सोचने की बात है। परंतु अन्तर कुछ रहो पा न रहो, इससे प्रथ की बेतरतीची और उसके बेढंगेपन का हाख कुछ जरूर मालूम हो जाता है।
(ग) मोद' क्रिया के बाद, त्रिवर्णाचार में 'पुंसवन' और 'सीमन्त' नाम की दो क्रियाओं का क्रमश: निर्देश किया गया है और उन्हें यथाक्रम गर्म से पांचवें तथा सातवें महीने करने का विधान किया है। यथा:
समस्याथ पुरय क्रियां पुंसवनामिधाम । कुन्तु पंचमे माखि पुमाला नेममिधः ॥३॥ अथ सप्तमके मासे सीमन्तविधियच्यते ।
फेशमध्ये तु गमिएया सीमा सीमन्तमुच्यते १७२॥ ये दोनों क्रियाएँ शादिपुराण में नहीं है और न भट्टारकनी की उक्त ३३ क्रियाओं की सूची में ही इनका कही नामोशेख है। फिर नहीं मालूम इन्हें यहाँ पर क्यों दिया गया है क्या महारानी को अपनी प्रतिज्ञा, ग्रंथ की तरतीय और उसके पूर्वापर सम्बंध आदि का कुछ मी ध्यान नहीं रहा। वैसे होनहाँ जो जी में आया शिख मारा!! और क्या इसी को प्रथरचना कहते हैं ! वास्तव में ये दोनों क्रियाएँ हिन्दू धर्म की ख़ास क्रियाएँ (संस्कार) हैं। हिन्दुओं के धर्म ग्रंथों में इनका विस्तार के साथ वर्णन माया जाता है । गर्भिणी बी के केशों में माँग पाइने को 'सौगत क्रिया कहते हैं,निसके द्वारा वे गर्म का ख़ास तौर से संस्कारित होना मानते हैं । और 'पुंसवन क्रिया का अभिप्राय उनके यहाँ यह माना जाता है कि इसके कारण गर्मिणी के गर्भ से लड़का पैदा होता है, जैसा कि मुहतचिंतामणि की पीयूषधारा टीका के निम्न वाक्य से भी प्रकट है"पुमान् सूपतेऽनेन कर्मलेति व्युत्पत्या पुंसवनकर्मणा पुंस्त्वहेतुना।"
परंतु नैन सिद्धांत के अनुसार, इस प्रकार के संस्कार से, गर्म में आई हुई लड़की का लड़का नहीं बन सकता । इसलिये बैन धर्म से इस संस्कार का कुछ सम्बध नहीं है। मगवषिजनसन के वचनानुसार इन दोनों