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[१८४] कर रखा है जिसकी बाबत यह बहुत कुछ संभव है कि वह वाममागियों अथवा शाक्तिकों का मंत्र हो और खोज करने पर उनके किसी ग्रंथ में मिल जाय । ऐसी हालत में उक्त पञ्च भी-अकेला भया दूसरे पछ के साथ में-उसी ग्रंथ से लिया गया होना चाहिये । मालूम होता है, उसे देते हुए, मटारकनी को यह खयाल नहीं रहा कि जब हम पद्य में उल्लेखित मंत्र को नहीं दे रहे हैं तब हमें इसके पलं देहाति शब्दों को भी बदल देना चाहिये । परन्तु महारकनी को इतनी सूझ बूम कहाँ थी? और इसलिये उन्होंने पद्य के उस पाठ को न बदत्त कर मंत्र को ही बदल दिया है ।
स्याग या तलाक (२६ ) ग्यारहवें अध्याय में, विवाहविधि को समात करते हुए, भहारकजी लिखते है:
क्यप्रा दशमे वर्षे ब्रीम द्वादशे यत्।
मृतप्रजा पंचदशे सघस्त्याप्रियवादिनीम् ॥ १७ ॥ अर्षाद--जिस खी के लगातार कोई संतान न हुई हो उसे दसवें वर्ष, जिसके कन्याएँ ही उत्पन्न होती रही हों उसे बारहवें वर्ष, जिसके
• यह पद्य किसी हिन्दू ग्रंथ का जान पड़ता है। हिन्दुओं की 'नवरत्न विवाह पद्धति' में भी वह संगृहीत मिलता है । अस्तु: इस पच के अनुवाद में सोनीजी ने त्यजेत् ' पद का अर्थ दिया है'दसरा विवाह करे' और । अप्रियवादिनी के पहले एक विशेषण अपनी तरफ से जोड़ा है 'अपुत्रवती' ! साथही अप्रियवादिनी का अर्थ व्यभिचारिणी' बतलाया है और ये सब बातें आपके अनुवाद की विलक्षणता को सूचित करती है। इसके सिवाय अपने त्यागावधि के वर्षों की गणना प्रथम रजोदर्शन के समय से की है। यह भी कुछ कम विलक्षणता नहीं है।