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[२२] दोनों में परस्पर कितना अन्तर है और उससे प्रतिज्ञा में कहाँतक विरोध पाता है इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं । इस अध्याय में और भी कितने ही कथन ऐसे हैं जो मानार्णव के अनुकूल नहीं है। उनमें से कुछ का परिचय भागे चलकर प्रयास्यान दिया जायगा।
(६) एकसंधि भट्टारक की 'मिनसंहिता' से भी कितने ही पधादिकों का संग्रह किया गया है और उन्हें प्रायः व्यों का स्यों अथवा कुछ परिवर्तन के साथ उठाकर अनेक स्थानों पर रखा गया है। चौथे अध्याय में ऐसे बिन पयों का संसह किया गया है उनमें से दो पद्य नमूने के तौर पर इस प्रकार हैं
तीर्थकरणमृच्छपकेवल्यन्तमहोत्सवे। प्राप्य ये पूजनात्वं पवित्रत्वमुपागताः ॥ ११ ॥ ते प्रयोपि प्रणेतल्या कुराहेवेषु महानपम् ।
गाई पत्याहवनीयदक्षिणानिमासिद्धया ॥ ११६॥ मापा-टीका का 'अनुकरण मात्र लिखा है, 'चतुर्थ' का अर्थ अनेक स्थानों पर 'उपवास दिया है। और प्रायश्चित प्रयों से तो यह बात और भी स्परा है कि 'चतुर्थ' का 'उपवास जैसाकि प्रापधित चूतिका' की भीनन्दिगुरुकृत टीका के निन्न वाफ्यों से प्रकट है'त्रिचतुर्थानि वीणि चतुर्थानि प उपवासा इत्यर्थः ।' 'चतुर्थ उपवास' । इससे सोनीजी की भूल स्पष्ट है और उसे इसलिये स्पट किया गया है जिससे मेरे उक्त लिखने में किसी को भ्रम न हो सके । अन्यथा, उनके अनुवादकी भूल दिखलाना यहाँ इट नहीं है, भूलों से तो सारा मनुवाद भरा पड़ा है- कोई भी ऐसा पृष्ठ नहीं जिसमें अनुवाद की प्रसपांच भूल न हो-उन्हें कहाँतकदिखलाया जा सकता है। हाँ, मेरे लेखके विषय से जिन भूलोकावासमथवा शहप-सम्बन्ध होगा उन्हें यथावसर पर किया आयगा ।