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फंसा हुआ है। साथ ही, उसके व्यक्तियों में भाम, तोर, पर, ढूंढने पर भी जैनत्व का कोई खास लक्षण दिखाई नहीं पड़ता। इन सब त्रुटियों को दूरकरके अपना उद्धार करने के शिय समाज को ऐसे विकृत तथा षित साहित्य से अपने व्यक्तियों को सुरक्षित रखना होगा और ऐसे बाची, टोंगी तथा कपटी अंघों का सबल विरोध करके उनके प्रचार को रोकना होगा। साथ ही, विचारस्वातंत्र्य को उत्तेजन देना होगा, जिससे सत्य असत्य, योग्य अयोग्य और हेयादेय की खुली जाँच हो सके और उसके द्वारा समाज के व्यलियों की साम्प्रदायिक मोहमुग्धता तथा अन्धी श्रद्धा दूर होकर उन्हें यथार्थ वस्तुस्थिति के परिज्ञान-द्वारा अपने विकाश का ठीक मार्ग सुझ पड़े और उसपर चलने का यथेष्ट साहस भी बन सके। इन्ही सदुद्देश्यों को लेकर इस परीक्षा के लिये इतना परिश्रम किया गया है। भाशा है इस परीक्षा से बातों का ज्ञान र होगा, महारकीय साहित्य के कितने ही विषयों परअच्छा प्रकाश पड़ेगा और उससे नैन अजैन सभी भाई लाभ उठाएंगे।
अन्त में सत्य के उपासक समी जैन विद्वानों से मेरा सादर निवेदन है कि वे लेखक के इस सम्पूर्ण कपन तथा विवेचन की यथेष्ट जाँच करें और साथ ही भारकजी के इस पंथ पर अब अपने खुले विचार प्रकट करने की कृपा करें। यदि परीक्षा से उन्हें भी यह ग्रंथ ऐसा ही निकृष्ठ तथा हीन बचे तो समाजहित की दृष्टि से उनका यह बरूर कर्तव्य होना चाहिये कि षे इसके विरुद्ध अपनी भावाब उठाएँ और समाज में इसके विरोध को उत्तेजित करें, जिससे पूतोंकी की हुई जनशासन की यह मलिनता दूर हो सके । इसवम् ।
व्येष्ठ १० १३, सं० १९८५
जुगलकिशोर मुख्तार :