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(३) इस ग्रंथ के दसवें अध्याय में कर श्रावयंप्रचार के 'विषयाशावशातीतो' आदि साठ पथ तो ज्यों के त्यों और पाँच पथ कुछ परिवर्तन के साथ संग्रह किये गये हैं । परिवर्तित पद्यों में से पहला पद्म इस प्रकार है ।
अष्टांगेः पालितं शुद्धं सम्यक्त्यं शिषदायकम् ।
न हि मंत्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम् ॥ २८ ॥
यह पद्य रत्नकरण्ड श्रावकाचार के २१ में पथ रूपान्तर है । इसका उत्तरार्ध तो नही है जो उक्त २१ में पद्य का है, परन्तु पूर्वार्ध को बिलकुल ही बदल डाला है और यह तबदीली साहित्य की दृष्टि से बड़ी दी भद्दी मालूम होती है । रत्नकरण्ड श्रावकाचार के २१ वे पथका पूर्वार्ध है
नाङ्गहीनमलं छेत्तुं दर्शनं जन्मसन्ततिम् ।
पाठकजन देखें, इस पूर्वार्ध का उक्त पथ के उत्तरार्ध से कितना गहरा सम्बन्ध है । यहाँ सम्यग्दर्शन की मंगहीनता जन्मसंतति को नाश करने में समर्थ है और वहाँ उदाहरण में मंत्र की अक्षरन्यूनता विषवेदना को दूर करने में अशक्त है-दोनों में कितना साम्प, कितना सादृश्य और कितनी एकता है, इसे बतलाने की ज़रूरत नहीं | परन्तु खेद है कि भट्टारकनी मे इसे नहीं समझा और इसलिये उन्होंने रत्न के एक टुकड़े को अलग करके उसकी जगह काच जोड़ा है जो बिल फुल ही बेमेल तथा बेडौल मालूम होता है। दूसरे चार पर्योों की भी प्रायः ऐसी ही हालत है- उनमें जो परिवर्तन किया गया है वह व्यर्थ जान पड़ता है । एक पंथ में तो 'महाकुला!' की नगह उत्तमकुलाः' बनाया गया है, दूसरे में 'ज्ञेयं पाखडिमोहन' को 'ज्ञेया'पाखण्डिमूढता' का रूप दिया गया है, तीसरे में 'स्मयमा हुर्गे'तस्मयाः' की जगह 'श्रीपते तन्मदाष्टकम्' यह चौथा चरण कायम किया गया है और चौथे पथ में 'दिव्यशरीरं च लभ्यन्ते'