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________________ ofrater, modicine ste. to be taken after meals.V.S. Apto) 1 और इमलिये सोनीजी में पतिसंगादधामा भर्ष 'पाणिपीडन से पहल' किया वह किसी तरह भी नहीं बन सफता | पाणिपाटन नामक संस्कार से पहले तो 'पति' संज्ञा की प्राशि भी नहीं होती-यह समपदी के सातवें पद में आकर होती है, जैसाकि पूर्व में उधृत 'नोदकेन' पद्य के 'पतित्वंसप्तमे पदें वाक्य से प्रकट है। मब पतिहा नहीं तो फिर पतिसंग' कै परंतु यहाँ पतिसंगात्' पद साफ पहा तुपा है। इसलिये सह सापढी के बाद की संभोगावस्या बोहा सूचित करता है। उस पर पर्दा नहीं जाना जा सकता। . पर रखा गालव के उलेख वामा १७६ को पथ, इसके अनुवाद में सोनीबी ने भोर मी गजब दाया है और सत्य का बिलकुल ही निर्दयता के साथ गला मरोड़ डाला है। भाप जानते थे कि मी के पुनर्षियाह का प्रसंग पल रहा है और पहले दोनों पों में उसीको ख है । साथ ही, यह समझते थे कि इन वर्षों में प्रयुक्त हुए 'दता 'पुनर्दद्यात्' जैसे सामान्य पदों का अर्थ तो जैसे तैसे पादान में दाह श्रादि करके, उनके प्रकृत भई पर कुछ पर्दा डाला जा सकता है और उसके नीचे पुनर्विवाह को किसी तरह लिपाया जा सकता है परंतु इस पच में तो साफ तौर पर 'पुनद्वाई' पद पड़ा हुआ है, जिसका अर्थ पुनर्विवाह के सिवाय और कुछ होता नहीं और यह कथन-क्रम से त्रियों के पुनर्विवाह का ही बाधक है, इसचिये सस पर पर्दा नहीं डासा ना सकता । चुनाचे मापने अपने उसी लेख में, जो 'जातिप्रबोधक' में प्रकाशित बाबू सूरनमानजी के खख की समीक्षार से शिखा गया था, बाबू सूरजमाननी-प्रतिपादित इस पत्र के अनुवाद पर और उसके इस निष्कर्ष पर कि यह लोक नियों के पुनर्विवाह विषय को लिये हुए है कोई भापदि नहीं की थी। प्रत्युत इसके लिए दिया था।
SR No.010629
Book TitleGranth Pariksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1928
Total Pages284
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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