Book Title: Granth Pariksha Part 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jain Granth Ratnakar Karyalay

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Page 280
________________ • २६७ इन सब बातोंसे यह तो पाना चाता है कि यह अन्य पूज्यपादाचार्यका बनाया हुआ है परंतु कौनसे 'पूज्यपाद' आचानका बनाया हुआ है, यह कुछ मान नहीं होता। ऊपर जिस परिस्थितिका उल्लेख किया गया है उसपरते, नद्यपि, यह कहना आसान नहीं है कि यह अन्य अमुक पूज्यपाद आचार्यका बनाया हुआ है, परंतु इस अन्य के साहित्यको सर्वार्थसिद्धि समापितन्त्र और टोपदेश नामक अन्योंकि साहित्यके साथ मिलान करने पर इतना ज़रूर कह सकते है कि यह अन्य उक प्रयोंकि कर्ता श्रीपूज्यपादाचार्यका बनाया हुआ तो नहीं है। इन अन्योंकी लेखनी मिस भोक्ताको किये हुए है, विषय-प्रतिपादनका इनमें वैसा कुछ ढंग है और जैसा कुछ इनका सन्दविन्यास पाया जाता है, उसका इस ग्रन्थके साथ कोई मेल नहीं है । सर्वार्थसिद्धिमें श्रावकधर्मका भी वर्णन है, परंतु वहाँ समादिस्मसे विषयके प्रतिपादन में जैसी कुछ विशेषता पाई जाती है वह वहीं दृष्टियोचर नहीं होती । यदि यह प्रन्थ सर्वार्थसिद्धिके कर्ताका ही बनाया हुआ होता तो, चूंकि यह श्रावकमका एक स्वतंत्र धन्य मा इसलिये, इसमें श्रावकधर्म-सम्बन्धी अन्य विशेषताओंके अतिरिक्त उन सब विशेषताओंका भी उल्लेख भर होना चाहिए था जो सर्वापसिद्धिमें पाई जाती है। परंतु ऐसा नहीं है, बल्कि कितनी ही जगह कुछ फवन परस्पर विभिन्न भी पाया जाता है, जिसका एक नमूना नीचे दिया जाता है- सर्वार्थसिद्धिने 'अव दंडविरति भामके तीसरे गुणवतका स्वरूप इस प्रकार दिया है"असत्युपकारे पापादानहेतुरनर्थदण्डः । ततो विरतिरनर्थविरतिः ॥ अनर्थदण्डः पंचविधः । अपध्यानं, पापोपदेशः, प्रमादचरितम्, हिंसाप्रदानम्, मशुमधुतिरिति । तत्र परेषां जयपराजयवधन्धना छेदपरस्वहरणादि कथं स्यादिति मनसा चिन्तनमभ्यागम् । विर्यकेशवाणिज्यप्राणिवधकारं मादिषु पापसंयुक्तं धचमं पापोपदेशः । प्रयोजनमन्तरेण सुखादिच्छेदनममिकडून सलिलसेचनाद्यवद्यकार्य प्रमादाचरितं। विपकण्टकशास्त्राभिरनुकशादण्डादिहिंलीपकर मप्रदानं हिंसाप्रदानम् । हिंसागादिप्रवर्धनदु एकथामवपशिक्षणव्यापृविरशुभश्रुतिः । " इस स्वरूपकथनमें अनर्थदंडविरतिकार प्रयाण, सरांचे पांच का नामनिर्देश और फिर प्रत्येक मेक्का स्वस्त बहुत ही मंचे तु शब्दनि बतलाया गया है। और यह एक कमन तत्वार्थसूत्रके उस मूल सूत्रमें नहीं है जिसकी व्याख्याने धावार्यमहोदवने यह सब कुछ किया है। इसलिये वह भी नहीं कहा जा सकता कि मूल ग्रन्थके अनुरोषते उन्हें वहीं पर ऐसा लिखना पड़ा है। वास्तवमें, उनके मतानुसार, जैन विकासका इस निषयमें ऐसा ही आधन धान पढता है और उसीको उन्होंने प्रदर्शित किया है। अब उपासकाचारनें दिये हुए इस के लक्ष्मको देखि

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