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(३) छपी हुई प्रतिमें एक पथ * इस प्रकार दिया हुआ हैवृक्षा दाषाग्निनालग्नास्तत्सव्यं कुर्वते घने । आत्मारुढतरोरग्निमागच्छन्तं न चेत्यसौ ॥ ९१ ॥
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इस पचका पूर्वार्ध कुछ मशुद्ध जान पड़ता है और इसी से मराठीमें इस पथका जो यह अर्थ किया गया है कि 'जनमें दावाभिसे प्रसे हुए वृक्ष उस दादाभिसे मित्रता करते हैं, परन्तु जीव स्वयं जिस देहरूपी वृक्षपर चढा हुआ है उसके पास आती हुई अभिको नहीं जानता है' वह ठीक नहीं मालूम होता । आाराकी प्रतियोंमें उक्त पूर्वार्धका शुद्ध रूप 'वृक्षा दावाग्मिला ये तत्संख्या कुरुते चने' इस प्रकार दिया है और इससे अर्थकी संगति भी ठीक बैठ जाती है—यह भाष्ठय निकल आता है कि 'एक मनुष्य धनमें, यहाँ दाषाभि फैली हुई है, पक्षपर चढा हुआ, वन दूसरे पक्षोंकी मिनती कर रहा है जो दावाभिसे प्रस्त होते जाते हैं ( यह कह रहा है कि अमुक वृक्षको आग लगी, वह जला और वह गिरा । ) परन्तु स्वयं जिस वृक्षपर चढा हुआ है उसके पास आती हुई आपको नहीं देखता है। इस अलंकृत आशयका स्पष्टीकरण भी प्रथमें अगले पथ द्वारा किया गया है और इससे दोनों पद्योंका सम्बंध भी ठीक बैठ जाता है।
आराकी इन दोनों प्रतियों में प्रत्यकी श्रोकसंख्या कुल ७५ दी है, यद्यपि, अंत पर्यो पर लो नंबर पड़े हुए हैं उनसे वह ७६ मालूम होती है । परन्तु 'न वेत्तिमद्यपानतः इस एक पद्मपर लेखकोंकी गलतीसे दो नम्बर ८ और १ पर गये है जिससे आागेके संख्यांकों में बराबर एक एक नम्बरकी वृद्धि होती चली गई है। देहलीवाली प्रतिमें भी इस पश्चपर भूलसे दो नम्बर १३ और १४ डाले गये हैं और इसी लिये उसकी श्लोकसंख्या १०० होने पर भी वह १०१ भालुम होती है। छपी हुई प्रतिको छोकसंख्या ९६ है । इस तरह धाराकी प्रतियोंसे छपी हुई प्रतिमें २१ और देहलीवाली प्रतिमें २५ लोक बढे हुए हैं। ये सब चढे हुए कोक 'क्षेपक' है जो मूल अन्यकी मित्र मित्र प्रतियोंमें किसी तरह पर शामिल हो गये हैं और मूल प्रन्यके अगभूत नहीं है। इन श्लोकोंको निकालकर प्रन्थको पढनेसे उसका सिलसिला ठीक बैठ जाता है और वह बहुत कुछ सुनाम्बर, मालूम होने लगता है। एत एसके, इनको यागिक करके पढनेसे उसमें बहुत कुछ बेढंगापन आ जाता है और वह अनेक प्रकारकी गढ़बढी तथा आपत्तियों से पूर्ण जंचने लगता है। इस बातका अनुभव सहवय पाठक स्वर्ग अन्यपरसे कर सकते हैं।
इन सब अनुसंधानक साय अन्यको पढनेसे ऐसा मालूम होता है कि छपी हुई प्रति जिस हस्तलिखित प्रति परसे तप्यार की गई है उसमें तथा देहलीकी प्रतिमें जो
* देहलीको प्रतिमें भी यह पद्म प्रायः इसी प्रकारसे है, सिर्फ इतना भेद है कि उसमें पूर्वार्धको उत्तरा और उत्तरार्धको पूर्वार्ध बनाया गया है।